desiaks
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राजन उसे यूँ हँसते देख बोला-‘इसमें हँसने की क्या बात है? आखिर पूजा तो प्रतिदिन होती है।’
‘पूजा! वह तो मैं रोज करती हूँ, परंतु मेरा देवता तो मंदिरों को छोड़ अपनी भेंट मेरे घर पर स्वयं ग्रहण करने आते हैं। हाँ! कभी भूले से मैं घर पर न होऊँ और वह निराश लौट जाएँ तो मुझे यहाँ तक आना पड़ता है। समझे!’
राजन मौन खड़ा रहा। उसके कहे हुए शब्दों पर विचार कर रहा था। वह उन शब्दों का अर्थ भली प्रकार समझ भी न पाया था कि वह चल दी। राजन उसे रोकते हुए बोला-
‘क्या तुम्हारा नाम पूछ सकता हूँ?’
‘पार्वती।’
‘और मैं राजन।’
इतने में बादल की एक गरज सुनाई दी। पार्वती ने एक बार आकाश की ओर देखा और फिर राजन की ओर देखकर बोली-
‘तो क्या तुम सारी रात इन्हीं सीढ़ियों पर लेटे ही बिता देते हो?’
‘जी।’
‘तुम्हारा कोई घर नहीं है?’
‘नहीं।’
‘तुम्हें जाड़ा नहीं लगता?’ आर्द्रकण्ठ से उसने पूछा।
‘जाड़ा? यह सामने पहाड़ों की चट्टानें देखती हो? यह भी युग-युगों से बाहर खुली हवा में खड़ी प्रकृति का सामना कर रही हैं। मनुष्य तो क्या कभी भगवान को भी इन पर दया नहीं आती।’
‘परंतु आप यह क्यों भूल जाते हैं कि वह शिलाएँ हैं, जो पत्थर की बनी हैं और दूसरी ओर माँस-मज्जा से बना हुआ मनुष्य है।’
‘मैं भी तो शिला से कम नहीं हूँ।’
‘केवल शरीर को ही शिला बना लेने से काम नहीं चलता। हृदय भी शिला के समान होना चाहिए।’
यह कहती-कहती पार्वती चली गई। वह बहुत समय तक बैठा हुआ सोचता रहा, ‘ठीक तो कहती है, यदि हृदय शिला के समान न हो तो शरीर शिला बनाने से क्या लाभ?’
बिजली चमकी। कई बार बादलों की गड़गड़ाहट सुनी। राजन ने देखा चारों ओर काली घटा घिरती आ रही थी। दूर-दूर तक कुछ दिखाई न देता था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। घरों के झरोखों के अंदर जलते हुए दीयों का प्रकाश यह सूचना दे रहा था कि ‘सीतलवादी’ के लोग अभी सोए नहीं।
राजन ने सोचा कि आज की रात कुंदन के घर पर ही बिताई जाए। वायु की गति तीव्र होती जा रही थी। वह शीघ्रता से ‘वादी’ की ओर लपका। बादलों की गूँज पहाड़ियों से टकराकर गूँज उठती थी। नदी का जल वायु के थपेड़ों से उछल-उछलकर खिलवाड़ कर रहा था। राजन ने गाँव की ओर देखा। तूफान के डर से सब झरोखे बंद हो चुके थे।
‘पूजा! वह तो मैं रोज करती हूँ, परंतु मेरा देवता तो मंदिरों को छोड़ अपनी भेंट मेरे घर पर स्वयं ग्रहण करने आते हैं। हाँ! कभी भूले से मैं घर पर न होऊँ और वह निराश लौट जाएँ तो मुझे यहाँ तक आना पड़ता है। समझे!’
राजन मौन खड़ा रहा। उसके कहे हुए शब्दों पर विचार कर रहा था। वह उन शब्दों का अर्थ भली प्रकार समझ भी न पाया था कि वह चल दी। राजन उसे रोकते हुए बोला-
‘क्या तुम्हारा नाम पूछ सकता हूँ?’
‘पार्वती।’
‘और मैं राजन।’
इतने में बादल की एक गरज सुनाई दी। पार्वती ने एक बार आकाश की ओर देखा और फिर राजन की ओर देखकर बोली-
‘तो क्या तुम सारी रात इन्हीं सीढ़ियों पर लेटे ही बिता देते हो?’
‘जी।’
‘तुम्हारा कोई घर नहीं है?’
‘नहीं।’
‘तुम्हें जाड़ा नहीं लगता?’ आर्द्रकण्ठ से उसने पूछा।
‘जाड़ा? यह सामने पहाड़ों की चट्टानें देखती हो? यह भी युग-युगों से बाहर खुली हवा में खड़ी प्रकृति का सामना कर रही हैं। मनुष्य तो क्या कभी भगवान को भी इन पर दया नहीं आती।’
‘परंतु आप यह क्यों भूल जाते हैं कि वह शिलाएँ हैं, जो पत्थर की बनी हैं और दूसरी ओर माँस-मज्जा से बना हुआ मनुष्य है।’
‘मैं भी तो शिला से कम नहीं हूँ।’
‘केवल शरीर को ही शिला बना लेने से काम नहीं चलता। हृदय भी शिला के समान होना चाहिए।’
यह कहती-कहती पार्वती चली गई। वह बहुत समय तक बैठा हुआ सोचता रहा, ‘ठीक तो कहती है, यदि हृदय शिला के समान न हो तो शरीर शिला बनाने से क्या लाभ?’
बिजली चमकी। कई बार बादलों की गड़गड़ाहट सुनी। राजन ने देखा चारों ओर काली घटा घिरती आ रही थी। दूर-दूर तक कुछ दिखाई न देता था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। घरों के झरोखों के अंदर जलते हुए दीयों का प्रकाश यह सूचना दे रहा था कि ‘सीतलवादी’ के लोग अभी सोए नहीं।
राजन ने सोचा कि आज की रात कुंदन के घर पर ही बिताई जाए। वायु की गति तीव्र होती जा रही थी। वह शीघ्रता से ‘वादी’ की ओर लपका। बादलों की गूँज पहाड़ियों से टकराकर गूँज उठती थी। नदी का जल वायु के थपेड़ों से उछल-उछलकर खिलवाड़ कर रहा था। राजन ने गाँव की ओर देखा। तूफान के डर से सब झरोखे बंद हो चुके थे।