Raj Sharma Stories जलती चट्टान - Page 5 - SexBaba
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Raj Sharma Stories जलती चट्टान

‘अकेले कि कोई साथी भी है?’
‘एक साथी है।’
‘वह कौन?’
‘प्रकृति।’
माधो राजन का उत्तर सुन हँस पड़ा और फिर खाट पर बैठ गया। राजन को उसका बैठना अच्छा न लगा। बनावटी मुस्कराहट लाते हुए बोला-‘क्या दादा चाय पिओगे?’
‘क्यों नहीं, फिर आज के दिन कौन इंतजार करेगा?’
राजन यह सुनते ही बाहर गया और दो कप चाय होटल से लेकर वापस लौटा। दोनों चाय पीने लगे। राजन ने तीन-चार घूँट में ही प्याला पी डाला, परंतु माधो, आनंद ले-लेकर पी रहा था। मन-ही-मन में राजन क्रोध में जल रहा था कि कब यह जाए और वह अपनी पुजारिन के पास पहुँचे। परंतु कि माधो था जाने का नाम ही नहीं ले रहा था और कोई ऐसी बात शुरू कर देता, जो राजन को रोके रखती।
अंत में हारकर राजन ने उससे आज्ञा माँगी-माधो मुस्कुराते हुए खाट से उठा और बोला-
‘ओह! मैं तो भूल ही गया, तुम्हें घूमने जाना है, परंतु इस जाड़े में।’
‘आज जाड़ा और बर्फ ही मेरी साथी हैं।’
जब माधो चला गया तो राजन ने अपना ‘मिंटो वायलन’ उठाया और धीरे-धीरे पग रखता हुआ झट से बाहर हो लिया। चारों ओर किसी को न देख मंदिर की ओर बढ़ा। वह थोड़ी दूर गया होगा कि एक पेड़ के पीछे छुपा माधो बाहर निकला और उसके पीछे हो लिया। मंदिर की सीढ़ियों की थोड़ी दूरी पर अचानक माधो रुक गया। पार्वती सीढ़ियों की ओर जा रही थी। बड़ी उत्सुकता से वह उसे देखने लगा। ऐसी बर्फीली और शीतल साँझ को। सारी ‘सीतलवादी’ में दो मनुष्य हैं, जो अपने नियम को तोड़ नहीं सकते। एक अपनी सैर को तथा दूसरी अपनी पूजा को।
माधो का संदेह एक वास्तविकता में बदल गया, फिर वह संदेह भरी दृष्टि से पार्वती के कदमों को देखने लगा, जो बर्फ से ढकी सीढ़ियों पर चढ़ने से डगमगा रहे थे। अभी वह दो-चार सीढ़ियाँ भी न चढ़ने पाई थी कि किसी साज के बजने का शब्द सुनाई पड़ा। यह वायलन का ही शब्द था। पार्वती वहीं रुक गई और हाथ के फूल उन्हीं सीढ़ियों पर रख उस ओर बढ़ी। इतने में माधो आँख बचा उन सीढ़ियों तक जा पहुँचा और फूल अपने हाथों में उठा नीचे झाँक पार्वती की ओर देखने लगा, जो दूर बर्फीली चादर पर बैठे राजन की ओर चली जा रही थी, राजन एक ढलान पर बैठा वायलन बजा रहा था। जब वह राजन के समीप पहुँच गई तो माधो ने पूजा के फूल उठाए और ‘सीतलवादी’ की ओर लौट गया।
 
पार्वती जब राजन के करीब पहुँची तो अचानक उसके हाथ ‘वायलन’ पर रुक गए और वह उसकी ओर देखने लगा। पार्वती के पास एक लाल गुलाब था। राजन ने ‘मिंटो वायलन’ एक किनारे रख दिया और स्वयं आगे आ पार्वती के हाथों से फूल ले उसके बालों में खोंस दिया। लाल फूल तथा लाल शाल उस बर्फीले स्थान पर एक अनोखी शोभा दे रहे थे। दोनों के गर्म-गर्म श्वासों का धुंआ हवा में उड़ रहा था। फिर उड़ते-उड़ते आपस में मिल गया। दोनों यह देखकर मुस्करा उठे और राजन बोला-
‘पार्वती! सुना है जाड़ों में फल कुम्हला जाते हैं।’
‘हाँ तो।’
‘फिर यह फूल कहाँ से आया?’
‘प्रेम के फूल कभी नहीं कुम्हलाते और फिर यह...।’ पार्वती जोर-जोर से हँसने लगी। राजन उसकी यह हरकत देख अचंभे में पड़ गया। थोड़ी देर बाद उसे यूँ हँसते देख बोला-
‘इसमें हँसी की क्या बात है?’
‘तुम्हारी फूलों की पहचान देख।’ और फिर वह हँसने लगी, राजन कुछ संदेह में पड़ गया। फिर तुरंत ही वह बालों से उतार उसे देखने लगा। वह कपड़ों का बना हुआ था। वास्तविकता और नकल में कोई अंतर नहीं दीख पड़ता था। जब उसने फूल से दृष्टि उठा पार्वती की ओर देखा तो वह प्रसन्नता के मारे फूली नहीं समा रही थी।
राजन ने फूल दोबारा उसके बालों में लगा दिया और आनंद विह्वल हो पार्वती को अपने गले से लगा लिया। पार्वती की दृष्टि जब राजन के वस्त्रों पर पड़ी तो बोल उठी-‘यह क्या?’
‘क्यों क्या है?’
‘इतना जाड़ा और शरीर पर एक ही कुर्ता।’
‘यह भी न हो तो कोई अंतर नहीं पड़ता।’
‘यदि तुम्हें कुछ हो गया तो।’
‘तुम्हारे होते जाड़ा इतना साहस नहीं कर सकता कि मुझे छू भी ले।’
‘तो क्या मैं कम्बल हूँ अथवा कोट, जो मुझे ओढ़ लोगे?’
‘तुम्हें तो देखते ही जाड़ा दूर हो जाता है। यदि ओढ़ लूँ तो शरीर जलने लगे।’
‘तो मैं आग हूँ।’
राजन बर्फीली ढलानों पर बैठ गया और पार्वती का हाथ खींच उसे अपने समीप बिठा लिया। पार्वती शाल संभालते हुए बोली-
‘कैसी होती है यह मिठास?’
राजन ने चुंबन के लिए अपने होंठ बढ़ाए और कहा-‘ऐसी’। परंतु पार्वती ने किनारे से बर्फ उठा उसके मुँह पर रख दी, फिर हँसते-हँसते मुँह फेर लिया। राजन ने उसे जोर से खींचा, परंतु बर्फ की ढलान पर फिसल गया। पार्वती भी लड़खड़ाती हुई उसके साथ नीचे की ओर लुढ़क पड़ी।
 
अब राजन जोरों से हँस रहा था और पार्वती डर के मारे चिल्ला रही थी। जब थोड़ी ही देर में दोनों लुढ़कते हुए बर्फ के ढेर पर गिरे और पार्वती ने देखा तो राजन उस पर झुका मुस्करा रहा था। किसी की आँखों में कोई उलाहना न था। उन आँखों में था स्नेह भरा उल्लास।
राजन बर्फ के ढेर से उठा और पार्वती को भी हाथ पकड़कर उठाया। दोनों उसी ढलान पर फिर से चढ़ने लगे। सूर्य अस्ताचल में जा चुका था, परंतु अभी अंधेरा होने में कुछ देर थी। दोनों बिलकुल चुप थे। बीच-बीच में एक-दूसरे को देख भर लेते थे।
पार्वती ने जब घर के आँगन में पाँव रखा तो बाहर कोई न था। जाड़े के कारण सब किवाड़ बंद थे। पार्वती ने बरामदे में पहुँच कमरे का किवाड़ खोला। बाबा जलती अंगीठी के पास बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। उन्होंने ऐनक नाक से हटाई और बोले-
‘क्यों पार्वती जाड़ा कैसा है?’
‘बहुत है बाबा।’
‘आज तो मंदिर में भीड़ कम होगी।’
‘जी, यह ही कोई दो-चार इने-गिने मनुष्य।’
बाबा कुछ देर में चुप हो गए। पार्वती शाल उतार सामने रखने को बढ़ी और अचानक रुक गई। अंगीठी पर फूल पड़े थे, जो वह पूजा के लिए मंदिर ले गई थी। पार्वती सिर से पाँव तक काँप गई।
‘माधो आया था, शायद उसके हाथ में थे।’ बाबा ने ऐनक डिब्बे में बंद करते हुए कहा और पार्वती को आग के समीप आने का संकेत किया। पार्वती डरते-डरते अंगीठी के करीब आ बैठी और बाबा की ओर आश्चर्यपूर्वक देखने लगी। बाबा फिर कहने लगे-
‘कल मैनेजर हरीश ने बुलाया है।’
‘क्यों?’
‘शाम की चाय पर।’
‘पहले तो कभी।’
‘तुम्हारे पिता के स्थान को संभालने के कारण वह हमारे समीप आने से झिझकता रहा।’
‘क्या कोई खास बात है, तो...।’
‘यूँ ही जरा दो घड़ी मिल बैठने को माधो कहता था और तुम्हें साथ लाने की खास ताकीद की है।’
‘मुझे! न बाबा मेरा वहाँ क्या काम?’
‘काम हो न हो, जाना अवश्य है और फिर आज पहली बार उसने बुलाया है-यदि हम न गए तो वह क्या सोचेंगे।’
‘परंतु साँझ को मंदिर भी तो जाना है।’
‘एक दिन घर के ठाकुरों को ही फूल चढ़ा देना।’
यह कहकर बाबा कुर्सी से उठकर बाहर जाने लगे। पार्वती चुप बैठी जलती आग के शोलों को देख रही थी। आग के अंगारे की तपन से उसका मुख लाल हो रहा था। वह सोच में थी कि बाबा से क्या कहे। उसे कुछ भी तो सूझ नहीं रहा था।
**
 
दूसरी साँझ ठाकुर बाबा पार्वती को साथ लिए ठीक समय पर हरीश के घर पहुँच गए, पार्वती आज भी अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहने थी। हरीश व माधो पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में थे और उन्हें देख अत्यंत प्रसन्न हुए। इनके अतिरिक्त दो व्यक्ति वहाँ और बैठे थे, जो वादी में किसी खोज के बारे में आए थे। उनका विचार था कि इन पहाड़ियों में कहीं-न-कहीं तेल है, परंतु बहुत खोज के बाद उनको कोई चिह्न अभी तक न मिला था। हरीश ने दोनों का परिचय बाबा और पार्वती से कराया। इनमें से एक तो पार्वती के पिता के गहरे मित्र थे। अतः चाय के साथ-साथ बहुत देर तक उनकी ही बातें होती रहीं।
चाय के बाद बाबा उन दो अतिथियों को ले बाहर गैलरी में जा बैठे और दूर से पहाड़ी की चोटी पर जमी बर्फ को देखने लगे। पार्वती कुर्सी छोड़ दूसरे कमरे में चली गई और दीवार पर लगे चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने लगी। सामने मेज़ पर सजे फूलदान को देख वह रुकी व अपने कोमल हाथों से फूलों को छूने लगी। ज्यों ही उसने उसमें लगे लाल गुलाब को छुआ तो उसके कानों में किसी का स्वर सुनाई पड़ा।
‘शायद तुम्हें फूलों से बहुत प्रेम है?’ पार्वती चौंक उठी। घूमकर देखा तो हरीश खड़ा था। पार्वती ने अपनी साड़ी को सामने से ठीक करते हुए उत्तर दिया-‘जी।’ और अपनी उंगलियाँ फूलों से हटा मेज़ के किनारे रख लीं। हरीश ने लाल फूल फूलदान से तोड़ा और मुस्कराते हुए पार्वती को भेंट किया। पार्वती ने एक बार हरीश को देखा। हरीश ने कांपते हाथों से फूल खींचते हुए कहा, ‘ठहरो मैं स्वयं लगा देता हूँ।’ ज्यों ही उसने फूल पार्वती के बालों में लगाया कि मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। पार्वती काँप उठी। फूल बालों से निकलकर धरती पर आ गिरा। हरीश ने झुककर फूल उठा लिया और बोला-
‘क्यों क्या हुआ?’
‘यूँ ही देवता का स्मरण हो आया।’
‘जी, साँझ की पूजा। मैंने समझा शायद मेरे फूल लगाने...।’
‘नहीं तो!’ और पार्वती ने मुस्कराते हुए हरीश के हाथ से फूल ले लिया और दोनों गैलरी में जा ठहरे। पार्वती के कानों में मंदिर की घंटियों के शब्द गूंज रहे थे और मन में राजन का ध्यान।
अतिथियों को विदा करने के बाद हरीश प्रसन्नतापूर्वक वापस अपने कमरे में जा पहुँचा और सामने रखी कुर्सी पर बैठ मन-ही-मन मुस्कराने लगा। आज वह प्रसन्न था। बार-बार उसके सामने पार्वती की सूरत घूम रही थी। अगर वह जानता कि वे लोग इतने दिलचस्प हैं तो वह इतना समय इनसे दूर क्यों रहता। दिन-रात कंपनी के काम के सिवाय कुछ सूझता ही न था, परंतु आज उसे नीरस जीवन में एक आशा की झलक दीख पड़ी। वह सोच ही रहा था कि उसकी दृष्टि फूल पर पड़ी, जो सामने धरती पर गिर पड़ा था। वही फूल उसने पार्वती के हाथों में दिया था। यह देखते ही वह कुछ निराश-सा हो गया कि यह फूल वह साथ नहीं ले गई। यह प्रश्न रह-रहकर हरीश के मस्तिष्क में चक्कर काटने लगा। दो घड़ी की प्रसन्नता के बाद वह उदास सा हो गया। क्या प्रसन्नता दो घड़ी की ही थी? क्या वह सदा यूँ प्रसन्न नहीं रह सकता? उसे ऐसा अनुभव हुआ, जैसे उसने कुछ पाकर खो दिया हो। उसी समय सामने, दरवाजे से माधो ने प्रवेश किया।
 
‘क्यों सरकार यह खामोशी कैसी?’
‘हूँ, नहीं, अभी सबको नीचे छोड़कर आ रहा हूँ।’
‘क्यों आज का प्रोग्राम कैसा रहा?’
‘बहुत अच्छा।’
‘परंतु फिर आपके मुख पर उदासी क्यों?’
‘उदासी-नहीं तो, बल्कि आज मैं प्रसन्न हूँ-बहुत प्रसन्न।’
‘वह तो आपको होना ही चाहिए। आज की साँझ तो खूब अच्छी बीती होगी।’
‘तुम ठीक कहते हो माधो, परंतु दिन-रात कंपनी के काम में इतना तल्लीन हो गया कि कभी इस ओर ध्यान नहीं गया।’
‘कभी-न-कभी आप लोगों को इनसे मिलना चाहिए। विचार बदलना, मिल-जुल के उठना-बैठना, यह मनोरंजन मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।’ माधो कह रहा था।
‘माधो, मैं भी इस एकाकी जीवन से घबराने लगा हूँ, धन-दौलत, मन सब कुछ है, परंतु फिर भी नीरसता है।’
‘इसका हल केवल एक ही है।’
‘वह क्या?’
‘शादी।’
हरीश जोर-जोर से हँसने लगा। फिर रुककर बोला, ‘वाह माधो! तुमने भी खूब कही, परंतु यह नहीं जानते कि जीवन साथी मेल का न हो तो एक बोझ-सा बन जाता है। ऐसा बोझ जो उठाए नहीं उठता।’
‘तो इसमें सोचने की क्या बात है। अपने मेल का साथी ढूँढ लें।’
‘क्या इस कोयले की खानों में?’
‘जी सरकार इस काली चट्टानों में संसार भर के खजाने छुपे पड़े हैं।’
‘इतने वर्ष जो तुम इन चट्टानों से सिर फोड़ते रहे, कभी कुछ देखा भी।’
‘क्यों नहीं सरकार, वह देखा है जिस पर सारी ‘सीतलवादी’ को नाज है।’
‘कौन?’
‘पार्वती...।’
पार्वती का नाम सुनते ही मानो हरीश पर एक बिजली सी गिर गई। वह फटी-फटी आँखों से माधो को देखने लगा। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे माधो स्वयं नहीं बल्कि उसका अपना दिल बोल उठा हो। माधो कुछ समीप आकर बोला-
‘क्या वह आपकी दुनिया नहीं बदल सकती है?’
‘यह तुमने कैसे जाना?’
‘आपकी यह बेचैनी, उदासी से भरा चेहरा और यह साँझ का समारोह, सब कुछ बता रहा है।’
‘मैं भी तो कुछ सुनूँ।’
‘शायद मेरा अनुमान ठीक न हो-अच्छा आज्ञा।’
‘कहाँ चल दिए?’
‘अपने घर।’
‘हमें यूँ ही अकेला छोड़कर।’
‘कहिए?’
‘क्या वह मान जाएँगे?’ हरीश ने झिझकते हुए पूछा।
‘कौन?’
‘ठाकुर बाबा।’
हरीश के मुख से यह उत्तर सुनकर माधो मुस्कुराया और बोला-
‘क्यों नहीं, उसके भाग्य खुल जाएँगे और फिर माधो चाहे तो क्या नहीं कर सकता।’
‘माधो तुम्हें मैं एक मित्र के नाते यह सब कुछ कह रहा हूँ।’ और हरीश ने लजाते हुए अपना मुँह फेर लिया। माधो मुस्कुराता हुआ बाहर चला गया।
**
 
दूसरी साँझ काम के समाप्त होते ही माधो ठाकुर बाबा के घर पहुँचा। वह बरामदे में बैठ माला के मनके फेर रहे थे। माधो को देखते ही उठ खड़े हुए और उसे कमरे में ले गए। बाहर अभी तक ठंडी हवा चल रही थी। कैसा जाड़ा था उस रोज।
‘कहिए तबियत तो अच्छी है?’ माधो ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
‘जरा सर्दी के कारण खाँसी है।’
और इसी प्रकार कुछ देर तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। ठाकुर बाबा ने पहले साँझ की चाय और दो अतिथियों की बहुत प्रशंसा की। उत्तर में माधो ने दो-चार शब्द हरीश की ओर से बाबा के कानों में डाल दिए।
बाबा ने जब चाय मंगाने को कहा तो वह उठकर बोला-
‘कष्ट न करें, बस आज्ञा...।’
‘ऐसी क्या जल्दी है?’
‘काम से सीधा इसी ओर चला आया था। जाड़ा अधिक हो रहा है। घर पर जलाने के लिए कोयला भी रास्ते से लेना है।’
‘परंतु चाय।’
‘यह तो अपना ही घर है, फिर कभी सही...’ नमस्कार करता हुआ माधो बरामदे से निकल आया। ड्योढ़ी तक छोड़ने के लिए बाबा भी साथ आए। माधो ने एक-दो बार मकान में दृष्टि घुमाई और बोला-
‘पार्वती कहाँ है?’
‘जरा मंदिर तक गई है।’
‘इस जाड़े में...?’
‘साँझ की पूजा के लिए कैसी भी मजबूरी क्यों न हो, वह अपने देवता पर फूल चढ़ाने अवश्य जाती है।’
‘लगन हो तो ऐसी, परंतु ठाकुर बाबा कहीं उसकी ‘लगन’ निश्चित भी है।’
‘पार्वती की लगन!’ बाबा ने आश्चर्यचकित हो पूछा, जैसे माधो ने कोई अनोखा प्रश्न कर दिया हो और फिर बोले-‘माधो यह तुम क्या कह रहे हो? अभी उसकी उम्र ही कितनी है?’
‘वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो जाए, आपकी आँखों में तो बच्ची ही रहेगी। परंतु अब उसके हाथ पीले कर दो, वह सयानी हो चुकी है।’
‘इतनी जल्दी क्या है और फिर उसके लिए अच्छा-सा वर भी तो देखना होगा।’
‘तो अभी से देखना शुरू करिए-तूफान और यौवन का कोई भरोसा नहीं, किसी भी समय सिर से उतर सकता है।’
‘ठाकुर को किसी भी तूफान का भय नहीं।’
‘अनजान मनुष्य को अवसर बीतते पछताना पड़ता है।’
‘आखिर ऐसा तर्क तुम क्यों कर रहे हो?’
‘ठाकुर बाबा, आप यह तो अच्छी प्रकार जानते हैं कि मैं एक सच बोलने वाला मनुष्य हूँ, जो सोचता हूँ मुँह पर कह देता हूँ।’
‘तो अब कहना क्या चाहते हो?’
‘यही कि पार्वती का यूँ अकेले साँझ को मंदिर जाना ठीक नहीं।’
‘इसमें बुरा ही क्या है?’
‘आपको यकीन है कि पार्वती मंदिर में है।’
‘तुम पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो, साफ-साफ कहो न।’
‘आजकल पार्वती के फूल देवता पर नहीं मनुष्य पर भेंट होते हैं।’
‘नामुमकिन-और देखो माधो! मैं पार्वती को तुमसे अधिक समझता हूँ। उसके बारे में अशुभ विचार सोचना भी पाप है, समझे।’ कहते-कहते बाबा आवेश में आ गए। उनकी साँस तेजी से चलने लगी।
‘आप तो यूँ ही बिगड़ गए, बातों में बात बढ़ गई। मुझे क्या लेना इन बातों से। अच्छा नमस्कार।’ और माधो ड्यौढ़ी से बाहर निकल गया।
 
बाबा चुपचाप वहाँ खड़े रहे। माधो उनके दिल में आग सी भड़का कर चला गया था। वह धीरे-धीरे बरामदे में पहुँचे। तख्तपोश पर बैठ सोचने लगे। उनके सामने पार्वती की मुखाकृति और माधो के कहे हुए शब्द गूँज रहे थे। पार्वती देवता को छोड़ मनुष्य के आगे झुक सकती है-उन्हें विश्वास न हो पाता था और फिर ‘सीतलवादी’ में ऐसा हो भी कौन सकता है। उन्होंने अपने मन को काफी समझाने का प्रयत्न किया, परंतु माधो की बात रह-रहकर उन्हें अशांत कर देती थी।
जब अधीर हो उठे तो अपना दुशाला ओढ़ मंदिर की ओर हो लिए। ड्यौढ़ी से निकलकर उन्होंने एक बार चारों ओर देखा और फिर आगे बढ़े। सारी ‘सीतलवादी’ आज नदी के तूफान से गूँज रही थी। पहाड़ी पर बर्फ पिघलने से नदी में जल अधिक था। यह बढ़ता जल शोर-सा कर रहा था, जो साँझ की नीरवता में बढ़ता ही जा रहा था। ठाकुर बाबा के मन में भी कोलाहल-सा मच रहा था। दिल बेचैन-सा हो रहा था। वह शीघ्रता से पग बढ़ाते मंदिर की ओर बढ़े जा रहे थे। उन्हें लग रहा था, जैसे तूफानी नदी उनके अंतस्थल में कहीं दहाड़ उठी हो।
मंदिर पहुँचते ही जब वह सीढ़ियों पर चढ़ने लगे तो पाँव काँप रहे थे। साँझ के अंधेरे की कालिमा भयभीत कर रही थी, मानो किसी अंधेरी गुफा में प्रवेश कर रहे हों। मंदिर की आरती का स्वर सुनाई दे रहा था।
बाबा ने देवता को प्रणाम किया और सबके चेहरों को देखने लगे। सब लोग आँखें मूँदे आरती में मग्न थे। जब उन्होंने देखा कि पार्वती वहाँ नहीं है, तो उनके पाँव के नीचे की मानो धरती निकल गई। उनके मन में माधो के शब्द घर कर गए। वह चुपचाप मंदिर के बाहर नदी की ओर सीढ़ियाँ उतरने लगे, नदी का जल चट्टानों से टकरा-टकराकर छलक रहा था, मानो बाबा को माधो के शब्द याद दिला रहा हो-‘यौवन और तूफान का क्या भरोसा, किसी भी समय सिर से उतर सकते हैं।’
जैसे ही ठाकुर बाबा ने सीढ़ियों से नीचे कदम बढ़ाया कि उनके कानों में किसी के हँसने का स्वर सुनाई पड़ा-निश्चय ही पार्वती का स्वर था। वह शीघ्रता से सीढ़ियों के पीछे छिप गए। उसके साथ राजन था। दोनों को यूँ देखकर बाबा का दिल जल उठा। पार्वती ने राजन को हाथ से ऊपर की ओर खींचा।
‘कहाँ चल दीं?’ राजन ने रुकते हुए पूछा और कहा, ‘देवता के पास फिर कब दर्शन होंगे?’
‘कल साँझ, परंतु तुम कब आओगे?’
‘जब तुम बुलाओगी।’
‘मुझसे मिलने नहीं, बाबा से मिलने।’
‘यूँ तो आज भी चलता, परंतु देर हो चुकी है।’
‘तो फिर कल।’
‘पहले तुम आना-तो फिर देखा जाएगा।’
पार्वती राजन का हाथ छोड़ सीढ़ियाँ चढ़ गई, राजन खड़ा उसे देखता रहा। जब वह दृष्टि से ओझल हो गई तो वह नीचे उतरने लगा। बाबा बहुत क्रोधित थे। उनकी पिंडलियाँ काँप रही थीं। पहले तो उन्होंने सोचा कि राजन को दो-चार वहीं सुना दें, परंतु कुछ सोचकर रुक गए। उसके जाने के बाद वे तुरंत ही घर की ओर चल दिए।
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अंधेरा काफी हो चुका था। बाबा अपने कमरे में चक्कर काट रहे थे। उनका मुख क्रोध से लाल था। उसी समय पार्वती ने कमरे में प्रवेश किया। कमरे में अंधेरा था। उसने बिजली के बटन दबाए। प्रकाश होते ही वह सिर से पाँव तक काँप गई। आज से पहले उसने बाबा को कभी इस दशा में नहीं देखा था। उनकी आँखों में स्नेह के स्थान पर क्रोध था। उन्होंने पार्वती को देखा और मुँह फेरकर अंगीठी के पास जा बैठे।
‘आज यह अंधेरा कैसा है?’ पार्वती काँपते कंठ से बोली।
‘अंधेरा-ओह, परंतु तुम्हारे आने से तो प्रकाश हो ही जाता है।’
‘यदि मैं घर न लौटा तो अंधेरा ही होगा?’
‘इसलिए मेरी आँखों का प्रकाश तो तुम ही हो।’
‘वह तो मैं जानती हूँ, आज से पहले तो कभी आप।’
‘इसलिए कि आज से पहले मैं अनजान था।’
‘किससे?’
‘उस चोर से, जो मेरी आँखों के प्रकाश को मुझसे छीन लेना चाहता है।’
‘यह सब आज क्या कह रहे हैं आप?’
‘ठीक-ठीक कह रहा हूँ पार्वती, जो ज्योति मैंने अपने हाथों जलाई है, क्या तुम चाहती हो कि वह सदा के लिए बुझ जाए?’
‘कभी नहीं, परंतु मैं समझी नहीं बाबा।’
 
‘मुझे केवल इतना ही कहना है कि कल शाम को पूजा घर पर ही होगी।’
और यह कहकर वह दूसरे कमरे में चले गए। पार्वती सोच में वहीं पलंग के किनारे बैठ गई। उसकी आँखें पथरा-सी गईं। वह बाबा से यह भी न पूछ सकी कि क्यों? जैसे वह सब समझ गई हो, परंतु यह सब बाबा कैसे जान पाए। आज साँझ तक तो उनकी बातों से कुछ ऐसा आभास न होता था। उसके मन में भांति-भांति के विचार उत्पन्न हो रहे थे। जब राजन की सूरत उसके सामने आती तो वह घबराने-सी लगती और भय से काँप उठती। न जाने वह कितनी देर भयभीत और शंकित वहीं बैठी रही। कुछ देर में रामू की आवाज ने उसके विचारों का तांता भंग कर दिया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई। बाबा भोजन के लिए उसकी प्रतीक्षा में थे।
दूसरी साँझ पूजा के समय जब मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं तो पार्वती का दिल बैठने लगा। बाबा बाहर बरामदे में बैठे माला जाप कर रहे थे और पार्वती अकेले मंदिर की घंटियों का शब्द सुन रही थी। उसके हाथों में लाल गुलाब का फूल था। रह-रहकर उसे राजन की याद आ रही थी। सोचती थी शायद राजन मंदिर के आसपास उसकी प्रतीक्षा में चक्कर काट रहा होगा।
घंटियों की आवाजें धीरे-धीरे बंद हो गयी। चारों ओर अंधेरा छा गया परंतु पार्वती वहीं लेटी अपने दिल में अपनी उलझनों को सुलझाती रही।
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प्रातःकाल सूरज की पहली किरण बाबा के आँगन में उतरी तो ड्यौढ़ी का दरवाजा खुलते ही सबसे पहले राजन ने अंदर प्रवेश किया। बाबा उसे देखते ही जल उठे। बैठने का संकेत करते हुए बोले-‘कहो आज प्रातःकाल ही।’
‘सोचा कि ठाकुर बाबा के दर्शन कर आऊँ।’
‘समय मिल ही गया। सुना है, आजकल हर साँझ मंदिर में पूजा को जाते हो।’
‘जी शायद पार्वती ने कहा होगा।’
‘कुछ भी समझ लो।’
‘पार्वती तो ठीक है न?’
‘क्यों उसे क्या हुआ?’
‘मेरा मतलब है कि आज उसे मंदिर में नहीं देखा।’
‘हाँ, उसने मंदिर जाना छोड़ दिया है।’
‘वह क्यों?’ राजन ने अचंभे में पूछा।
‘इसलिए कि उन सीढ़ियों पर पार्वती के पग डगमगाने लगे हैं।’
‘तो क्या वह अब मंदिर नहीं जाएगी।’
‘कभी नहीं।’
थोड़ी देर रुककर बाबा बोले-‘राजन तुम ही सोचो, अब वह सयानी हो चुकी है और मेरी सबसे कीमती पूँजी है। उसकी देखभाल करना तो मेरा कर्त्तव्य है।’
‘ठीक है, परंतु आज से पहले तो कभी आपने।’
‘इसलिए कि आज से पहले मंदिर में लुटेरे न थे।’
बाबा का संकेत राजन समझ गया। क्रोध से मन-ही-मन जलने लगा, परंतु अपने को आपे से बाहर न होने दिया। उसका शरीर इस जाड़े में भी पसीने से तर हो गया था। वह मूर्तिवत बैठा रहा। बाबा उसके मुख की आकूति को बदलते देखने लगे।
‘क्यों यह खामोशी कैसी?’ बाबा बोले।
‘खामोशी, नहीं तो’ और कुर्सी छोड़ राजन उठ खड़ा हुआ।
‘पार्वती से नहीं मिलेंगे क्या?’
‘देर हो रही है, फिर कभी आऊँगा।’ इतना कह शीघ्रता से ड्यौढ़ी की ओर बढ़ने लगा। बाबा ने उसे गंभीर दृष्टि से देखा और फिर आँखें मूँदकर माला जपने लगे।
पार्वती, जो दरवाजे में खड़ी दोनों की बातें सुन रही थी, झट से बाबा के पास आकर बोली-
‘बाबा!’
बाबा ने आँखें खोलीं। माला पर चलते हाथ रुक गए। सामने पार्वती खड़ी उनके चेहरे की ओर देख रही थी। नेत्रों से आँसू छलक रहे थे। बाबा का दिल स्नेह से उमड़ आया। वह प्रेमपूर्वक उसे गले लगा लेना चाहते थे-परंतु उन्होंने अपने को रोका और सोच से काम लेना उचित समझा। कहीं प्रेम अपना कर्त्तव्य न भुला दे। पार्वती बोली-‘बाबा यह सब राजन से क्यों कहा आपने। वह मन में क्या सोचेगा?’
‘जो इस समय तुम सोच रही हो। आखिर मेरा भी तुम पर कोई अधिकार है।’
‘बिना आपके मेरा है ही कौन। फिर जो आपको कहना था वह मुझसे कह दिया होता, किसी दूसरे के मन को दुखाने से क्या लाभ?’
‘दूसरे ने तो मेरी इज्जत पर वार करने का प्रयत्न किया है।’
‘नहीं बाबा, वह ऐसा नहीं। किसी ने आपको संदेह में डाला है।’
‘मैं समझता हूँ, मुझे अधिक मेल-जोल पसंद नहीं।’
पार्वती ने आगे कोई बात नहीं की और निराश अपने कमरे में लौट गई। वह समझ न पाई कि आखिर किसने कहा और कहा भी तो क्या कहा?’
दिन भर उसे राजन की याद सताती रही। वह मन में क्या सोचता होगा। वह किसी आशा से सुबह ही घर में आया था और चला भी चुपचाप गया। क्यों न मिल सकी वह उसे, परंतु कोई उपाय भी तो न सूझता था। साँझ होते ही उसने बाबा से मंदिर जाने को पूछा, परंतु वह न माने और प्यार से समझाने लगे। पार्वती ने बाबा की सब बातें सुनी, पर ज्यों ही उसे राजन का ध्यान आता उसका ध्यान विचलित होने लगता।
दो दिन बीत गए, परंतु पार्वती न सो सकी और न ही भर पेट भोजन कर पाई। इस बीच में न ही राजन आया और न ही कोई समाचार मिला।
 
तीन दिन बाद उसकी आँखें झपक गईं। उसने स्वप्न में राजन को रोते-कराहते देखा। भय से वह उठ खड़ी हुई। उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसे ऐसे सुनाई पड़ा-जैसे कोई पुकार रहा हो। वह और भी घबराई, भयभीत-सी अंधेरे की ओर इधर-उधर देखने लगी। बाहर की खिड़की खुली थी। उसे लगा, मानो लोहे की सलाखों से कोई इधर-उधर झाँक रहा है। वही पुकार सुनाई दी। आवाज कुछ पहचानी हुई मालूम हुई। पार्वती ने ध्यान से देखा, अरे यह तो राजन है। पार्वती को कुछ धीरज हुआ। वह बिस्तर से उठ दबे पाँव खिड़की की ओर बढ़ी। डर के मारे उसकी साँस अब तक फूल रही था।
‘राजन! तुम इतनी रात गए?’ पार्वती ने धीमे स्वर में पूछा।
‘क्या करूँ मन को बहुत समझाया...’
‘यदि किसी ने देख लिया तो...।’
‘धीरज से काम लो और ड्यौढ़ी तक आ जाओ।’
‘ड्यौढ़ी तक!’ पार्वती ने घबराते हुए कहा।
‘हाँ, मैं भी तो इस अंधेरे में...’
‘परंतु बाबा साथ वाले कमरे में सो रहे हैं, यदि जाग गए तो?’
‘घबराओ नहीं जल्दी करो।’ राजन का स्वर काँप रहा था। राजन फिर बोला-‘समय नष्ट न करो-साहस से काम लो।’
‘अच्छा तुम चलो, मैं आई।’
राजन नीचे उतर गया। पार्वती चुपके से दरवाजे के पास गई, जो बाबा के कमरे में खुलता था, फिर अंदर झाँकी। बाबा सो रहे थे, पार्वती ने अपनी शाल कंधे पर डाली और कमरे से बाहर हो गई।
जब उसने ड्यौढ़ी का दरवाजा खोला तो राजन लपक कर भीतर आ गया और दरवाजे को दोबारा बंद कर दिया। दोनों एक-दूसरे के अत्यंत समीप थे। उसी समय पार्वती की कोमल बांहें उठीं और राजन के गले में जा पड़ीं। दोनों के साँस तेजी से चल रहे थे और अंधेरी ड्यौढ़ी में दोनों के दिल की धड़कन एक गति से चलती हुई एक-दूसरे में समाती रही। बाहर हवा की साँय-साँय तथा भौंकते कुत्तों का शब्द आ-आकर ड्यौढ़ी के बड़े दरवाजे से टकरा रहा था।
‘इतनी सर्दी में केवल एक कुर्ता!’ पार्वती उससे अलग होते हुए धीमे स्वर में बोली।
‘तुम्हारे शरीर की गर्मी महसूस करने के लिए। क्या बाबा ने मेरे बारे में तुमसे कुछ कहा है?’
‘नहीं तो।’
‘तुम मुझसे छिपा रही हो। क्या वह यह सब जान गए?’
‘हाँ राजन, जरा धीरज से काम लेना होगा।’
‘जानती हो, इतनी रात गए मैं यहाँ क्यों आया हूँ?’
‘क्यों?’ पार्वती के स्वर में आश्चर्य था।
‘तुम्हारी आज्ञा लेने।’
‘कैसी आज्ञा?’
‘मैं साफ-साफ बाबा से कह देना चाहता हूँ कि हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।’
‘नहीं राजन, अभी तुम्हें चुप रहना होगा।’
‘तो क्या?’
‘दो-चार दिन बीतने पर मैं स्वयं बाबा से कह दूँगी।’
‘यदि वह न मानें तो?’
‘तो।’ पार्वती के मुँह से निकला ही था कि आँगन में किसी की आहट सुनाई पड़ी। किवाड़ खोल राजन तुरंत वापस चला गया। पार्वती काँपते हाथों से कुण्डा बंद कर रही थी कि दियासलाई के प्रकाश के साथ ही किसी की गरज सुनाई दी। पार्वती के हाथ से कुण्डा छूट गया। हाथ में दियासलाई लिए बाबा खड़े थे। उनके क्रोधित नेत्रों से मानो अंगारे बरस रहे थे। वह पार्वती की ओर बढ़े। पार्वती आगे से हट गई। हवा की तेजी से ड्यौढ़ी के किवाड़ खुल गए। बाबा ने बाहर झाँक कर देखा, दूर कोई शीघ्रता से जा रहा था और भौंकते कुत्ते उसका पीछा कर रहे थे।
बाबा ने किवाड़ बंद कर दिए और पलटकर पूछा-
‘कौन था?’
पार्वती ने कोई उत्तर न दिया और सिर नीचा किए चुपचाप खड़ी रही। बाबा कदम बढ़ाते कमरे में लौटने लगे, पार्वती भी सिर नीचा किए धीरे-धीरे पग बढ़ाते उनके पीछे हो ली।
जब दोनों कमरे में पहुँचे तो बाबा ने पूछा-
‘कौन था वह?’
‘राजन!’ पार्वती ने कांपते स्वर में उत्तर दिया।
‘वह तो मैं जानता हूँ, परंतु इतनी रात गए यहाँ क्या लेने आया था?’
‘मुझसे मिलने।’
बाबा ने मुँह बनाते हुए कहा और फिर क्रोध में बोले-‘क्या यह भले आदमियों का काम है।’
‘बाबा वह विवश था।’
‘पार्वती!’ बाबा जोर से गरजे और पास पड़ी कुर्सी का सहारा लेने को हाथ बढ़ाया, परंतु लड़खड़ाकर धरती पर गिर गए। पार्वती तुरंत सहारा देने बढ़ी, पर बाबा ने झटका दे दिया और दीवार का सहारा ले उठने लगे। वह अब तक क्रोध के मारे काँप रहे थे। उनसे धरती पर कदम नहीं रखा जा रहा था। कठिनाई से वह अपने बिस्तर पर पहुँचे और धड़ाम से उस पर गिर पड़े। पार्वती उनके बिस्तर के समीप जाने से घबरा रही थी। धीरे-धीरे कमरे के दरवाजे तक गई और धीरे से बाबा को पुकारा-उन्होंने कोई उत्तर न दिया। वह चुपचाप आँखें फाड़े छत की ओर टकटकी बाँधे देख रहे थे। पार्वती वहीं दहलीज पर बैठ गई। उसकी आँखों से आँसू बह-बहकर आँचल भिगो रहे थे।
 
‘पार्वती!’ बाबा जोर से गरजे और पास पड़ी कुर्सी का सहारा लेने को हाथ बढ़ाया, परंतु लड़खड़ाकर धरती पर गिर गए। पार्वती तुरंत सहारा देने बढ़ी, पर बाबा ने झटका दे दिया और दीवार का सहारा ले उठने लगे। वह अब तक क्रोध के मारे काँप रहे थे। उनसे धरती पर कदम नहीं रखा जा रहा था। कठिनाई से वह अपने बिस्तर पर पहुँचे और धड़ाम से उस पर गिर पड़े। पार्वती उनके बिस्तर के समीप जाने से घबरा रही थी। धीरे-धीरे कमरे के दरवाजे तक गई और धीरे से बाबा को पुकारा-उन्होंने कोई उत्तर न दिया। वह चुपचाप आँखें फाड़े छत की ओर टकटकी बाँधे देख रहे थे। पार्वती वहीं दहलीज पर बैठ गई। उसकी आँखों से आँसू बह-बहकर आँचल भिगो रहे थे।

न जाने कितनी देर तक वह बैठी आँसू बहाती रही, जब बाबा की आँख लग गयीं तो वह उठी और विक्षिप्त-सी अपनी खाट की ओर बढ़ी। फिर खिड़की के निकट खड़ी होकर सलाखों से बाहर देखा-चारों ओर अंधेरा छा रहा था। सोचने लगी-कितना साम्य है मेरे अंदर और बाहर फैले इस अंधकार में।

कभी उसे लगता था कि जैसे सब कुछ घूम रहा है, धरती, दीवार और आकाश में छिटके तारे सब कुछ काँप रहा है, सब कुछ उजड़ जाना चाहता है।

न जाने क्यों एक प्रकार की आशंका से उसका रोम-रोम काँप उठा था। वह समझ नहीं पाई थी कि वह क्या करे। एक ओर उसके बाबा का वात्सल्य उसे पुकार रहा था और दूसरी ओर था राजन के प्रणय का हाहाकार!

न जाने कितनी देर तक वहीं खिड़की के पास खड़ी आकाश में बिखरे उन तारों को देखती रही। उसे लगा जैसे तारे, तारे न होकर आँसुओं की तरल बूँदें हैं, जिन्हें वह अकेले गत तीन दिन से कमरे में चुपचाप बहाती रही।

उसे लगा जैसे उसका सारा शरीर ढीला पड़ता जा रहा है और अब एक पल भी वहाँ खड़ी न रह सकेगी। उसकी साँस जोर-जोर से चलने लगी। वह हाँफती-सी चारपाई पर आ पड़ी।
 
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