desiaks
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पूरे कार्यक्रम के बाद हम मेन हाल में आये जहाँ पहले मुझे उन्होंने थोड़ा दूध पिलाया और करीब आधे घंटे के आराम के बाद हमने खाना खाया और अब ताक़त तो बची नहीं थी तो सो ही गये।
सुबह उठ कर एक विदाई वाली चुदाई की और फिर वापसी की राह पकड़ी।
चूँकि अब नौकर नौकरानी आने वाले थे सो वहाँ रुका जा नहीं सकता था इसलिए सुबह सवेरे ही निकल लेना ठीक था।
जाने से पहले मैडम जी ने मुझे हज़ार के दस नोट थमा दिये।
मैंने ऐतराज़ किया तो उन्होंने फिर वही डायलॉग मारा कि वे राजा लोग हैं, मुफ्त की सेवायें नहीं लेते।
ज्यादा विरोध करना मुझे भी उचित ना लगा, आखिर लक्ष्मी किसे बुरी लगती है, कहीं से भी आये।
बहरहाल कहानी यहीं खत्म हुई।
वो सात दिन कैसे बीते
मैंने बताया था कि निदा का घर छोड़ने के बाद मैंने कपूरथला में ठिकाना बना लिया था, लेकिन वहाँ भी ज्यादा नहीं टिक सका और इसके बाद मैं निशात गंज में एक भली फैमिली के यहाँ रहने लगा था।
इस बीच कुछ समस्याओं के चलते मैंने मोबाइल कंपनी की नौकरी भी छोड़ दी थी और कुछ दिन बेरोज़गारी के गुजरने के बाद एक प्राइवेट ब्रॉडबैंड कंपनी में नौकरी कर ली थी।
मुंबई, दिल्ली में ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अब लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि छोड़ने का मन ही नहीं होता था। भले मेरा परिवार भोपाल में रहता हो लेकिन एक खाला कानपुर में रहती थी जो डेढ़ दो घंटों की दूरी पर था, तो कभी कभी मूड फ्रेश करने वहाँ चला जाता था।
घर बस एक बार गया था और वो भी बस दो दिन के लिए।
लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि अब कहीं और रुकने का मन भी नहीं होता था।
कई दोस्त और जानने वाले हो गए थे और नौकरी भी ऐसी थी कि घूमने फिरने को भी खूब मिलता था और साथ ही आँखें सेंकने के ढेरों मौके भी सुलभ होते थे।
कभी चौक नक्खास की पर्दानशीं, कभी अलीगंज विकास नगर की बंगलो ब्यूटीज़, कभी अमीनाबाद की फुलझड़ियाँ तो कभी गोमती नगर की आधुनिकाएँ।
इस बीच मेरी दिलचस्पी का केंद्र दो लड़कियाँ रही थीं… एक तो जहाँ मैं रहता था वही सामने एक प्रॉपर्टी डीलिंग का ऑफिस था, वही बाहरी काउंटर पर बैठती थी।
मुझे नाम नहीं पता लगा, उम्र तीस की तो ज़रूर रही होगी, रंगत गेहुंआ थी, कद दरमियाना, सीना अड़तीस होगा तो कमर भी चौंतीस से कम न रही होगी, नितम्ब भी चालीस तक होंगे… नैन नक्श साधारण।
उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो एक्स्ट्रा आर्डिनरी हो, आकर्षण का केंद्र हो- एकदम मेरी तरह।
एक आम सी लड़की, भीड़ में शामिल एक साधारण सा चेहरा और यही चीज़ मुझे उसकी ओर खींचती थी।
मैंने कई बार उसे रीड करने की कोशिश की थी… ऐसा लगता था जैसे मजबूर हो, जैसे ज़बरदस्ती की ज़िंदगी जी रही हो, उसकी आँखों में थोड़ा भी उत्साह नहीं होता था और सिकुड़ी भवें या खिंचे होंठ अक्सर उसकी झुंझलाहट का पता देते थे।
मुझे भी उसने जितनी बार देखा था इसी एक्सप्रेशन से देखा था लेकिन फिर भी मुझे उसमें दिलचस्पी थी।
ऐसे ही एक दूसरी लड़की थी जो मेरे पड़ोस वाले घर में रहती थी। टिपिकल धर्म से बन्धी फैमिली थी… लड़की एक थी और लड़के दो थे, बाकी माँ बाप दादा दादी भी थे।
लड़की में दिलचस्पी का कारण ये था कि मुझे यहाँ रहते छः महीने हो गए थे लेकिन आज तक मुझे उसकी शक्ल नहीं दिखी थी… हमेशा सर से पांव तक जैसे मुंदी ही रहती थी।
अपने तन को ढीले ढाले कपड़ों से छुपाए रहती थी और खुले में निकलती थी तो उसके ऊपर से चादर टाइप कपडा भी लपेट लेती थी, सर पे भी स्कार्फ़ बांधे रहती थी।
घर से बाहर जाती थी तो हाथों को दस्तानों से, पैरों को मोज़ों से और आँखों को गॉगल्स से कवर कर लेती थी। यानि जिस्म का एक हिस्सा भी न दिखे…
पड़ोसी होने के नाते मैंने उसके हाथ पांव देखे थे- एकदम गोरे, झक्क सफ़ेद…
या उसकी आँखें देखीं थीं… हल्की हरी और ऐसी ज़िंदादिल कि उनमें देखो तो वापस कहीं और देखने की तमन्ना ही न बचे।
कई बार मैंने उसकी आँखों में नदीदे बच्चों की तरह झाँका था और मुझे ऐसा लगता था जैसे उसके स्कार्फ़ से ढके होंठ मुस्कराए हों, लेकिन यह मेरा भ्रम भी हो सकता था क्योंकि मैं अपनी लिमिट जानता था।
भले मैंने उसकी शक्ल न देखी हो, उसके शरीर सौष्ठव का अनुमान न लगा पाया होऊं लेकिन उसके हाथ पैरों की बनावट, रंग और चिकनापन ही बताता था कि वो क्या ‘चीज़’ होगी और मैं ठहरा एक साधारण सा बन्दा, जिसमे देखने, निहारने लायक कुछ नहीं।
हालांकि मैं तीन चार बार उसके घर जा चुका था और वो भी उसके भाई के बुलाए… दरअसल उनके यहाँ भी ब्राडबैंड कनेक्शन था, भले उस कंपनी का नहीं था जहाँ मैं काम करता था लेकिन जब कुछ गड़बड़ होती थी तो मैं काम आ सकता था न।
कनेक्शन बॉक्स ऊपर छत पे लगा था और मैं अपनी छत से वहाँ पहुँच सकता था और उधर से गया भी था।
मन में उम्मीद ज़रूर थी कि शायद हाथ पैरों और आँखों से आगे कुछ दिख जाये लेकिन बंदी तो ऐसे किसी मौके पे सामने आई ही नहीं।
यह प्राकृतिक है कि जब आपसे कुछ छिपाया जाता है तो आपमें उसे देखने की प्रबल इच्छा होती है और यही कारण था कि आते जाते कभी भी वो मुझे कहीं दिखी तो मैंने दिलचस्पी दिखाई ज़रूर।
फिर अभी करीब दस दिन पहले मेरे ग्रहों की दशा बदली… शनि का प्रकोप कम हुआ।
उस दिन सुबह किसी काम पे निकलते वक़्त अपने ऑफिस तक पहुँच चुकी, उस साधारण मगर मेरी दिलचस्पी का एक केंद्र, लड़की से मेरा सामना हुआ था।
हमें तो संडे के दिन छुट्टी नसीब हो जाती थी, जो कि उस दिन था लेकिन उसे शायद अपनी ड्यूटी सातों दिन करनी पड़ती थी।
हमेशा की तरह नज़रें मिलीं, उसकी चिड़चिड़ाहट नज़रों से बयाँ हुई और जैसे कुछ झुंझलाने के लिए होंठ खुले…
लेकिन फिर एकदम से चेहरे की भावभंगिमाएँ बदल गईं और खुले हुए होंठ मुस्कराहट की शक्ल में फैल गए।
मुझे लगा मेरे पीछे किसी को देख कर मुस्कराई होगी लेकिन पीछे देखा तो कोई नहीं था और फिर उसकी तरफ देखा तो वो चेहरा घुमा कर अपने ऑफिस में घुसने लगी थी।
मैं उलझन में पड़ा रुखसत हो गया।
बहरहाल, ये मेरे सितारे बदलने की पहली निशानी थी।
फिर उसी रात पड़ोस के लड़के का फोन आया कि उसके यहाँ नेट नहीं चल रहा था, मुझे जांचने के लिये बुला रहा था, कह रहा था कि बहन को कुछ काम है और वो परेशान हो रही है।
उसी से मुझे पता चला कि दोनों भाई वालदैन समेत आज़म गढ़ गाँव गए थे किसी शादी के सिलसिले में और तीन चार दिन बाद आने वाले थे, घर पर बहन दादा दादी के साथ अकेली थी।
सुन कर मेरी बांछें खिल गईं।
उस वक़्त रात के नौ बजे थे।
आज तो मोहतरमा को सामने आना ही पड़ेगा– बूढ़े दादा दादी तो नेट ठीक करवाने में दिलचस्पी दिखाने से रहे।
मैं ख़ुशी ख़ुशी उड़ता सा उसके घर के दरवाज़े पर पहुंचा और घन्टी बजाई।
अपेक्षा के विपरीत दरवाज़ा बड़े मियाँ ने खोला।
मैंने सलाम किया और काम बताया तो उन्होंने वहीं से आवाज़ दी -‘गौसिया!’
तो उसका नाम गौसिया था।
वो एकदम से सामने आ गई… जैसे बेख्याली में रही हो, जैसे उसे उम्मीद न रही हो कि दादा जी किसी के सामने उसे बुला लेंगे और वो बेहिज़ाब सामने आ गई हो।
जैसे मैंने कल्पनाएँ की थी वो उनसे कहीं बढ़कर थी।
अंडाकार चेहरा, ऐसी रंगत जैसे सिंदूर मिला दूध हो, बिना लिपस्टिक सुर्ख हुए जा रहे ऐसे नरम होंठ कि देखते ही मन बेईमान होकर लूटमार पर उतर आये और शराबी आँखें तो क़यामत थी हीं।
आज बिना कवर के सामने आई थी और घरेलू कपड़ों में थी जो फिट थे तो उसके उभरे सीने और नितम्बों के बीच का कर्व भी सामने आ गया।
सब कुछ क़यामत था- देखते ही दिल ने गवाही दी कि उल्लू के पट्ठे, तेरी औकात नहीं कि इसके साथ खड़ा भी हो सके, सिर्फ कल्पनाएँ ही कर!
जबकि वो मुझे सामने पाकर जैसे हड़बड़ा सी गई थी और अपने गले में पड़े बेतरतीब दुपट्टे को ठीक करने लगी थी।
दादा जी कुछ बताते, उससे पहले उसने ही बता दिया कि पता नहीं क्यों नेट नहीं चल रहा और उसी ने भाई को बोला था मुझे बुलाने को।
दादा जी की तसल्ली हो गई तो उन्होंने मुझे उसके हवाले कर दिया।
वो मुझे जानते थे– अक्सर सड़क पे सलाम दुआ हो जाती थी, शायद इसीलिए भरोसा दिखाया, वर्ना ऐसी पोती के साथ किसी को अकेले छोड़ने की जुर्रत न करते।
वो मुझे वहाँ ले आई जहाँ राउटर रखा था। मैंने लाइन चेक की, जो नदारद थी… वस्तुतः मुझे प्रॉब्लम पता थी, शायद मेरी ही पैदा की हुई थी, पर फिर भी मैंने ज़बरदस्ती केबिल वगैरा चेक करने की ज़हमत उठाई।
‘कब से नहीं चल रहा?’
‘शाम से ही!’
‘पानी मिलेगा एक गिलास?’
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं!’
पानी किस कमबख्त को चाहिए था, बस टाइम पास करना था थोड़ा…
वो पानी ले आई तो मैंने पीकर ज़बरदस्ती थैंक्स कहा, वो मुस्कराई।
‘आपका नाम गौसिया है?’
‘हाँ… क्यों?’
‘बस ऐसे ही। पड़ोस में रहता हूँ और आपका नाम भी नहीं जानता।’
‘तो उसकी ज़रूरत क्या है?’
‘कुछ नहीं।’ मैं उसके अंदाज़ पर झेंप सा गया- आप पढ़ती हैं?
‘हाँ, यूनिवर्सिटी से बी एससी कर रही हूँ। सुबह आपके उठने से पहले जाती हूँ और दोपहर में आती हूँ। घर वालों को तो जानते ही हैं। उन्नीस साल की हूँ और कोई बॉयफ्रेंड भी नहीं है, बनाने में दिलचस्पी भी नहीं। शक्ल और फिगर तो आज आपने देख ही ली… कुछ और रह गया हो तो कहिये वो भी बता दूँ?’
मैं बुरी तरह सकपका कर उसे देखने लगा, मुंह से एक बोल न फूटा।
‘आपको क्यों लगा कि मैं आपकी नज़रों को नहीं पढ़ पाऊँगी?’ उसने आँखे तरेरते हुए ऐसे कहा कि मेरा बस पसीना छूटने से रह गया। उफ़ ये लखनऊ की लड़कियाँ– सचमुच बड़ी तेज़ होती हैं।
‘सॉरी!’ मैंने झेंपे हुए अंदाज़ में कहा।
‘किस बात के लिए? इट्स ह्यूमन नेचर… आप यह दिलचस्पी न दिखाते तो मुझे अजीब लगता। एनीवे, नेट चल पाएगा क्या… या मेरे दर्शन पर ही इक्तेफा कर ली?’
‘राउटर में लाइन नहीं है। ऊपर बॉक्स चेक करना पड़ेगा। ‘
‘चलिए!’
वो मुझे छत पे ले आई।
हालाँकि उसने जो तेज़ी दिखाई थी, उससे मैं कुछ नर्वस तो ज़रूर हो गया था, उसे खुद पर हावी होते महसूस कर रहा था।
फिर भी मर्द था, हार मानने में जल्दी क्यों करना, देखा जाएगा- बुरा लगेगा तो आगे से नहीं बुलाएँगे।
‘जिस चीज़ को छुपाया जाता है उसे देखने जानने में ज्यादा ही दिलचस्पी होती है वरना मैं अपनी लिमिट जानता हूँ। लंगूरों के हाथ हूरें तब आती हैं जब वे बड़े बिजिनेसमैन, रसूखदार, या कोई सरकारी नौकरी वाले होते हैं और इत्तेफ़ाक़ से इस बन्दर के साथ कोई सफिक्स नहीं जुड़ा।’
‘आप खुद को लंगूर कह रहे हैं!’ कह कर वो ज़ोर से हंसी।
‘पावर सप्लाई ऑफ है… शायद नीचे ही गड़बड़ है।’ मैंने उसकी हंसी का लुत्फ़ उठाते हुए कहा।
वहाँ जो पावर एक्सटेंशन बॉक्स था, उसमें लगे अडॉप्टर शांत थे, यानि सप्लाई बंद थी और यही मेरा कारनामा था।
नीचे जहाँ से उसे कनेक्ट किया था वहाँ ही गड़बड़ की थी।
प्लग की खूँटी में दोनों तार इतने हल्के बांधता था कि कुछ ही दिन में वो जल जाएँ या निकल जाएँ और इस बहाने वे मुझे फिर बुलाएँ।
‘चलिए!’ उसने ठंडी सांस लेते हुए कहा।
‘बॉयफ्रेंड बनाने में दिलचस्पी क्यों नहीं। यह भी तो ह्यूमन नेचर के दायरे में ही आता है। मैं अपनी बात नहीं कर रहा। यूनिवर्सिटी में तो ढेरों अच्छी शक्ल सूरत वाले शहज़ादे पढ़ते हैं।’
‘मैं अपने नाम के साथ कोई बदनामी नहीं चाहती! मेरा एक भाई भी वहाँ पढ़ता है और इसके सिवा हमारे यहाँ शादी माँ बाप ही करते हैं और वो भी रिश्तेदारी में ही। किसी से रिश्ता बनाने का कोई फायदा नहीं जब उसे आगे न ले जाया जा सके और मेरा नेचर नहीं कि मैं किसी रिश्ते को सिर्फ एन्जॉय तक रखूँ!’
‘पर दोस्त की ज़रूरत तो महसूस होती होगी। इंसान के मन में हज़ारों बातें पैदा होती हैं, कभी ख़ुशी, कभी ग़म, कभी गुस्सा, कभी आक्रोश, और इंसान किसी से सब कह देना चाहता है। मन में रखने से कुढ़न होती है और उसका असर इंसान के पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है।’
यह बात कहते हुए मुझे उस दूसरी लड़की की याद आ गई जिसमे मुझे ऐन यही चीज़ें दिखती थीं।
‘हाँ, होती है और कुछ लड़कियाँ हैं भी पर फिर भी यह महसूस होता है कि मैं उनसे सब कुछ नहीं कह सकती… और किसी लड़के को दोस्त बनाने में डर लगता है क्योंकि मैं उन पे भरोसा नहीं कर पाती। आज हाथ पकड़ाओ तो कल गले पड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। दिन ब दिन उनकी ख्वाहिशें बढ़ने लगती हैं, वे अपनी सीमायें लांघने लगते हैं। दो बार मैं यह नाकाम कोशिश कर चुकी हूँ।’
हम नीचे आ गए जहाँ प्लग लगा था।
सुबह उठ कर एक विदाई वाली चुदाई की और फिर वापसी की राह पकड़ी।
चूँकि अब नौकर नौकरानी आने वाले थे सो वहाँ रुका जा नहीं सकता था इसलिए सुबह सवेरे ही निकल लेना ठीक था।
जाने से पहले मैडम जी ने मुझे हज़ार के दस नोट थमा दिये।
मैंने ऐतराज़ किया तो उन्होंने फिर वही डायलॉग मारा कि वे राजा लोग हैं, मुफ्त की सेवायें नहीं लेते।
ज्यादा विरोध करना मुझे भी उचित ना लगा, आखिर लक्ष्मी किसे बुरी लगती है, कहीं से भी आये।
बहरहाल कहानी यहीं खत्म हुई।
वो सात दिन कैसे बीते
मैंने बताया था कि निदा का घर छोड़ने के बाद मैंने कपूरथला में ठिकाना बना लिया था, लेकिन वहाँ भी ज्यादा नहीं टिक सका और इसके बाद मैं निशात गंज में एक भली फैमिली के यहाँ रहने लगा था।
इस बीच कुछ समस्याओं के चलते मैंने मोबाइल कंपनी की नौकरी भी छोड़ दी थी और कुछ दिन बेरोज़गारी के गुजरने के बाद एक प्राइवेट ब्रॉडबैंड कंपनी में नौकरी कर ली थी।
मुंबई, दिल्ली में ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अब लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि छोड़ने का मन ही नहीं होता था। भले मेरा परिवार भोपाल में रहता हो लेकिन एक खाला कानपुर में रहती थी जो डेढ़ दो घंटों की दूरी पर था, तो कभी कभी मूड फ्रेश करने वहाँ चला जाता था।
घर बस एक बार गया था और वो भी बस दो दिन के लिए।
लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि अब कहीं और रुकने का मन भी नहीं होता था।
कई दोस्त और जानने वाले हो गए थे और नौकरी भी ऐसी थी कि घूमने फिरने को भी खूब मिलता था और साथ ही आँखें सेंकने के ढेरों मौके भी सुलभ होते थे।
कभी चौक नक्खास की पर्दानशीं, कभी अलीगंज विकास नगर की बंगलो ब्यूटीज़, कभी अमीनाबाद की फुलझड़ियाँ तो कभी गोमती नगर की आधुनिकाएँ।
इस बीच मेरी दिलचस्पी का केंद्र दो लड़कियाँ रही थीं… एक तो जहाँ मैं रहता था वही सामने एक प्रॉपर्टी डीलिंग का ऑफिस था, वही बाहरी काउंटर पर बैठती थी।
मुझे नाम नहीं पता लगा, उम्र तीस की तो ज़रूर रही होगी, रंगत गेहुंआ थी, कद दरमियाना, सीना अड़तीस होगा तो कमर भी चौंतीस से कम न रही होगी, नितम्ब भी चालीस तक होंगे… नैन नक्श साधारण।
उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो एक्स्ट्रा आर्डिनरी हो, आकर्षण का केंद्र हो- एकदम मेरी तरह।
एक आम सी लड़की, भीड़ में शामिल एक साधारण सा चेहरा और यही चीज़ मुझे उसकी ओर खींचती थी।
मैंने कई बार उसे रीड करने की कोशिश की थी… ऐसा लगता था जैसे मजबूर हो, जैसे ज़बरदस्ती की ज़िंदगी जी रही हो, उसकी आँखों में थोड़ा भी उत्साह नहीं होता था और सिकुड़ी भवें या खिंचे होंठ अक्सर उसकी झुंझलाहट का पता देते थे।
मुझे भी उसने जितनी बार देखा था इसी एक्सप्रेशन से देखा था लेकिन फिर भी मुझे उसमें दिलचस्पी थी।
ऐसे ही एक दूसरी लड़की थी जो मेरे पड़ोस वाले घर में रहती थी। टिपिकल धर्म से बन्धी फैमिली थी… लड़की एक थी और लड़के दो थे, बाकी माँ बाप दादा दादी भी थे।
लड़की में दिलचस्पी का कारण ये था कि मुझे यहाँ रहते छः महीने हो गए थे लेकिन आज तक मुझे उसकी शक्ल नहीं दिखी थी… हमेशा सर से पांव तक जैसे मुंदी ही रहती थी।
अपने तन को ढीले ढाले कपड़ों से छुपाए रहती थी और खुले में निकलती थी तो उसके ऊपर से चादर टाइप कपडा भी लपेट लेती थी, सर पे भी स्कार्फ़ बांधे रहती थी।
घर से बाहर जाती थी तो हाथों को दस्तानों से, पैरों को मोज़ों से और आँखों को गॉगल्स से कवर कर लेती थी। यानि जिस्म का एक हिस्सा भी न दिखे…
पड़ोसी होने के नाते मैंने उसके हाथ पांव देखे थे- एकदम गोरे, झक्क सफ़ेद…
या उसकी आँखें देखीं थीं… हल्की हरी और ऐसी ज़िंदादिल कि उनमें देखो तो वापस कहीं और देखने की तमन्ना ही न बचे।
कई बार मैंने उसकी आँखों में नदीदे बच्चों की तरह झाँका था और मुझे ऐसा लगता था जैसे उसके स्कार्फ़ से ढके होंठ मुस्कराए हों, लेकिन यह मेरा भ्रम भी हो सकता था क्योंकि मैं अपनी लिमिट जानता था।
भले मैंने उसकी शक्ल न देखी हो, उसके शरीर सौष्ठव का अनुमान न लगा पाया होऊं लेकिन उसके हाथ पैरों की बनावट, रंग और चिकनापन ही बताता था कि वो क्या ‘चीज़’ होगी और मैं ठहरा एक साधारण सा बन्दा, जिसमे देखने, निहारने लायक कुछ नहीं।
हालांकि मैं तीन चार बार उसके घर जा चुका था और वो भी उसके भाई के बुलाए… दरअसल उनके यहाँ भी ब्राडबैंड कनेक्शन था, भले उस कंपनी का नहीं था जहाँ मैं काम करता था लेकिन जब कुछ गड़बड़ होती थी तो मैं काम आ सकता था न।
कनेक्शन बॉक्स ऊपर छत पे लगा था और मैं अपनी छत से वहाँ पहुँच सकता था और उधर से गया भी था।
मन में उम्मीद ज़रूर थी कि शायद हाथ पैरों और आँखों से आगे कुछ दिख जाये लेकिन बंदी तो ऐसे किसी मौके पे सामने आई ही नहीं।
यह प्राकृतिक है कि जब आपसे कुछ छिपाया जाता है तो आपमें उसे देखने की प्रबल इच्छा होती है और यही कारण था कि आते जाते कभी भी वो मुझे कहीं दिखी तो मैंने दिलचस्पी दिखाई ज़रूर।
फिर अभी करीब दस दिन पहले मेरे ग्रहों की दशा बदली… शनि का प्रकोप कम हुआ।
उस दिन सुबह किसी काम पे निकलते वक़्त अपने ऑफिस तक पहुँच चुकी, उस साधारण मगर मेरी दिलचस्पी का एक केंद्र, लड़की से मेरा सामना हुआ था।
हमें तो संडे के दिन छुट्टी नसीब हो जाती थी, जो कि उस दिन था लेकिन उसे शायद अपनी ड्यूटी सातों दिन करनी पड़ती थी।
हमेशा की तरह नज़रें मिलीं, उसकी चिड़चिड़ाहट नज़रों से बयाँ हुई और जैसे कुछ झुंझलाने के लिए होंठ खुले…
लेकिन फिर एकदम से चेहरे की भावभंगिमाएँ बदल गईं और खुले हुए होंठ मुस्कराहट की शक्ल में फैल गए।
मुझे लगा मेरे पीछे किसी को देख कर मुस्कराई होगी लेकिन पीछे देखा तो कोई नहीं था और फिर उसकी तरफ देखा तो वो चेहरा घुमा कर अपने ऑफिस में घुसने लगी थी।
मैं उलझन में पड़ा रुखसत हो गया।
बहरहाल, ये मेरे सितारे बदलने की पहली निशानी थी।
फिर उसी रात पड़ोस के लड़के का फोन आया कि उसके यहाँ नेट नहीं चल रहा था, मुझे जांचने के लिये बुला रहा था, कह रहा था कि बहन को कुछ काम है और वो परेशान हो रही है।
उसी से मुझे पता चला कि दोनों भाई वालदैन समेत आज़म गढ़ गाँव गए थे किसी शादी के सिलसिले में और तीन चार दिन बाद आने वाले थे, घर पर बहन दादा दादी के साथ अकेली थी।
सुन कर मेरी बांछें खिल गईं।
उस वक़्त रात के नौ बजे थे।
आज तो मोहतरमा को सामने आना ही पड़ेगा– बूढ़े दादा दादी तो नेट ठीक करवाने में दिलचस्पी दिखाने से रहे।
मैं ख़ुशी ख़ुशी उड़ता सा उसके घर के दरवाज़े पर पहुंचा और घन्टी बजाई।
अपेक्षा के विपरीत दरवाज़ा बड़े मियाँ ने खोला।
मैंने सलाम किया और काम बताया तो उन्होंने वहीं से आवाज़ दी -‘गौसिया!’
तो उसका नाम गौसिया था।
वो एकदम से सामने आ गई… जैसे बेख्याली में रही हो, जैसे उसे उम्मीद न रही हो कि दादा जी किसी के सामने उसे बुला लेंगे और वो बेहिज़ाब सामने आ गई हो।
जैसे मैंने कल्पनाएँ की थी वो उनसे कहीं बढ़कर थी।
अंडाकार चेहरा, ऐसी रंगत जैसे सिंदूर मिला दूध हो, बिना लिपस्टिक सुर्ख हुए जा रहे ऐसे नरम होंठ कि देखते ही मन बेईमान होकर लूटमार पर उतर आये और शराबी आँखें तो क़यामत थी हीं।
आज बिना कवर के सामने आई थी और घरेलू कपड़ों में थी जो फिट थे तो उसके उभरे सीने और नितम्बों के बीच का कर्व भी सामने आ गया।
सब कुछ क़यामत था- देखते ही दिल ने गवाही दी कि उल्लू के पट्ठे, तेरी औकात नहीं कि इसके साथ खड़ा भी हो सके, सिर्फ कल्पनाएँ ही कर!
जबकि वो मुझे सामने पाकर जैसे हड़बड़ा सी गई थी और अपने गले में पड़े बेतरतीब दुपट्टे को ठीक करने लगी थी।
दादा जी कुछ बताते, उससे पहले उसने ही बता दिया कि पता नहीं क्यों नेट नहीं चल रहा और उसी ने भाई को बोला था मुझे बुलाने को।
दादा जी की तसल्ली हो गई तो उन्होंने मुझे उसके हवाले कर दिया।
वो मुझे जानते थे– अक्सर सड़क पे सलाम दुआ हो जाती थी, शायद इसीलिए भरोसा दिखाया, वर्ना ऐसी पोती के साथ किसी को अकेले छोड़ने की जुर्रत न करते।
वो मुझे वहाँ ले आई जहाँ राउटर रखा था। मैंने लाइन चेक की, जो नदारद थी… वस्तुतः मुझे प्रॉब्लम पता थी, शायद मेरी ही पैदा की हुई थी, पर फिर भी मैंने ज़बरदस्ती केबिल वगैरा चेक करने की ज़हमत उठाई।
‘कब से नहीं चल रहा?’
‘शाम से ही!’
‘पानी मिलेगा एक गिलास?’
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं!’
पानी किस कमबख्त को चाहिए था, बस टाइम पास करना था थोड़ा…
वो पानी ले आई तो मैंने पीकर ज़बरदस्ती थैंक्स कहा, वो मुस्कराई।
‘आपका नाम गौसिया है?’
‘हाँ… क्यों?’
‘बस ऐसे ही। पड़ोस में रहता हूँ और आपका नाम भी नहीं जानता।’
‘तो उसकी ज़रूरत क्या है?’
‘कुछ नहीं।’ मैं उसके अंदाज़ पर झेंप सा गया- आप पढ़ती हैं?
‘हाँ, यूनिवर्सिटी से बी एससी कर रही हूँ। सुबह आपके उठने से पहले जाती हूँ और दोपहर में आती हूँ। घर वालों को तो जानते ही हैं। उन्नीस साल की हूँ और कोई बॉयफ्रेंड भी नहीं है, बनाने में दिलचस्पी भी नहीं। शक्ल और फिगर तो आज आपने देख ही ली… कुछ और रह गया हो तो कहिये वो भी बता दूँ?’
मैं बुरी तरह सकपका कर उसे देखने लगा, मुंह से एक बोल न फूटा।
‘आपको क्यों लगा कि मैं आपकी नज़रों को नहीं पढ़ पाऊँगी?’ उसने आँखे तरेरते हुए ऐसे कहा कि मेरा बस पसीना छूटने से रह गया। उफ़ ये लखनऊ की लड़कियाँ– सचमुच बड़ी तेज़ होती हैं।
‘सॉरी!’ मैंने झेंपे हुए अंदाज़ में कहा।
‘किस बात के लिए? इट्स ह्यूमन नेचर… आप यह दिलचस्पी न दिखाते तो मुझे अजीब लगता। एनीवे, नेट चल पाएगा क्या… या मेरे दर्शन पर ही इक्तेफा कर ली?’
‘राउटर में लाइन नहीं है। ऊपर बॉक्स चेक करना पड़ेगा। ‘
‘चलिए!’
वो मुझे छत पे ले आई।
हालाँकि उसने जो तेज़ी दिखाई थी, उससे मैं कुछ नर्वस तो ज़रूर हो गया था, उसे खुद पर हावी होते महसूस कर रहा था।
फिर भी मर्द था, हार मानने में जल्दी क्यों करना, देखा जाएगा- बुरा लगेगा तो आगे से नहीं बुलाएँगे।
‘जिस चीज़ को छुपाया जाता है उसे देखने जानने में ज्यादा ही दिलचस्पी होती है वरना मैं अपनी लिमिट जानता हूँ। लंगूरों के हाथ हूरें तब आती हैं जब वे बड़े बिजिनेसमैन, रसूखदार, या कोई सरकारी नौकरी वाले होते हैं और इत्तेफ़ाक़ से इस बन्दर के साथ कोई सफिक्स नहीं जुड़ा।’
‘आप खुद को लंगूर कह रहे हैं!’ कह कर वो ज़ोर से हंसी।
‘पावर सप्लाई ऑफ है… शायद नीचे ही गड़बड़ है।’ मैंने उसकी हंसी का लुत्फ़ उठाते हुए कहा।
वहाँ जो पावर एक्सटेंशन बॉक्स था, उसमें लगे अडॉप्टर शांत थे, यानि सप्लाई बंद थी और यही मेरा कारनामा था।
नीचे जहाँ से उसे कनेक्ट किया था वहाँ ही गड़बड़ की थी।
प्लग की खूँटी में दोनों तार इतने हल्के बांधता था कि कुछ ही दिन में वो जल जाएँ या निकल जाएँ और इस बहाने वे मुझे फिर बुलाएँ।
‘चलिए!’ उसने ठंडी सांस लेते हुए कहा।
‘बॉयफ्रेंड बनाने में दिलचस्पी क्यों नहीं। यह भी तो ह्यूमन नेचर के दायरे में ही आता है। मैं अपनी बात नहीं कर रहा। यूनिवर्सिटी में तो ढेरों अच्छी शक्ल सूरत वाले शहज़ादे पढ़ते हैं।’
‘मैं अपने नाम के साथ कोई बदनामी नहीं चाहती! मेरा एक भाई भी वहाँ पढ़ता है और इसके सिवा हमारे यहाँ शादी माँ बाप ही करते हैं और वो भी रिश्तेदारी में ही। किसी से रिश्ता बनाने का कोई फायदा नहीं जब उसे आगे न ले जाया जा सके और मेरा नेचर नहीं कि मैं किसी रिश्ते को सिर्फ एन्जॉय तक रखूँ!’
‘पर दोस्त की ज़रूरत तो महसूस होती होगी। इंसान के मन में हज़ारों बातें पैदा होती हैं, कभी ख़ुशी, कभी ग़म, कभी गुस्सा, कभी आक्रोश, और इंसान किसी से सब कह देना चाहता है। मन में रखने से कुढ़न होती है और उसका असर इंसान के पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है।’
यह बात कहते हुए मुझे उस दूसरी लड़की की याद आ गई जिसमे मुझे ऐन यही चीज़ें दिखती थीं।
‘हाँ, होती है और कुछ लड़कियाँ हैं भी पर फिर भी यह महसूस होता है कि मैं उनसे सब कुछ नहीं कह सकती… और किसी लड़के को दोस्त बनाने में डर लगता है क्योंकि मैं उन पे भरोसा नहीं कर पाती। आज हाथ पकड़ाओ तो कल गले पड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। दिन ब दिन उनकी ख्वाहिशें बढ़ने लगती हैं, वे अपनी सीमायें लांघने लगते हैं। दो बार मैं यह नाकाम कोशिश कर चुकी हूँ।’
हम नीचे आ गए जहाँ प्लग लगा था।