SexBaba Kahani लाल हवेली - Page 2 - SexBaba
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SexBaba Kahani लाल हवेली

जग्गू जगलर को छोड़ दे सतीश मेहरा..और सुन! उसे हाथ मत लगा देना। वो मेरा आदमी है। अगर उसे हल्की -सी खरोंच भी आ गई तो...!"

"जग्गू को छोड़ा नहीं जा कसता।" सतीश विद्रोही स्वर में गुर्राकर बोला।

"मेरे किसी काम के लिए ये तेरा दूसरा इंकार है...इंस्पेक्टर। लगता है तुझे अपनी नौकरी प्यारी नहीं।"

"कानून की मुहाफिज पुलिस का पहला फर्ज है कानून की रक्षा करना। अगर माशरे का पुलिस के ऊपर से एतबार उठ गया तो फिर खूनी क्रान्ति यकीनी है। इसलिए जब तक अपनी कुर्सी पर कायम और दायम हूं तब तक किसी भी किस्म की धमकी से डरे बिना मैं कानून के हित में काम करता रहूंगा...इसके लिए नौकरी तो क्या अगर जान भी चली जाए तो उससे भी पीछे नहीं हटूंगा।"
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"बहुत जोश है तुझमें...हूं न...बहुत जोश है.. और जोश इसलिए है क्योंकि मामला तेरी बहन का है। अपनी बहन की खातिर तू यकीनन अपनी जिन्दगी को दांव पर लगा सकता है। और शायद तुझे अपनी जिन्दगी दांव पर लगानी ही पड़ जाए। सबरकर सतीश मेहरा...मैं आ रहा हूं...मैं आ रहा हूं वह।"

इंस्पेक्टर सतीश मेहरा के चेहरे का चेहरे का रंग बदल गया। दहशत की काली परछाई उसकी आंखेंमें साफ उतरी नजर आ रही थी।

राज उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव देख रहा था। बहुत धीरे-से उसने रिसीवर क्रैडिल पर रखा फिर वह जग्गू जगलर की ओर मुड़ता हुआ ऊंचे स्वर में बोला-"सखाराम...इसे हवालात में डाल दो।"

तुरन्त दो सिपाही आगे आए। उन्होंने जग्गू जगलर को हवालात में डालकर ताला डाल दिया।

सतीश किसी गहरे सोच में डूबा हुआ था।

राज ने आगे बढ़कर उसके करीब पहुंचते हुए पूछा-"कोई परेशानी हो तो मुझे बता सकते हो...निस्संकोच।"

तब सतीश मेहरा ने पहली बार उसकी ओर गौर से देखा।
"तुम कौन हो?"

"भैया...इन्होंने ही मुझे लाल बत्ती वाले मोड़ पर उस शैतान से बचाया था।" डॉली बीच में दखल देती हुई बोली

"ओह...आई सी। मैंने आपकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। सॉरी क्षमा चाहता हूं। आपने मेरी बहन को बचाया इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। बदले में मैं आपकी कोई मदद कर सकू तो अपने आपको धन्य समझंगा।"

"नहीं-नहीं, बदले जैसी कोई बात नहीं है। किसी लड़की को मुश्किल से बचाना तो मेरा फर्ज बनता है। डॉली की मदद करने वाला उस घड़ी कोई नहीं था और मुझे मदद करनी थी इसलिए मेरा बीच में आना जरूरी हो गया था, लेकिन अभी मुझे कुछ ऐसी स्थिति बनती नजर आ रही है कि तुम इस जग्गूजगलर के आ जाने से किसी भारी उलझन में पड़गए हो।"

सतीश मेहरा ने इस बार उसे कुछ अधिक ही गौर से देखा। राज उसकी समझ से परे की चीज बनता जा रहा था...एक पहेली की तरह। उसे लगा कि वह अजनबी उसकी परेशानी को उसके चेहरे से पढ़ चुका था।

"हिचकिचाने की जरूरत नहीं है। तुम मुझे अपने सगेवाला मान सकते हो। मैं किसी भी प्रकार की मदद करने में सक्षम हूं। मुझ पर किसी भी प्रकार से भरोसा कर सकते हो।"

"इतनी मदद की-उसका बहुत-बहुत शुक्रिया। फिलहाल मुझे किसी प्रकार की मदद नहीं चाहिए।"

"तो फिर ठीक है...मै चलता हूं।"

सतीश ने गर्मजोशी के साथ उससे हाथ मिलाया। फिर राज वहां से बाहर निकल गया।

सतीश ने डॉली की चोटों की ओर ध्यान देते हुए एक सिपाही को डॉली के साथ निकट के क्लीनिक में भेज दिया। डॉली उस समय वहां से जाना नहीं चाहती थी किन्तु अन्तत: उसे जाना ही पड़ा।

सतीश की मन स्थिति ठीक नहीं थी। अंदर ही अंदर वह विचलित था। जैसे-जैसे वक्त गुजरता जा रहा था। वैसे-वैसे उसके अंदर की घबराहट बढ़ती जा रही थी।"

"इंस्पेक्टट...।" हवालात के अंदर से जग्गू जगलर कर्कश स्वर में गुर्राकर बोला-"अपुन से पंगा लेकर तूने अच्छा नेई किया। तेरे कू भुगतना पड़ेगा। अबी तू जग्गू जगलर को जानताइच नेई...क्या। अपुन भोत डेंजर अरदमी है...भोत डेंजर
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इंस्पेक्टर सतीश ने कहर भरी नजरों से उसे घूरा। बोला कुछ नहीं।

"देखता क्या है...अपुन तेरे कू छोड़ेगा नेई...कतई नेई छोड़ेगा।।"

अभी सतीश उससे कुछ कहना ही चाहता था कि अचानक ही कारों के इंजनों के शोर से पुलिस स्टेशन गूंजउठा। धड़धड़ाते हुए कितने ही बंदूकधारी नेता अंदर दाखिल होते चले गए। और...।
 
इससे पहले कि सतीश कुछ संभल पाता...कुछ कर पाता कितने ही आदमी उसके ऊपर टूट पड़े। बिना किसी पूछताछ के एक ईमानदार पुलिस ऑफीसर अपने ही पुलिस स्टेशन के अंदर पिट रहा था।

वहां मौजूद सिपाहियों को भी बुरी तरह मारा जा रहा था।

किसी ने हवालात की चाबी हासिल करके जग्गू जगलर को आजाद कर दिया।

उनका बॉस लम्बे-चौड़े जिस्म का मालिक, तीस के पेटे में पहुंचा हुआ व्यक्ति था। उसने सफेद कुर्ते के नीचे जींस पहन रखी थी।

___ "तूने मेरी बात नहीं मानी इंस्पेक्टर...।" जींस वाला लम्बाआदमी सतीश के सिर के बालों को क्रूरतापूर्वक अपने दाएं हाथ के पंजे में जकड़ता हुआ बोला-"मेरे आदमी को छूने की गलती की...देख क्या हश्र हुआ तेरा...देख-देख...तेरे ही पुलिस स्टेशन के अंदर तेरी कैसी दुर्गत हुई है...और अभी इससे भी अधिक दुर्गत होनी शेष है। जग्गू जगलर....इधर आ। इधर आ कुत्ते ले बदला अपने अपमान का। आ!"
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जग्गू जगलर तेजी से आगे आया।
उसने सतीश को लात-घूसों से मारना आरंभ कर दिया।

"कुत्ते...जूते का प्रयोग कर इज्जत उतारने की खातिर जूता चलाया जाता है। इसका वो हाल करके छोड़ ताकि फिर कभी कोई पुलिसिया हमारा विरोध करने का दुस्साहस न संजो सके।"

पुलिस स्टेशन के अंदर जन प्रतिनिधि द्वारा अनाचार पूर्ण अत्याचार आरंभ हो गया।
सतीश को हर तरह से पीटा जा रहा था।

पिटते-पिटते वह लहूलुहान हो गया। बहुत बुरी हालत हो गई उसकी।

"सुन...।"

जींस वाले व्यक्ति ने भद्दी-सी गाली देते हुए विषाक्त स्वर में कहा
__ "मुझे कहते हैं रंजीत सावंत...मंत्री जी का भाई होता हूं...क्या होता हूं..भाई! समझा। और देख...इधर...।" उसने जग्गू की ओर संकेत किया "ये होता है जग्गू जगलर...जिसने अभी-अभी जूते से पीटकर तेरी भद्रा उतारी है। हम दोनों मिलकर तेरी बहन को उठा भी लेंगे और पूरा काम भी डालेंगे... तू कुछ नहीं कर सकेगा। बाकी रही तेरी नौकरी...तो नौकरी करना तो तू अपने आप ही भूल जाएगा।"

सतीश के गले में खून भरने लगा था इसलिए उसने उसे थूक दिया। बुरी हालत हो रही थी उसक।

"और आखिरी वार्निंग भी सुन ले। अगर ज्यादा हाथ पांव चलाने की कोशिश की तो कसम जग्गू जगलर की तू जान से जाएगा। जान से जाएगा तू...समझा!"

इंस्पेक्टर सतीश उस घड़ी सुनने की ही स्थिति में था। कुछ कहने की स्थिति उसकी थी ही नहीं।

वह तो मन ही मन डॉली के लिए चिन्तित था कि कहीं उस समय डॉली वापस न लौट आए। क्योंकि डॉली की वापसी होने पर वह डॉली को किसी भी कीमत पर उन जालिमों के हाथों छुड़ा नहीं सकता था। अन्याय का तूफान आकर गुजर गया।

डॉली के मामले में किस्मत ने उसका साथ दिया। सिपाही डॉली को नर्सिंग होम से उसके घर तक छोड़ने चला गया था। वह उसे पुलिस स्टेशन में वापस लेकर नहीं लौटा। जब वह लौटा तो पुलिस स्टेशन का हाल देखकर उसे विश्वास नहीं हुआ।

इंस्पेक्टर सतीश की हालत बहुत खराब थी। उसके मुंह से खून बराबर निकल रहा था। वह उस सिपाही के साथ तुरन्त ही बाहर चल पड़ा। अभी वह कुछ ही दूर गया था कि रास्ते में उसे राज मिल गया।

"अरे...ये तुम्हें क्या हुआ इंस्पेक्टर...?" राज जल्दी से सहारा देता हुआ बोला।

"पहले मुझे अस्पताल ले चलो फिर सब बता दूंगा।"

वो ढेर सारी गाड़ियां क्या पुलिस स्टेशन ही गई थीं?" उसने शंकितस्वर में पूछा।

"हां।"

"ओह...तभी मुझे शक हो रहा था।"

"शैतान से पाला पड़ा है...आह।"

"और तुम्हारी बहन...डॉली?"

"फिलहाल सुरक्षित है।"

"घबराओ नहीं इंस्पेक्टर...सब ठीक हो जाएगा।" कहते हुए राज ने सिपाही के साथ मिलकर सतीश को सहारा दिया और फिर वहां से सीधा अस्पताल पहुंचा। उसकी वर्दी का लिहाज करते हुए उसे तुरन्त ही एडमिट कर लिया गया।
 
प्राथमिक चिकित्सा के बाद डाक्टर उसे आराम करने के लिए कहकर चला गया।

राज उसके साथ ही था।

हालांकि उसे भय था कि पुलिस इंस्पेक्टर उसे पहचान सकता था। खासकर दिल्ली और मुम्बई पुलिस के लिए वह यानि राज शर्मा उर्फ लायन मोस्ट वांटेड था।

ये फ्लैश के खिलाड़ी की तरह ब्लफ चाल थी कि बेझिझक पुलिस के सामने था। यूं फोटो और हकीकत में फर्क होता है। पुलिस के पास उसकी जोफोटोथी वो भी कुछ आड़ी-तिरछी थी, इस बात को भी वह जानता था।

कोई आकर फोटो सामने रखे और इशारा भी करे कि यही लायन है तब ही उसकी शिनाख्त हो सकती थी।

जो भी था वह रिस्क उठा रहा था। उसके सिद्धान्त में ये सम्मिलित था कि वह जुल्म के खिलाफ कभी खामोश न रहे। हमेशा जालिम का विरोध करे और मजलूम की मदद करे।

। हालांकि पुलिस से उसकी पुरानी दुश्मनी थी किन्तु यहां पुलिस अधिकारी दुश्मनी योग्य नहीं था बल्कि उसे स्वयं मदद की जरूरत थी। न जाने क्यों उसने मन ही मन सतीश मेहरा की मदद करने का निश्चय कर लिया था। वह उसे सीधा आदमी लगा था

__ "अब कैसा महसूस हो रहा है।" राज ने उससे पूछा।

___ "पहले से ठीक हूं...।" सतीश कमजोर से स्वर में बोला।

"यहां से चलना चाहोगे?"

"अभी सिर्फ फोन करना चाहता हूं।"

"किसे...?"

"अपने ए. सी. पी. को।"

"चलो।"

राज उसे सहारा देकर ले चला। अस्पताल के रिसेप्शन काउंटर पर फोन पर मौजूद था।

इंस्पेक्टरसतीश मेहरा नम्बर ने डायल किए। थोड़ी देर बाद सम्पर्क स्थापित हुआ।

ए. सी. पी. से वार्ता आरंभ होते ही सतीश ने पूरी रिपोर्ट बयान कर दी।

"कह चुके...?" उसकी पूरी बात सुन लेने के बाद ए. सी. पी. ने दूसरी ओर से कठोर स्वर में कहा-"अब मेरी बात सुनो...तुम्हारे खिलाफ अनुशासनहीनता की कार्यवाही अमल में लायी जा रही है। तुम पर चार्ज ये है कि तुमने मंत्री महोदय के खिलाफ बदसलूकी का परिचय दिया है। उनसे बद्तमीजी की है। इस कारण तुम्हारे खिलाफ विभागीय कार्यवाही की जा रही है। तुम्हारी रिपोर्ट आई. जी. तक पहुंच चुकी है।".

"ये आप क्या कह रहे है...मैंने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि मंत्री महोदय तो पुलिस स्टेशन में आए तक नहीं मेरा उनसे आमना-सामना तक नहीं हुआ।" सतीश गिड़गिड़ाकर बोला।

राज को दूसरी ओर की आवाज तो सुनाई दे नहीं रही थी किन्तु वह सतीश मेहरा का चेहरा देखकर अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था...कुछ गलत हो रहा है, इस बात का वह सहज ही अनुमान लगा चुका था।
 
राज को दूसरी ओर की आवाज तो सुनाई दे नहीं रही थी किन्तु वह सतीश मेहरा का चेहरा देखकर अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था...कुछ गलत हो रहा है, इस बात का वह सहज ही अनुमान लगा चुका था।

सतीश मेहरा देर तक गिड़गिड़ाता रहा,अंतमें दूसरी तरफ से सम्पर्क काट दिया गया।

वह रिसीवर थामे खड़ा रहा।

"क्या हुआ...?" राज ने उसका बाजू थामकर उसे हिलाते हुए पूछा।

"कुछ समझ में नहीं आ रहा है।"


"तुम बताओ तो सही?"

"ए. सी. पी. का कहना है कि मेरे विरुद्ध विभागीय कार्यवाही अमल में लायी जा रही है...।"

"क्यों ?"

"क्योंकि मैंने मंत्री धरम सावंत के साथ बदतमीजी की और उनकें आने के बाद पुलिस स्टेशन में उनका अपमान किया।"

"मंत्री धरम सावंत...."

"हां।"

"लेकिन वह तो वहां नहीं था।"

"यही तो मैं ए. सी. पी. से बार-बार कह रहा था लेकिन वह मेरी बात मान ही नहीं रहा है। उसका कहना है कि गलती मेरी है...सिर्फ मेरी।"

"ये तो सरासर इल्जाम है...झूठा इल्जाम..।" राज चौंकता हुआ बोला।
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"मैं समझ रहा हूं...।"

"क्या समझ रहे हो?"

"यही कि उच्चाधिकारी मंत्री धरम सावंत के दबाव में आकर एक छोटे कर्मचारी के विरुद्ध साजिश रच रहे हैं।"

"साजिश...।" राज विचारपूर्ण स्वर में बड़बड़ाया-"

"यानी बड़े अधिकारियों पर प्रशासन का दबाव...!"

"यही समझ लो।"

"अब तुम क्या करोगे?"

"अपने फेवर में साक्ष्य एकत्रित करूंगा।"

"कहां से?"

"पुलिस स्टेशन से।"

"अपने कर्मचारियों की बात कर रहे हो?"

"हां।"

"कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारे कर्मचारी तुम्हारी मदद करें।"

"इसमें मदद वाली कोई बात नहीं है। मैं तो सच्चाई का तलबगार हूं। मैं अपने कर्मचारियों से किसी प्रकार का झूठ बोलने को नहीं कहूंगा, यही कहना चाहूंगा कि जो कुछ उन्होंने देखा हो वही बयान कर दें।"
 
"नहीं...परेशानी तो कोई नहीं है।"
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"तो फिर प्लीज मेरी रिक्यैस्ट मान लो। रहने को इस अस्पताल में पड़ा रहूंगा मगर मेरा दिमाग डॉली की तरफ ही लगा रहेगा। यही सोचता रहूंगा कि न जाने किस हाल में हो वह...जैसे कि इस वक्त दिमाग उसी के लिए परेशान है।"


"मैं चला जाता हूं। सिर्फ इतना बता दो कि मानखुर्द में कहां पहुंचूंगा?"

"उसकी चिन्ता मत करे...मैं तुम्हें वहां पहुंचवाए देता हूं।"

"मुझे पता बता दो...बस।"

"नहीं...वो जो सिपाही मेरे साथ आया है, वही तुम्हें से जाएगा।"

"बेकार ही दौड़ हो जाएगी उसकी।"

"बहुत दूर नहीं है।"

"फिर भी...।"

"फिर भी कुछ नहीं...तुम जाओ उसके साथ ।" कहकर सतीश ने उसे सिपाही के साथ विदा कर दिया।

सिपाही उसे मानखुर्द में एक आठ माले की बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर स्थित इंस्पेक्टरसतीश के फ्लैट में छोड़कर लौट गया।

डॉली ने उसके लिए बैडरूम में व्यवस्था बना दी।

"भैया कब लौटेंगे...?" डॉली ने राज की ओर कॉफी का प्याला बढ़ाते हुए कहा।

__ "अभी सतीश को वहां थोड़ा काम है। उसने कहा था कि काम पूरा होते ही वह वापस लौट ।
आएगा।"

राज कॉफी का प्याला संभालकर नजरें चुराता हुआ बोला। उसकी कोशिश यही थी कि कहीं उसका झूठ पकड़ा न जाए। कहीं उसके चेहरे पर इस किस्म के भाव न आ जाएं कि डॉली उसके झूठ को समझ जाए।

___"लेकिन इतने समय तक तो भैया वहां कभी नहीं रहे। कहीं कोई बात तो नहीं हो गई।"

"कोई बात नहीं हुई, तुम तो बेकार ही परेशान हो रही हो।"

"नहीं, जरूर कोई बात है...मुझसे कुछ छिपा रहे हो।"

"कुछ नहीं छिपा रहा हूं...।"

"सच कह रहे हो।"

"एकदम सच।"

डॉली मेहरा ने अविश्वास पूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखा। उसकी आंखेंकह रही थीं कि उसे राज के कथन पर विश्वास नहीं आ रहा था। वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई। उसका चेहरा चिंता में डूबा नजर आ रहा था।
 
राज मुस्कराया।
उसने इंकार में गर्दन हिलाते हुए कहा-"मुझे नहीं लगता कि कोई तुम्हारी मदद करेगा।"

__"क्यों...क्या मैं उनसे झूठ बोलने के लिए कहूंगा ?"

"कुछ भी कहो। जहां तक मैं समझता हूं, तुम्हारी तरफ से कोई नहीं बोलेगा।"

"नहीं, दो एक सिपाही तो मेरी तरफ से जरूर बोलेंगे।"

"देख लेना...रात पड़ी है। अपने केस की तैयारी कर लेना।"

"ओ. के.!'
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"तो मैं चलूं..।"

"हां...जाओ।"

"कोई जरूरत हो तो बताओ?"

"नहीं...फिलहाल कोई जरूरत नहीं।"

"घबराना नहीं...।"

"सिपाही हूं...सिपाही कभी घबराता नहीं। हर मुश्किल का सामना करने की हिम्मत है मुझमें।"

"हिम्मतवर आदमी की मैं इज्जत करता हूं लेकिन फिर भी अगर कभी जरूरत पड़े तो मैं हर तरह से हाजिर हूं।"

"तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद!"

"इस तरह की औपचारिक बातों से दूरी बढ़ती है।"

"मतलब धन्यवाद से।"

"हां।" राज मुस्कराया।

"अगर कोई सहायता करे तो धन्यवाद देना उचित कार्यवाही है। इसमें कुछ बुरा नहीं है।"

"लेकिन मैं तो उसे सहायता नहीं मानता।"

"तुम खुले दिमाग क, बड़े दिलवाले...सुलझे हुए आदमी हो। अरे हां दोस्त...इतनी मदद के बावजूद अभी तक मैं तुम्हारे नाम से वाकिफ नहीं हो सका हूं।"

"लोग मुझे तपन कहते हैं...तपन सिन्हा।"

"खुशी हुई तुमसे मिलकर।"

"अगर हम औपचारिकताएं भुलाकर अच्छे दोस्तों की तरह एक-दूसरे से मिलें तो कैसा रहे?"

"अच्छा रहें।"

"तो फिर दोस्त बेफिक्र होकर यहां आराम करो। मैंतुमसे सुबह आकर मिलता हूं। घबराना कतई नहीं...मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं।"
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"घर जा रहे होगे?"

"यही समझ लो।"

"समझ लो से मतलब?"

"मैं किराए के फ्लैट को भी अपना घर ही मानता हूं...कल ही किराए पर लिया है। सिंधी कालोनी में।"

"कहीं बाहर से आए हो?"

"हां...जालंधर से।" राज ने बड़ी सफाई से झूठ बोला।

"फैमिली साथ लाए होगे?"

"मैं खुद ही फेमिली है।" वह सतीश की आखों में देखता हुआ मुस्कराया।

"यानी तन्हा हो।"

"एकदम।"

"एक बात कहूं मिस्टर तपन...।" __

"कहो...एक नहीं, दो कहो लेकिन तपन के साथ मिस्टर की दुम को हटाकर। सिर्फ तपन कहकर।"

"ओ. के.-ओ के. ! आगे से मैं तुम्हें तपन ही बोलूंगा।"

"अब कहो?"

__ "तुम चैम्बूर रहते हो और मैं मानखुर्द। थोड़ा-सा फासला है दोनों के बीच। मैं चाहता हूं तुम चैम्बूर की जगह मानखुर्द चले जाओ। डॉली घबरा रही होगी। डर रही होगी। दूसरे...जो शैतान उसका अगवा करने की कोशिश कर चुके हैं...वे अपनी उस कोशिश को रिपीट भी कर सकते हैं।"

"हां...ये तो है।"

"अगर तुम वहां रहोगे तो मुझे तसल्ली बनी रहेगी। विश्वास बना रहेगा कि मेरी बहन सुरक्षित

"जा तो सकता हूं लेकिन...।"

"कोई परेशानी हो तो बेझिझक कह सकते हो।"
 
धीरे- धीरे वक्त गुजरने लगा।

"काफी रात हो चुकी है...जाकर सो जाओ।" राज ने मौन भंग करते हुए कहा।

"यही बात मैं भी कह रही हूं...कि काफी रात हो चुकी है, भैया अभी तक नहीं आए।"

"आ जाएंगे डॉली, तुम्हारे भैया को कोई जरूरी काम था मैं पहले ही कह चुका हूं। उन्हें आने में टाइम लग सकता है। इसीलिए उन्होंने मुझे यहां भेजा है ताकि तुम किसी बात की चिन्ता न करो...।"
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"मुझे तुम्हारी बात का विश्वास नहीं।"

"तुम्हारा मतलब मैं झूठ बोल रहा हूं।"

"हो सकता है।"

"मेस विश्वास नहीं।"

"तुम्हारा एहसान है मुझ पर लेकिन जहां तक विश्वास की बात है, तुम अभी मेरे लिए अजनबी हो...और अजनबियों पर एकाएक ही विश्वास करना नहीं चाहिए। तुम खुद ही कहो...क्या इतनी जल्दी विश्वास कर लेना उचित होगा।"

"नहीं...।"
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"फिर बताओ...मेरा शक करना बाजिब है या नहीं...।"

"तुम अपनी जगह सही हो...मैं अपनी जगह और सतीश मेहरा अपनी जगह। गलत कोई भी नहीं है।"

"अगर मैं अपनी जगह सही हूं तो फिर मुझे सच्चाई बताओ।"


"सच्चाई यह है कि देर हो चुकी है...जाकर सो जाओ और मुझे भी सोने दो।" –


डॉली ने गौर से उसकी आखों में देखा फिर कुर्सी छोड़कर उठ खड़ी हुई।
"ठीक है...मैं जा रही हूं।" कहने के साथ ही वह मुड़कर बाहर निकल गई।

राज ने सिगरेट सुलगाई और फिर वह बैड पर अधलेटी स्थिति में पीठ की और तकिया लगाकर लेट गया। सिगरेट फूंकता हुआ वह इंस्पेक्टर सतीश मेहरा और मंत्री धरम सावंत के बारे में सोचने लगा।

उसकी समझ में आ चुका था कि इंस्पेक्टर सतीश मेहर ने गलत जगह पंगा ले लिया है।
मंत्री!
एक महत्वपूर्ण पद।

जहां तक कोई सहज ही नहीं पहुंच सकता और अगर पहुंच जाए तो तमाम शक्तियों का मालिक बन जाए।
शासन प्रशासन सब-कुछ उसके हाथ में।
 
वह इंस्पेक्टर सतीश मेहरा की नौकरी के बारे में सोच रहा था। क्या होगा उसकी नौकरी का? सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। आंख खुली किसी आहट को सुनकर। उसने देखा।

डॉली थी। सहमी और डरी हुई सी।

"क्या हुआ...क्या बात है?" राज ने अचम्भे से उसकी ओर देखते हुए पूछा।
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"ब...बाहर...कोई है।" डॉली कम्पित स्वर में बोली। भय से उसके नेत्र फटे हुए थे।

"इतनी रात गए ?"

"हां।"

"कौन हो सकता है?"

"क्या मालूम।"

राज ने तकिये के नीचे से माउजर निकाला और फिर वह तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ चला।

"न...न...नहीं।" उसका रास्ता रोकती डॉली एकाएक ही बीच में आती हुई बोली-" दरवाजा मत खोलना...न मालूम गिनती में वो लोग कितने हों। भैया भी नहीं हैं वरना मैं तुम्हें न रोकती।"

"डरो नहीं डॉली...मैं सावधानी के साथ बाहर निकलूंगा।"

"नहीं...।" डॉली उसे दोनों हाथों से पकड़कर लगभग उससे चिपट गई। उसके अंगों के उभार राज को स्पर्शित कर आन्दोलित करने लगे।


अचानक ही वह इस तरह इतना करीब आ जाएगी ये उसने सोचा भी नहीं था।

"डरो नहीं...कतई नहीं डरो । मैं हूं न...मेरे होते हुए तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा।" राज ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए अपने आपसे अलग किया।

वह डरती थरथराती राज के पीछे-पीछे दरवाजे तक पहुंची।

राज ने सावधानी के साथ दरवाजा खोला। उसके एक हाथ में माउजर था और दूसरे हाथ से दरवाजा खोलकर उसने कदम बाहर निकाला।

बिल्डिंग के कम्पाउंड में प्रकाश फैला था। वहां कोई भी नजर नहीं आया। वह सावधानी के साथ इधर-उधर देखता हुआ आगे बढ़ गया। कम्पाउंड पार करके उसने सड़क पर नजर घुमाई। रात अधिक हो जाने के कारण सड़क भी पूरी तरह वीरान पड़ी थी।

सिर्फ एक आवारा कुत्ता सड़क के बीचोंबीच सामान्य गति से दौड़ा चला जा रहा था। सड़क के डिवाइडर के दोनों ओर मरकरी लैम्पस की लम्बी कतार दूर तक चली गई थी। दूधिया रोशनी पूरी सड़क पर फैली हुई थी।
 
[size=large]वह थोड़ी दूर तक निकला चला गया किन्तु उसे जब कोई भी दिखाई नहीं पड़ा तो वह वापस लौट गया। डॉली दरवाजे पर सहमी सी खड़ी थी।

"कोई नहीं है..." राज ने फ्लैट में कदम रखते हुए कहा-"मैं लम्बा चक्कर लगा आया।"

"लेकिन दस्तक तो हुई थी...दो बार...।" वह बौखलाए हुए स्वर में बोली।

"हो सकता है किसी ने शरारत की हो।"

"नहीं...वो शरारत नहीं हो सकती।"

"घबरा नहीं...अब मैं पहरा दूंगा। अगर फिर दस्तक हुई तो मैं देख लूंगा।"

___"मेस अगवा करने वाले यहां भी तो आ सकते हैं।"

"कहा न..डरने नहीं। अब मैं जागता रहूंगा और तुम अपने कमरे में सो जाओ।"

"न...नहीं।"

"क्या नहीं?"

"मुझे अकेले कमरे में डर लगता है। मैं...मैं तुम्हारे वाले कमर में ही रहूंगी।"

"तुम बेकार ही डर रही हो। आओ...पहले मैं तुम्हें सुला देता हू।"

राज डॉली को उसके कमरे में ले गया और उसे बिस्तर में लिटाकर थोड़ी देर वहीं कमरे में चहलकदमी करता रहा। उसके कान प्रत्येक आहट पर लगे थे और नजरें डॉली की आंखोंपर जो कि धीरे-धीरे बंद होती जो रही थीं। फिर एक पल वो भी आया कि डॉली की पलकें झुकी तो उठी नहीं।

राज ने उसे निकट से देखा।

लेकिन कोई अन्तर नहीं हुआ। उसकी निद्रा सघन होती चली गई।

राज दबे पांव कमरे से बाहर निकल आया

बाहर आकर एक बार फिर उसने सड़क की दोनों जानिब नजरें दौड़ाकर देखा। कहीं कोई न था। बिल्डिंग के पहले माले को पार कर दूसरे माले तक जा पहुंचा। कहीं भी किसी प्रकार की हलचल नहीं थी।
अन्तत: उसने यही निश्चय किया कि वो दस्तक डॉली मेहरा का महज दिमागी खलल थी। शायद अपने में वह डर गई थी।

एक और सिगरेट सुलगाने के बाद राज वापस अपने कमरे में आ गया।

वह बाकी रात चलकर गुजार देने का फैसला करके बैड पर जा बैठा।
सिगरेट फूंकते हुए उसने टाइम पास करना शुरू कर दिया।

थोड़ी ही देर में सिगरेट खत्म हो गई।
उसने पहले दूसरी सिगरेट सुलगाने की इच्छा करने के उपरान्त उस इच्छा को समाप्त करके सिल्वर बॉटल निकाल ली।

तीन-चार चूंट भरने के बाद वह बैड पर फैल गया। दो क्षण को उसकी आख लग गई।
अचानक!
सन्नाटे में कोई चीज गिरने की आवाज गूंज उठी। उसके साथ ही डॉली की चीख !
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उसकी आंखजब तक खुली...जब तक वह कुछ समझा, तब तक घबराई हुई डॉली मेहरा गिरत-पड़ती आ पहुंची उसके पास तक और इससे पहले कि वह उठता, डॉली उससे घबराकरभागे पंछी की भांति आ लिपटी। उसके चेहरे पर आतंक की काली परछाईं सहज ही देखी जा सकती थी।

उसकी कंपकंपाहट को राज ने स्पष्ट अनुभव किया।
"क्या हुआ?"
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"व...व...वहां कोई...था...कोई था।" डॉली लड़खड़ाते हुए स्वर में बोली।

राज माउजर संभालकर तेजी से बाहर निकला। वह पूरे फ्लैट में घूम गया।

डॉली के कमरे के बाहर उसे काली बिल्ली बैठी दिखाई पड़ी जो कि उसे आते ही वहां से भाग गईं। वह कमरे के भीतर दाखिल हुआ।

कमरे में एक कबूतर पड़ा दिखाई दिया जिसे कि आधा खायाजा चुका था।
कबूतर के पंख कमरे में कम कमरे के बाहर ज्यादा बिखरे पड़े थे।
राज पलक झपकते समझ गया।

एक डिब्बा और टेबल लैम्प भी कबूतर के निकट ही लुढ़केहुए थे। टेबल लैम्प में लगा बल्ब
फूट गया था। कांच कमरे के फर्श पर बिखरी पड़ा था।

पूरी कहानी को समझ लेने के उपरांत भी उसने चारों तरफ खोज-खबर ली और अन्त में मुस्कराता हुआ वापस लौट आया।

जबकि डॉली उसके बैड में चादर ओढ़े इस प्रकार दुबकी पड़ी थी मानो चादर न होकर वह लोहे का जिरह बख्तर हो जिसके पहन लेने से वह खतरनाक हथियारों के वार से बच जाएगी।

"कोई नहीं है डॉली...तुम बेकार ही डर गई। एक बिल्ली तुम्हारे कमरे में दाखिल हो गई थी। तुम्हें उसी ने डरा दिया था। बिल्ली के अलावा वहां बिल्ली का शिकार हुआ कबूतर है...बस...और कुछ भी नहीं।" उसने डॉली को समझाने की कोशिश करते हुए कहा।

"नही...नहीं...नहीं...।" डॉली कम्पित स्वर में बोली।

___"मैं सच कह रहा हूं। मेरे साथ चलो...दिखाता हूं।"

"नहीं...अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी। कहीं नहीं जाऊंगी। यहीं रहूंगी तुम्हारे पास।"

___ "यहां...?" राज ने परेशानी जाहिर करते हुए आश्चर्य मिश्रित स्वर में कहा।

"हां...अब मैं किसी भी कमरे में तन्हा नहीं रहूंगी। मैं डर जाती हूं। मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगता है और कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे अभी हार्ट-अटैक होगा और बिना तड़पे ही मैं मर जाऊंगी।"

"डॉली...तुम समझती क्यों नहीं...।"

"मैं जिन्दा रहना चाहती हूं। वक्त से पहले मरना नहीं चाहती। कमरे का दरवाजा अंदर से । अच्छी तरह बंद कर लो और बिस्तर में आ जाओ। मैं पूरी रात सो नहीं सकी मुझे विश्वास तुम्हारे पास आ जाने से मैं सो जाऊंगी।"

कर्त्तव्यविमूढ़ सा राज अपने स्थान पर ठगा-सा खड़ा रह गया।

डॉली पहले उसकी ओर देखती रही फिर उसने स्वयं उठकर कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया और राज का हाथ पकड़कर बिस्तर में खींच लायी।

"सो जाओ...मुझे बहुत जोरों से नींद आ रही है।" उसने राज की दोनों बांहों को अपने बदन के इर्द-गिर्द से निकालते हुए लगभग अपने ऊपर खींच ही लिया।

राज अचम्भित सा उसके मांसल जिस्म के गुदगुदे स्पर्श से रोमाचित हो उठा। वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। हक्का-बक्का असमंजस में फंसा अपने को डॉली मेहरा के जिस्म से दूर करने का प्रयास कर रहा था लेकिन डॉली ने उसके दोनों हाथों को कसकर पकड़ने के बाद अपनी कमर से ऊपर पहुंचाया हुआ था।
वह आंखें बंद किए लेटी रही।
 
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