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- Dec 5, 2013
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युवक जानता था कि जो कुछ वह करके आया है , यह बहुत देर तक लोगों की नजरों से छुपा नहीं रह सकेगा—मकान के अन्दर से उठता धुआं पड़ोंसियों को शीघ्र ही आकर्षित कर लेगा—मकान का मुख्य दरवाजा वह बाहर से बन्द करके आया है , अत: भगवतपुरे के निवासी शीघ्र ही उसके अन्दर दाखिल हो जाएंगे , तब उन्हें पता लगेगा की वहां दो लाशें भी हैं—फायर ब्रिगेड और पुलिस को फोन किया जाएगा।
पहले आग पर काबू पाया जाएगा—फिर शुरू होगी पुलिस कार्यवाही।
सम्भव है कि गजेन्द्र पुलिस को उसका हुलिया भी बता दे , बस—हुलिए और जॉनी नाम से ज्यादा वह कुछ नहीं बता सकेगा।
अत: यदि पुलिस के सक्रिय होने से पूर्व मैं गाजियाबाद से बाहर निकल जाता हूं तो फिर कानून की पकड़ से बहुत दूर हूं।
अपने इसी विचार के अन्तर्गत उसने भगवतपुरे से निकलते ही एक रिक्शा पकड़ा , सीधा रेलवे स्टेशन आया और हरिद्वार से जाकर देहली की तरफ जाने वाली गाड़ी में सवार हो गया—सेकंड क्लास का कम्पार्टमेंट भीड़ से खचाखच भरा हुआ था।
वह स्वयं भी उसी भीड़ में जा—मिल गया।
हर आदमी व्यस्त था , अपने में मस्त।
उसकी तरफ ध्यान तक नहीं दिया किसी ने—कौन जानता था कि वह कितना संगीन , घिनौना और भयानक अपराध करके इस ट्रेन से भाग रहा था ?
ट्रेन चल पड़ी।
एक बर्थ के कोने पर टिके युवक का दिमाग भी समानान्तर पटरियों पर दौड़ने लगा।
मन-ही-मन अपनी आगे तक की योजना तैयार कर चुका था वह , बल्कि कहना चाहिए कि योजना भी कुछ न थी , सिकन्दर बनकर न्यादर अली की कोठी पर छिप जाना ही उसकी योजना थी। कोई नहीं कह सकता था कि भगवतपुरे में रहने वाला , दो व्यक्तियों का हत्यारा जॉनी ही सिकन्दर है।
उस वक्त न्यादर अली को बताने के लिए वह अपने गायब होने के लिए उपयुक्त बहाने की तलाश कर रहा था , जब अचानक ही नजर कम्पार्टमेंट में मौजूद एक पुलिस इंस्पेक्टर और चार कांस्टेबलों पर पड़ी।
युवक का चेहरा एकदम फक्क पड़ गया।
क्या भगवतपुरे के मकान में लगी आग के सिलसिले में पुलिस इतनी जल्दी सक्रिय हो उठी है—क्या पुलिस को किन्हीं सूत्रों से पता लग गया है कि मैं इस ट्रेन से भागने की कोशिश कर रहा हूं ?
हां , गजेन्द्र और रिक्शा वाले के संयुक्त बयान से पुलिस यहां पहुंच सकती है—अगर वे दोनों पुलिस के हाथ लग गए होंगे तो उन्होंने एक ही हुलिया बताया होगा —रिक्शा वाले ने बता दिया होगा कि इस हुलिये की सवारी को उसने भगवतपुरे से हरिद्वार पैसेंजर पर छोड़ा है।
यहां पहुंचने के लिए पुलिस को इतना ही काफी है।
इस किस्म के सैकड़ों विचार नन्हें-नन्हें सर्प बनकर उसके मस्तिष्क में रेंगने लगे थे और शायद इन्हीं सर्पों के कारण युवक पर बौखलाहट-सी हावी होने लगी।
तेजी से धड़कता हुआ दिल पसलियों पर चोट करने लगा।
मस्तक पर पसीना उभरने लगा। उसका दिल चाह रहा था कि उठे , दरवाजे पर पहुंचे और चलती ट्रेन से ही बाहर जम्प लगा दे , मगर उसके विवेक ने कहा कि यह सबसे ज्यादा मूर्खतापूर्ण हरकत होगी।
यह भी तो सम्भव है कि यह पुलिस दल किसी दूसरे ही चक्कर में हो ?
अगर ऐसा हुआ तो वह व्यर्थ ही फंस जाएगा , अत: कनखियों से उसने पुलिस दल की तरफ देखा—हाथ में दबे रूल को घुमाता हुआ इंस्पेक्टर एक-एक यात्री को बहुत ध्यान से देख रहा था—इंस्पेक्टर के चेहरे पर क्रूरता थी , देखने मात्र से ही बहुत हिंसक-सा नजर आता था वह—युवक को महसूस हुआ कि यदि मैं इस इंस्पेक्टर के चंगुल में फंस गया तो यह इतनी बुरी तरह से टॉर्चर करेगा कि मुझे सब कुछ उगल देना पड़ेगा।
एक-एक यात्री को घूरता हुआ वह उसी तरफ बढ़ रहा था।
एकाएक युवक को लगा कि वह हर चेहरे को गजेन्द्र और रिक्शा वाले द्वारा बताए गए हुलिए से मिलाने की कोशिश कर रहा है—मेरे चेहरे पर आकर वह ठिठक जाएगा।
तब , मैं क्या करूंगा ?
बल्कि कहना चाहिए कि तब मैं कुछ भी कर पाने को स्थिति में नहीं रहूंगा।
एक यात्री पर इंस्पेक्टर को जाने क्या शक हुआ कि कांस्टेबलों से उसकी तलाशी लेने के लिए कहा —तलाशी में कुछ नहीं मिला तो वे कुछ इधर चले आए।
युवक नर्वस होने लगा।
पसीने से हथेलियां गीली हो गई महसूस हुईं उसे—बेचैनी के साथ हथेलियों को उसने अपनी पतलून पर रगड़ा , अपना चेहरा स्वयं ही उसे पसीने से तर -बतर महसूस हुआ।
दोनों हाथों से चेहरा साफ किया।
और उस वक्त तो उसके होश ही फाख्ता हो गए जब अपने हाथों में से उसे मिट्टी के तेल की दुर्गंध आई।
उफ्फ...कितनी बड़ी गलती कर बैठा है वह ?
उसे मकान से निकलने से पहले साबुन से हाथ धोने चाहिए थे।
क्या यह इंस्पेक्टर इस दुर्गन्ध को सूंघ लेगा—क्या इस दुर्गन्ध से ही वह अनुमान लगा लेगा कि मैं क्या करके आ रहा हूं ? हां , यदि हुलिए के साथ उसे मेरे हाथों में से यह बदबू भी मिल गई तो बन्टाधार।
इंस्पेक्टर उसके बिलकुल नजदीक आ खड़ा हुआ। न चाहते हुए भी युवक ने चेहरा उठाकर उसकी तरफ देख ही लिया। इंस्पेक्टर को अपनी ही तरफ घूरता पाकर वह सकपका गया। वह महसूस कर रहा था कि उसके अपने चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं—उस वक्त रूबी की लाश के समान निस्तेज था उसका चेहरा।
इंस्पेक्टर कई पल तक उसे कड़ी निगाहों से घूरता रहा।
युवक की सांसें तक रुक गई थीं।
अचानक ही इंस्पेक्टर ने उससे पूछा— “क्या नाम है तुम्हारा ?"
"स...सिकन्दर।" वह बड़ी कठिनाई से कह सका।
"कहां से आ रहे हो ?"
यह सवाल ऐसा था कि जिसने उसके तिरपन कंपा दिए। एकदम से उसके मुंह से 'गाजियाबाद ' निकलने वाला था , तभी दिमाग में विचार कौंधा कि—नहीं , मुझे गाजियाबाद नहीं कहना चाहिए , परन्तु तभी मस्तिष्क में यह विचार भी कौंधा कि , यदि वह 'गाजियाबाद ' नहीं कहेगा तो यहां बैठे यात्री चौंक पड़ेंगे।
इनमें से अधिकांश पीछे से आ रहे हैं। उन्होंने मुझे गाजियाबाद से चढ़ते देखा है—यह सारे विचार क्षणमात्र में ही उसके दिमाग में उभरे थे और अगले ही पल उसने जवाब दे दिया था— “ गाजियाबाद।"
"कहां जाना है ?"
“नई देहली।"
"क्यों ?”
“क.....क्यों से मतलब , देहली में मेरा घर है।"
"कहां ?"
“लारेंस रोड पर …सेठ न्यादर अली का लड़का हूं मैं।"
"गाजियाबाद क्यों गए थे ?"
"बिजनेस के सिलसिले में।"
"क्या बिजनेस है आपका ?"
“गत्ते की फैक्ट्री है मेरी।"
"हद है , गत्ते की फैक्ट्री लगाए बैठे हैं और यात्रा कर रहे हैं इस कम्पार्टमेंट में!" अजीब-से अन्दाज में बड़बड़ाते हुए इंस्पेक्टर ने मानो खुद ही से कहा और उसके यूं बड़बड़ाने पर युवक को भी अपनी गलती का अहसास हुआ , निश्चय ही सेठ न्यादर अली के बेटे और एक गत्ता फैक्ट्री के मालिक को कम-से-कम इस कम्पार्टमेंट में नहीं होना चाहिए मगर जो तीर कमान से निकल चुका था, अब वह वापस तो आना नहीं था। इसीलिए खामोश ही रहा।
इंस्पक्टर ने उसी से कहा— "प्लीज , अपना टिकट दिखाइए।”
और हड़बड़ाया-सा युवक जेब से टिकट निकालते वक्त सोच रहा था कि इसी क्षण फंस गया था , गाजियाबाद से देहली तक का टिकट निकालकर उसने इंस्पेक्टर को पकड़ा दिया।
टिकट को उलट-पुलटकर ध्यान से देखने के बाद उसे लौटाते हुए इंस्पेक्टर ने कहा— "प्लीज , स्टैण्डअप।"
युवक के तिरपन कांप गए।
आत्मा तक हिल उठी थी उसकी—समझ नहीं पा रहा था कि इंस्पेक्टर आखिर उसी के पीछे क्यों पड़ गया है-कम्पार्टमेंट में दूसरे यात्री भी तो हैं—क्या उस पर किसी किस्म का शक कर रहा है , क्या उसके हुलिए को वह पहचान गया है ?
खड़ा हो जाना युवक की मजबूरी थी।
उसने महसूस किया कि टांगें बुरी तरह कांप रही थीं—बहुत ज्यादा देर तक वह खड़ा नहीं रह सकेगा , गिर पड़ेगा वह—अगर इंस्पेक्टर ने उसकी इस वक्त की अवस्था देखी होती तो किसी भी कीमत पर उसे गिरफ्तार किए बिना न रहता , क्योंकि युवक के दिलो-दिमाग पर छाई नर्वसनेस उसके जिस्म से बुरी तरह छलक रही थी।
मगर एक कांस्टेबल को उसकी तलाशी लेने का हुक्म देकर इंस्पेक्टर एक दूसरे यात्री की तरफ आकर्षित हो गया था और कांस्टेबल का ध्यान उसकी जेबें टटोलने के अलावा किसी तरफ नहीं था , तलाशी के बाद कांस्टेबल ने उसे बैठ जाने का इशारा किया।
युवक 'धम्म ' से बैठ गया।
सन्तोष की पहली सांस उसने अभी ली ही थी कि इंस्पेक्टर अपने नथुनों से लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। एकाएक ही वह बोला— “मिट्टी के तेल की दुर्गन्ध कहां से आ रही है ?”
युवक के दिमाग में बिजली-सी कौंध गई।
बेहोश होते-होते बचा वह।
पहले आग पर काबू पाया जाएगा—फिर शुरू होगी पुलिस कार्यवाही।
सम्भव है कि गजेन्द्र पुलिस को उसका हुलिया भी बता दे , बस—हुलिए और जॉनी नाम से ज्यादा वह कुछ नहीं बता सकेगा।
अत: यदि पुलिस के सक्रिय होने से पूर्व मैं गाजियाबाद से बाहर निकल जाता हूं तो फिर कानून की पकड़ से बहुत दूर हूं।
अपने इसी विचार के अन्तर्गत उसने भगवतपुरे से निकलते ही एक रिक्शा पकड़ा , सीधा रेलवे स्टेशन आया और हरिद्वार से जाकर देहली की तरफ जाने वाली गाड़ी में सवार हो गया—सेकंड क्लास का कम्पार्टमेंट भीड़ से खचाखच भरा हुआ था।
वह स्वयं भी उसी भीड़ में जा—मिल गया।
हर आदमी व्यस्त था , अपने में मस्त।
उसकी तरफ ध्यान तक नहीं दिया किसी ने—कौन जानता था कि वह कितना संगीन , घिनौना और भयानक अपराध करके इस ट्रेन से भाग रहा था ?
ट्रेन चल पड़ी।
एक बर्थ के कोने पर टिके युवक का दिमाग भी समानान्तर पटरियों पर दौड़ने लगा।
मन-ही-मन अपनी आगे तक की योजना तैयार कर चुका था वह , बल्कि कहना चाहिए कि योजना भी कुछ न थी , सिकन्दर बनकर न्यादर अली की कोठी पर छिप जाना ही उसकी योजना थी। कोई नहीं कह सकता था कि भगवतपुरे में रहने वाला , दो व्यक्तियों का हत्यारा जॉनी ही सिकन्दर है।
उस वक्त न्यादर अली को बताने के लिए वह अपने गायब होने के लिए उपयुक्त बहाने की तलाश कर रहा था , जब अचानक ही नजर कम्पार्टमेंट में मौजूद एक पुलिस इंस्पेक्टर और चार कांस्टेबलों पर पड़ी।
युवक का चेहरा एकदम फक्क पड़ गया।
क्या भगवतपुरे के मकान में लगी आग के सिलसिले में पुलिस इतनी जल्दी सक्रिय हो उठी है—क्या पुलिस को किन्हीं सूत्रों से पता लग गया है कि मैं इस ट्रेन से भागने की कोशिश कर रहा हूं ?
हां , गजेन्द्र और रिक्शा वाले के संयुक्त बयान से पुलिस यहां पहुंच सकती है—अगर वे दोनों पुलिस के हाथ लग गए होंगे तो उन्होंने एक ही हुलिया बताया होगा —रिक्शा वाले ने बता दिया होगा कि इस हुलिये की सवारी को उसने भगवतपुरे से हरिद्वार पैसेंजर पर छोड़ा है।
यहां पहुंचने के लिए पुलिस को इतना ही काफी है।
इस किस्म के सैकड़ों विचार नन्हें-नन्हें सर्प बनकर उसके मस्तिष्क में रेंगने लगे थे और शायद इन्हीं सर्पों के कारण युवक पर बौखलाहट-सी हावी होने लगी।
तेजी से धड़कता हुआ दिल पसलियों पर चोट करने लगा।
मस्तक पर पसीना उभरने लगा। उसका दिल चाह रहा था कि उठे , दरवाजे पर पहुंचे और चलती ट्रेन से ही बाहर जम्प लगा दे , मगर उसके विवेक ने कहा कि यह सबसे ज्यादा मूर्खतापूर्ण हरकत होगी।
यह भी तो सम्भव है कि यह पुलिस दल किसी दूसरे ही चक्कर में हो ?
अगर ऐसा हुआ तो वह व्यर्थ ही फंस जाएगा , अत: कनखियों से उसने पुलिस दल की तरफ देखा—हाथ में दबे रूल को घुमाता हुआ इंस्पेक्टर एक-एक यात्री को बहुत ध्यान से देख रहा था—इंस्पेक्टर के चेहरे पर क्रूरता थी , देखने मात्र से ही बहुत हिंसक-सा नजर आता था वह—युवक को महसूस हुआ कि यदि मैं इस इंस्पेक्टर के चंगुल में फंस गया तो यह इतनी बुरी तरह से टॉर्चर करेगा कि मुझे सब कुछ उगल देना पड़ेगा।
एक-एक यात्री को घूरता हुआ वह उसी तरफ बढ़ रहा था।
एकाएक युवक को लगा कि वह हर चेहरे को गजेन्द्र और रिक्शा वाले द्वारा बताए गए हुलिए से मिलाने की कोशिश कर रहा है—मेरे चेहरे पर आकर वह ठिठक जाएगा।
तब , मैं क्या करूंगा ?
बल्कि कहना चाहिए कि तब मैं कुछ भी कर पाने को स्थिति में नहीं रहूंगा।
एक यात्री पर इंस्पेक्टर को जाने क्या शक हुआ कि कांस्टेबलों से उसकी तलाशी लेने के लिए कहा —तलाशी में कुछ नहीं मिला तो वे कुछ इधर चले आए।
युवक नर्वस होने लगा।
पसीने से हथेलियां गीली हो गई महसूस हुईं उसे—बेचैनी के साथ हथेलियों को उसने अपनी पतलून पर रगड़ा , अपना चेहरा स्वयं ही उसे पसीने से तर -बतर महसूस हुआ।
दोनों हाथों से चेहरा साफ किया।
और उस वक्त तो उसके होश ही फाख्ता हो गए जब अपने हाथों में से उसे मिट्टी के तेल की दुर्गंध आई।
उफ्फ...कितनी बड़ी गलती कर बैठा है वह ?
उसे मकान से निकलने से पहले साबुन से हाथ धोने चाहिए थे।
क्या यह इंस्पेक्टर इस दुर्गन्ध को सूंघ लेगा—क्या इस दुर्गन्ध से ही वह अनुमान लगा लेगा कि मैं क्या करके आ रहा हूं ? हां , यदि हुलिए के साथ उसे मेरे हाथों में से यह बदबू भी मिल गई तो बन्टाधार।
इंस्पेक्टर उसके बिलकुल नजदीक आ खड़ा हुआ। न चाहते हुए भी युवक ने चेहरा उठाकर उसकी तरफ देख ही लिया। इंस्पेक्टर को अपनी ही तरफ घूरता पाकर वह सकपका गया। वह महसूस कर रहा था कि उसके अपने चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं—उस वक्त रूबी की लाश के समान निस्तेज था उसका चेहरा।
इंस्पेक्टर कई पल तक उसे कड़ी निगाहों से घूरता रहा।
युवक की सांसें तक रुक गई थीं।
अचानक ही इंस्पेक्टर ने उससे पूछा— “क्या नाम है तुम्हारा ?"
"स...सिकन्दर।" वह बड़ी कठिनाई से कह सका।
"कहां से आ रहे हो ?"
यह सवाल ऐसा था कि जिसने उसके तिरपन कंपा दिए। एकदम से उसके मुंह से 'गाजियाबाद ' निकलने वाला था , तभी दिमाग में विचार कौंधा कि—नहीं , मुझे गाजियाबाद नहीं कहना चाहिए , परन्तु तभी मस्तिष्क में यह विचार भी कौंधा कि , यदि वह 'गाजियाबाद ' नहीं कहेगा तो यहां बैठे यात्री चौंक पड़ेंगे।
इनमें से अधिकांश पीछे से आ रहे हैं। उन्होंने मुझे गाजियाबाद से चढ़ते देखा है—यह सारे विचार क्षणमात्र में ही उसके दिमाग में उभरे थे और अगले ही पल उसने जवाब दे दिया था— “ गाजियाबाद।"
"कहां जाना है ?"
“नई देहली।"
"क्यों ?”
“क.....क्यों से मतलब , देहली में मेरा घर है।"
"कहां ?"
“लारेंस रोड पर …सेठ न्यादर अली का लड़का हूं मैं।"
"गाजियाबाद क्यों गए थे ?"
"बिजनेस के सिलसिले में।"
"क्या बिजनेस है आपका ?"
“गत्ते की फैक्ट्री है मेरी।"
"हद है , गत्ते की फैक्ट्री लगाए बैठे हैं और यात्रा कर रहे हैं इस कम्पार्टमेंट में!" अजीब-से अन्दाज में बड़बड़ाते हुए इंस्पेक्टर ने मानो खुद ही से कहा और उसके यूं बड़बड़ाने पर युवक को भी अपनी गलती का अहसास हुआ , निश्चय ही सेठ न्यादर अली के बेटे और एक गत्ता फैक्ट्री के मालिक को कम-से-कम इस कम्पार्टमेंट में नहीं होना चाहिए मगर जो तीर कमान से निकल चुका था, अब वह वापस तो आना नहीं था। इसीलिए खामोश ही रहा।
इंस्पक्टर ने उसी से कहा— "प्लीज , अपना टिकट दिखाइए।”
और हड़बड़ाया-सा युवक जेब से टिकट निकालते वक्त सोच रहा था कि इसी क्षण फंस गया था , गाजियाबाद से देहली तक का टिकट निकालकर उसने इंस्पेक्टर को पकड़ा दिया।
टिकट को उलट-पुलटकर ध्यान से देखने के बाद उसे लौटाते हुए इंस्पेक्टर ने कहा— "प्लीज , स्टैण्डअप।"
युवक के तिरपन कांप गए।
आत्मा तक हिल उठी थी उसकी—समझ नहीं पा रहा था कि इंस्पेक्टर आखिर उसी के पीछे क्यों पड़ गया है-कम्पार्टमेंट में दूसरे यात्री भी तो हैं—क्या उस पर किसी किस्म का शक कर रहा है , क्या उसके हुलिए को वह पहचान गया है ?
खड़ा हो जाना युवक की मजबूरी थी।
उसने महसूस किया कि टांगें बुरी तरह कांप रही थीं—बहुत ज्यादा देर तक वह खड़ा नहीं रह सकेगा , गिर पड़ेगा वह—अगर इंस्पेक्टर ने उसकी इस वक्त की अवस्था देखी होती तो किसी भी कीमत पर उसे गिरफ्तार किए बिना न रहता , क्योंकि युवक के दिलो-दिमाग पर छाई नर्वसनेस उसके जिस्म से बुरी तरह छलक रही थी।
मगर एक कांस्टेबल को उसकी तलाशी लेने का हुक्म देकर इंस्पेक्टर एक दूसरे यात्री की तरफ आकर्षित हो गया था और कांस्टेबल का ध्यान उसकी जेबें टटोलने के अलावा किसी तरफ नहीं था , तलाशी के बाद कांस्टेबल ने उसे बैठ जाने का इशारा किया।
युवक 'धम्म ' से बैठ गया।
सन्तोष की पहली सांस उसने अभी ली ही थी कि इंस्पेक्टर अपने नथुनों से लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। एकाएक ही वह बोला— “मिट्टी के तेल की दुर्गन्ध कहां से आ रही है ?”
युवक के दिमाग में बिजली-सी कौंध गई।
बेहोश होते-होते बचा वह।