desiaks
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सब उठ गये और एक दूसरे को देखने लगे। सब के सब नंगे। मर्द तो बेशरम थे, इसलिए आराम से कपड़े पहनने लगे, किंतु मम्मी और चाची का तो शर्म से बुरा हाल था। झट से अपने कपड़े उठा कर बाथरूम की ओर भागी। रात की बात और थी। कामुकता का माहौल था और उस माहौल में कामुकता के मारे उन्होंने लाज शरम को ताक पर रख दिया था, किंतु अभी सवेरे सवेरे जब उन्होंने सामान्य माहौल में अपने नग्न देह को इतने नंगे मर्दों के बीच नुची चुदी पड़ी देखा तो लाज के मारे दोहरी हो गयीं। मैं उनकी हालत देख कर मुस्कुरा रही थी।
हरिया तुरंत फ्रेश हो कर किचन में चले गए और मैं भी पीछे पीछे किचन में कदम रखी। अब मैं उस घर की मालकिन थी। मैं ने पीछे से हरिया को बांहों से जकड़ कर बड़े प्यार से पूछा, “पतिदेव जी, अब तो मैं किचन में आ सकती हूं ना?”
“ओह रानी, बिल्कुल बिल्कुल।” कहते हुए पीछे पलटकर मुझे बांहों में भर कर चूम लिया और बोले, “अब तो तू इस घर की मालकिन है मेरी जान, जहां मर्जी जाओ” उनकी इस अदा पर मैं कुर्बान हो गई। हरिया और मैं ने सबका नाश्ता तैयार किया और करीब दस बजे हम सब नाश्ते के लिए इकट्ठा हुए। मां और चाची के चेहरे रात की बातों को सोच सोच कर लाल भभूका हो रहे थे। पंडित जी नाश्ता करने के उपरांत चले गए किंतु जाते जाते आशा और याचना भरी नजरों से मुझे देख रहे थे जिसके प्रत्युत्तर में मैं ने आंखों ही आंखों में जता दिया कि उनकी याचना को मैंने पढ़ लिया है और उनकी याचना व्यर्थ नहीं जाएगी। मैं उनसे मिलती रहूंगी।आश्वस्त हो कर पंडित जी प्रफुल्लित मन से चले गए।
नाश्ते की मेज पर ही नाश्ते के पश्चात दादाजी ने चाची, मम्मी और बड़े दादाजी की ओर मुखातिब हो कर बोले, “हां, तो अब बताओ तुम लोग अपने अपने किस्से जो रात को बोल रहे थे। कामिनी के बाप के बारे में और रमा तू बता अपने बारे में, कि तेरे साथ ऐसा क्या हुआ कि तू इतनी बड़ी चुदक्कड़ बन गई है? वैसे तुझे देख कर तो ऐसा नहीं लगता है कि तुझे कई मर्दों से चुदने का कोई दुःख है।”
“हां मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है कि मैं एक शरीफ घरेलू औरत से चुदक्कड़ औरत बन गई हूं। मैं अपने चुदक्कड़ पन से खुश हूं क्योंकि मुझे इसमें आनंद मिलता है और मैं जीने का पूरा मज़ा ले रही हूं। लेकिन आपलोग जब हमें छिनाल कहते हैं तो मुझे गुस्सा आता है। आप लोग किसी भी औरत को मना कर या जबरदस्ती चोद लेते हैं तो आप लोगों के लिए सब ठीक है, आप लोग शरीफों की गिनती में फिर भी रहेंगे, और हम औरतें अगर यही काम स्वेच्छा से या मजबूरी में करें तो हमें आपलोग छिनाल कहने लगते हैं, ऐसा क्यों?” चाची अपने मन की भंड़ास निकालने लगी थी।
“अरे नहीं रे पगली, तू तो ख्वामख्वाह नाराज हो रही है। चुदाई के वक़्त जब हम तुम औरतों को छिनाल कहते हैं तो वह सिर्फ वक्ती तौर पर दिल का उद्गार है, उत्तेजना के आवेग में निकलता हुआ महज उद्गार। उसे गंभीरता से मत ले। सिर्फ मजा ले। अब बता तेरी कहानी।” दादाजी बोले।
“ठीक है तो सुनिए। मैं शुरू में एक शरीफ घरेलू औरत थी। शादी के दस साल तक मैं एक वफादार पत्नि और एक बच्चे की अच्छी मां थी। मैं पास के सरकारी हाई स्कूल में टीचर हूं। आप लोगों को तो पता ही है कि एक दुर्घटना में मेरे पति, आपके भतीजे राकेश, की मौत आठ साल पहले हुई थी। उस समय मेरी उम्र तीस साल थी। आपके ममेरे भाई अर्थात राजेन्द्र सिंह जी, मेरे ससुर, गांव में रहते हैं। मैं अकेली, पति की मौत के बाद से विधवा मां की भूमिका निभा रही थी। लेकिन एक विधवा का जीवन कितना कठिन होता है यह तो आप सबको पता है खास कर के तब जब एक स्त्री की उम्र तीस साल की हो। मेरी जवानी मेरे लिए हर कदम में मुश्किलें पैदा करता रहता था। सारे मर्द मुझे ऐसी नज़रों से देखते थे मानों मौका मिले तो कच्चा ही चबा जाएं। स्कूल के आवारा लड़के भी कम नहीं थे। 16 – 17 साल के हमारे स्कूल के कई आवारा लड़कों का ध्यान क्लास लेते वक्त पढ़ाई में कम और मेरे तन पर ही ज्यादा रहता था। उनकी नजरों से ऐसा लगता था मानो वे मेरे कपड़े के अंदर भी मेरे नंगे जिस्म को देख रहे हों। ऐसा लगता था मानो उनका वश चलता तो क्लास रूम में ही मेरी चुदाई कर डालते। मैं हवश के भूखे ऐसे किसी भी मर्द को अपने पास फटकने नहीं देती थी। एक सीमा रेखा के बाद न कोई लड़का और न कोई व्यस्क मर्द मुझसे घनिष्ठता कर सकता था। लेकिन एक अकेली जवान औरत कब तक अपने आप को इस समाज की बुरी नजरों से बचा कर रख सकती थी।”
हरिया तुरंत फ्रेश हो कर किचन में चले गए और मैं भी पीछे पीछे किचन में कदम रखी। अब मैं उस घर की मालकिन थी। मैं ने पीछे से हरिया को बांहों से जकड़ कर बड़े प्यार से पूछा, “पतिदेव जी, अब तो मैं किचन में आ सकती हूं ना?”
“ओह रानी, बिल्कुल बिल्कुल।” कहते हुए पीछे पलटकर मुझे बांहों में भर कर चूम लिया और बोले, “अब तो तू इस घर की मालकिन है मेरी जान, जहां मर्जी जाओ” उनकी इस अदा पर मैं कुर्बान हो गई। हरिया और मैं ने सबका नाश्ता तैयार किया और करीब दस बजे हम सब नाश्ते के लिए इकट्ठा हुए। मां और चाची के चेहरे रात की बातों को सोच सोच कर लाल भभूका हो रहे थे। पंडित जी नाश्ता करने के उपरांत चले गए किंतु जाते जाते आशा और याचना भरी नजरों से मुझे देख रहे थे जिसके प्रत्युत्तर में मैं ने आंखों ही आंखों में जता दिया कि उनकी याचना को मैंने पढ़ लिया है और उनकी याचना व्यर्थ नहीं जाएगी। मैं उनसे मिलती रहूंगी।आश्वस्त हो कर पंडित जी प्रफुल्लित मन से चले गए।
नाश्ते की मेज पर ही नाश्ते के पश्चात दादाजी ने चाची, मम्मी और बड़े दादाजी की ओर मुखातिब हो कर बोले, “हां, तो अब बताओ तुम लोग अपने अपने किस्से जो रात को बोल रहे थे। कामिनी के बाप के बारे में और रमा तू बता अपने बारे में, कि तेरे साथ ऐसा क्या हुआ कि तू इतनी बड़ी चुदक्कड़ बन गई है? वैसे तुझे देख कर तो ऐसा नहीं लगता है कि तुझे कई मर्दों से चुदने का कोई दुःख है।”
“हां मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है कि मैं एक शरीफ घरेलू औरत से चुदक्कड़ औरत बन गई हूं। मैं अपने चुदक्कड़ पन से खुश हूं क्योंकि मुझे इसमें आनंद मिलता है और मैं जीने का पूरा मज़ा ले रही हूं। लेकिन आपलोग जब हमें छिनाल कहते हैं तो मुझे गुस्सा आता है। आप लोग किसी भी औरत को मना कर या जबरदस्ती चोद लेते हैं तो आप लोगों के लिए सब ठीक है, आप लोग शरीफों की गिनती में फिर भी रहेंगे, और हम औरतें अगर यही काम स्वेच्छा से या मजबूरी में करें तो हमें आपलोग छिनाल कहने लगते हैं, ऐसा क्यों?” चाची अपने मन की भंड़ास निकालने लगी थी।
“अरे नहीं रे पगली, तू तो ख्वामख्वाह नाराज हो रही है। चुदाई के वक़्त जब हम तुम औरतों को छिनाल कहते हैं तो वह सिर्फ वक्ती तौर पर दिल का उद्गार है, उत्तेजना के आवेग में निकलता हुआ महज उद्गार। उसे गंभीरता से मत ले। सिर्फ मजा ले। अब बता तेरी कहानी।” दादाजी बोले।
“ठीक है तो सुनिए। मैं शुरू में एक शरीफ घरेलू औरत थी। शादी के दस साल तक मैं एक वफादार पत्नि और एक बच्चे की अच्छी मां थी। मैं पास के सरकारी हाई स्कूल में टीचर हूं। आप लोगों को तो पता ही है कि एक दुर्घटना में मेरे पति, आपके भतीजे राकेश, की मौत आठ साल पहले हुई थी। उस समय मेरी उम्र तीस साल थी। आपके ममेरे भाई अर्थात राजेन्द्र सिंह जी, मेरे ससुर, गांव में रहते हैं। मैं अकेली, पति की मौत के बाद से विधवा मां की भूमिका निभा रही थी। लेकिन एक विधवा का जीवन कितना कठिन होता है यह तो आप सबको पता है खास कर के तब जब एक स्त्री की उम्र तीस साल की हो। मेरी जवानी मेरे लिए हर कदम में मुश्किलें पैदा करता रहता था। सारे मर्द मुझे ऐसी नज़रों से देखते थे मानों मौका मिले तो कच्चा ही चबा जाएं। स्कूल के आवारा लड़के भी कम नहीं थे। 16 – 17 साल के हमारे स्कूल के कई आवारा लड़कों का ध्यान क्लास लेते वक्त पढ़ाई में कम और मेरे तन पर ही ज्यादा रहता था। उनकी नजरों से ऐसा लगता था मानो वे मेरे कपड़े के अंदर भी मेरे नंगे जिस्म को देख रहे हों। ऐसा लगता था मानो उनका वश चलता तो क्लास रूम में ही मेरी चुदाई कर डालते। मैं हवश के भूखे ऐसे किसी भी मर्द को अपने पास फटकने नहीं देती थी। एक सीमा रेखा के बाद न कोई लड़का और न कोई व्यस्क मर्द मुझसे घनिष्ठता कर सकता था। लेकिन एक अकेली जवान औरत कब तक अपने आप को इस समाज की बुरी नजरों से बचा कर रख सकती थी।”