Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा - Page 34 - SexBaba
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Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा

पिछली कड़ी में आपलोगों ने पढ़ा कि एक अर्धविकसित बुद्धि वाला रामलाल, अपने जीवन में किस तरह अपने छोटे भाई की पत्नी सरोज, पड़ोसन रबिया और उसकी बेटी शहला के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर स्त्री संसर्ग के आनंद लुत्फ उठा रहा था। यह सब उसने हम सबके बीच, अर्थात, रश्मि, हरिया, करीम और मेरे बीच, अपने शब्दों में बयां किया, जिसे मैंने अपनी शब्दावली से सजा कर आपलोगों के सम्मुख पेश किया। उसके उत्तेजक संस्मरण को सुनने के दौरान हम सभी कामाग्नि में झुलसते अपनी कामपिपाशा भी शांत करते रहे। हरिया, करीम और रामलाल, तीन कामुक मानवरूप पशुओं नें मेरी और रश्मि के जिस्म की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पूरी तरह निचोड़ कर रख दिया था कमीनों ने, लेकिन हम दोनों ने जिस हौसले का परिचय उन्हें दिया, दंग रह गये वे। उनकी हर वहशियाना हरकतों से आरंभिक कष्ट के पश्चात हमें जो सुखद अनुभव हुआ वह शब्दों में बयां करना शायद मुश्किल होगा। अटपटा सा लगनेवाला, असंभव से लगनेवाले उस सामूहिक कामक्रीड़ा का दौर गुजरने के पश्चात, अपने शरीर की दुर्दशा पर दुखी होने की बजाए, हम दोनों मुदित मन, अपने शरीर के रोम रोम में मीठी मीठी पीड़ा का अहसास कर रही थीं और उन तीनों नारी तन के भूखे नरपिशाचों का तो कहना ही क्या, उनकी हालत उन बिल्लियों की मानिंद थी जो दूध पी कर अपने होंठ चाटते हैं। सामाजिक दृष्टि से इस घृणित कुकृत्य का समापन होते होते संध्या सात बज गया था। रश्मि, लुटी पिटी, नुची चुदी, थकी हारी, शरीर का सारा बल एकत्रित कर, न चाहते हुए भी लड़खड़ाते कदमों से हमारे यहां से रुखसत होने को वाध्य थी। गयी वह, क्योंकि दूसरे दिन ही उसे कोलकाता लौटना था। कहां तो वह अपने भाई के घर आई थी भाई भाभी से मिलने के लिए और किस्मत नें देखो कहां ला पटका हमारे बीच नुचने चुदने को। शायद तमन्ना थी कि रांची आ कर ,अपने भाई के अनैतिक रिश्ते में कुछ रंगीन लम्हें बिता कर शारीरिक भूख की तृप्ति प्राप्त कर के अपनी तलाकशुदा जिंदगी के मरूस्थल की तपिश मिटा ले। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, क्षितिज को मिला कर कुल चार पुरुषों की अंकशायिनी बन कर पूरी तरह तृप्त, कभी न विस्मृत कर सकने वाले यादगार लम्हों को मनोमस्तिष्क में संजो कर वापस हो रही थी क्योंकि दूसरे दिन उसे कोलकाता लौटना था। उसके जाने के पश्चात मैंने अपने आप को संभाला और हम सब अपने अपने कार्य में व्यस्त हो गये।

रामलाल द्वारा शहला के कौमार्य भंग होने की घटना नें यह तो साबित कर ही दिया कि शारीरिक वासना की आग होती ही है इतनी कमीनी कि एक मां अपने अनैतिक शारीरिक संबंध को गुप्त रखने हेतु अपनी कोखजाई पुत्री को भी एक कामपिपाशु पुरुष के सम्मुख परोसने में भी बाज नहीं आई। अब इसे समाज में अपनी इज्जत जाने का भय समझें या कुछ और, रबिया नें जो कार्य किया, उसके परिणाम स्वरूप उसकी नादान बेटी शहला को भी षुरुष संसर्ग का चस्का तो लग ही गया। रामलाल बेचारा तो ठहरा अल्पबुद्धि, संभोग के मजे के आगे रिश्ते नाते और भावनाओं का मोल भला क्या समझता। हमारे तन को भोगने का आनंद लेने से पहले ही ऊपरवाले नें उसे तीन तीन नारियों को उपलब्ध करा दिया था। अब हमें मिला कर हो गयीं पांच। वाह रे ऊपरवाले, कहां तो कुछ बदकिस्मत पुरुष एक औरत की चूत के लिए मारे मारे फिरते हैंं और कहां एक अल्पबुद्धि कामक्षुधा के मारे मनुष्य को पांच पांच नारियां बैठे बिठाए मिल गयीं खुशी खुशी चुदवाने के लिए। इसे कहते हैं किस्मत।
 
रामलाल अपने घर वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। हमारी लाख कोशिशों के बावजूद वह यहीं रहने पर आमादा हुआ था। तभी मेरे मन में यह विचार कौंधा। वृद्धाश्रम वाला। क्यों न रामलाल जैसे बुजुर्गों के लिए एक वृद्धाश्रम खोल दिया जाए, जिसमें ऐसे विकलांग बुजुर्ग, परिवार से परित्यक्त बुजुर्ग, बेसहारों के लिए एक सुरक्षित आश्रय मिल जाए। हमारे पास भूमि तथा धन का अभाव तो था नहीं। केवल योजना को अमलीजामा पहनाने की देर थी। बस, मैंने तत्काल निर्णय ले लिया उसे साकार करने का।

खैर फिलहाल तो मैं कल के बारे में सोच रही थी। कल की तैयारी करनी थी। दूसरे दिन यथासमय मैं ऑफिस पहुंची और दिन भर काफी व्यस्त रही। शिवालिंगम नायर के साथ मीटिंग का तो अब कोई और अर्थ नहीं था। मुझे सिर्फ फिक्र थी संध्याकाल में उनके साथ डिनर की। डिनर का अर्थ क्या था वह भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया था। उस पचास वर्षीय अभियंता की निगाहें मेरी आकर्षक देह के उतार चढ़ाओं को नाप लौल रही थीं। चिरपरिचित वासना की भूख उसके नेत्रों पर खेल रही थी। मुंह से किसी कामपिपाशु दरिंदे भेड़िए की भांति लार टपक रहा था। पर मैं ठहरी एक नंबर की रांड, आदी थी इन सबकी, क्या फर्क पड़ना था, चुदना ही तो था। कल की जालिमाना नोच खसोट के बाद वैसे तो आज मुझे विश्राम लेना था, लेकिन मैं पूरी तरह पेशेवराना अंदाज में पिछले दिन की सारी घटनाओं को मन मस्तिष्क से झटक कर और तन की थकान को नजरअंदाज करके तत्पर हो गयी नायर साहब से मिलने को।

ऑफिस से चार बजे ही छुट्टी करके घर लौट आई। कुछ विश्राम किया। संध्या सात बजे के करीब पूर्वनिर्धारित समयानुसार मैं फ्रेश होकर बकायदा साड़ी ब्लाऊज में ही उनके बताए हुए हॉटल में पहुंची। नायर साहब हॉटल के रिशेप्शन में एक और अधेड़, दुबले पतले, कोयले की तरह काले अजनबी के साथ बैठे पाये गये। मुझे देखते ही उनकी बांछें खिल गयीं।

“आईए कामिनी जी, मैं आपका ही इंतजार कर रहा था। समय की बड़ी पाबंद हैं आप।” नायर साहब की आंखें चमक उठी थीं। उनके साथ बैठा व्यक्ति, किसी लोमड़ी की तरह लार टपकाती दृष्टि से मुझे सर से पांव तक घूर रहा था। मैं थोड़ी असमान्य स्थिति में खुद को पा रही थी। वह व्यक्ति मुझे बेहद घटिया टाईप शख्स दिख रहा था। पान खा खा कर लाल, मोटे मोटे होंठों से बाहर निकले हुए पीली दंतपंक्तियां, जिनमें से सामने के ऊपर वाले चार दांत अत्यंत अनाकर्षक रुप से बाहर की ओर निकले हुए थे, का प्रदर्शन करते हुए खींसें निपोर रहा था। जबड़े भी सामान्य से कुछ अधिक ही सामने उभरे हुए थे। उसकी ऊपरी दंतपंक्ती में दोनों ओर भेड़ियों की तरह एक एक दांत कुछ अधिक ही लंबे थे, आम लोगों से कुछ अधिक, दैत्यों की तरह या यों कहें ड्राक्यूला की तरह। उस व्यक्ति को देख कर मन वितृष्णा से भर उठा। मेरी दृष्टि और चेहरे की भाव भंगिमा को लक्षित कर नायर साहब नें मुझे आश्वस्त करते हुए उनका परिचय कराया, “इनसे मिलिए, ये हैं छेदीलाल चौबे। ये हैं यहां के हमारे डीलर, लोकल सप्लायर और आफ्टर सेल्स सर्विस के इंचार्ज।”

“नमस्ते मैडम।” छेदीलाल खींसें निपोरते हुए खड़ा हो गया। औसत कद का, करीब साढ़े पांच फुट, बेहद अनाकर्षक व्यक्तित्व था। अपने काले रंग के अलावा दुबला पतला, अधपके बेतरतीब घुंघराले बाल, लोमड़ी जैसी आंखें, लंबी नाक।

“नमस्ते।” अनिच्छा के बावजूद मैं उस कमीने के अभिवादन का उत्तर देने को वाध्य थी, सभ्यता की मांग के अनुसार।
 
आईए, हम लाऊंज में चलते हैं। डिनर वहीं मंगा लूंगा।” कहते हुए होटल के लाऊंज की ओर बढ़े। मैं उनके पीछे और हमारे पीछे पीछे चौबे जी। हम तीनों के लिए पहले से एक टेबल और तीन कुर्सियां सजी हुई थीं। हमारे बैठते ही वेटर आ गया और खाने का ऑर्डर ले कर चला गया। वृत्ताकार टेबल के तीन ओर हम त्रिकोण बना कर बैठे थे। तीनों व्यवसाय से इतर, इधर उधर की बातें कर रहे थे। जब वेटर खाने से पहले स्टार्टर के रुप में कुछ हल्के फुल्के स्नैक्स ले कर आया और साथ में “जॉनीवाकर” का एक बोतल भी। मैं तनिक असहज हो गयी। नायर नें पूछा, “आप ड्रिंक्स वगैरह लेती हैं क्या?”

“नहीं, आम तौर पर नहीं।” मैं ने मना कर दिया।

“आम तौर पर ना, खास मौकों पर?” धूर्ततापूर्ण मुस्कुराहट के साथ चौबे जी बोले।

“अरे लीजिए ना आप भी। आजकल क्या आम और खास। क्या औरत और क्या मर्द, हमारे लेबल में सभी पीते हैं।” नायर जी ने कहते कहते तीन पैग बना ही डाला। उनके जोर देने पर मैं मना नहीं कर पायी। कई मौकों पर मैं मदिरा पान कर चुकी थी। मेरे लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। मन ही मन मना रही थी कि चौबे जी खा पी कर जल्दी रुखसत हो जाएं।

“चीयर्स।” हमने पैग टकराया और छोटी छोटी चुस्कियां लेने लगे। बीच बीच में भुने हुए काजू, चिप्स और टुकड़ों में चिकन कबाब का स्वाद लेने लगे। चौबे जी की एक अजीब बात पर मैंने ध्यान दिया, बातों के बीच में उनका हंसना, हंसते हुए अपनी दैत्यों वाले दांतों का प्रदर्शन, पैग की चुस्की लेने के पश्चात अपने होंठों को चाटना। उसकी जीभ आम इन्सानों जैसी नहीं थी। काफी लंबी जीभ, कुत्तों जैसी लंबी। यह इन्सान है कि भेड़िया? मेरे शरीर को देखते वक्त उसकी छोटी छोटी कंजी आंखों में किसी शिकारी कुत्ते की तरह चमक आ जाती थी। उसकी हवस भरी नजरें, मेरे चेहरे और वक्षस्थल पर ही बार बार घूम रही थीं। दो पैग लेने के बावजूद मैं खुद को संयमित रखने की पुरजोर कोशिश कर रही थी। तभी वेटर भोजन सामग्री ले कर उपस्थित हो गया और टेबल पर सजाने लगा।

“एक और पैग?” प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखते हुए नायर जी बोले।

“नहीं, बस, हो गया।” मैं तुरंत बोल उठी।

“अरे ले लीजिए ना। कुछ नहीं होता।” चौबे जी बोले।

“नहीं बस।” मैं मना करने लगी।

“अरे लवली पैग।” कहते कहते मेरे इनकार को नजरअंदाज करते हुए नायर साहब मेरी खाली ग्लास में आधा पैग डाल ही दिए।

“इतने में ही नशा हो रहा है मुझे, बस बस।” मैं बोलती रह गयी।

“नशा में ही तो मजा है मैडम।” चौबे जी मेरी हालत को भांपते हुए बोले। नायर साहब बस मुस्कुरा कर रह गये।

“चौबे जी, यह आप क्या कह रहे हैं?” मुझे उसका इस तरह कहना तनिक भी नहीं भाया।

“क्या गलत कह रहा हूं मैं?” चौबे जी अपने होंठ चाटते हुए बड़े भद्दे ढंग से बोले।

“यह मजा, कैसे मजे की बात कह रहे हैं आप?”

“ओह मेरी नादान मुनिया, इतनी भी भोली न बनिए।”

“क क क क्या मतलब?”

“मतलब? अब भी मैं बताऊं मतलब?”

“मैं समझी नहीं।”

“यहां किस लिए आई हैं आप?”

“वह तो, वह तो, नायर साहब ने़ं डिनर के लिए बुलाया था।”

“नायर साहब किसी स्त्री को डिनर में किसलिए बुलाते हैं, मुझे ठीक पता है।”

“ओह्ह्ह्ह्ह, तो तो तो तो, आपको उससे क्या?” मैं हकला उठी।

“नायर साहब अब आप ही बता दीजिए कि मुझे इससे क्या।”

 
देखिए मैडम, यहां का सारा बिजनेस यही डील करता है। हमारा पार्टनर ही समझ लीजिए। मैं अपने पार्टनर को ऐसे कैसे छोड़ सकता हूँ। बुला लिया इसे भी।” नायर साहब बोले। तो, तो क्या, तो क्या चौबे जी भी……? उफ्फ्फ्फ्फ्फ, तो क्या यह कमीना, गंदा, गलीज आदमी भी मेरे तन को नोचने की फिराक में है? आभास तो मुझे पहले ही हो गया था, फिर भी अपने मन को अबतक झूठी तसल्ली दे रही थी कि खाना खा कर यह यहां से रुखसत होगा, फिर नायर जी मेरे साथ जो करना हो करे। लेकिन अब तो बात ही कुछ और हो रही थी।

“चौबे जी, प्लीज, मैं ऐसी औरत नहीं हूं।” चिरौरी सी कर उठी मैं।

“फिर कैसी औरत हैं आप? अंधा हूं क्या मैं?”

“आपके घर में मां बहन नहीं हैं क्या?” तनिक रोष से बोली।

“मां नहीं है। बहन है।”

“मैं आपकी बहन जैसी हूं।”

“तभी तो। तभी तो आया हूं।”

“क्या मतलब?” चौंक उठी मैं।

“सुनना है तो सुन ही लीजिए मैडम जी। खुल कर ही बोल देता हूं। मैं बहनचोद हूं, अपनी एकलौती बहन का बहनचोद भाई। नायर साहब भी मजे करते हैं उसके साथ।” अब और क्या सुनना बाकी था। सन्न रह गयी मैं। साले, जहां देखो वहीं चुदक्कड़ों की भरमार है। जिसे देखो वही औरतों की चूत के लिए लंड लिए खड़ा मिलता है। वाह री दुनिया। जहां देखो वहीं भरे पड़े हैं कमीने। मैं समझ रही थी कि मैं और मेरे जैसे कुछ लोग ही ऐसे हैं इस दुनिया में। आगे और क्या बोलती मैं। नि:शब्द रह गयी कुछ पलों के लिए।

“नायर साहब, आपने ऐसा पहले मुझे क्यों नहीं बताया?” मैं नशे में होने के बावजूद तनिक रोष में बोली।

“गुस्सा मत हो मेरी जान, एक से भले दो। सब चलता है। खुश हो जाओगी तुम।” अब आप से तुम पर आ गये वे। हथियार। खैर किसी तरह मैंने खाना खत्म किया। इस तीसरे पैग से मुझे काफी नशा हो गया था।

“तो अब चलें?” नायर बोला।

“कहां?”

“कमरे में, और कहां।” चौबे जैसे गलीज आदमी को अपना तन सौंपने की कल्पना मात्र से ही मुझे उबकाई सी आ रही थी। मन वितृष्णा से भर गया था, फिर भी झेलना तो था ही। फंस गयी थी। मैं कुर्सी से उठी तो नशे के कारण तनिक लड़खड़ा गयी, नायर जी नें लपक कर मुझे थाम लिया। मुझे थामा क्या, उसी बहाने मेरे वक्षस्थल को हौले से दबा भी दिया। मादरचोद, अपनी जात अभी से दिखा रहा था। मुझे थामे हुए फर्स्ट फ्लोर के अपने कमरे में ले आया। पीछे पीछे चौबे जी भी कमरे में दाखिल हुए और कमरे का द्वार अंदर से बंद कर दिया। कमरा काफी बड़ा और सुसज्जित था। गद्देदार बड़ा सा बिस्तर, जिसपर मुझे एकाएक छोड़ दिया, मैं अनियंत्रित धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरी हालत देख कर उन दोनों की बाछें खिल उठी थीं। एक खूबसूरत गदराई कामुक काया उनके सम्मुख चुदने को उपलब्ध थी।

“It so nice to see a beautiful sexy lady on my bed, ready to be fucked. (यह देखना अत्यंत सुखद है कि एक सुंदर सेक्सी औरत मेरे बिस्तर पर है, चुदने को तैयार)

“सही कहा नायर साहब।” अपनी कुत्तों जैसी लंबी जीभ लपलपाते चौबेजी बोले मेरे सम्मुख आ कर बोले। इतनी देर से उनके रूप के प्रति मेरी वितृष्णा, उसकी लंबी जिह्वा को देख पता नहीं क्यों तिरोहित हो गयी। एक रोमांच सा भर गया मेरे अंदर। यह क्या हो रहा था मुझे? मैं समझ नहीं पा रही थी। मैं बिस्तर पर गिर जरूर पड़ी थी लेकिन तुरंत ही उठ बैठी।

“न न न न उठ मत मेरी जान, ऐसी ही लेटी रह। जरा देखने तो दे तेरी खूबसूरती को।” चौबे जी बोले। तो अब मुझे दो दो कामुक भेड़ियों को झेलना था। नशे में होने के बावजूद मैं काफी हद तक नियंत्रण में थी। मेरी मर्जी न होती तो इन दोनों के वश में नहीं आ सकती थी। लेकिन वक्त का तकाजा था। व्यवसायिक लाभ की बात थी। स्वेच्छा से आई थी। झेलना तो था ही।

“द द द देखिए मैं अकेली और आप द द द दो?”

“तो क्या हुआ?”

“पपपप्लीज, मेरे साथ ऐसा मत कीजिए।”

“कैसा न करें?”
 
ययययही कि…..।” आगे की बात मेरे मुंह में ही रह गयी। चौबे जी मुझ पर चढ़ दौड़े और मेरे होंठों को अपने थूथन से बंद कर दिया। उफ्फ्फ्फ्फ्फ, उस दुबले पतले गंदे आदमी की बांहों में भी काफी दम था। उसकी लंबी जीभ मेरे मुंह के अंदर नृत्य कर रही थी। मैं अवश हो रही थी। उधर नायर साहब कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने पीछे से आकर मुझे दबोच लिया। मेरे उन्नत उरोजों को अपनी हथेलियों से मसलना आरंभ कर दिया। हम सब अपने पूरे कपड़ों में थे। कुछ देर यूं ही चलता रहा, मैं उनकी बांहों में पिसती, उनकी कामुक हरकतों से हलकान होती, उत्तेजना के सैलाब में बही जा रही थी। चौबे जी ने अब मुझे बंधनमुक्त करके आजाद कर दिया किंतु नायर साहब मेरे पीछे से मेरे उरोजों को अब भी मसले जा रहे थे।

“उफ्फो्ओ्ओ्ह्ह ओ्ओ्ओह्ह्ह, आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह।” मेरे मुंह से आहें निकल रही थीं।

“तैयार हो गयी नायर साहब। मैडम जी, अब दिखा भी दीजिए अपने खूबसूरत बदन का जलवा, या हम ही उतारें” मेरी हिचकिचाहट देख कर चौबेजी पुनः बोले, “ओके, ओके, तू रहने ही दे, हम ही कर लेते हैं यह काम भी, चलिए नायर साहब, करते हैं इसे हम ही, मादरजात नंगी। जरा देखें तो इसकी मदमस्त देह। कब से मन मचल रहा है इसके नंगे बदन को देखने के लिए। फिर डुबकी तो लगाना ही है।” चटखारे लेता हुआ चौबे बोला।

“करेक्ट चौबे जी।” पुनः पिल पड़े वे दोनों मेरे कपड़ों को खींच खांच कर अलग करने, मेरी देह से।

“उफ्फ्फ्फ्फ्फ, ओह्ह्ह्ह्ह, इतने जालिम न बनिए, आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्, उफ्फ्फ्फ्फ्फ, यह यह ऐसे नहीं, ओह राम।” मुझे नंगी तो होना ही था, लेकिन ये दो कमीने कुछ अधिक ही हड़बड़ी में थे। मिनट भर भी नहीं लगा और लो, मैं हो गयी नंगी, मादरजात नंगी। “हाय्य्य्य्य दैय्या, उफ्फ्फ्फ्फ्फ।” मेरा एक हाथ मेरे स्तनों पर था और दूसरा हाथ योनि के ऊपर, जानती थी, असफल प्रयास था यह मेरा अपने यौनांगों को ढंकने का।

“अब क्या ढंक रही हो मेरी जान? चुदना तो हईए है, अब काहे का ड्रामा।” चौबे जी तनिक अधिक ही उतावले हो रहे थे। साला छटंकी कहीं का। उन्होंने मेरी नग्न देह का दर्शन क्या किया, फटी की फटी रह गयी दोनों की आंखें।

“गजब! क्या मस्त माल है नायर जी। मजा आ गया। अब आएगा मजा चोदने का।” कहते कहते चौबे जी फटाफट नंगे हो गये। उसके नंगे बदन को देख मुझे एकबारगी हंसी आ गयी, लिक्कड़, छटंकी, पसलियां दिख रही थीं उसकी। तभी मेरी नजर उसके लिंग पर पड़ी, आश्चर्यजनक रूप से लंबा और मोटा लिंग था उसका। शरीर के अनुपात में कहूं तो बेमेल विशाल। उस साढ़े पांच फुटे सूखे कंकाल सरीखे व्यक्ति का लिंग करीब आठ इंच लंबा और करीब तीन इंच मोटा था। अविश्वसनीय।

“उफ्फ्फ्फ्फ्फ भगवान,” मेरे मुंह के उद्गार से खिल उठा कमीना। इधर नायर साहब भी खामोशी से अपने कपड़े उतार रहे थे। उनके नग्न होने से पहले ही छटंकी कूदकर मेरी नग्न देह पर बेताबी से टूट पड़ा। पूरा भेड़िया लग रहा था। लाल कंजी आंखें, मोटे मोटे होंठों के बीच पीले दांत दिखाते, खींसें निपोरते, लंबी जीभ लपलपाते अपने चेहरे को ज्योंहि मेरे चेहरे के समीप लाया, एक बार तो लगा सचमुच का भेड़िया ही है। उसके कान भी आम इन्सान से बड़े थे। पूरा भेड़िया था भेड़िया। चूमने की जगह अपनी लंबी खुरदुरी जीभ से चाटने लगा मेरे चेहरे को, बिल्कुल कुत्ते की तरह। शुरू में मुझे बड़ी कोफ्त हो रही थी। सचमें मुझे आरंभ में ऐसा लगा मानो किसी गलीज, गंदे, लिजलिजे, कई दिनों के भूखे नरकंकाल, भेड़िये के हत्थे चढ़ गयी हूं। लेकिन उसकी लंबी जीभ से कुत्ते की तरह चाटना, मुझे अच्छा लगने लगा था। गनगना उठा मेरा तन बदन। सुरसुरी सी हो रही थी।

“उफ्फ्फ्फ्फ्फ आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्।”
 
चढ़ रही है मस्ती, साली के शरीर में।” चौबे बोला। अबतक नायर जी भी नंगे होकर मेरे करीब आ चुके थे। उनका कद और सेहत काफी आकर्षक था। सिर्फ रंग काला था। उनके सारे शरीर पर बाल भरे हुए थे। उनका लिंग चौबे जी के लिंग के मुकाबले कम लंबा था, करीब छ: इंच का होगा लेकिन मोटाई चौबे जी की तरह ही थी।

“हां चौबे जी, वह तो दिख ही रहा है।” नायर जी मेरे हाथ को मेरी योनि पर से हटा कर मेरी फूल कर कुप्पा हुई बड़ी सी चिकनी चूत को देख कर बोले, “wow, so big and smooth cunt, soooo nice fucking hole I have ever seen in my life. (वाह, इतनी बड़ी और चिकनी चूत, मैंने अपनी जिंदगी में अबतक की इतनी अच्छी चुदाई छिद्र देखी है।)

“हां नायर जी। काफी चुदी चुदाई खूबसूरत चूत है इस मैडम की। देखिए तो, कैसी पावरोटी जैसी फूली हुई चूत है इसकी, साली मां की लौड़ी। बड़ी सीधी बन रही थी बुरचोदी। देखने से ही पता चल रहा है कितनी बड़ी लंडखोर है।” चौबे जी आ गये अपनी औकात पर। हाय राम, मेरी चूत नें तो मेरी सारी लंडखोरी का पर्दाफाश कर दिया।

“उफ्फ्फ्फ्फ्फ, आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं।” तनिक शर्मिंदा हो उठी मैं।

“और कैसे बोलूं? रंडी बोलूं? लौड़े की छिनाल बोलूं?” गलीज आदमी गलीज लफ्जों पर आ गया था। बुरा तो लगा लेकिन अच्छा भी लगा कि अब ये खुला खेल फर्रुखाबादी खेलनेवाले हैं। मैं अब भी उन्हें यह नहीं जताना चाहती थी कि मैं इतनी सस्ती टाईप की स्त्री हूं।

“उफ्फ्फ्फ्फ्फ, प्लीज ऐसे न बोलिए ना।”

“चुप हरामजादी।” चोबे जी शुरु हो गये मेरी चूचियों को चूसने और चाटने। उफ्फ्फ्फ्फ्फ, अपनी लंबी जीभ से सटा सट मेरी चूचियों को चाटते हुए मुझे उत्तेजना के चरम पर पहूंचा चुके थे।

“जो भी हो चौबेजी, it looks juicy (यह रसीली दिख रही है) इसकी चूत चोदने में बड़ा मजा आएगा।” नायर जी बोले।

“रुकिए, जरा मैं इसकी रसीली बुर चाट तो लूं।” कहते हुए मेरी चूत चाटने लगा। चप चप चप चप, किसी कुत्ते की तरह।

“उफ्फ्फ्फ्फ्फ मां्आं्आं्आं। आ्ह ओह उफ्फ्फ्फ्फ्फ,” न चाहते हुए भी मेरे मुख से सिसकारियां उबलने लगीं।

उफ, चौबे जी मेरी चूत के ऊपर ही नहीं, चूत के अंदर भी जीभ घुसा घुसा कर चाट रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो अपनी जीभ से ही चुदाई कर रहे हों। उनकी जीभ जब मेरी चूत के ऊपर फिरा रहे थे तो मेरी गांड़ तक उसकी जीभ सरपट दौड़ रही थी। उफ्फ्फ्फ्फ्फ, मैं कामोत्तेजना के अतिरेक में तड़प उठी। जीवन में पहली बार इस तरह चूत की चटाई हो रही थी। नस नस तरंगित हो उठा मेरा। अद्भुत, अद्वितीय, चरम सुख में डूबी तड़प उठी मैं। सहसा मैं थरथराने लगी और लो, हो गया मेरा काम तमाम। उस रात्रि के प्रथम, अविस्मरणीय, सुखद स्खलन से सराबोर हो उठी। चौबे जी ठहरे एक नंबर के चुदक्कड़। समझ गये मेरी हालत। लेकिन चाटना छोड़ा नहीं कमीने नें। तबतक चाटते रहे जबतक मैं मेरी कामोत्तेजक सिसकारियां पुनः न सुनाई दी।

“लीजिए, अब चोदिए इस रंडी की चूत। कैसे चुदने के लिए तड़प रही है बुरचोदी।” चौबेजी मेरी चूत पर से हटे और तभी बिना किसी भूमिका के नायर जी मुझ पर सवारी गांठ बैठे। बस एक प्रयास, और हो गया मेरी चूत की खुजली का इलाज। घप्प से नायर जी का लौड़ा यों घुसा मेरी चूत में मानो मक्खन में घुसा हो।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्।” मैं सिसक उठी और समर्पित हो गयी नायर जी की नग्न देह को अपने में आत्मसात करन हेतु।

“Oooooo my God, it’s sooooo nice, so hot, aaaaaah, take my cock my bitch. (ओह मेरे भगवान, यह बहुत अच्छा है, बहुत गर्म, आह, ले मेरा लंड मेरी कुतिया।” ये नायर साहब के अल्फाज थे। और मैं कमीनी कुतिया, अपने पैरों को नायर साहब के कमर पर लपेट कर अपनी कमर बेसाख्ता उछाल उछाल कर चुदवाने लगी। नायर साहब मेरे होंठों को चूसते रहे, मेरी चूचियों को निचोड़ते रहे, मेरी नग्न देह को हर संभव तरीके से भंभोड़ते रहे और मगन मन चोदते रहे चोदते रहे करीब बीस पच्चीस मिनट तक। तदोपरांत पूरी तरह मुझे निचोड़ कर तृप्त स्खलित होने लगे।

“ओ्ओ्ओह्ह्ह माई गॉड, आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्।” कहते हूए मुझे जकड़े खल्लास हो कर मुझ पर से हटे।

उनके हटते न हटते चौबे जी बिना कोई पल गंवाए, मेरे निचुड़े नंगे तन पर सवार हो गये।

“अब आई मेरी बारी, साली रंडी।” कोई अनावश्यक पल गंवाए, सर्र से अपने आठ इंच लंबें लंड को मेरी चुदी चुदाई, लसलसी चूत में पैबस्त कर दिया चौबे जी नें। उफ्फ्फ्फ्फ्फ, अपनी दुबली पतली काया के लचीलेपन से मुझे अचंभित कर बैठे। मेरे चेहरे को चाटते हुए किसी कुत्ते की तरह इतनी रफ्तार से चोदने लगे कि मैं पगला ही गयी। पुनः मेरी सारी इंद्रियां सक्रिय हो गयीं और अब मैं बन गयी सचमुच में रंडी।

“हुं हुं हुं हुं हुं हुं,” छिपकिली की तरह वह छटंकी सा लिजलिजा कमीना दनादन तूफानी रफ्तार से वे चोद रहा था।
 
अह अह अह अह इह इह इह इह हं हं हं हं हं,” उसके धक्कों से हलकान, मेरे मुंह से कोई स्पष्ट अल्फाज भी नहीं निकल रहे थे, बस चुदी जा रही थी उस अंतहीन करीब चालीस पैंतालीस मिनट की चुदाई में। मैं अपनी कमर उछाल कर उसके हर ठाप का प्रत्युत्तर देने का प्रयास भी कर रही थी तो उसकी रफ्तार के आगे पराजित हो गयी। मैं ने अंततः अपने शरीर को उस लिक्कड़, मरियल से भेड़िए के सम्मुख समर्पित कर दिया और छोड़ दिया उसके रहमो करम पर। वह नोचता रहा, खसोटता रहा, अपनी नुकीली दांतों का निशान मेरी चूचियों पर छोड़ता, चोदता रहा चोदता रहा। उफ्फ्फ्फ्फ्फ भगवान, झड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था। कभी मेरी टांग उठा कर चोदता, कभी पलट कर कुतिया बनाता, कभी गोद में उठा कर चोदता। शक्ति तो काफी थी हरामजादे में, दिखने मे भर सिकड़ू सा था। अंततः वह भी झड़ा, क्या खूब झड़ा, अंतहीन झड़ा, बाप रे बाप, मुझसे किसी छिपकली की तरह चिपक कर छर्र छर्र ऐसा झड़ा कि मेरी चूत के संभाले नहीं संभल रहा था उसका गाढ़ा वीर्य। उन दो कामुक भेड़ियों की चुदाई के दौरान मैं गिन ही नहीं पाई कि कितनी बार झड़ी। मगर थक कर चूर निढाल सी पड़ गयी थी मैं। इतने पर ही बस कहां हुआ। बोतल मंगा लिया गया और पीते गये दोनों, पिलाते गये मुझे भी और चोदते रहे रात भर। गांड़ चोदा, लंड चुसवाया, पूरी कसर निकाल ली दोनों नें। मैं बेजान सी हो गयी थी सवेरे तक। चूचियां लाल, चूत का भोंसड़ा और तन का मलीदा बना डाला था। रंडी से भी बदतर हालत हो गयी थी मेरी। बाल बिखर गये थे, आंखें लाल हो गयी थीं, चेहरे की रंगत उड़ गयी थी।

सवेरे जब मुझे मुक्ति मिली तो मैं चलने फिरने के काबिल भी नहीं रह गयी थी। किसी तरह सारी शक्ति बटोर कर वापस जाने के लिए तैयार हुई। लड़खड़ाती हुई जब चलने लगी, नायर साहब मुझे सहारा देकर चौबे जी की कार तक लाए और फिर मेरे बेजान से शरीर को घर तक छोड़ गये, यह कहते हुए कि, “मैं फिर मिलूंगा, जब कभी आऊंगा। यू आर अ ग्रेट लेडी। आई लाईक यू वेरी मच।” मादरचोद, मां के लौड़े साले कुत्ते, चोद चोद कर जान निकाल दिया और कह रहा है आई लाईक यू, मन ही मन बोली। हालांकि इस रात भर की नोच खसोट में मुझे भी एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति हुई। खासकर चौबे जी की लंबी जीभ से चाटे जाने का रोम रोम सिहराने वाला अनुभव अविस्मरणीय था। उनकी दमदार अंतहीन चुदाई का सुखद अनुभव भी कम यादगार नहीं था। उन पलों में कई बार तो मुझे लग रहा था मानो मैं किसी जंगली भेड़िए से ही चुद रही हूं। वह अहसास भी उस वक्त मुझे रोमांचित कर रहा था।

खैर यह सब तो चलता ही रहा मेरी जिंदगी में, अपने कई कामुक क्लाईंट्स से अनुबंध हासिल करने हेतु अपने तन को परोसती, मैं रंडी से भी बदतर हो गयी थी। यह अनुबंध भी हासिल हो गया। इसकी खुशखबरी को ऑफिस में देकर यह भी बोल बैठी कि मैं आज नहीं आ रही हूं। वैसे भी थकान के मारे सारा शरीर टूट रहा था। आराम चाहती थी। पर पता नहीं मेरी किस्मत में आराम था भी कि नहीं, यह ऊपर वाला ही जानता था। वैसे मेरी हालत खुद ही चीख चीख कर बता रही थी कि रात भर मुझ पर क्या क्या गुजरी है। हरिया की अनुभवी आंखों से ऐसे भी कहां बच सकती थी। समझ गया वह। मैंने उन्हें हिदायत दी कि मुझे कोई डिस्टर्ब न करे, रामलाल भी नहीं, चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़े। फिर निश्चिंत अपने बिस्तर में दुबक गयी।

आगे की कथा अगली कड़ी में। तबतक के लिए मुझे आज्ञा दीजिए।
 
पिछली कड़ी में आपलोगों ने पढ़ा कि किस तरह हमारे एक नये क्लाईंट चेन्नई स्थित अन्ना एंटरप्राईजेस के प्रतिनिधि शिवालिंगम नायर साहब से, उनके नये प्रोजेक्ट के संबंध में मेरी मुलाकात अपने ऑफिस में हुई। उसनें मेरी सुंदरता पर मुग्ध होकर मुझे डिनर पर आमंत्रित किया। उसने बेझिझक अपनी नीयत मुझ पर जाहिर कर दी। डिनर तो बहाना था। नियत समय और नियत स्थान पर पहुंच कर उनके साथ लोकल डीलर हवा पहलवान, कुरूप, लिजलिजे, भेड़िए सरीखे चौबे जी को देखकर असहज हो उठी लेकिन उनके साथ शराब के नशे की रौ में सब कुछ कर बैठी। नायर साहब ओर चौबे जी नें मिलकर होटल के कमरे में मेरी नग्न देह के साथ अपने अपने मन मुताबिक ढंग से अपनी कामपिपाशा शांत की। रात भर शराब पी पी कर, बारी बारी से, सुस्ता सुस्ता के, जी भर के किसी बाजारू रंडी की तरह मेरी देह का उपभोग किया और मुझे पूरी तरह निचोड़ कर करीब करीब अधमरी ही कर दिया। खैर मुझमें ऐसी परिस्थितियों को झेलने का सामर्थ्य तो था ही, ऐसी परिस्थितियों की आदी थी, कामुकता की मारी बेगैरत, बेशर्म छिनाल हो चुकी थी मैं। खुश थी कि नायर साहब को खुश करके उनकी कंपनी के एक्सटेंशन प्रोजेक्ट का कार्य हथियाने में सफल जो हो गयी थी। अब तक न जाने कितने घटिया, गलीज पुरुषों की, एकल अथवा सामुहिक, घृणित से घृणित कामकेलि में शरीक हो चुकी थी, फिर यह तो उसी कामुक यात्रा की एक कड़ी मात्र थी। वैसे भी नित नये पुरुषों की अंकशायिनी बनने का रोमांच अलग ही था मेरे लिए। विभिन्न रूप रंग, विभिन्न आकार प्रकार और विभिन्न रुचि वाले हवस के पुजारियों के दरिंदगी भरे पैशाचिक संभोग में भी मुझे नया रोमांच और नया आनंद मिलता था। आखिर सेक्स के भूखे, कमीने, बेशरम बुजुर्गों और कामुकता के समुंदर में आकंठ डूबे अपने अभिभावकों से सुसज्जित परिवार की, कामाग्नि में धधकती बेहया पुत्री जो ठहरी। इसी तरह मेरी जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ रही थी।।

अब आगे: –

पिछली कड़ी में मैंने बताया था कि मंदबुद्धि रामलाल की जिद के कारण हम उसे अपने यहां रखने में मजबूर थे। दूसरे दिन भी उसने जाने से मना कर दिया। उसके घरवाले भी उसे वापस न ले जा सके। उसे वापस ले जाने की ज्यादा बेकरारी तो मुझे लगता था कि सरोज के अंदर थी। रामलाल के वापस न जाने का कारण शायद मुझे देख कर ही वह समझ गयी थी। उस औरत की मायूसी मुझसे देखी नहीं गयी।

जब वह निराश लौट रही थी तो मैं ने उसे टोक दिया, “सरोज बहन।”

“जी बोलिए।” वह थमक गयी।

“आप इतनी मायूस क्यों हैं? रामलाल जी यहां सही सलामत हैं, खुश हैं।”

“मगर अपना घर रहते हुए… यहां रहना…”

“तो क्या हुआ, इसे भी अपना ही घर समझ रहे हैं ये तो।”

“वहां अपने लोगों के बीच रहना अधिक अच्छा होता ना।”

“हमें भी ये अपना ही समझते हैं।” मैं अब मुस्कुरा रही थी। “वैसे एक बात बोलूं?” वह अब तनिक आशंकित हो प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखने लगी। यह वार्तालाप सिर्फ हम दोनों के मध्य हो रहा था। आसपास कोई नहीं था।

“आप बीच बीच में आ सकती हैं हमारे यहां इनसे मिलने।” मैं बोली।

“लेकिन…..”

“लेकिन क्या?” अब वह दायें बायें देखने लगी।

“आप मत बोलिए, मगर मैं समझ रही हूं।”

“क्या समझ रही हैं?” तनिक लाल हो रही थी।

“मैं सब जानती हूं। बताऊं?” मुस्कुराते हुए बोली मैं।

“त त त त तो क क क क्या इन्होंने सब बता दिया?” हकलाते हुए बोली वह।

“हां, सब कुछ, इनके और तुम्हारे, रबिया और शहला के बीच वाला संबंध, सब कुछ।”

“हे रा्आ्आ्आ्आम।” शर्मसार हो उठी वह।

“इसीलिए मैं कह रही हूं, आ जाना, जब मन करे। रबिया, शहला या कोई भी।” बड़ी उदार बन रही थी मैं, बड़ी कमीनी मुस्कान के साथ बोली।

“तो ककक्या इन्होंने…..?”

“हां हां, इन्होंने मुझे भी नहीं छोड़ा।” अब मैं खुल कर बोली।

“हे भगवान!”

“क्या हे भगवान? अच्छे मर्द हैं। अच्छा खासा हथियार है। अच्छी तरह करते हैं। अच्छा लगा मुझे।”

“मगर इनका तो… बहुत बड़ा है!” वह आश्चर्य से मुझे ऊपर से नीचे देखती हुई बोली।

“तो? तो क्या? एक औरत को और क्या चाहिए? ऐसा ही दमदार हथियार वाला मर्द ही तो।” मैं अब आ गयी अपनी औकात पर। “तो अब? क्या इरादा है? यहीं आ जाया करो।” मैं उससे बोली। वह अब निरुत्तर थी। लेकिन अब उसके चेहरे से वह लज्जा तथा अपराधबोध तिरोहित हो गया था। खुल गयी थी मुझ से।

“मैं तो आ जाऊंगी, लेकिन बाकी?”

 
बाकी कौन? रबिया, शहला? सबको बोल दीजिये, दरवाजा खुला है मेरा, सबके लिए।” मैं कमीनी कम थोड़ी थी।मुझे पता था, यह आएगी, रबिया, शहला या और जो भी, सब आएंगी, रामलाल के लंड के आकर्षण में बंधे और रामलाल ही क्यों, यहां चोदुओं की कमी है क्या, निकल पड़ेगी हरिया और करीम की भी, साले कमीने, सब के सब एक नंबर के चुदक्कड़। आश्वस्त सरोज लौट गयी। फिर क्या था, वही हुआ, जैसा मैंने सोचा था। आने लगी सब हमारे यहां, जब तब, चुदने। हरिया और करीम भी बहती गंगा में हाथ धोने में कहां पीछे रहते, साले बूढ़े औरतखोर, शहला को तो इस उम्र में ही रंडी बना डाला था कमीनों नें। हां मैं शहला से हमेशा से कहती रही कि अपनी पढ़ाई में कोई कोताही न बरते। तन की भूख मिटाना एक बात है और अपने कैरियर को संवारना एक बात है। शहला समझदार थी, समझ गयी।

जैसा कि मैंने निश्चय किया था, रामलाल जैसे लोग, परिवार से परित्यक्त बुजुर्ग, असहाय लोगों के लिए एक आश्रय की व्यवस्था करूंगी। हमारे यहाँ धन और स्थान की कमी तो थी नहीं, अत: जुट गयी इस योजना को अमलीजामा पहनाने हेतु। इस कार्य हेतु मैंने कई संबंधित लोगों से संपर्क साधा और एक आश्रम की रूपरेखा तैयार की। आश्रम के लिए आवश्यक कागजी कार्यवाही पूरी की, अनुमोदन हासिल किया और एक भवन निर्माण अभियंता श्री हर्षवर्धन दास से नक्शा बनवा कर उन्हीं को भवन निर्माण के कार्य का जिम्मा दिया। इस भवन का प्लान दुमंजिला, करीब पांच हजार आठ सौ वर्गफीट, अर्थात करीब साढ़े तेरह डिसमिल क्षेत्र का था। आनन फानन कार्य आरंभ भी हो गया। सर्वप्रथम एक स्टोर रूम का निर्माण हुआ, जिसमें निर्माण सामग्रियां रखी जाने लगीं। काफी बड़ा गोदाम था वह। एक तरफ सीमेंट की बोरियां और एक तरफ भवन निर्माण से संबंधित औजार सामग्रियां रखी जाती थीं। बीच में खाली स्थान पर खाली बोरे बिछे रहते थे, जिसपर मजदूर भोजनावकाश के समय थोड़ा सुस्ता लिया करते थे।

इधर भवन निर्माण कार्य आरंभ होने के करीब दो महीने बाद की बात है। एक दिन यूं ही संध्या बेला में, जब सभी मजदूर कार्य से निवृत होकर निर्माण स्थल से रुखसत हो चुके थे, ऑफिस से लौटकर भवन निर्माण की प्रगति के निरीक्षण हेतु मैं उस स्थान का मुआयना कर रही थी, तभी स्टोर रूम के बंद द्वार के अंदर से कुछ सुगबुगाहट सुनाई दी। मुझे कुछ आशंका हुई। उत्कंठा के कारण मैं दरवाजे के समीप गयी तो अंदर से पुरुष स्वर सुनाई पड़ा। इस समय कौन हो सकता है? सब तो चले गये हैं। गोदाम के दरवाजे पर ताला हम नहीं लगाते थे, क्योंकि गोदाम हमारे चहारदीवारी के अंदर थी। दरवाजे को हल्के से ठेलने पर वह खुद ब खुद खुल गया। शाम हो चुकी थी किंतु अंधेरा अभी इतना घना भी नहीं हुआ था कि अंदर की चीजें न दिखें। वहां जो कुछ मुझे नजर आया, विस्मित करने वाला था। बिछे हुए बोरे पर एक व्यक्ति नग्नावस्था में औंधे मुंह लेटा हुआ था और उसके ऊपर दूसरा व्यक्ति, वह भी नग्नावस्था में सवार, नीचे वाले व्यक्ति की कमर पकड़ कर धकमपेल में व्यस्त था। बताने की आवश्यकता नहीं कि वहां क्या हो रहा था। दोनों के मुंह से मस्ती भरी आहें निकल रही थीं।

“यह क्या हो रहा है यहां?” मैं बोल उठी। मेरी आवाज सुनकर दोनों हड़बड़ा गये। जल्दी से उठ कर ज्योंही उन्होंने मुझे देखा तो शर्म से पानी पानी हो उठे। दोनों ही यहां भवन निर्माण का कार्य करने वाले थे। नीचे वाला करीब सत्रह अठारह वर्ष का काला कलूटा चिकना, पांच फुटा, आदिवासी लड़का था और ऊपर वाला व्यक्ति करीब पैंतालीस वर्ष का, लंबा चौड़ा, करीब छ: फुट से कुछ ऊपर कद का, हट्ठा कट्ठा दाढ़ीवाले अधेड़ राजमिस्त्री, मुसलमान, सलीम मियां थे। मगर मेरी नजर तो उस राजमिस्त्री के भीमकाय लिंग पर ठहर गयी। बाप रे बाप, करीब नौ इंच लंबा और वैसा ही भयानक मोटा, काले नाग की तरह फनफना रहा था। उफ्फ्फ, एकाएक किसी स्त्री की नजर पड़ जाए तो आंखें फटी की फटी रह जाएं, मगर मैं तो ठहरी एक नंबर की लंडखोर, मेरे मुंह में तो पानी ही आ गया। मुंह में ही क्यों, मेरी योनि भी गीली होने लगी थी। इतने बड़े लिंग से वह चिकना लड़का इतनी मस्ती के साथ कैसे गुदा मैथुन में लिप्त हो सकता है भला? अवश्य गुदा मैथुन का आदी था।

मेरे अकस्मात आगमन से घबराए मिस्त्री की तो घिग्घी बंध गयी, फिर संभल कर बोलने की कोशिश करने लगा, “मैडम, वह वह वह…..” आगे कुछ बोल नहीं पाया।

“वह वह क्या? लौंडेबाज मिस्त्री मियां, यहां काम करने आते हैं कि यही सब करने?” मैं हड़काने लगी।

“मैडम जी, माफ कर दीजिए।” घिघियाते हुए बोला वह।

“क्यों?”

 
ठीकादार को पता चलेगा तो हमको निकाल देगा।” ऐसा मैंने दिखाया मानो मुझे दया आ गयी, वास्तव में तो उसके आकर्षक लिंग नें मुझे मोह लिया था। बड़ा ही मनमोहक आकर था उसके लिंग का। विशाल सुपाड़े के ऊपर का चमड़ा कटा हुआ, अर्थात खतना किया हुआ लिंग। मन को मोह लेनेवाले गुलाबी रंगत लिए हुए चमचमाते, टेनिस बॉल सरीखे सुपाड़े की छटा देखते ही बन रही थी।

“लेकिन यह तो गलत है। आपलोग काम करने आते हैं कि यही सब करने? मैं बताऊंगी आप लोगों के ठेकेदार को।” झूठमूठ का धमका रही थी।

“ऐसा मत कीजिए मैडम। माफ कर दीजिए।” वह अपने कपड़े की ओर झपटा।

“नहीं, कोई माफी नहीं।” मैं बोली, कभी मैं उसके चेहरे को देखती, कभी उसके फनफनाए लिंग को। मुझे लगता है उसने मेरी नजर को पढ़ लिया था और मेरे चेहरे के भाव को भी। रुक गया, असमंजस में।

“आप की माफी के लिए हम और क्या करें? जो बोलेंगी करेंगे, मगर बताईगा मत ठीकादार को।” वह अपने कपड़े छोड़कर खड़ा हो गया, अब भय उसके चेहरे से गायब हो रहा था।

“क्या कीजिएगा आप बताईए तो, ताकि मैं आपके ठेकेदार को न बताऊँ?”

“आप बोलिए तो।” ताड़ गया था शायद मेरा इरादा।

“नहीं, पहले बताईए करना क्या है आपको?” मैं जानबूझकर इशारे में ही आमंत्रण दे रही थी।

“करके बताएं?” अब शायद वह समझ चुका था कि मैं क्या चाह रही हूं।

“हां।” यह मेरी सहमति थी। वह आदिवासी लड़का वैसे ही नंगा भुजंगा, चुपचाप खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। मेरे अकस्मात आगमन से ज्यों ही वे दोनों अलग हुए और खड़े हुए तो उस आदिवासी लड़के का लिंग भी सख्त था, करी छ: इंच लंबा था उस वक्त, किंतु भय से इस वक्त सिकुड़ कर लुल्ली बन गया था।

“सचमें करें?” अंतिम सहमति चाह रहा था वह।।

“कर के दिखाईए?” उन्हें और क्या चाहिए था। झपट पड़ा मुझ पर। मैं सलवार कमीज में थी लेकिन जैसे ही वह मुझ पर झपट्टा मारा और अपनी मजबूत बांहों में कसा, ऐसा लगा मानो मेरी सलवार फाड़ डालने पर आमादा हो उसका तना हुआ मूसल। मैं गनगना उठी भीतर ही भीतर।

“उफ्फो्ओ्ओ्ह्ह, यह यह क्या कर रहे हैं?” मैं नौटंकीबाज हड़बड़ा कर बोली।

“वही, जो आपने कहा।”

“मैंने क्या कहा?” उसकी बांहों में छटपटाने का नाटक करती बोली।

“कर के दिखाने को।”

“यह करने तो नहीं।”

“बोलिए मत। हमको पता है क्या करने को कहा है आपने?” सेक्स के भूखे पुरुष का वही चिर परिचित अंदाज।

“उफ्फ भगवान, छोड़िए।”

“छोड़ कैसे दें बिना किए?” अब वह दढ़ियल मुझे चूमने लगा। खैनी पान खा खा कर बदबूदार मुंह। बदबू के बावजूद पिघल रही थी उसकी बांहों में।

“हाय हाय, छोड़िए, मैं ने ऐसा तो नहीं कहा था।” मैं बेवजह विरोध का दिखावा करने लगी।

“आपने क्या कहा, अब इसका कोई मतलब है क्या? हमको तो करना है बस।” वह इस मौके को गंवाने के मूड में नहीं था। वह भी शायद समझ रहा था कि मैं अगर सचमुच का विरोध करती तो अबतक चीख पड़ी होती। वह अब न सिर्फ मुझे चूम रहा था, बल्कि मेरे सलवार के नाड़े पर हाथ डाल चुका था।

“हाय राम, यह यह ककककक्या्आ्आ्आ्आ्आ कर रहे हैंं? छोड़िए।”

“छोड़ने के लिए थोड़ी न पकड़ा है?” खोल चुका था मेरी सलवार। सलवार नीचे गिर गयी। अब मैं नीचे सिर्फ पैंटी में थी जो गीली हो चुकी थी। अब उसने मेरी कमीज पर हाथ डाला।

“उफ्फो्ओ्ओ्ह्ह भगवान, यह यह मेरी सलवार, आह्ह। ओह मेरी कमीज छोड़िए, ओह।” कहां रुकने वाला था वह कामांध कमीना। उतार ही डाला खींच खांच कर मेरी कमीज। इस खींच तान में पट गिर पड़ी मैं झपाक से, वहां पड़े सीमेंट के बोरों के ऊपर, गिरी भी कैसे, मुंह के बल, आधी खाली सीमेंट बोरी के ऊपर। चेहरा मेरा सीमेंट से सन गया। बंदरी बन गयी थी मैं। अब मैं सिर्फ ब्रा और पैंटी में थी।
 
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