Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 5 - SexBaba
  • From this section you can read all the hindi sex stories in hindi font. These are collected from the various sources which make your cock rock hard in the night. All are having the collections of like maa beta, devar bhabhi, indian aunty, college girl. All these are the amazing chudai stories for you guys in these forum.

    If You are unable to access the site then try to access the site via VPN Try these are vpn App Click Here

Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

"अ....हां! मैं कहां पर हूं।" उसने चारों ओर देखा जैसे कोई सपना देख रहा हो। तभी उसे याद आया वह दोपहर में पार्क में बैठा था और वहीं सो गया। घर पर मां मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। यही सोचकर वह सीट से तुरन्त उठ खड़ा हुआ और तेज-तेज डग रखता हुआ घर की ओर लपका। शाम ढल गई। पहाड़ों के दामन में सिमटता सूरज सुर्ख होकर बुझ गया, मानो अपने सारे क्रोध, अपनी भड़ास की अग्नि से पथरीले पहाड़ को जलाकर राख कर देना चाहता हो। घर आया तो मां की हालत पहले से और ज्यादा खराब हो गई थी। शायद वह चिन्ता की वजह से दिन पर दिन और गम्भीर होती जा रही थीं। घर में सभी लोग विनीत की परेशानी की वजह से परेशान थे। उनको भी इस बात का एहसास था कि वह बहुत परेशान है। इसीलिये आज किसी ने उसके देर से आने की बजह न पूछी। विनीत अपने परिवार की उलझनों में इतना उलझ गया कि वह प्रीति से भी काफी दिनों से न मिल सका। आज जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ गया तो उसने प्रीति से मिलने का इरादा किया। प्रीति के सिवा उसका था ही कौन? जिसको वह अपने दिल का हाल बताया करता। मगर उसकी समझ में न आया कि वह प्रीति से कैसे मिले....? घर पर तो बातें हो नहीं पायेंगी, चाचा जी घर में होंगे तो वहां पर अधिक देर तक बैठना भी अच्छा नहीं लगेगा। अगर चाचा जी न हुए और फिर आ गये तो भी अच्छा नहीं लगेगा। वो मेरे विषय में क्या सोच बैठे। इन सब बातों को सोचते हुए उसने प्रीति के घर जाने का विचार त्याग दिया। मगर....मिलने की एक सी उसके दिल में उठ रही थी।

विनीत खाना बिना खाये प्रीति से मिलने की उधेड़-बुन में लगा-लगा सो गया। आंखें खुली तो उसे लगा ज्वर ने उसे आ घेरा है। मगर फिर भी वह जल्दी ही बिस्तर से उठ गया। आज उसे हर हाल में प्रीति से मिलना था। कहां वह प्रीति से मिले बिना एक दिन भी चैन से नहीं रह सकता था मगर....उसे प्रीति से मिले हए कितने दिन हो गये थे। वह नाश्ता करके घर से आज कुछ देर से निकला। करीब दस बजे थे। वह रीगल पार्क के पास से होकर गुजरा था। वह प्रीति के ही ख्यालों में खोया था। उसे पार्क के पास ही प्रीति मिल गई थी। मगर उसे पता न चला था कि प्रीति पीछे है। "विनीत ....।” प्रीति ने पुकारा।

प्रीति के पुकारने पर विनीत ने पीछे मुड़कर देखा तो विनीत की निस्तेज आंखों में चमक उतर आयी। मुंह से निकला-"प्रीति तुम!" वह प्रीति को आश्चर्य से देखता रहा। वह मन ही-मन सोच रहा था कि हे ईश्वर! आज कुछ और भी प्रार्थना कर लेता तो वह भी मिल जाता। आज वह घर से ही सोचकर निकला था कि प्रीति से मिलेगा और ईश्वर का चमत्कार–वह स्वयं ही उसे मिल गई। विनीत को चुप देखकर प्रीति फिर बोली-"विनीत ! तुम कहां खो गये?"

“कहीं नहीं। बस आज मैंने ये सोचा था कि प्रीति से मिलूंगा! पर ईश्वर का चमत्कार देखो....ईश्वर ने तुमको रास्ते में ही मिला दिया।"
"हां विनीत” वह गहरी सांस खींचकर बोली।

विनीत ने उससे कहा—"तुमने अपनी कैसी हालत बनाकर रखी है?" उसके उदास चेहरे को देखकर विनीत उदास हो गया।

यह सुनकर प्रीति विनीत के निकट आ गई और फिर हैरत से उसकी ओर देखते हुए बोली
—“परन्तु तुम्हारी यह दशा?"

"ठीक तो हूं....।" उसने मुस्कराने का असफल प्रयत्न किया।

"ठीक?" प्रीति ने फिर हैरानी से कहा था-"यह क्या सूरत बना रखी है तुमने? न तो सर में कंघा....बढ़ी हुई शेव....उदासी। आखिर बात क्या है? तुम एक महीने से कहां रहे....?"

प्रीति ने उससे एक साथ ही कई सवाल पूछ डाले थे। उसने फिर मुस्कराने का प्रयत्न किया, परन्तु सफलता नहीं मिली थी। उसने प्रीति की बात का उत्तर देते हुये कहा था-"प्रीति, जब से पिताजी मरे हैं, तभी से इतनी जिम्मेदारियां सिर पर आ पड़ी हैं कि अपना होश ही नहीं रहता। नौकरी के चक्कर में भटकते हुये इतना समय हो गया....परन्तु अभी तक कहीं बात नहीं बनी।"

प्रत्युत्तर में प्रीति कुछ सोचने लगी थी।

उसने फिर कहा था— प्रीति....."

"कहो...."

"मेरा ख्याल है अब तो तुम्हारा मेरा बायदा टूट जायेगा।"

“मतलब....?" प्रीति चौंकी थी।

"तुम्हारा मेरा सम्बन्ध...."

"क्यों....?" वह आश्चर्य से बोली।।
 
"मेरी दशा तुमसे छपी नहीं है....बाकी दशा का अनुमान मेरे चेहरे को देखकर लगा सकती हो। पिताजी चले गये....सारे परिवार का बोझ मेरे ऊपर आ पड़ा। डेढ़ सौ रुपयों में होता क्या है? नौकरी शायद मेरे भाग्य में है नहीं....." उसने देखा था कि उसकी बातों को सुनकर प्रीति सहसा ही उदास हो गयी थी। निश्चित था, उस समय प्रीति उसके विषय में सोच रही थी तथा उसकी निराशा में डूबी बातें उसे बिल्कुल भी पसन्द न आयी थीं। उसने कहा था-"विनीत , जल्दी में हो क्या....?"

"नहीं तो....क्यों....?"

“यहां सड़क पर खड़े रहने से तो अच्छा होगा कि कुछ देर पार्क में बैठ लें। मैं शान्ति के साथ तुम्हारी बातें सुनना चाहती हूं....!"

"बैसे मेरी बातों में तुम्हें निराशा के अलावा और कुछ मिलेगा नहीं प्रीति। तुम्हारी यही इच्छा है आओ।" उस समय संध्या नहीं हुई थी। प्रीति के साथ वह पार्क में आकर बैठ गया। बैठते ही प्रीति ने उससे कहा-"अब बताओ विनीत ....क्या बात है?"

"कुछ नहीं....."

"तुम्हारे चेहरे पर यह उदासी क्यों?"

"मेरी विवशता....."

"क्या मतलब....?"

"प्रीति, जब बहुत से उत्तरदायित्व सिर पर हों और मनुष्य कुछ भी करने में असमर्थ हो तो वह अपने को विवशताओं में ही जकड़ा हुआ पाता है। इसीलिये कि वह कुछ कर नहीं सकता....। वह अन्दर-ही-अन्दर घुटता है....छटपटाता है और हाथ-पैर पीटकर रह जाता है। उस समय उसके चेहरे पर उदासी के अलावा और क्या होगा....?

“पहेली...?"

"नहीं, बास्तबिकता!" उसने कहा—"आज मैं जिस ओर दृष्टि उठाकर देखता हूं, मुझे निराशा के अलावा और कुछ भी नजर नहीं आता। समझ में नहीं आता क्या करूं? मां को प्रत्येक समय अनीता की शादी की चिन्ता सताये रहती है। घर का खर्च बैसे पूरा नहीं होता। मैं बेरोजगार हूं....।"

"प्रीति।" उसने अपने को कठोर बनाकर कहा था-"एक बात मानोगी?"

"कहो।” प्रीति ने उत्सुकता से उसकी ओर देखा था।

"अब तुम मुझसे मत मिला करो!"

"विनीत ....।" हैरत से प्रीति के मुंह से निकला।

"इसी में हम दोनों का भला है प्रीति। हम दोनों अलग-अलग राहों पर हैं। दोनों राहों का एक होना असम्भव सी बात है। मुझे तुम पर विश्वास है। मैं जानता हूं कि तुम मेरे लिये बड़े से बड़ा त्याग भी कर सकती हो। लेकिन कभी-कभी त्याग का फल भी इन्सान को नहीं मिलता। तुम मेरे लिये कुछ भी करोगी पर तुम्हें असफलता के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। चाचा जी का स्वभाव तुमसे भिन्न है। वैसे मैं उन्हें भी बुरा नहीं कह सकता क्योंकि तुमने अपने मुंह की बात एक ही बार उनके सामने रखी थी और वे उससे सहमत हो गये थे। तुम उनकी इकलौती संतान हो, शायद इसी से बे मान गये थे। परन्तु अब समय और परिस्थितियां दोनों बदल चुके हैं। तुम अपने स्थान पर सही हो। परन्तु मैं....मैं नहीं रहा। ऐसी हालत में मैं तुम्हें और चाचा जी को कब तक धोखा दे सकता हूं....?"

“विनीत ...."

"इसी का नाम समझदारी है प्रीति....."

सुनकर प्रीति किसी गहरे बिचार में डूब गयी थी। उसे विनीत से ऐसे शब्दों की आशा नहीं थी। उसका प्यार नया न था। वह पिछले दो वर्षों से उससे प्यार करती थी। भावनाओं की गहराई और रिश्तों का अर्थ समझने के बाद उसने विनीत को अपना सर्वस्व मान लिया था। किसी ने उससे बताया था कि प्रेम बही है जिसको जीवन में केवल एक बार किया जाये। और जीवन भर उसे निभाया जाये। उसने स्वयं विनीत से बचन लिया था कि वह जीवन भर इसी प्रकार उसके साथ चलता रहेगा। विनीत ने भी उसे बचन दिया था। उस दिन उसके मुंह से ऐसी बात सुनकर प्रीति को आश्चर्य भी हुआ था। लम्बी खामोशी को तोड़ते हुये प्रीति ने कहा—“विनीत , क्या इसी का नाम प्रेम है?"

"प्रेम....?" वह उसके आशय को न समझ सका था।

“हां, मैं तुमसे परिभाषा पूछ रही हूं।” प्रीति का स्वर उदास था।
 
"प्रीति.....” उसने कहा था— प्रेम पवित्र भावनाओं का नाम है, इस बात को तुम भी जानती हो और मैं भी। परन्तु विवशता भी तो किसी दीवार से कम नहीं होती। जो दो हृदयों की भावनाओं को बिल्कुल अलग-अलग कर देती है।"

"अलग तो तुम कर रहे हो विनीत ।”

"नहीं, परिस्थितियां मुझे बिबश कर रही हैं कि मैं तुम्हारे रास्ते से सदैब-सदैब के लिये अलग हो जाऊं।”

"क्यों ....?"

"इसलिये कि मैं अपने बचन को पूरा नहीं कर सकता।”

"और उस समय जब तुमने मुझे बचन दिया था, तब क्या बात थी....?" प्रीति ने उसके चेहरे की ओर गहराई से देखते हुए पूछा था।

“तब....” उसकी समझ में उत्तर न आ सका था।

"हां, तब तुमने क्या सोचा था?” प्रीति के प्रश्न के उत्तर में उसने एक गहरी सांस लेकर कहा था-"प्रीति, इन्सान अपने आप में कुछ भी है, परन्तु वह बक्त के सामने हमेशा कमजोर रहा है। वह जो कुछ सोचता है उसके विषय में भी उसे पता नहीं होता कि वक्त उसके साथ कैसा व्यवहार करेगा। मैंने जिस वक्त तुम्हें बचन दिया था, उस समय मुझे इस बात का पता न था कि बक्त मेरे रास्ते में इस प्रकार से दीवार बनकर खड़ा हो जायेगा। अब तुम ही सोचो, ऐसी दशा में मुझे क्या करना चाहिये?" कहकर उसने प्रीति की ओर देखा था।

उत्तर में प्रीति ने कहा था—“साहस से काम लेना चाहिये।"

"और जब बक्त की विडम्बना ने साहस को तोड़कर रख दिया हो, तब?" उसने प्रीति से प्रश्न किया था, उत्तर में प्रीति कुछ भी न कह सकी।

प्रीति दूर शून्य में कुछ देखती रही थी। संभवतया वह उसके प्रश्न के उत्तर में कुछ सोच रही थी। देर तक सोचते रहने के बाद प्रीति ने कहा-"विनीत, मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती कि वक्त क्या है। जिस समय मैंने तुम्हें वचन दिया था, उस समय भी मैंने ऐसा कुछ नहीं सोचा था। इसलिये कि मैं वक्त से पहले स्वयं पर विश्वास करती है। उस समय भी मुझे अपने आप पर विश्वास था और आज भी....."

"क्या मतलब....?" उसके स्वर में दृढ़ निश्चय था। सुनकर उसे चौंकना पड़ा था।

“मतलब यह कि मैं अपने बचन को नहीं तोड़ सकती।"

"प्रीति....."

"विनीत ....।" प्रीति सहसा ही भाबुक हो उठी थी। भाबुक स्वर में उसने कहा था-"प्रेम का शाब्दिक और व्यवहारिक अर्थ क्या है, इस विषय में तो मैं कुछ अधिक नहीं जानती। मैं तो केवल इतना जानती हूं कि मैंने तुमसे प्यार किया है....तुम्हें अपना देवता मानकर आराधना की है। मैं अपनी पूजा को नहीं छोड़ सकती।"

"प्रीति....."

“यही मेरा दृढ़ निश्चय है।" वह कुछ सोचने लगा था। प्रीति के दह निश्चय को देखकर वह काफी कुछ सोचने पर विवश हो गया। उसने उसे समझाने का प्रयत्न करते हुये कहा था-"प्रीति, सोचने वाली बात यह है कि तुम्हारे दृढ़ निश्चय से होगा क्या....?"

“जो भी चाहूंगी।" स्वर फिर दृढ़ था।

"क्या मतलब....? मैं समझा नहीं।”

“मैंने एक बार प्यार किया है, मैं इसके बाद किसी से प्रेम नहीं करूंगी।"

"परन्तु शादी....."

"शादी भी नहीं, चाहे मुझे जीवन भर कुबारी ही रहना पड़े। अब यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है कि तुम मुझे अपनाते हो या मुझे नरक जैसी जिन्दगी देते हो।" उसने देखा था, उस समय प्रीति की आंखें छलछला उठी थीं। देखकर उसका अन्तर्मन भी कराह उठा था। स्वयं उसका जी चाह रहा था कि वह फूट-फूटकर रोये। आखिर वक्त इंसानों के साथ ऐसे नाटक खेलता क्यों है? वह किसी को इतना बिबश क्यों कर देता है कि वह स्वेच्छा से जी भी नहीं सकता। उस समय तरह-तरह के प्रश्न उसके मस्तिष्क में उभरने लगे थे।
वह प्रीति को समझाना चाहता था। परन्तु उसका मस्तिष्क इस बात पर उलझकर रह गया था कि वह प्रीति को किस प्रकार से समझाये। वह दृढ़ निश्चय किये बैठी थी। लम्बे समय तक सोचते रहने के बाद उसने कहा-"प्रीति, तुमने तो दृढ निश्चय कर लिया। परन्तु अब यह बताओ कि मैं क्या करूं?"

"तुम......” प्रीति सोच में पड़ गई। उसने विनीत की ओर देखा।

"हां प्रीति.... मैं तुम्हें चाहता हूं और अपनाना भी चाहता हूं। मगर इस दशा में मैं क्या करूं? नौकरी नहीं मिल रही है...घर का बोझ मेरे सिर पर है....मैं तो बुरी तरह परेशान हो चुका हूं प्रीति।"
 
"लेकिन विनीत , निराश होने से क्या होगा?" प्रीति ने कहा—"हिम्मत से काम लो विनीत । समय बदलने में देर नहीं लगती....समय अवश्य बदलता है। जिस प्रकार हर पतझड़ के बाद बसंत जरूर आता है, उसी प्रकार हर दुःख के बाद खुशियां भी जरूर आती हैं। बस तुम खुशियों का इन्तजार करो विनीत ।"

"खैर, प्रीति। जो भाग्य में होगा हो जायेगा।" उसने गहरी सांस ली। वह कहता भी तो क्या ?

प्रीति ने तुरन्त कहा- मेरी मानो विनीत ..."

"क्या?" उसने प्रीति की ओर देखा।

"साहस मत छोड़ो और निराश मत होओ। कभी तो अच्छे दिन आयेंगे। अनीता की शादी भी हो जायेगी। नौकरी भी मिल जायेगी। रही बात हमारी-तुम्हारी....तो क्या हम यहां से कहीं जा रहे हैं? मैं भी यहीं हूं और तुम भी यहीं हो। मेरी तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारे अलावा किसी से शादी नहीं करूंगी। मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी जब तक मेरे शरीर में एक भी सांस बाकी है।"

"नहीं प्रीति, ऐसा मत कहो। पता नहीं ये इन्तजार की घड़ियां खत्म हों या न हों। भाग्य ने मेरे साथ पता नहीं क्या खेल खेला है....समझ नहीं आता? प्रीति, मैं तो मर रहा हूं....। दर दर की ठोकरें खा-खाकर जी रहा हूं....मैं तुम्हें कोई खुशी न दे सकूँगा।"

विनीत की बात बीच में ही काटकर प्रीति ने कहा-"विनीत अगर तुम मुझे कोई खुशी नहीं दे सकते तो....तुम्हें मेरी खुशियां छीनने का भी तो अधिकार नहीं है....।" वह रो पड़ी।

“यह तभी हो सकता है तुम मेरे विषय में सोचना छोड़ दो....। मेरा साथ छोड़ दो....."

"तुम्हारा प्यार, तुम्हारा साथ ही तो मेरी खुशी है विनीत । आई लव यू विनीत ! मैं तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रह सकती। मैं मर जाऊंगी....तन्हा मर जाऊंगी।" प्रीति का स्वर भावुक हो गया। और फूट-फूटकर रोने लगी।

विनीत ने उसे चुप कराने की बहुत कोशिश की लेकिन वह कुछ समय तक रोती रही। विनीत और अधिक चिन्तित हो गया। बड़ी मुश्किल से वो चुप हुई तो विनीत भी कुछ न बोला। बातचीत का क्रम यहीं समाप्त हुआ तो वह प्रीति के साथ ही पार्क से बाहर निकल गया। दोनों अपने-अपने रास्ते चले गये।
,,,,,,,,,,,,,,,,,

विनीत धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ रहा था। वह प्रीति के विषय में सोच-सोचकर दुःखी हो रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस तरह प्रीति को समझाये....| प्रीति तो उस छोटे बच्चे की तरह जिद पर अड़ी बैठी थी जैसे वह बच्चा चांद को देखकर जिद करता है कि उसे चांद चाहिये। पर उस बच्चे को तो पता नहीं होता कि चांद को लाकर नहीं दिया जा सकता, वह तो नासमझ होता है। मगर प्रीति तो एक पढ़ी-लिखी, समझदार लड़की है, फिर वह क्यों यह सब कुछ जानते हुए भी कि ऐसी स्थिति में हमारी शादी कभी नहीं हो सकती, फिर क्यों? तभी उसकी आत्मा उससे सवाल करती है—“क्या तुम नहीं जानते क्यों?" फिर वह स्वयं ही उत्तर देती है—“वह तुम्हें चाहती है। तुम उसका पहला और आखिरी प्रेम हो। वह तुम्हें सच्चा, निश्छल प्रेम करती है। वह तुम्हारे सिवा किसी को अपना पति स्वीकार नहीं कर सकती। तुम जानकर भी अन्जान बन रहे हो विनीत । जानकर भी अन्जान।" वह बड़बड़ा उठा—"हां, तुम सच कहती हो। शायद यही सच है, वो अपनी जगह एकदम सही है-मगर मैं भी तो गलत नहीं हूं।"

और ना चाहकर भी प्रीति का ख्याल झटककर तेजी से घर की ओर चल देता है। घर पहुंचा तो मां ने फिर वही प्रश्न पूछा- क्या हुआ बेटा? कहीं नौकरी लगने की कोई बात बनी या नहीं...."

"नहीं....” विनीत ने फिर मां को बही निराशा में डूबा उत्तर दिया।

“आह....." विनीत की मां के मुंह से दुःख भरी आह निकली। मगर वह केवल आह भरकर रह गई। विनीत सब कुछ जानता था। सब कुछ समझता था। परन्तु कर भी क्या सकता था। वह कोशिश तो बार-बार कर रहा था मगर....।
 
"मां, आपकी तबियत कैसी है....?" उसने बात का रुख मोड़ा।

"मुझे नहीं लगता ये बीमारी मुझे छोड़कर जायेगी। यह तो मुझे अपने साथ ही लेकर जायेगी।" वह लम्बी सांस खींचकर चुप हो गई।

"मां, ऐसे मत कहो। तुम्हारे बाद हमारा इस दुनिया में है ही कौन?" विनीत के स्वर में दर्द था।

वह बहुत देर तक मां के पास बैठा रहा। तब उठा जब उसकी मां ने कहा-"जा बेटा, तू जाकर खाना खा ले। मेरा क्या! मैं तो यूं ही पड़ी रहूंगी। तू सुवह से भूखा-प्यासा होगा जा, पहले खाना खा ले।"

वह वहां से उठा और आगे बिस्तर पर जाकर लेट गया। उसका खाना खाने को बिल्कुल दिल नहीं किया। वह फिर से प्रीति के विषय में सोचने लगा। तभी अनीता ने उसे उसके ख्यालों से बाहर निकाला—“भइय्या, खाना नहीं खाओगे?" वह खाना लिये विनीत के बिस्तर के पास खड़ी थी।

विनीत ने अनीता की ओर देखे बिना उत्तर दिया-"भूख नहीं है।” अनीता इतना कहकर विनीत ने आंखें मूंद लीं।

भाई के ऐसे व्यवहार से अनीता दुःखी हो गई। वह अपने भाई की हालत समझ सकती थी कि वह किस कदर परेशान है। एक तरफ घर की चिन्ता, दूसरी तरफ प्रीति का प्यार। वह बड़ी उलझन में था, कोई नौकरी मिल नहीं रही थी। दिन का चैन रात की नींद उड़ गई थी उसकी और भूख....भूख से सारा दिन तड़पता रहता मगर दुःखी मन खाने में न लगता। वह मन ही मन सोचने लगी अगर भइय्या खाना नहीं खायेंगे तो कैसे चलेगा....नहीं! मैं इनको खाना खाये बगैर नहीं सोने दूंगी। विनीत ने आंखें खोली तो अनीता सामने ही खाना लिये खड़ी थी।

"नहीं भइय्या....मैं आपको खाना खिलाने के पश्चात् ही जाऊंगी।" अनीता का स्वर दह था। वह विनीत के एक ओर बैठ गई। विनीत अनीता की ओर देख रहा था। वह पुनः बोली। _____"भैया मैं समझती हूं कि आप कितने परेशान हैं। मगर भइय्या....हमारे दिन इतने बुरे भी नहीं जितने तुम समझ रहे हो। दुनिया में ना जाने कितने ऐसे इन्सान हैं जिन्हें एक वक्त भी पेट भर खाना नहीं मिलता। चिन्ता छोड़ो भइय्या, चिन्ता चिता के समान है। आदमी को किसी और पर न सही, ईश्वर पर तो भरोसा करना ही चाहिये। खाना खा लो। खाना नहीं खाओगे तो कमजोर हो जाओगे। जान है तो जहान है। बरना कोई किसी का नहीं। अपनी सेहत अच्छी है तो कुछ भी कठिन से कठिन काम कर सकते हैं।" वह विनीत की ओर देखकर बोली-"आपने पढ़ा भी होगा 'हेल्थ इज वेल्थ'—तब भी आप ऐसी बातें कर रहे

"अनीता!” उसके मुंह से निकला। "तुम बहुत समझदार हो गई हो।" अनीता की बातों को सुनकर जैसे विनीत के सोये हुए साहस ने फिर करवट बदली। उसने शायद आज पहली बार यह सोचा था कि इन्सान को किसी दशा में भी निराश नहीं होना चाहिये। विनीत को चुप बैठा देख अनीता ने खाने की थाली विनीत के आगे रख दी। विनीत बिस्तर से उठा और हाथ धोकर आकर खाना खाने बैठ गया।

अनीता के होठों पर एक बिजयी मुस्कान उभर आयी थी। “बैंक्यू भइय्या।" उसने मुस्कराते हुए कहा था।

जितनी देर में विनीत ने खाना खाया, अनीता वहीं बैठी रही। फिर बर्तन उठाकर वहां से चली गई। विनीत को खाना खाते ही नींद आ गई। अनीता भी बर्तन धोकर सो गई।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
अगले दिन प्रातः विनीत सोकर जल्दी उठ गया। नहा-धोकर पूजा-पाठ किया। उसके शरीर में जैसे किसी नई स्फूर्ति ने जन्म लिया था। वह आज स्वयं को बहुत तरोताजा महसूस कर रहा था। उसने सच्चे दिल से ईश्वर से प्रार्थना की। और रोज की तरह नौकरी की तलाश में निकल पड़ा। जिस कम्पनी में उसे जाना था, उसको ढूंढते दोपहर हो गई। उसका खिलता चेहरा फिर से मुझा गया। निराशा के कुछ भाव उसके चेहरे पर साफ झलकने लगे। मगर उसने साहस का दामन न छोड़ा। अब वह कम्पनी के मैनेजर के सामने बाली कुर्सी पर मौन बैठा था। वह मैनेजर के विषय में सोच रहा था कि यह साहब तो काफी अच्छे स्वभाव के मालिक हैं। वह उसके अच्छे नेचर से प्रभावित हो गया था। मैनेजर की उम्र भी अधिक नहीं थी। वह इन्हीं सोचों में गुम था कि मैनेजर ने उसकी चुप्पी को तोड़ा-"विनीत, तुम नौजवान हो। तुम्हारे शरीर में चट्टानों तक को तोड़ देने वाली शक्ति है। तुम्हारे मन में एक विस्तृत सागर को पार कर जाने का साहस होना चाहिये।" मैनेजर ने विनीत की अंक तालिका से उसका नाम पढ़कर कहा था।

विनीत अपना नाम सुनकर एक पल के लिये चौंका था, फिर ध्यान आया कि मेरे डाक्यूमेन्ट्स तो सर के सामने रखे हैं, उसमें ही नाम पढ़ा होगा। विनीत की समझ में नहीं आया क्या बोले। वह चुप रहा। मैनेजर विनीत द्वारा दिये गये प्रमाण-पत्रों को उलट-पलट करता हुआ एक बार फिर देखकर बोला— लोग उदास चेहरे को देखना पसंद नहीं करते....। लोग इन्सान को हंसते मुस्कराते इन्सान के रूप में देखना चाहते हैं...तुम्हें किसी भी हाल में निराश नहीं होना चाहिये।”

इतना सुनकर विनीत को प्रीति याद आ गई। वह भी यही कहती थी कि मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिये। प्रीति का ख्याल झटककर विनीत ने जल्दी से कहा था-“यस सर....।"

"अब तुम्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है....।" विनीत की डाक्यूमेन्ट्स फाईल आगे बढ़ाते हुए मैनेजर ने कहा था।

मैनेजर की यह बात सुनकर विनीत के बुझे से चेहरे पर फीकी मुस्कान तैर गई। “यस सर।” उसने फिर मुंह से दो शब्द निकाले।
 
"चिन्ता करने की जरूरत नहीं है...। कल आ जाना। तुम्हारा काम हो जायेगा।" मैनेजर ने तसल्ली देते स्वर में कहा। इस आश्वासन को सुनकर विनीत प्रसन्नता से झूम उठा। उसने आदर भाव से कहा- थैक्यू बैरी-बैरी मच सर।"

“अब तुम चाहो तो जा सकते हो।” मैनेजर ने कहा।

“जी सर, अब मैं चलूंगा।" वह-"गुड ऑफ्टर नून सर।" कहकर ऑफिस से बाहर निकल गया।

विनीत को एक छोटी सी नौकरी मिलने पर भी अपार प्रसन्नता हो रही थी। प्रसन्नता के कारण पैरों में ताकत दुगनी हो गई थी। वह लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ सड़क पर चलता जा रहा था। उसने सोचा—यह खुशी की बात मैं सबसे पहले प्रीति को बताऊंगा। वह कितनी खुश होगी। यही सोचकर वह प्रीति के घर की ओर चल पड़ा।

आज सुवह से प्रीति अत्यधिक चिंतित और उदास-सी कमरे में बैठी हुई थी। किसी भी काम में उसका मन नहीं लग रहा था। वह विनीत को लेकर चिंतित थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या होगा? विनीत उसको प्रेम की डगर पर ले जाकर इतनी दूर छोड़ देगा जहां ना वापसी की गुन्जाइश हो न मंजिल का पता। अब वह क्या करे? विनीत ने तो संग जीने मरने की कसमें खाई थीं, कहां गईं वे कसमें? कहां गये वे वायदे? पर तभी उसने अपने मन मस्तिष्क में आने वाले इन विचारों को झटका। नहीं! नहीं! विनीत ऐसा नहीं कर सकता....यह उसकी मजबूरी रही होगी जो वह मुझसे ऐसी बातें करता है। अत्यन्त पेचीदा सवालों में घिरी प्रीति बैठी-बैठी अंगीठी में सुलगते अंगारे देख रही थी। प्रीति का मन भारी हो रहा था। दिल का नासूर रिसने लगा था। वह अत्यन्त उदास हो गई और अंगीठी के बुझते शोलों को ही देखती रही। 'खट-खट।' अनायास कुंडी खटकी तो वह यह सोचकर उठी कि पिताजी आये होंगे। 'खट-खटाक्।' पुनः कुन्डी खटखटाई गई।

प्रीति को प्रतीत हुआ मानो यह कुन्डी उसके दरबाजे पर नहीं, दिल पर बज रही हो। 'खट-खट!' कुन्डी पहले से भी तेज आवाज में बजी। प्रीति बिबश होकर भारी पगों से दरवाजे की ओर बढ़ी। दरवाजा खोलते ही सामने विनीत को देखते ही वह मानो पुनः जी उठी। तुरन्त विनीत से बोली-"तुम....।" दरवाजे के सामने से हटकर बोली-"आओ....आओ....विनीत....अन्दर आओ....."

विनीत अन्दर आ गया।

बैठो विनीत ।" चारपाई की ओर इशारा करते हुए प्रीति सामने मूढ़े पर बैठ गई।

"मांजी कहां हैं?" विनीत ने सबसे पहला प्रश्न किया।

"मांजी अन्दर हैं।" प्रीति का लहजा सपाट था-"और सुनाओ.....कैसे हो विनीत ? नौकरी का क्या रहा?" प्रीति ने विनीत को देखते हुए पूछा।

विनीत के मंह पर एक हल्की-सी हंसी उभरी। प्रीति उसकी हंसी देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उठी। उसने आज उसे कितने दिनों बाद हंसते हुए देखा था। प्रीति को अपनी ओर देखते हुए कहा-"हां, मैं ठीक हूं। तुम बताओ कैसी हो? प्रीति, एक बात बताऊं...." लम्बी सांस खींचकर विनीत ने कहा।

"कहो।" प्रीति के मुंह से अनायास निकल गया।

"प्रीति! आज मुझे एक कम्पनी के मैनेजर ने आश्वासन दिया है कि कल तुम्हारी नौकरी लग जायेगी।" वह चुप हो गया।

"सच!" प्रीति की आंखों में चमक आ गई।

"हां प्रीति।" विनीत ने कहा—"तुमने कहा था प्रीति—कि आदमी को निराश नहीं होना चाहिये। तब से ही मेरा सोचा हुआ साहस जाग गया था। आज मैंने जल्दी उठकर पूजा-पाठ की....और देखो....आजही ईश्वर ने मेरी प्रार्थना पूरी कर दी थी....। आज ही उसका फल मिल गया है। सच कहती थीं तुम....ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं।"

"हां विनीत, हां! जिसका कोई नहीं होता उसका ईश्वर होता है....बस....तुम चिन्ता मत करो। सब धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा।" प्रीति ने विनीत को तसल्ली दी। प्रीति ने विनीत की बात बीच में काटते हुए उत्सुकता से पूछा-"क्या कहा था?"

"मैनेजर ने कहा था कि तुम नौजवान हो, तुम्हारे शरीर में चट्टानों तक को तोड़ देने वाली शक्ति है। तुम्हारे मन में विस्तृत सागर तक को पार करने का साहस होना चाहिये। ये अपने चेहरे पर उदासी क्यों ओढ़ रखी है तुमने विनीत ? विनीत, लोग उदास चेहरे को देखना पसंद नहीं करते। लोग इन्सान को इन्सान के रूप में देखना चाहते हैं। तुम्हें निराश नहीं होना चाहिये।"
 
"मैनेजर ने कहा था कि तुम नौजवान हो, तुम्हारे शरीर में चट्टानों तक को तोड़ देने वाली शक्ति है। तुम्हारे मन में विस्तृत सागर तक को पार करने का साहस होना चाहिये। ये अपने चेहरे पर उदासी क्यों ओढ़ रखी है तुमने विनीत ? विनीत, लोग उदास चेहरे को देखना पसंद नहीं करते। लोग इन्सान को इन्सान के रूप में देखना चाहते हैं। तुम्हें निराश नहीं होना चाहिये।"

विनीत की पूरी बात सुनने के पश्चात् प्रीति ने कहा- मैनेजर ने सच ही तो कहा था।"

"हां।” उसने एक लम्बी परन्तु गहरी सांस ली— नौकरी लगने से शायद अब मेरे सर पर से बोझ उतर जायेगा।"

"कैसा बोझ?" अन्जान बनी प्रीति ने पूछा।

"सबसे पहले मेरी वहन अनीता की शादी का बोझ....जो मैं पैसे के बिना नहीं कर सका था। अगर नौकरी लग गई तो सबसे पहले मैं उसकी शादी की तैयारी करूंगा। साथ-साथ मां का भी अच्छे डॉक्टर से इलाज कराऊंगा....ये दोनों मेरे सिर पर एक भारी बोझ हैं। मैं मां की बीमारी हर हाल में ठीक करवाना चाहता हूं। मैं ये नहीं चाहता कि मां को कुछ हो जाये....'" वह लम्बी सांस छोड़कर चुप हो गया। पुनः बोला-"प्रीति, तुम तो जानती हो, मां के अलावा मेरा इस दुनिया में है ही कौन?"

विनीत की बात सुनने के बाद प्रीति बोली- और मेरे विषय में आपने कुछ नहीं सोचा।
तुम्हारी नौकरी लगने से तो मेरे सिर से भी बोझ उतर जायेगा।"

"क्या मतलब?" विनीत ने आश्चर्य से पूछा।

"विनीत।" प्रीति ने प्रसन्न स्वर में कहा- हमारे प्रेम के रास्ते में तुमने जो विवशता की दीवार खड़ी कर रखी थी, अब वह विवशता खत्म हो जायेगी। हमारे बीच की दूरियां भी समाप्त हो जायेंगी। फिर हम दोनों सदा-सदा के लिये एक-दूसरे के हो जायेंगे।"

"काश!" हताश स्वर उसके मुंह से निकला।

"क्या मतलब...?" प्रीति ने विनीत के चेहरे को हैरानी से देखा।

"प्रीति!" विनीत ने कहा-प्रीति! ना जाने क्यों....समय पर विश्वास नहीं होता? पता नहीं यह समय मेरी जिन्दगी के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों कर रहा है? पता नहीं । प्रीति....मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था जिसका नतीजा मुझे भुगतना पड़ रहा है। कभी कभी अपने आपको बदनसीब समझने लगता हूं....."

"विनीत, नसीब तो बनाने से बनता है। और अगर तुम अपने जीवन में इसी तरह निराश होते रहोगे तो फिर नसीब को ही रोते रहोगे। अगर साहस और हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा तो नसीब तुम्हारा साथ देगा। बरना.....।"
"नहीं प्रीति, मेरा भाग्य ही खराब है।"

"विनीत ।" कहने के तुरन्त बाद ही प्रीति जैसे झंझला उठी– "विनीत, समझ में नहीं आता आखिर तुम्हें क्या हो गया है। तुम प्रत्येक समय निराशा में डूबी बातें करते रहते हो? तुम्हें समझना चाहिये कि समय ऐसी चीज नहीं है जिसको दुर्भाग्य का नाम दे दिया जाये। भाग्य और दुर्भाग्य, ये दोनों बातें इंसान के हाथ में होती हैं। उसे इस बात का पूरा अधिकार होता है कि वह अपने भाग्य को जैसा चाहे बना ले।"

"ये सिर्फ कहने की बातें हैं प्रीति....."

"कहने की क्यों?" प्रीति ने पूछा।
 
"क्योंकि यथार्थ और कल्पना में धरती-आकाश का अन्तर है। प्रीति, हम बहुत सी बातें कह तो डालते हैं, उन बातों से अपने आपको झुठलाना भी चाहते हैं। वो बातें हमारे वास्तविक जीवन से बहुत दूर होती हैं। हम उन्हें अपना नहीं सकते। जहां तक भाग्य और दुर्भाग्य बाली बातें हैं, तुम विश्वास मत करो परन्तु मैं भाग्य पर विश्वास करता हूं और यह ही मेरा अनुभव है।"

"वह तो मैं भी मानती हूं विनीत । परन्तु इन बातों से लाभ क्या है?" प्रीति ने विनीत के आगे हथियार डाले।

“किन बातों से?” विनीत ने फिर पूछा।

"निराशा भरी...." वह कुछ उत्तर देने ही वाला था परन्तु तभी 'खट....खट।' की आबाज उसके कानों में पड़ी। उसने प्रीति की ओर देखा तो वह घबराई हुई सी दिखी, तभी प्रीति बुदबुदाई-"पिताजी होंगे...."

प्रीति उठने भी न पायी कि कुन्डी दुबारा 'खट-खट' बज गई। तभी उसकी मां जल्दी से बाहर आई, कुन्डी खोली तो सामने उनके पड़ोस की ही एक औरत थी।

“आओ....आओ शीला।” प्रीति की मां ने प्रेमपूर्वक कहा। शीला को प्रीति शीला मौसी कहती थी। उनको देखकर प्रीति उठी_"शीला मौसी नमस्ते...."

“नमस्ते बेटी....नमस्ते।” महिला ने स्नेहवश कहा। “का आऊं री....." वह बनाबटी क्रोध दिखाती हुई अन्दर प्रविष्ट हुई—“तूने का कसम खाई है, बाहर ही नई निकलने की? आयं?" शीला स्वयं ही पीढ़े पर बैठ गई। प्रीति ने दरवाजा खुला छोड़ दिया और बापस उनके समीप बैठ गई। "का बात हैरी प्रीति! ई का हाल बना डाली है? हमारी तो समझ से सभी बाहिर है।" शीला मौसी ने अत्यन्त धीमे स्वर में कहा।

"ठीक तो हैं हम मौसी! क्या खराब है भला?" प्रीति अपना गम छुपाने का प्रयास करने लगी।

"का खाक ठीक हेतू! आय? भला यही सूरतिया थी तेरी हमेशा हंसा करती थी। अब का हो गया री?" शीला मौसी ने हाथ फेंकते हुए कहा।

विनीत मौन बैठा शीला मौसी के हाव-भाब देख रहा था। शायद शीला मौसी ने उसे देखा नहीं था या जान-बूझकर अनदेखा करने का नाटक कर रही थी। वह समझ न सका। मगर इतना जरूर समझ गया कि प्रीति उसकी चिन्ता में किस कदर परेशान है। लोग भी उसे क्या-क्या कहते हैं। मगर वह किसी की परवाह किये बगैर मुझे कितना चाहती है। पर मैं बदनसीब उसे कुछ नहीं दे सकता। चाहूं भी तो शायद तब भी नहीं....।

प्रीति को उनकी कही सच्ची बातों को सुनकर जैसे सांप सूंघ गया था। वह चुप बैठी उनकी बातें सुन रही थी, मगर सारा ध्यान विनीत की ओर था। वह बीच-बीच में विनीत की ओर देख लिया करती थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कैसे उनसे पीछा छुड़ाये, क्योंकि मां भी अन्दर जा चुकी थी। तभी शीला मौसी उठ खड़ी हुईं, “अच्छा प्रीति....अब मैं चलती...हूं...।

प्रीति उन्हें बाहर तक छोड़ने आयी तो शीला मौसी फिर बोल पड़ीं—“बो विनीत ....तुमसे ब्याह नहीं करेगा।"शीला ने अचानक ऐसे शब्द कहे जो प्रीति के कानों में एक बम की तरह फट गये। मगर वह स्वयं को काबू में करती हुई बोली-“वाह री शीला मौसी....तुम्हें कैसे पता?"

शीला मौसी ने एक खुश्क मुस्कान बिखेरकर कहा-"तुम नहीं जानतीं प्रीति, मैं यहां पागलों की तरह घूमकर सब कुछ सीख गई हूं। इस संसार में मनुष्य का ठीक हंग से जीना कितना कठिन है, इसका अनुमान सहजता से नहीं लगाया जा सकता।" शीला मौसी अपनी भाषा शैली बदलती हुई बोलीं।

प्रीति चप रही। शीला मौसी ने उसे ध्यान से देखा। फिर देखते हए बोलीं_"मैं भी औरत है प्रीति बेटी....। अपने इस जीवन में मैंने कितने ही पतझड़ कितनी ही बहारें देखी हैं....पता नहीं मुझे क्यूं लगता है वह तुझसे विवाह नहीं करेगा।"
 
प्रीति पर शीला मौसी के कथन का असर दिल पर हुआ। वह अत्यन्त आहिस्ता से सुबक पड़ी—"नहीं मौसी! ऐसे मत कहो।"

"नहीं प्रीति, रोते नहीं पगली।" शीला मौसी तड़प उठी।

"नहीं....नहीं, मौसी!" प्रीति ने सिसकियों के साथ कहा, "नहीं, वह ऐसे नहीं हैं। वे मुझसे सच्चा प्रेम करते हैं। सिर्फ मुझसे प्रेम करते हैं। बे मेरे सिवा किसी को भी अपनी पत्नी नहीं स्वीकार कर सकते।"

"नहीं....प्रीति। मैं नहीं मानती। कोई भी मर्द अपने सीने में प्रेम को दबा रखे। मर्द के अन्दर प्रेम नहीं बासना अधिक होती है। वह बासना में डूबा पुजारी है।" शीला मौसी ने मर्द की असलियत उसके समक्ष रखी।

"इसमें कोई सन्देह नहीं मौसी, अगर हम चाहते तो अपने शरीर की आंधी को रोक नहीं सकते थे। मगर मौसी, उन्होंने आज तक ऐसा कुछ नहीं किया जबकि हम काफी-काफी समय तक अकेले रहे हैं।" प्रीति भावनाओं में डूब गई। पुनः बोली- "उनका प्रेम बासना नहीं हो सकता। उनका प्रेम, प्रेम है और प्रेम आत्माओं में बसा होता है। सिर्फ दिल में नहीं। वासना मर सकती है। मगर प्रेम नहीं मरता। वह अमर है अमर...मेरा और विनीत का प्रेम भी अमर है मौसी।" प्रीति खामोश हो गई।

“मर्द किसी कच्चे धागे जैसा होता है बेटी! औरत जब चाहे उसे अपनी ओर मोड़ सकती है, बशर्ते उस औरत के पास रूप, यौबन हो। और हो सकता है वह सिर्फ इसीलिये तेरी ओर आकर्षित होता हो क्योंकि तेरे पास रूप और यौबन दोनों हैं।"

मौसी की बात बीच में काटकर कहा—"बस....करो मौसी बस!" प्रीति ने मौसी के विचारों का हल्का विरोध किया। कुछ क्षण चुप होकर पुनः बोली-"मौसी, जैसा आप सोच रही हैं बैसा कुछ नहीं हो सकता। बिबाह से पूर्व ऐसा कदम पाप होता है....और विनीत पाप नहीं कर सकता।"

"हां प्रीति, ये तो ठीक है कि मानव ने अपने लिये कुछ सीमाएं बनाई हैं। जब हम उन सीमाओं को लांघ जायें तो वह पाप होता है। किन्तु प्रीति, शारीरिक सम्बन्ध पाप है तो प्रेम क्यों होता है?" शीला मौसी के होठों पर अनायास ही मुस्कान बिखर गई। “प्रेमी का प्रेम आखिर औरत के शरीर तक आकर ठहर जाता है तो, क्या इसे भी पाप कहोगी तुम?"

प्रीति खामोश रही। क्या कहती? "अगर तेरा प्रेमी विवाह होने के पश्चात् तुझसे अपना जिस्मानी सम्बन्ध न बनाये, तो उस समय तेरे प्यार का अन्त हो जायेगा। बही प्रेमी जिसे आज तू जी जान से प्रेम करती है, उसकी यादों में तड़पती, उससे मिलने को बेचैन रहती है, मिल जाती है तो उसे छोड़कर बापस घर जाने को दिल नहीं करता, उसी प्रेमी से उस समय तुझे नफरत हो जायेगी, उसकी सूरत से तुझे घृणा हो जायेगी। मेरा केवल इतना ही कहना है प्रीति, जैसे किसी बच्चे को अच्छे खिलौने देकर वहलाया जाता है, वैसे ही प्रेम को, अपनी जिन्दगी और आर जुओं को सजाने के लिये औरत सदैव ही अपने सुन्दर शरीर का प्रयोग करती है। यही वह सत्य है, जिसे अर्पित करते औरत का मर्द पर पूर्ण रूप से अधिकार होता है। किन्तु प्रत्येक काम का एक ढंग अबश्य होता है। जहां प्रेम है वहीं इच्छायें भी हैं, और इच्छायें वृक्षों पर नहीं, शरीर में ही उगती हैं....।

"शीला मौसी का एक-एक शब्द प्रीति के लिये आश्चर्य जैसा ही था। सच तो यह था कि वह एक कड़वा सच था जो प्रीति सुन रही थी। शीला मौसी जाने के लिये आगे बढ़ने को हुईं, फिर कहा-"प्रेम करना अपराध नहीं है प्रीति बेटी, किन्तु प्रेम में असफलता पाना अपराध है। मूर्खता भी कहा जाये तो अधिक उचित होगा। अगर वह तुझसे शादी कर सकता तो उस प्रेमी को भूलना होगा तुझे, उस प्रेमी को भूलना होगा, क्योंकि तु औरत है और औरत को कभी अपनी कमजोरियों का गुलाम नहीं होना चाहिये....और तेरी कमजोरी विनीत है। तू आज चाहकर भी उसे एक पल के लिये भी नहीं भुला सकती....."

प्रीति ने बुदबुदाया—“सच!"

“फिर कैसे उसे भुलायेगी जब तेरी या उसकी शादी कहीं और हो जायेगी? फिर कहां जायेगा तेरा ये प्रेम? अगर तू उसे नहीं भुला सकती तो तू रहेगी अपने पति की बांहों में और दिल में रहेगा तेरा बो प्रेमी विनीत –तो क्या तू अपने पति के साथ अन्याय नहीं करेगी? क्या तू उसे बही प्रेम दे सकेगी जो तू आज विनीत से करती है?"
 
अब प्रीति से सुना नहीं जा सका। "बस करो मौसी! बस करो। मझसे और नहीं सुना जा रहा है। बस मैं तो इतना कहंगी मैं उसके सिवा किसी और से शादी नहीं करूंगी। वहीं मेरा प्रेमी, वही मेरा पति है।"

शीला मौसी ने प्रीति के आगे हथियार डाले और चल दी अपने घर की ओर-"अच्छा भई....मैं तो चलती हूं....." प्रीति शीला मौसी को दरबाजे तक छोड़ने आयी थी। शीला मौसी चली गई। प्रीति जल्दी से पीछे मुड़ी और घर के अन्दर आ गई। प्रीति को अन्दर आता देख प्रीति की मां ने प्रीति को आबाज लगाई- प्रीति।"

"एक मिनट विनीत , अभी आयी....” कहकर वह अन्दर चली गई। जब वह वापस आई तो उसके हाथों में चाय के दो प्याले थे। उसने दोनों प्याले मेज पर रख दिये। फिर विनीत के सामने पीढ़ा बिछाकर बैठ गई।

“कहां रह गई थीं तुम?" विनीत ने उसके बैठते ही प्रश्न किया।

"कहीं नहीं, यहीं थी बाहर। बो शीला मौसी कुछ बातें करने लगी थीं।"

"शायद तुम मुझे भूल गई थीं कि मैं भी अन्दर बैठा मक्खियां मार रहा हूंगा।" विनीत का लहजा शिकायती था।

"नहीं विनीत. तुमको तो मैं कभी नहीं भुला सकती। कभी नहीं। मर कर भी नहीं.... तुम्हारी यादें मेरी आत्मा में बसी हैं और आत्मा कभी नहीं मरती। तुम्हारी यादें भी कभी नहीं मर सकतीं।" प्रीति भावुक हो गई।

बैर छोड़ो। तुम चाय पियो, छन्डी हो जायेगी।" प्रीति ने मेज पर रखे कप की ओर इशारा करते हुए कहा। विनीत ने कप उठा लिया और छोटे-छोटे घूट लेकर चाय पीने लगा।

प्रीति ने भी अपना कप उठाया और चाय के घुट लेने लगी। कुछ पल के लिये कमरे में मौन थिरक उठता है।

"प्रीति, एक बात कहूं।” विनीत ने मौन तोड़ा।
"कहो।" प्रीति का लहजा सपाट था।

"प्रीति, मुझे डर है कि कहीं तुम्हारे पिता तुम्हें न डांटें मुझसे बातें करता देख....."

“क्यों?" प्रीति विनीत की बात अटपटी-सी लगी।

"इसलिये कि अब बो शायद तुम्हारी शादी मुझसे नहीं करना चाहेंगे। और इसीलिये वह ये भी नहीं चाहेंगे कि मैं इस तरह तुमसे मिलूं...

." चाय के मध्य प्रीति ने कहा—“जो तुम सोचते हो बैसी बात नहीं है। मां और पिताजी दोनों ही मेरी बात से सहमत हैं। बे केबल मेरी खुशी देखना चाहते हैं। और मेरी खुशी तुम हो। मेरे माता-पिता की तुम चिन्ता मत करो। आगे क्या होगा, वो सब मैं संभाल लूंगी।"

"ठीक है प्रीति....। जो भाग्य में होगा देखा जायेगा। अब मैं चलता हूं। मां मेरी राह देख रही होंगी।" वह चाय की खाली प्याली मेज पर रखकर उठा और प्रीति की मां से मिलने के लिये अन्दर गया। "मांजी नमस्ते। अब मैं चलता हूं।"
 
Back
Top