RajSharma Stories आई लव यू - Page 2 - SexBaba
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RajSharma Stories आई लव यू

"राज हम लोग टिकट लेते हैं।"- नमित और शिवांग ने कहा।

"ओके...डॉली, तुम भी जाओ।"

डॉली को नमित और शिवांग के साथ मैंने इसलिए भेजा, ताकि ज्योति से कुछ बात कर पाऊँ।

“क्या है ज्योति...क्यों मुँह फुला रही हो?" ।

"जाने दो राज...अपनी दोस्त डॉली का ध्यान दो।"

"ज्योति...मैं तुम्हारा भी ध्यान रख रहा हूँ। डॉली बस एक मुलाकात की दोस्त है और तुम भी दोस्त ही हो मेरी; इतना गुस्मा क्यू दिखा रही हो?"

"ओह! प्लीज राज ...एक मुलाकात की दोस्त ऐसे साथ रॉफ्टिंग करने नहीं आती

___“ज्योति तुम्हारी कसम हम ऋषिकेश आते हुए ही मिले थे। उससे पहले कभी नहीं मिले ... सच में वो मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है और तुम भी मेरी गर्लफ्रेंड नहीं हो।”
"हाँ, नहीं हूँ मैं तुम्हारी गर्लफ्रेंड।"

"तो तुम अच्छी दोस्त हो मेरी... खुश रहो और इस रॉफ्टिंग दिरप को यादगार बनाओ; चलो मुस्कराओ अब।"

मेरे इतना कहने पर ज्योति को इतना तो श्योर हो गया था, कि डॉली मेरी गर्लफ्रेंड तो नहीं है। अब ज्योति थोड़ी खुश नजर आ रही थी। नमित, शिवांग और डॉली, टिकट लेकर आ चुके थे।

डॉली अपनी टिकट दिखाकर मुँह बना रही थी। उसके चेहरे से उसका एक्साइटमेंट साफ झलक रहा था।

नदी की उफनती लहरें हम लोगों को अपनी तरफ खींच रही थीं। हम लोग भी रॉफ्टिंग कॉस्टयूम पहनकर बिलकुल तैयार थे। गाइड के साथ हम पाँचों लोग नाब की ओर बढ़ रहे थे। नमित और शिवांग फट् से नाब में सवार हो गए। ज्योति भी मेरी तरफ मुँह बनाकर नाव में चढ़ गई थी। डॉली भी बेहद खुश थी, पर मुझे लगा शायद उसे नाव में बैठने में डर लग रहा है।

इसलिए मैंने उसकी तरफ अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा, "डरो मत डॉली..हाथ दो अपना।"

डॉली ने मेरी तरफ मुस्कराते हुए देखा और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। मैंने डॉली का हाथ कसकर पकड़ा और वो नाव में बैठ गई। सभी लोगों के बैठने के बाद गाइड भी बैठ गया। कुछ दिशा-निर्देशों के बाद उसने नाब आगे बढ़ा दी। नमित और ज्योति सबसे आगे बैठे... मैं और डॉली बीच में थे और शिवांग और गाइड सबसे पीछे थे। जैसे-जैसे नाव आगे बढ़ रही थी, ज्योति के चेहरे पर भी मुस्कान आती जा रही थी। तभी मैंने नदी के पानी की कुछ बूंदें ज्योति के ऊपर फेंकी, तो उसने भी मेरे ऊपर पानी की बौछार कर दी। फिर क्या था, हम सभी एक-दूसरे पर पानी फेंकने लगे। डॉली भी डर भूलकर हमारी मस्ती में शामिल थी। __

“सर, अपना भी ध्यान रखिए: बाहर हाथ मत करिए प्लीज।"- सुरक्षा कारणों की वजह से गाइड ने कहा।

"ओके भैया...डोंट वरी।"

हम लोग पूरे भीग चुके थे। नाब की रफ्तार भी बहुत तेज थी। ज्योति और नमित आगे बैठकर जोर-जोर से चिल्ला रहे थे। खूब मजा आ रहा था। डॉली भी इन रोमांचक पलों का आनंद ले रही थी। तभी उसने अपने हाथ से पानी की बूंदें मेरे ऊपर फेंकी और जोर से हँसने लगी। उसकी इस शरारत पर मैंने भी उस पर पानी की बौछार कर दी। जब मैं उस पर पानी फेंक रहा था, तो अपने चेहरे के आगे हाथ लगाकर बचने की कोशिश कर रही थी। और जैसे ही मैं पानी लेने के लिए मुड़ता, तो बो मेरे ऊपर पानी की बौछार कर देती थी। बो खुलकर हंसती थी, इसलिए उसका खिलखिलाता हुआ चेहरा बेहद खूबसूरत लगता था। ऐसा नहीं था कि मैं आज पहली बार रॉफ्टिंग कर रहा था... इससे पहले कई बार मैं रॉफ्टिंग कर चुका था, लेकिन आज की रॉफ्टिंग में जो रोमांच था, वो पहले कभी नहीं आया।
 
एक-दूसरे के साथ मस्ती करते हुए सोलह किलोमीटर की दूरी कब पूरी हो गई पता ही नहीं चला। रॉफ्टिंग पूरी हो चुकी थी, लेकिन मन अभी भी नहीं भरा था। डॉली, जो रॉफ्टिंग से पहले नाव में बैठने में डर रही थी, वो अब पानी से बाहर ही नहीं आ रही थी। ठंडे पानी से भी उसे डर नहीं लग रहा था। हम सब गंगा के किनारे खड़े थे और डॉली, गंगा की धारा में पत्थरों पर खड़ी होकर बेफिक्र चिल्ला रही थी।

"डॉली! बाहर आ जाओ...पत्थर से फिसल जाओगी।"

"नहीं....तुमलोग आ जाओ, बहुत मजा आ रहा है..."

"राज, ये तो पागल है बिलकुल।"- ज्योति ने कहा।

"हाँ...मच में बहुत पागल है।"- मैंने ज्योति को जवाब दिया और चेहरे पर मुस्कराहट लेकर डॉली के पास चल दिया।

"आओ, तुम लोग भी..."

"तुम लोग उस पत्थर पर पहुँचो, मैं आइसक्रीम लाता हूँ।"- नमित ने कहा।

नमित आइसक्रीम लेने के लिए गया और हम तीनों वहाँ पहुँच गए, जहाँ डॉली, पत्थर के ऊपर नाच रही थी। मैं डॉली के साथ एक पत्थर पर बैठ गया। शिवांग और ज्योति सामने अलग-अलग पत्थर पर बैठ गए। हम सभी के पैर पानी में थे।

नमित आइसक्रीम के साथ भेलपुरी भी लेकर आया था।

“मुझे चॉकलेट वाली!"- डॉली ने कहा।

"ओके...ये लो।"- मैंने आइसक्रीम उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा। वहीं पत्थर पर बैठकर हम आइसक्रीम खा रहे थे और गंगा के बहते हुए पानी को देख रहे थे।

"नदी भी न... इंसान की तरह होती है; जहाँ से पैदा होती है, वहाँ बच्चे की तरह उथल पुथल करती है, शरारत करती है और जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, तो इंसान की तरह शांत और गंभीर होती जाती है।"- डॉली ने कहा।

"अरे...बड़ी-बड़ी बातें करती हो तुम तो।"

"हम्म...कभी-कभी।"- उसने मेरे हाथ से भेलपुरी की कोन लेते हुए कहा।

सूरज छिपने को था।, मौसम का मिजाज भी ठंडा हो चुका था, हवा में बर्फ घुली-सी लग रही थी। दिल्ली में गर्मी जरूर पड़ने लगी थी, लेकिन ऋषिकेश में तापमान अभी नीचे ही था। लक्ष्मण झूले की तरफ देखते हुए डॉली ने कहा, “थॅंक यू राज एंड थॅंक यू ऑल ...बहुत मजा आया आप सबके साथ; अगर ये सब न होता, तो मैं घर में बोर हो जाती। सच कहूँ तो राज, मेरा ऋषिकेश आना पहली बार सफल हुआ। मैं कई बार यहाँ आई हूँ, पर आज तक इतना मजा कभी नहीं आया एंड ये सिर्फ तुम्हारी बजह से राज।"

“सच में मजा आया तुम्हें...?"

"हाँ...सच में बहुत मजा आया...थैक्स।"

"इट्स ओके डॉली...।"- नमित और शिवांग ने कहा।

"आई थिंक अब चलना चाहिए हमें।"- ज्योति। बाकी सबने भी चलने के हाँ कर दी। मैं कुछ देर और बक्त बिताना चाहता था। मैं कुछ कहता, तब तक सब खड़े हो चुके थे।

"तुम लोग चलो फिर...मैं गाड़ी लेकर आऊँगा।"- नमित ने कहा।

“नमित, मैं तेरे साथ आती हूँ...मुझे उधर ही जाना है।"- ज्योति ने कहा।

“ओके नमित...फिर मिलते हैं यार; ज्योति को तुम छोड़ देना।"- मैंने कहा। जो ज्योति अब तक डॉली से बात तक नहीं कर रही थी, उसने आगे बढ़कर डॉली को गले लगा लिया। __

"दोबारा जरूर आना डॉली; अच्छा लगा तुम्हारे साथ वक्त बिताकर। राज, तुम भी जल्दी आना।"- इतना कहकर एक-दूसरे से हाथ मिलाकर नमित और ज्योति, ब्रह्मपुरी की तरफ चले गए। मने शिवांग और डॉली के लिए ऑटो ले लिया था। डॉली अभी भी रॉफ्टिंग की ही बात कर रही थी। तभी मैंने उससे कहा, "डॉली, कल पाँच बजे सुबह चलते हैं...तैयार हो जाना जल्दी।" __
 
“डोंट वरी...मैं तैयार हो जाऊँगी; बस निकलने से पहले तुम एक कॉल कर देना, मौसा जी छोडेंगे मुझे बस स्टॉप पर।"

"ठीक है, आई बिल मैसेज यू इन द मॉर्निंग।"

"तो तुम दोनों फिर कब आओगे ऋषिकेश?'- शिवांग ने कहा।

"पता नहीं शिवांग, अब कब आना होगा... लेकिन, थेंक यू यार...आप लोगों के साथ मैंने खूब एंज्वाय किया।" ___

ठीक है यार राज...अगली बार आना तो डॉली को जरूर साथ लाना।"- शिवांग ने कहा।

"जरूर लाऊँगा।"

“ऐसे नहीं...प्रॉमिस करो...अगली बार भी डॉली को साथ लाओगे।"- शिवांग ने हम दोनों की तरफ देखते हुए कहा।

शिवांग की इस बात पर डॉली मुस्करा रही थी और मेरी तरफ नजर करके ये देख रही थी, कि मैं क्या कहूँगा इस बात के जवाब में।

"ओके शिवांग...प्रॉमिस...अगली बार जब ऋषिकेश आऊँगा, तो डॉली मेरे साथ होगी।"

"चलो, फिर तुम लोग आराम से जाना, मुझे यहीं उतरना है।"

ऑटो रुका, तो मैंने नीचे उतरकर शिवांग को गले लगाया। डॉली ने भी हाथ मिलाकर उसे बाय बोला।

"डॉली, क्या पसंद है तुम्हें खाने में? भूख लगी होगी न तुम्हें।"

"मुझे छोले-भटूरे।"

"तुम्हें भी छोले-भटूरे पसंद हैं...आई लब छोले-भटूरे।"

ऑटो को छोड़कर हम सामने हीरा शॉप की तरफ चल दिए। “आओ डॉली...यहाँ बैठो।”- मने एक टेबल की तरफ इशारा करते हुए कहा।

"दो प्लेट छोले-भटूरे!" “राज, आपने शिवांग को प्रॉमिस कर दिया कि अगली बार मुझे साथ लाओगे।" डॉली ने कहा।

“हाँ डॉली, कर तो दिया, पता नहीं क्या होगा।"

"डोंट वरी...देखते हैं क्या होता है।"

“मेरा वादा पूरा करने के लिए आओगी मेरे साथ?"- मैंने उसकी आँखों में देखकर कहा और डॉली ने जवाब में सिर्फ मुस्करा दिया।

छोले-भटूरे आ चुके थे और हम दोनों खाते-खाते जाने की प्लानिंग कर रहे थे। पैदल पैदल डॉली को उसके घर छोड़कर, मैं अपने घर की तरफ चल दिया था। पॉकट से फोन निकाला और शीतल को कॉल लगा दिया।

"हेलो... कैसे हो शीतल! क्या कर रहे हो...?" म्नेहा से बात करते-करते में पैदल ही घर तक पहुँच गया।

"आ गए राज..."- माँ ने दरवाजा खोलते हुए कहा।

"हाँ माँ...बहुत मजा आया।"

"बाकी लोग चले गए?"

"हाँ, सब लोग गए।" बात करते-करते मैं और माँ, ड्रॉइंग रूम में पहुँच चुके थे। ड्रॉइंग रूम में पापा और भाई-बहन बैठे थे। सुबह निकलना था, तो पापा के पास बस एक ही बात थी... दर्जनों तस्वीरों में से किसी एक तस्वीर को शादी के लिए फाइनल करना। सब लोग बैठ चुके थे। माँ, खाना लेकर आ चुकी थीं। मैं सोच ही रहा था कि पापा कब पूछेगे कि शादी के बारे में क्या सोचा? उससे पहले उन्होंने पूछ ही लिया, “कोई फोटो पसंद आई?"

“पापा, मुझे अभी शादी नहीं करनी है...थोड़ा बक्त चाहिए मुझे"

"तुम पच्चीस-छब्बीस साल के हो रहे हो...यही उम्र है शादी की।"

“पापा, एक साल और चाहिए मुझे अभी।"

"देखो राज , तुम्हारे साथ के लगभग सभी लोगों की शादी हो गई है और हमारे पास तो रुकने की कोई वजह भी नहीं है। तुम्हारी अच्छी खासी नौकरी है, फिर क्या सोचना?"

"नहीं पापा, मुझे नहीं करनी है अभी शादी और इनमें से कोई फोटो मुझे पसंद नहीं

"तो फिर इन सभी लड़की बालों से मना कर दँ मैं?"

"हाँ, मना कर दीजिए...मुझे नहीं पसंद है इनमें से कोई भी।"

"देखो राज, शादी तो तुम्हें करनी पड़ेगी...ये लड़कियाँ बहुत अच्छी हैं, पढ़ी लिखी हैं..हमने घर-परिवार के बारे में पता कर लिया है।"

"देखो, आप लोग दबाब मत बनाओ...मैं अभी नहीं करूंगा शादी और अब मुझे इस बारे में कोई बात नहीं करनी है, गुड नाइट...सुबह मैं पाँच बजे निकलूंगा।"- इतना कहकर मैं अपने कमरे में चला गया।

पापा से जब भी बात होती थी, तो वो शादी की बात ही करते थे और इस समय मुझे शादी के नाम से भी चिढ़ होने लगी थी। पापा की बातें मेरे दिमाग में घूम रही थीं। मच कहूँ तो मुझे घुटन हो रही थी घर में। बस इंतजार था, तो सुबह होने का।

लैपटॉप में अपनी और शीतल की तस्वीरें देखते-देखते आँखें नींद में चली गई। अब सब शांत हो चुका था। हर तरफ शांति थी... न शादी की बात थी और न किसी लड़की की फोटो; बस एक हसीन ख्वाब में शीतल मेरे साथ थी।

सुबह साढ़े चार बजे तकिए के पास रखा मोबाइल बजा। आँख खुली तो देखा डॉली का फोन था।

“गुड मार्निंग डॉली!"

“गुड़ मानिंग...उठ गए?"

"हाँ यार, तुम्हारी कॉल से ही उठा।"

"तो कब चलना है?"
 
“माढ़े पाँच बजे मिलते हैं बस स्टॉप पर: पाँच बजकर पैंतीम मिनट पर वॉल्वो है दिल्ली के लिए।"

“ठीक है।" कमरे से बाहर निकला और नीचे देखा, तो माँ और पापा उठ चुके थे। माँ किचेन में थीं और पापा माँ से कह रहे थे, “समझाओ इसे...शादी तो करनी ही है। मुझे तो लगता है कि इसे कोई लड़की पसंद है..तो एक बार तुमही पूछ लेना,शायद तुम्हें बता दे क्या मामला

"गुड मार्निंग पापा!"

"अरे उठ गए तुम...चलो फ्रेश होकर आओ नीचे।"

"आ जाओ नहाकर...पकौड़े बना रही हूँ तुम्हारे लिए।"- मम्मी ने किचेन से बाहर आते हुए कहा।

"हाँ माँ, मैं बस आया।" इतना कहकर मैं फ्रेश होने चला गया। थोड़ी देर बाद बैग पैक करके नीचे पहुँचा, तो माँ ने एक बैग और तैयार कर रखा था।

"माँ, इसमें क्या है?"

"तेरा फेवरेट आम का अचार है...लड्डू हैं दो डिब्बे में,खा लेना।"

गर्मागर्म पकौड़े खाते-खाते मैं सामान भी सहेज रहा था। माँ, साथ बैठकर बालों में हाथ फेर रही थीं। घर से बाहर रहते-रहते कई साल हो गए थे, लेकिन माँ आज भी मेरे जाने पर उदास हो जाती थी।

"राज, सोचना ठंडे दिमाग से शादी के बारे में...सही उमर है और रिश्ते भी अच्छेआ रहे हैं: शादी करने में फायदा है।"-

माँ। माँ की इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। बम मैं चुपचाप कॉफी का सिप भरता रहा। भाई-बहन भी साथ में बैठे थे।

“भैय्या कब आओगे अब?"- भाई ने पूछा।

"आऊँगा यार, अगले महीने।" नाश्ता हो चुका था और पाँच से ज्यादा बज चुके थे। अब चलने का वक्त था। मैं उठा और हाथ धोकर पूजाघर के आगे नतमस्तक हुआ।
माँ और पापा के पैर छए। छोटे भाई ने दोनों बैग उठा लिए थे। माँ ने मुझे गले लगा लिया और कहा, “जल्दी आना।"

"तुम आओ, मैं गाड़ी निकालता हूँ।"- पापा ने कहा।

घर से बाहर निकलते हुए माँ मुझे समझा रही थीं। मैं भी ऐसे सिर हिला रहा था, जैसे सब समझ आ रहा है। लेकिन हकीकत कुछ और ही थी। मेरे दिमाग में शादी की बात घुस ही नहीं रही थी। दिल-दिमाग और शरीर के हर अंग में बस शीतल का ही खयाल था। घर मे लौटने पर मैं जरा भी उदास नहीं था, बल्कि मेरे चेहरे पर दिल्ली वापस आने, या यूँ कहें कि शीतल से मिलने की खुशी साफ झलक रही थी। पापा, गाड़ी निकाल चुके थे। भाई ने मेरा लगेज कार की बैंक सीट पर रख दिया। पीछे मुड़कर माँ को एक बार फिर गले लगाया। छोटे भाई-बहन को भी गले लगाकर में कार में बैठ गया।

जाती हुई कार को माँ तब तक देखती रहीं, जब तक कार गली से मुड़कर मेन रोड पर नहीं आ गई।

'मैं निकल चुकी है।'-डॉली का मैसेज आया था।

"मैं भी अभी निकला है...पापा हैं साथ में।'

सुबह का वक्त था। लोग मॉर्निंग वॉक कर रहे थे और सड़क बिलकुल खाली थी। पापा, ड्राइव करते हुए संभलकर जाने की हिदायत दे रहे थे। मैं जानता था कि बो फिर शादी की बात करना चाहते हैं, लेकिन कर नहीं पा रहे थे। बस स्टॉप पहुँचने में मुश्किल से दस मिनट ही लगते थे।

पापा कुछ कहते, उससे पहले मैंने ही कह दिया, “पापा थोड़ा वक्त दीजिए...शादी मुझे करनी है, पर अभी नहीं।"

"देखो राज ...तुम्हें कोई पसंद है तो बेहिचक बता दो, बरना हम जहाँ कहें वहाँ शादी कर लो। बेटा तुम्हारे बाप हैं हम...तुम्हारा अच्छा ही चाहेंगे।"- पापा ने इतना कहा और बस स्टॉप के सामने ब्रेक लगा दिए।

“ओके पापा...दिल्ली पहुँचकर बात करगा आपसे।"- कार से उतरते हुए मैंने कहा।

पापा भी कार से उतरे और पीछे वाली सीट से बैग निकालते हुए बोले, “कौन-सी बॉल्बो जाएगी दिल्ली?"

“पापा बो है शायद, सामने...लिखा है उस पर।"

"ठीक है फिर...आराम से जाना...पहुँचकर फोन करना।"

"ओके पापा।"- पापा के पैर छते हुए मैंने कहा और बस की तरफ बढ़ चला। पापा, कार मोड़कर जा चुके थे। बस की तरफ बढ़ते हुए मैंने शीतल को कॉल किया। "गुड मॉर्निंग म्बीट हार्ट।"

"गुड मानिंग माई बेबी...निकले या नहीं?"
 
"हाँ, बस स्टॉप परहूँ..तुम ऑफिस आना जरूर...मैं सीधे ऑफिस आऊँगा।"

"हाँ मेरी जान...तुम्हें देखे बिना दिन कहाँ कटता है मेरा...जल्दी आना।"

"हाँ...चलो आकर बात करते हैं।"

"ओके, टेक केयर..."

सड़क के उस पार डॉली बस के गेट पर खड़ी मेरा इंतजार कर रही थी। मैंने दूर से ही उसे देखकर हाथ हिलाया, तो उसने भी मुस्कराते हुए हाथ हिलाया।

“आओ जल्दी...बस चलने वाली है।"- डॉली ने नीचे रखा अपना सामान उठाते हुए कहा।

"हाँ यार...थोड़ा देर हो गई निकलते हुए।"

बस के अंदर हम दोनों दो चेयर वाली साइड बैठ गए। लगेज, ऊपर और चेयर के नीचे सेट था। बस के चलने का वक्त हो चला था। सभी सवारियाँ लगभग बैठ चुकी थीं। डॉली, ईयरफोन लगाकर कोई गाना सुन रही थी। बैठते ही उसने ईयरफोन का एक सिरा मेरी तरफ बढ़ाया और आँखों से गाना सुनने का इशारा किया। मैंने ईयरफोन लगाया, तो उधर जो गीत बज रहा था, उसने एक पल के लिए मुझे डरा दिया। मैं उस गीत के बोल मुनते ही एक ऐसी कल्पना में खो गया, जहाँ शीतल और मेरा हाथ छूट रहा था।

गीत था- “तेरी आँखों के दरिया का उतरना भी जरूरी था, मोहब्बत भी जरूरी थी बिछड़ना भी जरूरी था।"

बस चल चुकी थी और ऋषिकेश की गलियाँ एक-एक कर छटती जा रही थीं। अँधेरा भी छंटने को था। दिन ने निकलना शुरू कर दिया था। गाना खत्म हुआ तो बस, ऋषिकेश के बाहरी छोर तक पहुँच गई थी।

"कितना प्यारा गाना है न... मेरा फेवरेट है।"- डॉली ने इयरफोन समेटते हुए कहा।

"हम्म...बहुत प्यारा गाना है।"

"राज, क्या हुआ...गाना सुनकर मेंटी हो गए क्या?"

"नहीं यार...बस ऐसे ही।"

"सच बोल रहे हो न!"

'हाँ।'

"राज, ऋषिकेश की ये दिरप मेरी अब तक की सबसे खूबसूरत दिप थी और वो भी तुम्हारी बजह से। मैंने ये एक दिन जो तुम्हारे साथ बिताया, कभी नहीं भूलूंगी। ऋषिकेश आई थी, तो सोचा नहीं था कि इतना मजा आएगा। जब आई थी, तो अकली थी और अब जा रही हूँ, तो कुछ अच्छी यादों के साथ एक अच्छा दोस्त लेकर जा रही हूँ... थेंक यू राज।"

"डॉली, मुझे भी तो एक अच्छी दोस्त मिल गई है।"

"तो फिर हम दोस्त बन गए न?"- उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा।

'हाँ।' मैंने उससे हाथ मिलाते हुए कहा।

"तो कोई गर्लफ्रेंड है तुम्हारी या अभी तक सिंगल..."

"हाँ...पर वो गर्लफ्रेंड नहीं है मेरी...मेरी जिंदगी है।"

"मच! कौन है वो लड़की...बताओ ना प्लीज।"

"क्या करोगी तुम जानकर?" "

अरे दोस्त हूँ तुम्हारी... और दोस्तों से शेयर करनी चाहिए दिल की बात।"

“फिर कभी..."

“फिर कभी नहीं आता है...आज ही देखो मौसम भी अच्छा है...सफर भी है...इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा बताने का...बताओ न प्लीज!"

"तुम पक्का जानना चाहती हो उसके बारे में...बोर तो नहीं हो जाओगी मेरी कहानी सुनकर?

“अरे नहीं...मुझे बहुत अच्छी लगती हैं लव स्टोरी...और ये तो रियल लव स्टोरी है... सुनाओ तुम।"

"ओके, तो सुनो-"

"बो हँसती हैं तो लगता है किसी गुलाब के बगीचे में पंखुरियाँ बिछी हों;
वो बोलती हैं तो लगता है जैसे सुबह के शांत वातावरण में दूर कहीं से कोयल की आवाज आ रही हो।
उनकी हर अदा देखने, सुनने और महसूस करने वाली है।
कुछ लोग होते हैं, जिन्हें हमेशा अपने साथ रखने का मन करता है।
 
मेरी दुनिया में शायद ऐसे लोगों की फेहरिस्त लंबी नहीं है।
सच ये भी है कि कभी किसी को इस फेहरिस्त में शामिल होने ही नहीं दिया हमने ।
कोई क्या कर रहा है, कोई क्या करता है और कोई क्यों कुछ करता है...
मुझे कभी फर्क नहीं पड़ता। लेकिन चंद पल्लों में कोई इतना खास हो जाएगा, कभी सोचा तक नहीं था।
चार साल का था, तो फेमिली दिप पर मुंबई गए थे। जुहू बीच पर ढेर सारे रेत के घर बना डाले थे... लेकिन जब वहाँ से चलने की बारी आई, तो बहुत मुश्किल था उन घरों को छोड़ के आना। आँख में आँसू थे और फोड़कर आगे बढ़ गया था उन घरों को। उनका नाम शीतल है और वो ठीक उसी रेत की तरह हैं, जिसका फिसलना तय है और मैं उस रेत को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। शीतल नाम है उसका। इकत्तीस साल की है और मुझसे छह साल बड़ी हैं। तीन महीने पहले मैं और शीतल, चंडीगढ़ में एक प्रोग्राम कराने साथ गए थे। वहीं हमारी दोस्ती हुई और दोस्ती प्यार में बदल गई। शीतल की हरकतें, उनकी आदतें और उनका अंदाज सच में भा गया था मुझे। बेपरवाह हैं वो, बेफिक्र हैं वो, बेइंतहा हैं वो। शीतल, सच में बो पक्षी हैं, जिसकी फितरत होती है ऊँचा उड़ने की। दुःखों को दबाकर छोटी-छोटी खुशियों में जीना उन्हें अच्छे से आता है, तो अपनों को खुश रखना वो बखूबी जानती हैं। यही वजह है कि चंद दिनों में वो मेरे लिए मोस्ट स्पेशल बन गई हैं। मुझे नहीं पता कि पसंद, प्यार और मोहब्बत क्या होती है। लेकिन जो भी होती है, उस फीलिंग का पहला अहसास हैं वो।" ।

जानती हो डॉली, जब मैंने पहली बार उनका हाथ पकड़ा था न, तो उनकी आँखें बंद हो गई थीं। ऐसा नहीं था कि मैंने पहले किसी लड़की से हाथ नहीं मिलाया था... लेकिन जब शीतल का हाथ पकड़ा, वो पहले स्पर्श का अहसास था। उनके ठंडे हाथ की ठंडक को महसूस करने के लिए मैं कब से बेकरार था। बुशनसीब था कि वो मौका आया। ये पल बेहद हसीन था। ये वो पल था, जिसे मैं जिंदगी में कभी भुलाना नहीं चाहूँगा। जब मैंने पहली बार शीतल की तरफ अपना हाथ बढ़ाया, तो उनके चेहरे की मुस्कान उनके दिल की हालत को बयां किए बिना नहीं रह पाई। ये वो हँसी नहीं थी, जो पहली बार मिलने पर थी। इस हँसी के पीछे एक खुशी थी... किसी को पाने की खुशी। किसी को पाने की खुशी, दुनिया की सबसे बड़ी खुशी होती है। यही वजह है कि उस दिन शीतल का सामने बैठकर बात करने का अंदाज ही अलग था। उस दिन बात करने में करीबी झलक रही थी और एक झुकाव साफ था। वो बात करने में आँख चुरा रही थीं। बात करने में उनकी शैतानी थी और जिसके साथ ये सब होता है, वो मोस्ट स्पेशल ही होता है। सोते-जागते, चलते-फिरते बस शीतल का ही खयाल दिल में रहता है।

शीतल बहुत अच्छे से जानती हैं कि उनके मन में मेरे लिए प्यार का अहसास होना गलत है। वो जानती हैं कि एक दिन यह सब बहुत दर्द देगा... पर शायद वो अपने दिल के हाथों मजबूर थीं। शायद मेरी तरह उन्हें भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है।
शीतल ने कहा था, तुम्हें पता है, पहली बार तुम्हारा हाथ पकड़ने को मैं तरस रही थी... चाहती थी तुमसे हाथ मिलाना; पर तुम भी राज मियाँ... हृद करते हो, बस हाथ हिला देते हो। इसीलिए कहना पड़ा कि तुमने कभी हैंडशेक क्यों नहीं किया। आज जब तुमने पहली बार हैंडशेक किया, तो उस एक पल के लिए मैं तुमसे आँख तक नहीं मिला पाई। शरमाते हुए नीचे मुंह करके हाथ मिलाया और तबसे उसी पल के दोबारा आने के इंतज़ार में बैठी हूँ। राज, तुम नहीं जानते हो, छब्बीस जनवरी की रात जब मैं और तुम साथ में बस में बैठे थे, तो मैं कितनी बेसब्री से लाइट बंद होने का इंतज़ार कर रही थी। जब बस की लाइट बंद नहीं हुई, तब मैंने घड़ी खुलवाने का बहाना बनाया, ताकि मैं ये महसूस कर मयूँ कि तुम्हारे हाथ का स्पर्श कैसा है। हमारे कमरे में जब आखिरी दिन साथ बैठे थे, तब भी मेरे अंदर बहुत कुछ चल रहा था। उस वक्त मैं लैपटॉप खोलकर जरूर बैठी थी, पर हकीकत ये है कि मैं तुमसे बहुत कुछ कहना चाह रही थी। अफसोस है कि उस रात अपने दिल की बात तुम्हें बता ही नहीं पाई। जानती हूँ, मैं गलत हूँ; मुझे कोई हक नहीं तुम्हें पसंद और प्यार करने का... कोशिश करूंगी कि खुद को रोक लूँ; पूरी कोशिश करूंगी।" । डॉली, छोटी-छोटी चीजों से मिलकर एक बड़ी चीज तैयार होती है... ठीक उसी तरह, जैसे एक-एक बूंद से कोई बर्तन पूरा भर जाता है। पहले एक ईट रखी जाती है और देखते ही देखते पूरा घर बन जाता है। कुछ भी शुरू होता है तो उसके बड़े रूप और स्वरूप की कल्पना ही नहीं होती है... जब वो चीज तैयार होती है, तब पता चलता है कि कितनी खूबसूरत है वो। हम मिले, बातें हुई, हंसी-मजाक भी हुआ, साथ वक्त बिताया। ये सब कुछ एक सुखद अनुभव दे रहा था हम दोनों को। मैं जो कह रहा था, शीतल सुन रही थीं; वो जो कह रही थी, उसे मैं सुन रहा था।
 
चंडीगढ़ रोज गार्डन में शाम को चूमना हो या दिन में सड़क पर तुम्हारे साथ चलना... ये सब मुझे ऐसा अहसास करा रहा था, जैसे कोई अपना कदम-से-कदम मिला रहा हो। मैं शीतल को एक कदम पीछे नहीं छोड़ना चाहता था और न ही उनसे एक कदम पीछे होना चाहता था। मैं चाहता था तो बस उनके साथ चलते रहना और तब तक चलते रहना, जब तक कोई मेरा हाथ थामकर ये न कहे कि बस कीजिए अब, रात बहुत हो गई है, मैं थक गई हूँ। होटल के कमरे में शीतल के करीब बैठकर भी उनको न छना, मेरी नासमझी या मूर्खता नहीं, बल्कि उनके प्रति सम्मान था। बस में सफर के दौरान उन्होंने अपनी घड़ी खोलने के लिए कहा था। घड़ी खोलते हुए भी उनके हाथ को न छना भी उनके प्रति मम्मान ही था। फिकर थी उनकी...तभी उनको छुकर मैने पूछा था कि क्या ठंड लग रही है तुम्हें? मैं वहाँ उन्हें बाँहों में भर तो नहीं सकता था, लेकिन इस फिक्र से माहौल को थोड़ा गर्म जरूर करना चाहता था। चंडीगढ़ कैंट से बम की तरफ जाते हुए, शीतल को उनके कंधे की तरफ से पकड़ना जरूर चाहता था, लेकिन उनकी नजर में मैं इसकी हिम्मत नहीं कर पाया था। उनकी नजरें बस के बाहर और बस के अंदर सिर्फ मुझे ही देखी जा रही थीं। वो मुझे देखकर भी न देखने का बहाना कर रही थीं। हाँ, मैं समझ नहीं पाया कि शीतल क्यों बोल रही थीं कि खिड़की से ठंडी हवा आ रही है।

शायद वो चाहती थीं कि मैं उन्हें अपनी बाँहों में भर लूं और उनसे कहूँ, “थोड़ा पास आ जाहए।"

चंडीगढ़ जाना महज एक इत्तेफाक था, पता नहीं। एक समारोह के आयोजन का जिम्मा मिला था। पूरी कोशिश थी कि कार्यक्रम सफल हो... शायद इसी वजह से बाकी सभी चीजों से दिमाग हटा रखा था। नोएडा ऑफिस से पाँच-छह लोग चंडीगढ़ जाने वाले थे, जिनमें शीतल भी थीं। बाकी की जिम्मेदारी हमारी चंडीगढ़ टीम पर थी। एक तरह से कहें, तो मेरा और उनका काम केवल यह देखना था कि सारी व्यवस्थाएँ ठीक से हो रही हैं या नहीं। छब्बीस जनवरी, 2016 को होने वाले इस प्रोग्राम के लिए हमें चौबीस जनवरी को खाना होना था। चौबीस जनवरी की सुबह, शीतल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से शताब्दी एक्सप्रेस के कोच सी-8 में बैठ गई थीं। मैं इसी ट्रेन में सी-13 कोच में बैठा था। इसे केवल फार्मेलिटी ही कहेंगे, कि मैं ट्रेन में बैठने के बाद केवल एक बार उनसे मिलने गया

और चंडीगढ़ तक अपनी ही सीट पर बैठा रहा। इस बीच मुझे एक बार भी शायद उनका खयाल नहीं आया।

चंडीगढ़ स्टेशन उतरकर हम कार से अपने होटल की तरफ चल दिए। इस दौरान मैं जरूर शीतल को चंडीगढ़ शहर के बारे में बता रहा था। होटल पहुँचे... अपने-अपने कमरे में जाकर तैयार हुए और साथ खाना खाया। इसके बाद प्रोग्राम की तैयारियों में जुट गए। साथ बैठकर हर एक काम में एक-दूसरे का हाथ बँटाने की ये शुरुआत ही थी अभी। तीन दिन की यह चंडीगढ़ यात्रा इतनी हसीन और खूबसूरत होगी, इसकी कल्पना भी नहीं थी हम दोनों को।

इसी बीच शीतल ने कहा था, "आज शाम मैं अपने मामा के घर जाऊँगी।"

“क्या? क्यों?"

"मैं पहली बार चंडीगढ़ आई हूँ और हमारे मामा यहाँ रहते हैं: आज डिनर उनके साथ ही करूंगी।"

“ऐसे थोड़ी होता है... यहाँ मैं अकेले रहूँगा तुम्हारे बिना? मैं तो बोर हो जाऊँगा।"

“अरे तो मैं रात में ही आ जाऊंगी न।""

"तो रात में थोड़ी तुमसे बात कर पाऊँगा... स्वैर जाइए मामा जी के घर में होटल में ही डिनर कर लूंगा।"

शीतल के मामा, चंडीगढ़ ऑफिस उन्हें लेने आ गए थे। ऑफिस से होटल अकेल्ने कार से लौटना मुझे ऐसे लग रहा था, जैसे अपनी सबसे प्यारी चीज को मैं किसी को सौंपकर चला आया हूँ। हाँ, ये क्यों लग रहा था, पता नहीं।

होटल पहुंचकर मैंने अपनी पसंदीदा पीली वाली तड़का दाल, पनीर लबाबदार, स्टफ नॉन और ग्रीन सलाद ऑर्डर तो किया था, लेकिन एक-दो टुकड़ा खाने के बाद मैं रुक गया। मही कहा है किसी ने... खाने का मजा साथ में आता है। खाने की महकती खुशबू भी मेरे दिल पर काबू नहीं कर पाई। मुझे जिस खुशबू की तलाश थी, वो खुशबू गुम थी... शीतल की खुशबू। यही वजह थी कि मैं बिना खाना खाए, रोज गार्डन की तरफ घूमने चला गया। जब इंसान ये नहीं समझ पाता है कि उसे अच्छा नहीं लग रहा है, उसके पीछे वजह क्या है... यह सबसे मुश्किल घड़ी होती है। रोज गार्डन के अकेले दो चक्कर लगाने के बाद एक पान की दुकान पर रुका। एक मीठा पान खुद के लिए लिया। इस बीच फोन निकाला और संकोच करते हुए शीतल को फोन मिला दिया।

"हेलो! हाय शीतल; कब तक आओगी?"

“अभी हम डिनर के लिए जा रहे हैं। बताती हैं तुम्हें।"

मैंने शीतल को ये पूछने के लिए फोन किया था, कि क्या बो भी पान खाएंगी? लेकिन उनके बात करने के तरीके से मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया। मुझे लगा कि शायद मैं ज्यादा पर्सनल होने की कोशिश कर रहा है, इसलिए पान की बात फोन पर न करना ही अच्छा समझा।

न जाने क्या-क्या सोचते हुए मैं होटल लौट आया और चेंज करके सो गया। रात करीब ग्यारह बजे फोन पर एक मैसेज आया। “आई हेवरीच्ड, करंटली इन माय रूम।" शीतल का मैसेज था। "ओके, गुड नाइट, अपना ध्यान रखिएगा।" फोन, साइड में रखकर शीतल के साथ बिताए अच्छे पलों के साथ मेरी आँखें गहरी नींद में डूब गई।

एक विश्वास के साथ। एक नई सुबह होगी, एक नई मुलाकात होगी।
 
'टिंगटोंग' होटल के कमरे की घंटी बजी थी। कमिंग- मैंने बिस्तर पर लेटे हुए ही कह दिया था। सुबह के साढ़े सात बज चुके थे अब तक। दरवाजा खोला तो सामने शीतल खड़ी थीं।

"हाय! गुड मॉर्निंग।"

“गुड मानिंग... इतनी जल्दी तैयार हो गई!"

"हाँ राज मियाँ... दिन निकले हुए कई घंटे हो गए हैं... जल्दी तैयार हो जाइए, नाश्ता करने चलना है"

"ओके, थोड़ी देर में बस।" नाश्ता करने के बाद हम दोनों को चंडीगढ़ ऑफिस, एक मीटिंग के लिए निकलना था। मीटिंग के लिए पहुंचे और दो घंटे बाद ही वापस होटल के रास्ते पर थे।

"आज लंच बाहर करेंगे?"

"हाँ, बिलकुल।"

"और हाँ, मुझे मेरी बेटी के लिए शॉपिंग भी करनी है।"- शीतल ने कहा।

"तुम्हारी बेटी है ! कितने साल की है और क्या नाम है उसका?"

"हाँ, मालविका नाम है उसका और अभी चौदह अप्रैल को उसका पाँचवा बर्थडे है।"

"अरे वाह! मार्केट चलेंगे, कुछ खाएंगे और शॉपिंग भी करेंगे मालविका के लिए।" । मुझे ये पता था कि शीतल शादीशुदा हैं और उनकी बेटी भी है। इसलिए मेरे लिए यह कोई सरप्राइज होने वाली बात नहीं थी। बस मैं अनजान बनकर शीतल से पूछ रहा था। होटल के कमरे में, मैं और शीतल साथ थे।

तभी मैंने अचानक पूछा- “कब हुई तुम्हारी शादी?"

"शादी को कई साल बीत गए हैं, लेकिन करंटली आई एम हैप्पीली सिंगल; मेरा डिवोर्म हो चुका है।" - शीतल ने बड़े कूल अंदाज में जवाब दिया। __

मैं हैरान था। शीतल जैसी लड़की के साथ कोई कैसे कर सकता है ऐसा। आखिर क्या कमी है उनके अंदर? खूबसूरत हैं, नौकरी भी करती हैं और बेटी भी है... फिर ये सब कैसे? में सब जानना तो चाहता था, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया कुछ भी पूछने की। कमरे से बाहर निकलकर हम मार्केट की तरफ चल दिए। सबसे पहले उनकी पाँच साल की बेटी के लिए ढेर सारे खिलौने खरीदे। पहली बार मैं किसी बच्चे के लिए शॉपिंग कर रहा था

और पहली बार मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी अपने के लिए कुछ खरीदने आया हूँ। मुझे शीतल के साथ चलना, साथ घूमना अच्छा तो लग रहा था लेकिन ये प्यार था या नहीं, मुझे नहीं पता।

एक बहुत ही छोटी-सी दुकान पर गर्मागर्म पकौड़े हमने ऑर्डर किए। शीतल साथ थीं, इसलिए शायद पकौड़े का स्वाद कई गुना बढ़ गया था। इसके बाद शीतल की पसंदीदा पावभाजी और मसाला डोसा।

"कैसे हुआ तुम्हारे साथ ये सब शीतल?"

"राज, मैंने उस इंसान से लव मैरिज की थी।"

"तो, फिर...ये सब.."

"हाँ, मैंने गलत आदमी चुन लिया था।"

"मुझे इसीलिए शादी से डर लगता है।"

“अरे राज मियाँ; मैंने गलत आदमी चुन लिया तो क्या हुआ, तुम तो प्यार कर सकते हो किसी से। जरूरी तो नहीं कि तुम जिससे प्यार करोगे, वो भी गलत निकलेगा।"

मैं नहीं जानता था कि जो शीतल मुझे प्यार करने के लिए कह रही हैं, आखिरकार बो मुझे पसंद करने लगी हैं।

होटल के रास्ते से लेकर होटल पहुँचने और शाम तक उनके कमरे में बैठे रहने तक शीतल ने अपनी जिंदगी के उन सभी पहलुओं से पर्दा उठा दिया था, जो मैं जानना चाहता था। उनकी जिंदगी एकदम खुली किताब की तरह थी। अपना रिलेशनशिप स्टेटस उन्होंने किसी से नहीं छिपाया था।

"राज, मैंने उस शख्स से इतना प्यार किया, कि अब मेरे पास प्यार बचा ही नहीं है। मैंने उसे दिल से चाहा था; मैं पागल थी उसके लिए। शायद यही वजह थी कि बाईस साल की उम्र में मैंने शादी भी कर ली थी।"
 
"शीतल, शायद तुमने जल्दबाजी कर दी शादी में।"

"पता नहीं राज ... जो भी था, पर मैंने बहुत कुछ झेला है; अब मैं अपनी जिंदगी में मालविका के साथ खुश हूँ।"

उन्होंने ये भी बताया था

“राज, मेरे ससुराल के लोगों का मेरे साथ इतना बुरा बर्ताव था, कि तुम सोच भी नहीं सकते। मेरे हाथ पर ये जो जलने का निशान है, ये उन्होंने ही हमें दिया है। जिस शख्म से मैंने प्यार किया, वो मुझे मारता था, पीटता था, गंदी-गंदी गालियाँ देता था... लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता था कि वो शख्म मुझे कुछ कह भी सकता है। वो शराब पीते थे। तबियत खराब होती थी, तो मैं रात में अस्पताल लेकर जाती थी। उसी अस्पताल में मैं इवेंट मैनेजर की नौकरी करती थी, तो वहाँ के डॉक्टर मेरे लिए तुरंत तैयार खड़े रहते थे। घर आकर वो शख्म हमें गाली देता था और कहता था कि तेरे लिए अस्पताल में सब खड़े रहते हैं: तेरे और उन डॉक्टरों के बीच कुछ चक्कर होगा। मैं सोच नहीं सकती थी कि कोई कैसे मेरे बारे में इतनी गंदी चीजें सोच सकता है। मैं घर में अपने कमरे में होती थी और ससुराल के सारे लोग एक बंद कमरे में पता नहीं क्या बातें करते थे। मुझे उस घर में डर लगने लगा था। और जब मैंने अपनी आवाज उठानी शुरू की, तो मुझे मारा-पीटा गया। लेकिन वो सब भुलाकर मैं आज छोटी-छोटी खुशियों में जी रही हूँ।"

शीतल की इन बातों ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था। उनके बारे में जानकर मेरे मन में उनका सम्मान और बढ़ गया था। मैं चाहता था कि उनका हाथ पकड़कर गले से लगा न; लेकिन इतना आसान नहीं था ये सब। मैं उनसे यह भी नहीं कह सकता था कि मैं उन्हें पसंद करने लगा है, क्योंकि उन्होंने कहा था, "अब में किसी से प्यार नहीं कर सकती है। मेरे पास किसी को करने के लिए प्यार बचा ही नहीं है।"

शाम के आठ बज चुके थे। हम दोनों कमरे में एक साथ बैठे थे। काम के साथ-साथ एक दूसरे के साथ इधर-उधर की ढेर सारी बातें जरूर हो रहीं थीं, लेकिन हर बात शीतल की जिंदगी के आस-पास ही घूम रही थीं। अपनी जिंदगी की इतनी कठिनाइयों को भी वो ऐसे बयां कर रही थीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो। सच में, बहुत स्ट्रॉन्ग हैं वो। मैंने ये तो सोच लिया था कि चंडीगढ़ से लौटने पर हमारी दोस्ती का चैप्टर खत्म तो नहीं होगा। मैंने उनका एक अच्छा दोस्त बनने और उन्हें हर पल खुश रखने का इरादा अपने मन में कर लिया था।

मैं बच्चा नहीं था कि उनके दिल में जो चल रहा था, बो न समझ पाऊँ। मैं जान गया था कि उन्हें मेरे साथ बैठना, बातें करना, हंसना-खिलखिलाना अच्छा लग रहा था। एक पल के लिए भी मेरे बिना उस कमरे में रहना उनके लिए मुमकिन नहीं था। तभी तो मैं अपना कमराठोड़कर उनके साथ ही बैठा था।

शायद साढ़े नौ बजे होंगे। हमने खाना ऑर्डर किया। बड़े मजे से खाना खाया।

"बॉक पर चलेंगे? तुम्हें मीठा पान खिलाएंगे।'' मैंने पूछा।

"अरे वाह! चलिए।"

चंडीगढ़ में अगर कोई सबसे खूबसूरत जगह है, तो वो है रोज गार्डन। गजब का सुकून मिलता है वहाँ। रोज गार्डन में वाहनों का शोर लगभग थम ही चुका था। कुछ लोग सड़क किनारे घूम रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी। मैंने अपने हाथ पीछे की तरफ पकड़े हुए थे और शीतल के हाथ स्वेटशर्ट की जेबों में थे। ठंड तो लग रही थी उन्हें । मैं समझ भी सकता था... लेकिन उनका हाथ थामने की हिम्मत जुटाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। अपनी बातों से ही मैं माहौल को गर्म रखने की कोशिश कर रहा था। शीतल मुझे पसंद करने लगी थीं। वो मेरे घर, मेरी गर्लफ्रेंड और मेरे अतीत के बारे में जानने को बेताब थीं। इन सब बातों में कब रोज गार्डन का चक्कर पूरा हो गया, पता ही नहीं चला। चाय और पान की दुकान पर लोगों की भीड़ देखकर उस सर्द मौसम में गर्माहट का छौंक जरूर लगा। अपने हाथों से मैंने उन्हें पान पेश जरूर किया था। शायद इस बॉक के चंद हसीन पलों में एक पल यह भी था।

दोस्ती और प्यार में एक फर्क तो है जनाब। दोस्ती में आप उस शख्स के सामने होते हैं, तो वो आपके लिए सब-कुछ होता है... लेकिन उस शख्स से दूर होने के बाद आप उसके बारे में हर पल नहीं सोच पाते हैं। लेकिन अगर आप किसी से प्यार करते हैं, तो वो शख्म आपके सामने हो या न हो, आप हर पल उसके बारे में सोचते हैं।
होटल आकर हम अलग-अलग कमरों में जरूर थे; लेकिन एक-दूसरे का खयाल हम दोनों के दिमाग में चल रहा था।

इस सबके साथ तीन दिन की यात्रा के दो दिन अब पूरे हो चुके थे। हम दोनों एक-दूसरे के लिए महत्व रखने लगे थे, लेकिन यह पल हमारे हाथों से रेत की तरह फिसल रहे थे। एक दिन बाद वापस दिल्ली लौट आना था, इस खयाल से हम दोनों ही डरे हुए थे। चंडीगढ़ की तीन दिन की इस यात्रा को मैं खत्म होने नहीं देना चाहता था। भगवान से माँगा था कि अगर मुझे कुछ देना चाहते हो, तो इन तीन दिनों को और लंबा कर दो। मैं चंडीगढ़ से लौटना नहीं चाहता था। मैं शीतल का साथ छोड़ना नहीं चाहता था। मैं बस उनके साथ, उनके सामने बैठना, और देखते रहना चाहता था...तब तक, जब तक वो मेरी आँखों पर अपनी नाजुक हथेलियाँ रखकर न कह दें- “राज, बस करिए: ऐसे देखोगे तो मैं तुम्हारे अंदर समा जाऊँगी।"

ठीक उसी तरह, जैसे ये दिन भी चाँद की रोशनी में समा चुका था।

दो साल पहले चंडीगढ़ में मैंने लगभग छह महीने बिताए थे। चंडीगढ़ ऑफिस के लोगों के अलावा वहाँ मेरे कई और भी दोस्त थे, जिनसे प्रोग्राम में आने से पहले यह वादा किया था कि मिलेंगे और मस्ती करेंगे। पहले दिन चंडीगढ़ ऑफिस में कुछ लोगों से मिलना हुआ और इसी दिन शाम को समीर, होटल में मिलने जरूर आया था।
 
सिमरन, जो मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी चंडीगढ़ में; उससे तो घर जाने तक का वादा किया था... लेकिन चंडीगढ़ में एक भी पल उसका खयाल मेरे दिमाग में नहीं आया। मच तो यह है कि मैं शीतल को होटल में छोड़कर सिमरन के घर खाने पर नहीं जाना चाहता था। मेरी खुशी अब सिर्फ शीतल से थी। उनको एक पल भी देखे बिना रहना अब मुश्किल हो रहा था मेरे लिए। अपने कमरे का इस्तेमाल सोने और कपड़े बदलने के लिए ही कर रहा था; बाकी मेरा पूरा वक्त उनके कमरे में ही बीत रहा था। चंडीगढ़ से दिल्ली लौटने के बाद सिमरन और चंडीगढ़ के सभी दोस्तों की न जाने कितनी बातें मुझे सुननी पड़ीं, लेकिन इन सब बातों का मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। ये बातें मुझे परेशान नहीं कर रहीं थीं, क्योंकि एक ऐसा दोस्त मुझे मिल गया था, जो मेरी जिंदगी बनाता जा रहा था।

बीती रात में आँखें बंद जरूर हो गई थीं, पर खयालों ने सोने कहाँ दिया था। एक सेकेंड के लिए भी हँसता-खिलखिलाता चेहरा आँखों के सामने से जा ही नहीं रहा था। शीतल के अतीत की कहानियाँ दिमाग में खुमारी की तरह छा गई थीं।

आज प्रोग्राम वाला दिन था और चंडीगढ़ में हमारा आखिरी दिन। आज मैं जल्दी उठ गया था। शीतल के कमरे की घंटी बजाने का खयाल दिल में आया था, लेकिन सोचा सो रही होंगी, एकदम से घंटी बजाना ठीक नहीं। इसलिए फोन कर दिया।

"हेलो शीतल,गुड मॉनिंग।"

"हम्म... गुड मार्निंग।"

“उठ जाइए भाई, नाश्ता करने चलना है।"

"यार राज, रातभर सो नहीं पाई हूँ; कोई-न-कोई आता ही रहा... कभी ड्राइवर, कभी कोई सामान देने।" __

“कोई नहीं, तैयार हो जाओ तुम जल्दी।"

शायद सुबह के साढ़े आठ बजे होंगे। शीतल का रेडी का मैसेज आ चुका था। मैसेज मिलते ही उनके कमरे की घंटी बजा दी। दरवाजा खोलते ही ऐसे लगा जैसे रेगिस्तान में किसी टीले के पीछे से सूरज ने निकलना शुरू किया हो। मेरी आँखों के सामने उनका दमकता चेहरा था। एक पल के लिए मैं उन्हें देखता ही रहा गया। लाल और काले रंग के उस फुल स्लीव वाले सूट में शीतल किसी एक्ट्रेस से कम नहीं लग रही थीं... ऊपर से उनके खुले बाल उनकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा रहे थे। फम्ट फ्लोर से नाश्ता करने हम थर्ड फ्लोर जा रहे थे। एक-एक सीढ़ियाँ चढ़ते, मेरी आँखें चुपके से उनके पैरों को देखती जा रही थीं।

उनके पैर इतने खूबसूरत थे कि 'पाकीजा' फिल्म का डॉयलाग अचानक मेरे दिमाग में आ गया- 'आपके पैर देखे... बहुत सुंदर हैं... इन्हें जमीं पर मत उतारिएगा।"

शीतल का एक-एक कदम मेरे दिल की गहराइयों की तरफ बढ़ता जा रहा था। नाश्ते की टेबल पर एक साथ बैठना, उनके हाथों को उनके होठों तक जाते देखना एक मुकून-मा दे रहा था। नाश्ते के बाद प्रोग्राम के लिए आए लोगों के कमरे में में और शीतल बारी-बारी से जा रहे थे और उनका हालचाल पूछ रहे थे। सभी के कमरों में एक साथ जाने की कोई जरूरत नहीं थी वैसे... लेकिन हम दोनों एक पल भी एक-दूसरे के बिना बिताना नहीं चाहते थे।

शीतल के कमरे में बैठकर अब हम प्रोगराम की तैयारियों का अंतिम रूप दे रहे थे।

"तुम साड़ी पहन रही हो शाम को?" - मैंने पूछा।

"हाँ, तुम्हें कैसे पता?"

"बस, ऐसेही।"

"राज, शाम को मुझे अकेला मत छोड़िएगा; मैं यहाँ किसी को नहीं जानती हूँ।"

"अरे, क्यों अकेला छोड़ेंगे; मैं हर पल साथ रहूँगा, मैं...।" ये वादा करते समय शीतल के चेहरे के पीछे की खुशी का अंदाजा मैं लगा सकता था। उनके और मेरे बीच कोई रिश्ता नहीं था अब तक; लेकिन मेरा उनके साथ होना हम दोनों के अधूरेपन को पूरा कर रहा था।

दोपहर के खाने का बक्त हो गया था। प्रोग्राम में आए सभी लोगों के लिए होटल के एक हॉल में खाने का इंतजाम किया गया था। मैं और शीतल भी उसी हॉल में मौजूद थे। शीतल अभी भी काम में व्यस्त थीं और मैं साथ बैठा था। लोग खाना खाने का आग्रह कर रहे थे, लेकिन मैं तब तक खाना नहीं खा सकता था, जब तक शीतल प्री न हो जाएँ।
उनके प्री होने पर मैंने खाने के लिए प्लेट उठाई थी।
“आई लब मूंग दाल हलवा"- शीतल ने एक दिन पहले लंच का मेन्यू तय करते वक्त बताया था।

मैं खाना खत्म कर उठा और दो प्लेट में मूंग दाल हलवा लेकर शीतल के पास आया। “लीजिए, योर फेवरेट मूंग दाल हलवा।"

"अरे, तुम क्यूँ लाए हो, मैं ले आती।" "अरे, इदस ओके, लीजिए।"- मेरी आँखों में बड़े प्यार से देखा था उन्होंने और हलवे की प्लेट अपने पास रख ली।

अब इंतजार था तो उस शाम का, जिस पल मेरी आँखें उस खूबसूरत परी को देखने के लिए बेताब थीं।

शाम के चार बज चुके थे। हम दोनों अपने-अपने कमरे में थे और तैयार हो रहे थे। शीतल को देखने के लिए मैं इतना बेताब था, कि खुद को बीस बार आईने में देख चुका था। इतने में ही कमरे की घंटी बजी।
'टिंग-टोंग।'
 
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