desiaks
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वह खाने की एक काफी बड़ी ट्रॉली थी- जिसे पहियों पर धकेलती हुई मैं थोड़ी देर बाद पुनः बृन्दा के शयनकक्ष में लेकर दाखिल हुई।
ट्रॉली पर प्लेटें, चम्मच और डिश वगैरह रखे हुए थे।
“आज क्या बनाया है?” बृन्दा ने पूछा।
वह उस समय बैड की पुश्त से पीठ लगाये बैठी थी और खूब तरोताजा नजर आ रही थी।
“तुम्हारे लिए मूंग की दाल की खिचड़ी और दही है।” मैं बोली—”जबकि मैंने अपने और तिलक साहब के लिए शाही पनीर बनाया था। वैसे तुम भी थोड़ा—सा शाही पनीर खाना चाहो, तो खा सकती हो।”
“ओह- शाही पनीर!” बृन्दा चहकी—”थोड़ा—सा तो जरूर खाऊंगी। वैसे भी मुझे खूब याद है, तुम शाही पनीर काफी अच्छा बनाती हो।”
मैं हंसी।
“पुरानी सारी बातें तुम्हें आज भी याद हैं।”
“मैं कभी कुछ नहीं भूलती।”
तब तक खाने की ट्रॉली को मैंने उसके बैड के बिल्कुल बराबर में ले जाकर खड़ा कर दिया था। उस ट्रॉली के निचले हिस्से में एक छोटी—सी फोल्डिंग टेबल रखी हुई थी—जिसके पाये मुश्किल से छः इंच लंबे थे और उन्हें गोल कुंदे में अटकाकर खोल दिया जाता था। मैंने टेबल के पाये खोले और फिर उस टेबल को अच्छी तरह बृन्दा की गोद में टिका दिया। अब वह बड़ी सहूलियत के साथ उस पर खाना खा सकती थी।
उसके बाद मैंने प्लेटें और डिश उस टेबल पर सजाने शुरू किये।
“टी.वी. और शुरू कर दो।” बृन्दा बोली—”आज टी.वी. देखे हुए भी कई दिन हो गए हैं।”
मैंने आगे बढ़कर टी.वी. भी ऑन कर दिया।
‘एम टी.वी.’ पर उस समय फिल्मी गानों का एक काउण्ट डाउन शो आ रहा था, मैंने टी.वी. वहीं लगाया।
टी.वी. पर तुरन्त ‘छइयां—छइयां’ गाने की मधुर पंक्तियां गूंजने लगीं।
इस बीच बृन्दा ने शाही पनीर की थोड़ी—सी सब्जी एक प्लेट में निकाल ली थी और फिर खाना भी शुरू कर दिया।
“सब्जी कैसी बनी है?”
“सचमुच लाजवाब!” बृन्दा ने बहुत चमकती आंखों से मेरी तरफ देखा—”तुम तो खाना बनाने में अब पहले से भी ज्यादा एक्सपर्ट हो गयी हो शिनाया!”
“थैंक्यू फ़ॉर द कॉप्लीमेण्ट!”
“अंग्रेजी में भी पहले से सुधार हुआ है।” वो बात कहकर बृन्दा हंसी।
“सब पढे़—लिख ग्राहकों के साथ सैर—सपाटा करने का नतीजा है। वरना तू तो जानती है, मैं क्या हूं- अंगूठा छाप!”
“और मैं ही कौन—सा बेरिस्टर हू, मैं भी तेरी तरह अंगूठा छाप हूं।”
हम दोनों हंस पड़े।
तभी जोर से बिजली कड़कड़ाई।
“मौसम शायद आज कुछ ठीक मालूम नहीं होता।” बृन्दा ने संजीदगी के साथ कहा।
“हां।” मैं बोली—”बाहर हल्की बूंदा—बांदी हो रही है।”
बृन्दा खाना खाती रही।
उसने अब मूंग की दाल की खिचड़ी और दही भी अपनी प्लेट में निकाल ली थी।
“मैं तुझसे एक बात कहूं शिनाया?”
“क्या?” मैं बृन्दा के नजदीक ही बैठ गयी।
“तुझे अब उस ‘नाइट क्लब’ की झिलमिलाती दुनिया में कभी वापस नहीं लौटना चाहिए। अगर तू जिन्दगी के इस मोड़ पर आकर भी उस दुनिया में वापस गयी, तो फिर शायद ही कभी उस गदंगी से बाहर निकल सके। फिर तो तेरा हाल भी तेरी मां जैसा ही होगा।”
“न... नहीं।” मैं कांप उठी, मेरे शरीर का एक—एक रोआं खड़ा हो गया—”प्लीज बृन्दा- ऐसे शब्द भी अपनी जबान से मत निकालो।”
“मैं जानती हूं, तू अपनी मां की मौत को अभी भी नहीं भुला पायी है। इसीलिए कहती हूं- तू भी तिलक राजकोटिया जैसा कोई आदमी देखकर जल्द—से—जल्द शादी कर डाल।”
“मैं वही कोशिश तो कर रही हूं।”
“क्या मतलब?”
“मेरा मतलब है,” मैं जल्दी से बात सम्भालकर बोली—”मैं वही कोशिश तो कर रही थी, जो केअरटेकर की नौकरी करने यहां आ पहुंची। अब मुझे यह थोड़े ही मालूम था कि यहां मेरी तुझसे मुलाकात हो जाएगी।”
“ओह- सचमुच तेरे साथ काफी बुरा हुआ।” बृन्दा अफसोस के साथ बोली—”लेकिन मुम्बई शहर में तिलक राजकोटिया के अलावा और भी तो ढेरों लड़के हैं।”
“यह तो है।”
शीघ्र ही उसने खाना खा लिया।
मैंने सारे बर्तन समेटकर वापस ट्रॉली पर रखे।
रात के उस समय दस बज रहे थे- जब मैंने बृन्दा को सोने से पहले दो टेबलेट खाने के लिए दीं। परन्तु उस रात बृन्दा को दी जाने वाली उन दो टेबलेट में-से एक ‘डायनिल’ थी।
डायनिल!
खतरे की घण्टी!
•••
ट्रॉली पर प्लेटें, चम्मच और डिश वगैरह रखे हुए थे।
“आज क्या बनाया है?” बृन्दा ने पूछा।
वह उस समय बैड की पुश्त से पीठ लगाये बैठी थी और खूब तरोताजा नजर आ रही थी।
“तुम्हारे लिए मूंग की दाल की खिचड़ी और दही है।” मैं बोली—”जबकि मैंने अपने और तिलक साहब के लिए शाही पनीर बनाया था। वैसे तुम भी थोड़ा—सा शाही पनीर खाना चाहो, तो खा सकती हो।”
“ओह- शाही पनीर!” बृन्दा चहकी—”थोड़ा—सा तो जरूर खाऊंगी। वैसे भी मुझे खूब याद है, तुम शाही पनीर काफी अच्छा बनाती हो।”
मैं हंसी।
“पुरानी सारी बातें तुम्हें आज भी याद हैं।”
“मैं कभी कुछ नहीं भूलती।”
तब तक खाने की ट्रॉली को मैंने उसके बैड के बिल्कुल बराबर में ले जाकर खड़ा कर दिया था। उस ट्रॉली के निचले हिस्से में एक छोटी—सी फोल्डिंग टेबल रखी हुई थी—जिसके पाये मुश्किल से छः इंच लंबे थे और उन्हें गोल कुंदे में अटकाकर खोल दिया जाता था। मैंने टेबल के पाये खोले और फिर उस टेबल को अच्छी तरह बृन्दा की गोद में टिका दिया। अब वह बड़ी सहूलियत के साथ उस पर खाना खा सकती थी।
उसके बाद मैंने प्लेटें और डिश उस टेबल पर सजाने शुरू किये।
“टी.वी. और शुरू कर दो।” बृन्दा बोली—”आज टी.वी. देखे हुए भी कई दिन हो गए हैं।”
मैंने आगे बढ़कर टी.वी. भी ऑन कर दिया।
‘एम टी.वी.’ पर उस समय फिल्मी गानों का एक काउण्ट डाउन शो आ रहा था, मैंने टी.वी. वहीं लगाया।
टी.वी. पर तुरन्त ‘छइयां—छइयां’ गाने की मधुर पंक्तियां गूंजने लगीं।
इस बीच बृन्दा ने शाही पनीर की थोड़ी—सी सब्जी एक प्लेट में निकाल ली थी और फिर खाना भी शुरू कर दिया।
“सब्जी कैसी बनी है?”
“सचमुच लाजवाब!” बृन्दा ने बहुत चमकती आंखों से मेरी तरफ देखा—”तुम तो खाना बनाने में अब पहले से भी ज्यादा एक्सपर्ट हो गयी हो शिनाया!”
“थैंक्यू फ़ॉर द कॉप्लीमेण्ट!”
“अंग्रेजी में भी पहले से सुधार हुआ है।” वो बात कहकर बृन्दा हंसी।
“सब पढे़—लिख ग्राहकों के साथ सैर—सपाटा करने का नतीजा है। वरना तू तो जानती है, मैं क्या हूं- अंगूठा छाप!”
“और मैं ही कौन—सा बेरिस्टर हू, मैं भी तेरी तरह अंगूठा छाप हूं।”
हम दोनों हंस पड़े।
तभी जोर से बिजली कड़कड़ाई।
“मौसम शायद आज कुछ ठीक मालूम नहीं होता।” बृन्दा ने संजीदगी के साथ कहा।
“हां।” मैं बोली—”बाहर हल्की बूंदा—बांदी हो रही है।”
बृन्दा खाना खाती रही।
उसने अब मूंग की दाल की खिचड़ी और दही भी अपनी प्लेट में निकाल ली थी।
“मैं तुझसे एक बात कहूं शिनाया?”
“क्या?” मैं बृन्दा के नजदीक ही बैठ गयी।
“तुझे अब उस ‘नाइट क्लब’ की झिलमिलाती दुनिया में कभी वापस नहीं लौटना चाहिए। अगर तू जिन्दगी के इस मोड़ पर आकर भी उस दुनिया में वापस गयी, तो फिर शायद ही कभी उस गदंगी से बाहर निकल सके। फिर तो तेरा हाल भी तेरी मां जैसा ही होगा।”
“न... नहीं।” मैं कांप उठी, मेरे शरीर का एक—एक रोआं खड़ा हो गया—”प्लीज बृन्दा- ऐसे शब्द भी अपनी जबान से मत निकालो।”
“मैं जानती हूं, तू अपनी मां की मौत को अभी भी नहीं भुला पायी है। इसीलिए कहती हूं- तू भी तिलक राजकोटिया जैसा कोई आदमी देखकर जल्द—से—जल्द शादी कर डाल।”
“मैं वही कोशिश तो कर रही हूं।”
“क्या मतलब?”
“मेरा मतलब है,” मैं जल्दी से बात सम्भालकर बोली—”मैं वही कोशिश तो कर रही थी, जो केअरटेकर की नौकरी करने यहां आ पहुंची। अब मुझे यह थोड़े ही मालूम था कि यहां मेरी तुझसे मुलाकात हो जाएगी।”
“ओह- सचमुच तेरे साथ काफी बुरा हुआ।” बृन्दा अफसोस के साथ बोली—”लेकिन मुम्बई शहर में तिलक राजकोटिया के अलावा और भी तो ढेरों लड़के हैं।”
“यह तो है।”
शीघ्र ही उसने खाना खा लिया।
मैंने सारे बर्तन समेटकर वापस ट्रॉली पर रखे।
रात के उस समय दस बज रहे थे- जब मैंने बृन्दा को सोने से पहले दो टेबलेट खाने के लिए दीं। परन्तु उस रात बृन्दा को दी जाने वाली उन दो टेबलेट में-से एक ‘डायनिल’ थी।
डायनिल!
खतरे की घण्टी!
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