desiaks
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“लो हम तो चुप हो गये, लेकिन तेरी चाल तो बोल रही है।” मैं सवेरे सवेरे उनसे उलझना नहीं चाहती थी। जल्दी से खिसक ली। वे दोनों मेरे पीछे खिलखिला कर हंस पड़े। भाड़ में जाओ तुम दोनों कुत्तों, मन ही मन खीझती हुई ऑफिस रवाना हो गयी। तो इसका मतलब कल जिस खड़ूस नें मुझे भोगा वह गूंगा है। ओह्ह्ह्ह्ह्ह, तभी वह कुछ बोल नहीं रहा था। नाम भी वैसा ही, कोंदा, यहां के आदिवासी लोग कोंदा गूंगे को बोलते हैं। मैं भी गूंगी बनी एक गूंगे से अपना शरीर लुटवाती रही, बड़े आनंदपूर्वक। कहां तो एक गरीब, गंदे, कुरूप बढ़ई को शायद ही कोई औरत उपलब्ध होती होगी या कोई उसे भाव ही नहीं देती होगी और कहां कल्पनातीत तरीके से एक सुखद, स्वर्णिम अवसर ऊपरवाले नें उसे प्रदान किया, मुझ जैसी खूबसूरत औरत को उसकी झोली में डालकर। मौका मिला और लपक लिया उस मौके को और क्या खूब लपका। शायद पहली बार, या फिर लंबे अरसे से दबी अपने अंदर की काम क्षुधा मिटाने टूट पड़ा मुझ पर। उसे तो शायद पता ही न था कि भगवान नें उसे इतने भीमकाय लिंग के रूप में किस अनमोल वरदान से नवाजा है। मुझ जैसी किसी मर्दखोर औरत के लिए तो ऐसा दुर्लभ लिंगधारी पुरुष किसी अनमोल वरदान से कम नहीं था। एक तो ऐसा मनभावन लिंग, ऊपर से उसकी दीर्घ स्तंभन क्षमता, मैं तो कायल हो गयी, पीड़ा हुई तो क्या हुआ, अविस्मरणीय था वह संभोग। फिर तो निर्बाध, निर्विघ्न, निर्द्वंद्व जुड़ते गये हमारे भवन निर्माण से जुड़े सारे लोग, मजदूर, मिस्त्री, ठेकेदार, बढ़ई, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, मेरे शरीर का उपभोग करने वालों की फेहरिस्त में। मैं भी सबको उदारतापूर्वक अपने तन का रसास्वादन कराती अपनी वासनापूर्ती करती रही, पूर्ण बेशर्मी के साथ, हर सुखद पलों में मुदित।
अब नये भवन के निर्माण का कार्य अपने अंतिम चरण में था। इसी दौरान एक दिन जब मैं ऑफिस से घर लौट रही थी, तो सिन्हा जी के घर के सामने से निकल ही रही थी कि मैंने रेखा (सिन्हा जी की पत्नी) को देखा। वह एक सुंदर से करीब अठारह वर्षीय युवक के साथ थी। उस युवक को मैं पहली बार इस मुहल्ले में देख रही थी। अच्छी खासी कदकाठी वाला गोरा चिट्टा, तीखे नाक नक्श, घुंघराले बालों वाला, चढ़ती उम्र का आकर्षक युवक था वह। रेखा से मिलने की उतनी उत्कंठा नहीं थी, किंतु उस आकर्षक युवक के आकर्षण नें मुझे हठात रुकने को वाध्य कर दिया। वे दोनों अपने गेट में घुस ही रहे थे कि मैंने आवाज दी,
“अरी रेखा।”
ठमक कर रुक गयी वह और मुझे देखकर खिल पड़ी, “अरे कामिनी दी।”
“क्या रेखा, तुम तो हमारे घर का रास्ता ही भूल गयी।” मैं शिकायत भरे लहजे में बोली।
“भूली कहाँ हूं, आती तो हूं।”
“मगर मुझसे मुलाकात कहां होती है? ओह समझी…”
“क्या?…..”
“बोलूं?….” मैं जान गयी कि यह मेरी अनुपस्थिति में हमारे घर अपनी तन की तृष्णा की तृप्ति हेतु आती होगी। भला अपने पति की अवहेलना से पीड़ित, अपनी प्यासे तन की कामक्षुधा की तृप्ति हेतु मेरे सुझाए सुलभ मार्ग को छोड़ जाती भी कहां। वैसे भी इसे चस्का भी तो लग गया था। हमारे यहां तीन तीन सुलभ औरतखोर मौजूद जो थे।
“न न न न…” वह घबरा कर उस युवक की ओर कनखियों से देखते हुए बोल उठी।
“ओह, ये जवान है कौन?” मैं उस युवक की ओर देखती हुई पूछी।
“यह मेरा बेटा पंकज है। कॉलेज में तीन दिन की छुट्टियां हैं, सो चला आया।”
“वाऊ, बड़ा खूबसूरत बेटा पाया है तूने तो। बिल्कुल पिता पर गया है। कहां पढ़ता है?”
“कोलकाता, संत जेवियर्स कॉलेज में। पंकज, ये हैं कामिनी आंटी।”
“नमस्ते आंटी।” पंकज मुझे गहरी नजरों से देखते हुए बोला। मैं लरज उठी। पता नहीं उसकी आंखों में क्या था, मैं सनसना उठी। कहां वह अठारह वर्ष का उभरता युवक, और कहां मैं चालीस पार की अधेड़ महिला, फिर भी उसके लिए मेरे मन में एक कुत्सित आकांक्षा जागृत हो उठी थी। आखिर ठहरी कामुक गुड़िया कामिनी।