desiaks
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“मैं सब ठीक कर दूंगा। फिलहाल तो तुम विनीत की छुट्टी करो।"
"पापा!" अर्चना जैसे चीख उठी।
"उससे साफ कह दो।"
"नहीं पापा।" अर्चना का स्वर भर्रा उठा था—"ऐसा नहीं हो सकता....।"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं उसके बिना....."
"तभी तो कह रहा हूं कि नासमझी की बात है। विनीत को यहां से जाना ही पड़ेगा। हम अरबिन्द को नाराज करना नहीं चाहते।"
"ओह पापा....।"
"तो फिर मैं कह दूं...?"
"नहीं पापा....।"
"तब फिर मैं क्या करूं?"
"आप....उसे यहीं रहने दें।"
"यह नहीं होगा।" उनकी आवाज में सहसा ही कठोरता आ गयी- मैं इसी बक्त उसे अन्यत्र जाने के लिये कह दूंगा। अरविंद अपने आप संभाल लेगा।"
“प्लीज पापा.....”
बे जैसे झुंझला उठे—“अर्चना, तुम समझने की कोशिश तो करो? उसे अपने यहां रखने पर हमें अरविंद क्या कहेगा?"
"लेकिन पापा....." अर्चना जैसे रो उठी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह उन्हें किस प्रकार समझाये। कैसे कहे कि वह उस खूनी के बिना जिन्दा नहीं रह सकती। उसके बिना उसका जीवन पतझड़ बन जायेगा। वह सूनी-सूनी हो जायेगी। उसने और कुछ नहीं कहा तथा कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर आ गयी। सीधी विनीत के कमरे में पहुंची। विनीत वहां न था। मेज के ऊपर एक छोटा-सा पेपर रखा था।
उत्सुकतावश अर्चना ने उस पेपर को उठाकर पढ़ा।
लिखा था
अर्चना, मैं इस बात को जानता था कि सत्यता एक न एक दिन सामने अबश्य आ जाती है। मैं यह भी जानता था कि मेरी वास्तविकता को जानकर सेठजी कभी यह सहन नहीं करेंगे कि एक खूनी उनकी कोठी में रहे। मैंने तुमसे पहले भी कहा था कि मैं बो बदनसीब इन्सान हूं जो किसी को कुछ भी नहीं दे सकता। तुम मुझसे प्यार करती हो....परन्तु मैं....मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता। मुझे भूल जाना अर्चना। हमेशा के लिये भूल जाना। मैं इन गलियों में कभी लौटकर नहीं आऊंगा।
एक बदनसीब
अर्चना ने पत्र को दो-तीन बार पढ़ा। भावावेश में उसकी आंखें छलछला उठीं। अलमारी खोलकर देखा, विनीत के लिये उसने जितने भी सूट बनवाये थे, बे उसी प्रकार रखे थे। वह अपने पुराने कपड़ों को पहनकर गया था। उसी बिस्तर पर गिरकर अर्चना फफककर रो उठी।
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"पापा!" अर्चना जैसे चीख उठी।
"उससे साफ कह दो।"
"नहीं पापा।" अर्चना का स्वर भर्रा उठा था—"ऐसा नहीं हो सकता....।"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं उसके बिना....."
"तभी तो कह रहा हूं कि नासमझी की बात है। विनीत को यहां से जाना ही पड़ेगा। हम अरबिन्द को नाराज करना नहीं चाहते।"
"ओह पापा....।"
"तो फिर मैं कह दूं...?"
"नहीं पापा....।"
"तब फिर मैं क्या करूं?"
"आप....उसे यहीं रहने दें।"
"यह नहीं होगा।" उनकी आवाज में सहसा ही कठोरता आ गयी- मैं इसी बक्त उसे अन्यत्र जाने के लिये कह दूंगा। अरविंद अपने आप संभाल लेगा।"
“प्लीज पापा.....”
बे जैसे झुंझला उठे—“अर्चना, तुम समझने की कोशिश तो करो? उसे अपने यहां रखने पर हमें अरविंद क्या कहेगा?"
"लेकिन पापा....." अर्चना जैसे रो उठी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह उन्हें किस प्रकार समझाये। कैसे कहे कि वह उस खूनी के बिना जिन्दा नहीं रह सकती। उसके बिना उसका जीवन पतझड़ बन जायेगा। वह सूनी-सूनी हो जायेगी। उसने और कुछ नहीं कहा तथा कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर आ गयी। सीधी विनीत के कमरे में पहुंची। विनीत वहां न था। मेज के ऊपर एक छोटा-सा पेपर रखा था।
उत्सुकतावश अर्चना ने उस पेपर को उठाकर पढ़ा।
लिखा था
अर्चना, मैं इस बात को जानता था कि सत्यता एक न एक दिन सामने अबश्य आ जाती है। मैं यह भी जानता था कि मेरी वास्तविकता को जानकर सेठजी कभी यह सहन नहीं करेंगे कि एक खूनी उनकी कोठी में रहे। मैंने तुमसे पहले भी कहा था कि मैं बो बदनसीब इन्सान हूं जो किसी को कुछ भी नहीं दे सकता। तुम मुझसे प्यार करती हो....परन्तु मैं....मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता। मुझे भूल जाना अर्चना। हमेशा के लिये भूल जाना। मैं इन गलियों में कभी लौटकर नहीं आऊंगा।
एक बदनसीब
अर्चना ने पत्र को दो-तीन बार पढ़ा। भावावेश में उसकी आंखें छलछला उठीं। अलमारी खोलकर देखा, विनीत के लिये उसने जितने भी सूट बनवाये थे, बे उसी प्रकार रखे थे। वह अपने पुराने कपड़ों को पहनकर गया था। उसी बिस्तर पर गिरकर अर्चना फफककर रो उठी।
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