Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश - Page 3 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश

#16

वैसे तो चुदाई का अपना ही आनन्द है पर जब किसी किसी नजदीकी रिश्ते वाले से ये सम्बन्ध बनते है तो चुदाई का मजा ही अलग होता है , दीन दुनिया भूलकर ताई लंड चूस रही थी, कुछ देर बात उसने मुह से निकाला और मेरे अंडकोष चूसने लगी, मेरे लिए एक नया अहसास था, गुदगुदाते हुए ऐसा मजा महसूस कर रहा था मैं की बता नहीं सकता.

कुछ देर बाद ताई उठ गयी मैं भी उठा और उसे अपने सीने से लगाते हुए चूमने लगा , मेरे हाथ उसकी गांड को सहलाने लगे, मसलने लगे, ताई की सांसे मेरी सांसो में घुलने लगी थी . ताई ने अपनी एक टांग उठा कर मेरी कमर पर रखी , और लंड को अपनी चूत पर टिका लिया,

वो कितना बर्दाश्त करती वो भी , घप्प से लंड चूत में घुस गया और खड़े खड़े चुदाई शुरू हो गयी,

दोनों हाथो में मोटे मोटे चुतड थामे मैं ताई की चूत में लंड अन्दर बाहर कर रहा था , उसने अपने दोनों हाथ मेरे कंधो पर रखे हुए थे और चुदाई का मजा ले रही थी .न जाने ऊपर वाले ने इन्सान को ये कैसी भूख दी थी, जिसके लिए वो हर रिश्ते-नाते को शर्मसार कर जाता है , उसे कुछ भी ख्याल नहीं रहता

और इसका उदाहरण हम दोनों थे, पर उस कमजोर लम्हे में ये सब बाते बेमानी थी, कुछ था तो बस कमरे में गूंजती वो चुदाई की आवाज जो तब ता क गूंजती रही जब तक की हमने अपनी पानी गर्मी बाहर नहीं निकाल दी. एक बार फिर हमने अपने अपने चरम सुख को प्राप्त कर लिया था.

चुदाई के बाद ताई ने अपने कपडे पहने , मैंने भी .

मैं- आज रात यही रुक जाओ न

ताई- नहीं रुक सकती, ब्याह का घर है , और मैं बताके भी नहीं आई, हाँ अगली बार जरुर रुक जाउंगी

मैं- ठीक है, चलो तुम्हे घर तक छोड़ आऊ

ताई ने हामी भरी , मैं ताई के साथ घर तक आया, मैंने दरवाजे के अन्दर निगाह डाली, एक नजर माँ को देखना चाहता था , पर मैं वापिस मुड़ गया. कहने को तो ये ईमारत मेरा ही घर थी, पर इस दहलीज और मेरे पैरो के दरमियान एक रेखा खिंची थी, जिसे बरसो पहले लांघ दिया था मैंने .

मेरी नजर ऊपर कोने वाले कमरे पर पड़ी, जो कभी मेरा होता था , पुरे घर में रौशनी थी बस एक उस हिस्से को छोड़कर, शायद गुजरे वक्त की तरह मुझे भी इस घर ने भुला दिया था . बीते सालो में मैंने एक भी इधर मुड के नहीं देखा था पर अब बार बार मेरा इधर आना जाना हो रहा था . क्या चाहती थी नियति मुझसे , आखिर मेरे तमाम सवालों के जवाब किसके पास था.

वापिस खेत पर आकर भी मुझे चैन नहीं था मेरी बेचैनी पागल कर रही थी मुझे, मैंने सोने की कोशिश की पर नींद रूठी थी, माथे पर पसीना था , एक घबराहट सी हो रही थी , ऐसा पहले कभी महसूस नहीं हुआ था , मैं कमरे से बाहर आया , मौसम ने अपना मिजाज बदला हुआ था , हवाए तेज चल रही थी ,

“काश तू आती मिलने, ” मेरे होंठो से जैसे एक आह सी निकली.

दिल ने एक बार फिर से पुजारी की लड़की को याद किया , उसका मासूम चेहरा आँखों के सामने आ गया. एक शोखी सी थी उस लड़की में, उसकी आँखों में झील सी गहराई थी , उसकी वो बेतकल्लुफी मुझे भा गयी थी.

पर मैं उसे क्यों याद कर रहा था ,मिलने का वादा करके भी वो आई नहीं थी , माना रही होंगी उसकी हजार मजबुरिया , समय नहीं मिला होगा पर एक दिन बाद, दो दिन बाद कभी तो आती, और मैं मैने तो सोच लिया था की उसे एक ख्वाब समझ भूल जाना था पर फिर क्यों याद आ रही थी मुझे वो.

“एक बार चलके तो देख , क्या पता मंदिर में मिल जाए वो . उसने कहा था जोत सँभालने आती है वो .”

“नहीं ” दिमाग ने कहा

“ चल तो सही, अपने यारो के लिए लोग न जाने क्या कर गए और तू थोड़े से इंतजार से घबरा गया ” दिल ने कहा

“जिस मंजिल पर जाना नहीं वो रास्ता क्या देखा ” दिमाग बोला.

दिल और दिमाग की कशमकश मुझे पागल करने लगी थी , और कहते है न की दिल से निकली आह न जाने क्या करवा दे, , मैंने एक बार फिर से मंदिर जाने का सोच लिया. सोच क्या लिया मैं चल पड़ा.

अँधेरी रात में, तेज हवा से जूझते हुए मैं रतनगढ़ की तरफ बढे जा रहा था , गाँव हमारा इलाका पीछे छूट गया था , मैं टूटे चबूतरे से कुछ दूर ही था की मेरी आखो ने एक लौ देखि, अँधेरी रात में शान से जलती लौ. मैं दौड़ पड़ा हाँफते हुए मैं पंहुचा , ये दिया था एक दिया जो टूटे चबूतरे पर जल रहा था.

हवाए इतनी तेज चल रही थी की मैंने बदन पर चादर लपेट रखी थी पर मजाल क्या इन गुस्ताख हवाओ की जो इस दिए पर अपना जोर दिखा सके, वो लौ इतनी शांत थी जैसे तालाब का शांत जल, उस दिए एक आभा थी जिसने मुझे अपने पास खींच लिया था, कोतुहल में मैंने उस दिए को उठा लिया और गजब हो गया.

अपने कंधो पीठ पर मैंने किसी को महसूस किया और फिर क्या हुआ मैं समझ पाता उस से पहले ही मैं धरती पर गिरा चीख रहा था , मेरी पीठ का मांस उधेडा जा रहा था

“आआआआआआआइ आआआआआआआआ ” मैं चीख रहा था, वो कोई जानवर था जो बेहद मजबूती से मुझे दबोचे मेरा मांस खा रहा था . मैं छुड़ाने की कोशिश कर रहा था ,क चीख रहा था पर मेरा जोर नहीं चल रहा था . बदन के पिछले हिस्से पर उसके पंजो की खरोचे महसूस हो रही थी, जैसे कोई मेरी पसलियों को खींचे जा रहा था .

और मैं बस रोये जा रहा था, बिलबिला रहा था दर्द से, चीखे जा रहा था .
 
#17

झटके से आँखे खुल गयी, सांसे गहरी थी मेरी, रौशनी ने जैसे कुछ लम्हों के लिए चौंधिया था पर जब मैंने देखा तो पाया की मैं एक नर्म, मुलायम बिस्तर पर पड़ा था, हॉस्पिटल के बिस्तर पर. क्या मालूम दिन था या रात. इधर उधर देखा कमरे में कोई नहीं था, बदन थोडा सा हिला डुला तो दर्द ने जैसे मेरे वजूद पर कब्ज़ा कर लिया.बोलना चाहता था पर आवाज दर्द के तले दब गयी.

तभी दरवाजा खुला और एक नर्स अन्दर आई. मुझे होश में आया देख कर वो मुस्कुराई

मैं- कहाँ हु मैं

नर्स ने मुझे चुप रहने का इशारा करते हुए कहा- नहीं, अभी नहीं,

मैंने अपने आप पर नजर डाली और एक पल के लिए मेरी रूह कांप गयी, हालत देख कर पुरे बदन पर पट्टियों का ढेर लगा था ,

“क्या हुआ मुझे ” मैंने मरी सी आवाज में पूछा

तभी दरवाजा फिर से खुला और मैंने उसे देखा, जिन्दगी किसे कहते है मैंने उस कमजोर, बिखरे हुए लम्हों में जाना था . डबडबाई आँखों से उसने मुझे देखा और बिना किसी की परवाह किये दौड़ कर मेरे सीने से लग गयी वो . ये कैसा पल था दर्द भी था सकून भी . सीने पर सर रखे जैसे मेरी धड़कने सुन रही हो वो.

उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया , उसके आंसू गिर रहे थे मेरी हथेली पर मैंने बोलना चाहा पर उसने गर्दन हिलाते हुए ना कहा. न जाने कैसे पल थे ये उसकी आँखों से पानी गिरता रहा , अपने तमाम जज्बात जैसे आज बहा देना चाहती थी वो ... मैं खुश था क्योंकि वो साथ थी .

“आँखे तरस गयी थी , बहुत इतंजार करवाया आँखे खोलने में ” उसने संजीदा आवाज में कहा

मैं बस मुस्कुरा दिया.

“कैसी हो ” मैं बस इतना कह पाया

वो- अब ठीक हूँ , बहुत घबरा गयी थी मैं, डर गयी थी

उसकी बात अधूरी रह गयी , नर्स ने बीच में टोक दिया

“अरे तुम लोग बाद में बाते करना, पहले इसे डॉक्टर को दिखा लेने दो ” उसने कहा

थोड़ी देर बाद डॉक्टर आया, उसने जांच की और फिर बाहर चला गया ,डॉक्टर के पीछे पीछे वो भी .

मैं- कितने दिन रुकना होगा यहाँ

नर्स- दिन , कितने महीने पूछो

मैं- पूरी बात बताओ मुझे

नर्स- तुम्हे किसी जानवर ने खाया था , काफी मांस नोच गया . जब तुम्हे यहाँ लाया गया था तो चंद सांसे बची थी, मैं तो हैरान हु की तुम बच गए. हालत बहुत बुरी थी, शायद ये तुम्हारे साथ आई लड़की की दुआओ का असर है जो तुम बच गए.

मैं- कितने गहरे जख्म है

नर्स- जख्म, मांस ही नहीं बचा तुम जख्मो की बात करते हो. पर तुम ज्यादा बाते न करो , शरीर पर जोर पड़ेगा.

मैंने आँखे मूँद ली, कुछ कुछ उस रात की याद आने लगी मुझे , और तभी मेरी आँख फिर खुल गयी , डर ने डरा दिया मुझे .बदन में एक सिरहन सी दौड़ गयी, उस रात के बारे में सोचते ही.

मैं- उसे बुला दो

नर्स- ठीक है

नर्स बहार चली गयी और थोड़ी देर बाद वो आई.

वो- तुम्हारे घर का पता दो, घरवालो को भी तुम्हारी फ़िक्र हो रही होगी, मैं उन्हें खबर करवा दूंगी .

मैं- मेरे पास बैठो जरा

वो- यही हूँ मैं

मैं- थकी हुई लगती हो

वो- हाँ, थकी तो हूँ पर अब नहीं , और तुमसे नाराज भी हूँ, क्या जरुरत थी तुम्हे जंगल में भटकने की , ये तो तुम्हारी किस्मत थी मैंने तुम्हारी चीखो को सुन लिया वर्ना तुम्हारा तो काम तमाम हो गया था

मैं- तुम्हारी याद आ रही थी , तुमसे मिलने आ रहा था

वो- तो दिन में आते, जंगल सुरक्षित नहीं है जानते तो हो न तुम

मैं- दिन में भी आता था, पर तुम मिली नहीं

वो- मैं बाहर थी , जिस रात ये हुआ उसी शाम मैं वापिस गाँव लौटी.

उसने एक नजर घडी पर डाली और बोली- मुझे जाना होगा, पर जल्दी ही आ जाउंगी, तब तक आराम करो. जल्दी से ठीक होना है तुम्हे.

दरवाजे पर जाके उसने फिर देखा मुझे मुड़कर

मैं- सुनो, नाम तो बताती जाओ.

वो मुस्कुराई और बोली- मेघा.

मेघा, मेघा मेघा न जाने कितनी देर मैं उस नाम को दोहराता रहा फिर मुझे नींद आ गयी. सुबह उठा , दवाई ली, नर्स ने थोडा बहुत खिलाया पिलाया. मैं इतना तो समझ गया था की ये हॉस्पिटल बहुत ही बढ़िया है और बढ़िया होने का मतलब था महंगा होना. इस बात ने मुझे थोड़ी फ़िक्र में डाल दिया .

मैंने नर्स से पूछा - मेरे इलाज में काफी पैसे लग गए होंगे.

नर्स- हाँ

मैं- सभी बिल दिखाओ मुझे

नर्स - बाद में

मैं- दिखाओ अभी

कुछ देर बाद वो एक फाइल लेके आई जिसमे सारा हिसाब किताब था .

मैंने फ़ाइल् देखि और मेरे चेहरे पर शिकन छा गयी.

“इसे ये दिखाने की क्या जरुरत थी ” मेघा ने अन्दर आते हुए नर्स को डांट दिया

नर्स- इन्होने ही मंगवाई थी .

मेघा- बाहर जाओ थोड़ी देर के लिए

मेघा- और तुम्हे ये सब की कोई फ़िक्र नहीं होनी चाहिए

मैं- पर मेघा

मेघा- मैंने कहा न ,

मैं- ये रकम बहुत बड़ी है मैं कैसे चूका पाउँगा

मेघा ने मेरे हाथ से फाइल ले ली और बोली- तुम्हारी दोस्त है तुम्हारे साथ , कुछ पैसे भर दिए है कुछ भर दूंगी

मैं- मेघा मेरी बात सुनो.

मेघा- तुम मेरी बात सुनो , मेरे लिए सबसे पहले तुम हो, ये लम्हे है जो तुम्हारे साथ जीने है मुझे, तुम्हारा ठीक होना जरूरी है समझ रहे होना तुम

उसकी आँखों में जैसे जादू था, जो मुझ पर खूब चलता था ,

“तुम्हारे लिए कुछ लायी हूँ ” उसने झोला खोलते हुए कहा

मैं- क्या

वो- खाना

अपने हाथो से वो खिलाने लगी मुझे, ये जीवन के ऐसे अनमोल पल थे जो हमारे अनजाने रिश्ते को एक मुकाम देने वाले थे एक नाम देने वाले थे. , वो घंटो मेरे साथ बैठती, बाते करती, मुझे कहानिया सुनाती , कभी दिन भर तो कभी रात रात ,कहने को वो हॉस्पिटल का कमरा था पर अब जैसे दुनिया था,

दिन ऐसे ही गुजर रहे थे, हालत थोड़ी ठीक हुई, मैं अब उठने, बैठने लगा था , उसके साथ ने न जाने कैसा असर किया था मुझ पर , पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता था की मेघा के मन में कुछ तो है जो वो छुपा रही थी
 
#18

कहते है न कभी कभी जिन्दगी में कुछ ऐसा हो जाता है की उम्मीद न हो. मैं मेघा से इतनी शिद्दत से मिलना चाहता था और तक़दीर ने देखो किस हालत में मुझे उसके पास ला पटका. हम दोनों एक दुसरे से इतना घुल मिल गए थे की कोई भी कह सकता था हमारी जोड़ी के बारे में . हॉस्पिटल के उस बंद कमरे में घंटो वो बैठी रहती , मेरा हाथ थामे.

रोज अपने साथ वो खाना लाती मेरे लिए, न जाने कैसे वो मेरी पसंद जान लेती थी, उसके हाथ से खाई हर रोटी का ही असर था जो मैं पहले से और ठीक होता जा रहा था , दवाइया तो बस बहाना था , डॉक्टर हर दो तीन दिन में नयी पट्टिया कर देता , मैं अपने ज़ख्मो को देखना चाहता था, देखना चाहता था की जिस्म को कितना नुक्सान हुआ है पर ऐसा हो नहीं पाता था.

पर एक सवाल अभी भी मेरे मन में था .

मैं- मेघा , पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ, तुम उदास हो

मेघा- नहीं कबीर, ऐसी कोई बात नहीं,

मैं- दोस्तों से झूठ नहीं बोलते, मुझसे नहीं कहोगी तो किस से कहोगी.

मेघा- कबीर, तुम्हारी इस हालत की जिम्मेदार मैं हूँ , न मैं वो दिया जलाती न तुम उस तरफ आते, न वो जानवर तुमपर हमला करता

मैं- बस इतनी सी बात का बोझ है , अरे पगली, मैं तो आभारी हूँ उस जानवर का जिसकी वजह से तुम फिर मिली मुझे.

मेघा- कबीर, बेशक तुम इसे मजाक में टाल दो, पर मैं नहीं .जानते हो कितना डर गयी थी मैं. उस रात को याद करती हूँ तो रूह कांप जाती हिया, दर्द से तदप रहे थे तूम, खून बिखरा था , मुझे लगा मैं खो दूंगी तुम्हे.

मैं- मेघा, मेरा बस एक सवाल है तुमने वो दिया क्यों जलाया था उस रात को.

मेघा- मैं बस, मैं बस एक कहानी की सत्यता को जाँच रही थी .

मैं- कौन सी कहानी

मेघा- प्रीत की कहानी,

मैं- मुझे बताओ इस कहानी के बारे में

मेघा- ये कहानी क्या है , किसकी है ये कोई नहीं जानता कबीर, बस कुछ बाते है जो इशारा करती है की किसी ज़माने में कोई रहा होगा जिसने कोई वादा तोडा था, उसे माँ तारा के मंदिर में श्राप मिला था , तुमने देखा न मंदिर में कोई दिया नहीं जलता कभी, लौ को भी बाहर से जला कर फिर लाते है

मैं- ये तो मैं भी जानता हु , पर कैसा वादा तोडा था और किसने

मेघा- कहते है की वो जो टुटा चबूतरा है वहां पर कुछ हुआ था ,

मैं- एक बात बताना, अर्जुन्गढ़ की तरफ से जब शहर को जो रास्ता जाता है उसके पास उस मिटटी पर भी तुमने ही दिया जलाया था न

मेघा- हाँ

मैं- वहां क्यों

मेघा- मैं , घूम रही थी उस दिन उस तरफ

मैं- ये जानते हुए भी की वो दुश्मनों का इलाका है

मेघा- तुम भी तो ऐसा ही करते हो. और यही बात तुम्हे मुझसे जोडती है , तू भी भटकते रहते हो मैं भी .

मैं- इस कहानी के बारे में कौन बता सकता है .

मेघा- मालूम नहीं , पर कहते है की एक दिन आएगा जब टुटा वचन पूरा होगा.

मैं- तुम्हे विश्वास है इस पर.

मेघा- झूठ भी तो नहीं है ये. खैर कबीर, तुम आराम करो मुझे जाना होगा, और हाँ, आने वाले कुछ दिन मैं व्यस्त रहूंगी, तो कम आ पाऊँगी

मैं- कोई बात नहीं

जैसे जैसे मेरी हालत ठीक हो रही थी , मेघा का आना कम हो रहा था , कभी कभी वो तीन- चार दिन तक नहीं आती थी , पर उसकी मजबुरिया भी समझता था मैं. हर रोज शहर आने के नए नए बहाने खोजने भी तो आसान नहीं थे, हालाँकि मैं इतना मजबूत नहीं था की पूरी तरह से चल फिर सकूँ पर फिर भी मैंने कही जाने का सोचा.

“नर्स, मेरा एक काम करोगी.” मैंने कहा

नर्स- क्या

मैं- मुझे एक फ़ोन करना है .

नर्स, - करवा दूंगी.

मैं- पर मुझे नुम्बर नहीं मालूम

नर्स- तो फिर ऐसा मजाक क्यों किया

मैं- मजाक नहीं है, सुनो मुझे होटल शालीमार फ़ोन करना है ,

नर्स- फ़ोन नम्बर तो नहीं है , पर मेरे घर का रास्ता उधर से ही पड़ता है , नाम बता दो मैं तुम्हारी बात पहुंचा दूंगी.

मैं- सुनो, होटल की मालकिन है प्रज्ञा , सिर्फ उनसे ही मिलना , यदि तुम्हारी मुलाकात हो तो बस इतना कहना दोस्त, इस हॉस्पिटल में है . मेरी बात ध्यान रखना बस उनसे ही कहना किसी और से नहीं,

नर्स- ठीक है

दरअसल प्रज्ञा ही थी जिस पर मैं खुद से ज्यादा भरोसा करता था , परिवार के नाम पर बस वो ही थी मेरे पास. ये ठीक था की मेघा ने मुझे संभाल लिया था इन मुश्किल हालातो में पर शायद प्रज्ञा ही थी जो मेरे दर्द को समझ पाती . जब जब मेरी पट्टिया बदली जाती मैं अपने शरीर को देखता , मेरी हालत क्या से क्या हो गयी थी, और बिना मेघा ये कमरा हर पल जैसे काट खाता था मुझे

जब भी मैं सोचता मेरे दिमाग में प्रीत की डोर वाली बात आती जिसके सिरे मेघा ढूंढ रही थी, पर कोई तो होगा जो इस कहानी को जानता हो, कोई एक इन्सान जो बता सके की आखिर उस अधूरी कहानी में मैं कैसे जुड़ा था

मुझे ठीक से याद था की जैसे ही मैंने दिया उठाया था , ठीक उसी पर मुझ पर हमला हुआ था , आखिर ये कैसा इत्तेफाक था , बहुत सी बातो पर मैंने गौर किया था जैसे उन रातो में कैसे जानवरों के रुदन का पीछा करते हुए मैं बार बार रतनगढ़ पंहुचा था,

कैसे मुझे वसीयत में एक मिटटी का दिया मिला था , कैसे मंदिर की पहेली थी , हर चीज़ केवल मुझे जोड़ रही थी रतनगढ़ से और मेघा से. पर क्या नियति खेल रही थी ये खेल

क्योंकि ये सब बिलकुल मामूली नहीं था .मैं और मेघा , हाँ , मेघा, क्योंकि वो भी एक किरदार थी, उसका मुझसे मिलना, हमारी बाते, मुलाकाते सब किसी फिल्म सा था , जैसे किसी ने स्क्रिप्ट लिख दी हम रोल निभा रहे थे . बहुत सोचने के बाद मैंने फैसला किया, मैं हरहाल में मालूम करके रहूँगा की प्रीत के वचन का क्या राज है .
 
#१९

दिन पर दिन बीत रहे थे मेघा भी गायब थी और प्रज्ञा भी नहीं आई मिलने, नर्स बार बार कहती की उसने खुद जाकर कहा था होटल में , इस इंतज़ार ने मुझे पागल कर दिया था , हॉस्पिटल के इस कमरे ने जैसे मेरे वजूद को कैद कर लिया था, मैं बार बार डॉक्टर से कहता की मुझे जाने दो , जाने दो पर मुझे हर बार निराशा मिलती .

करीब तीन महीने बीतने के बाद आखिर कर डॉक्टर ने मुझे बताया की अब मैं बहुत बेहतर हूँ, और घर जा सकूँगा. मुझे बहुत ख़ुशी थी इस बात की

मैं- डॉक्टर, मैंने अपने दोस्तों को सन्देश भिजवाया था जैसे ही वो आयेंगे , बिल चूका देंगे.

डॉक्टर- पर तुम्हारा बिल तो पहले ही भरा गया है कोई बकाया नहीं है तुम बस तयारी करो जल्दी ही डिस्चार्ज करेंगे तुम्हे

ये बात और हैरान करने वाली थी मुझे, शायद मेघा ने बंदोबस्त कर लिया होगा. सबसे पहले मैंने प्रज्ञा से मिलने का सोचा और मैं सीधा होटल गया , पर तक़दीर मालूम हुआ की महीनो से वो इस तरफ आई ही नहीं थी. शायद यही वजह रही होगी की वो होस्पिटल नहीं आई. खैर अब क्या फायदा था रुकने का,

शहर से विदा लेने का वक्त हो चला था मैंने, गाँव के लिए बस पकड़ ली,मौसम की अंगड़ाई देखते हुए मैंने खिड़की खोल ली, हलकी हलकी बूंदे चेहरे को भिगोने लगी, ठंडी हवा बहुत अच्छी लग रही थी , मैंने आँखे मूँद ली और खुद को उन हलकी बौछारों के हवाले कर दिया. एक अनजानी ख़ुशी जिसे मैंने न जाने आखिरी बार कब महसूस किया था . . गाँव पहुचते पहुचते बारिशे भी कुछ तेज हो गयी थी और मेरी धड़कने भी . भीगते हुए मैं खेत की तरफ जा रहा था .

कुछ तो बात थी इस अपनी मिटटी में, खुद को एकदम से ही बेहतर महसूस करने लगा था मैं , इस गीली मिटटी की महक जो मेरी सांसो में समा रही थी दुनिया की कोई भी बेहतर से बेहतर खुशबु फीकी थी इसके आगे. मैंने देखा मेरी जमीन के उस छोटे से टुकड़े की हालत भी मुझ सी ही थी, बहुत ज्यादा खरपतवार उगा हुआ था, तमाम चीज़े अस्त व्यस्त थी.

चाबी न जाने कहाँ थी , सो ताला तोडना पड़ा मुझे, गीले कपडे बदले , और पसर गया बिस्तर पर, इस वक्त और कुछ था भी नहीं करने को पर कल से बहुत कुछ था , मुझे बस किसी ऐसे इन्सान को ढूँढना था जो मेरे सवालों के जवाब दे सके, मेरे भविष्य के जवाब इतिहास में छुपे थे, जिन सवालों के लिए मांस तक गँवा दिया था उनके जवाब तो अब तलाश करने ही थे.

कहने को बस इतना था की जंगल के एक किनारे मेघा थी एक किनारे मैं बीच में ये जंगल था जो दो शत्रु गाँवो को जोड़ता था , और कही न कही ये जंगल अपने अन्दर ही वो सब छुपाये हुए था जिसकी तलाश हमें थी, क्या मुझे पुजारी से बात करनी चाहिए, क्या वो मदद करेगा , और क्या उसे मालूम था की उसकी बेटी ने वो अलख जगा दी थी जिस की लौ न जाने किस किस को झुलसाने वाली थी .

अगले दिन भी सुबह हलकी हक्ली बूंदा- बांदी थी पर फिर भी मैं निकल गया रतनगढ़ के लिए. बारिश के मौसम की वजह से जंगल बहुत बदल गया था , जैसे जैसे मैं टूटे चबूतरे की तरफ बढ़ रहा था , मेरा दिल घबराने लगा. मैं सावधान हो गया. पर सब शांत था, सिवाय हवा के, मैं वहा पंहुचा, बारिश ने उस रात के तमाम सबूत मिटा दिए थे, मैंने आकलन किया उस रात हुआ क्या था, मैंने उस दर्द को फिर से महसूस किया पर मुझे आगे बढ़ना था , सो चल दिया. बेशक मुझे मंदिर जाना था पर मैं सडक के पास उसी पेड़ के निचे बैठ गया.

न जाने क्यों मुझे एक आस थी , देर हुई बहुत हुई पर रास्ता हमेशा की तरह सुनसान था, और फिर न जाने क्या ख्याल आया मुझे, मैंने अपने कदम रतनगढ़ की तरफ बढ़ा दिए, ये पहली बार था जब मैं उस रेखा को लांघ ने जा रहा था जो हमारे बीच एक दिवार बनाती थी.

मैंने वो गाँव देखा, मेरे गाँव जैसे ही लोग थे, घर मेरे गाँव जैसे ही थे, औरते अपने कामो में व्यस्त थी, आदमी अपने में. आधा गाँव पार करते हुए मैं जिस जगह आ पहुंचा था उसे एक छोटा बाजार कह सकते थे, वहां बहुत दुकाने थी, लोग बैठे थे, बाते कर रहे थे, कुछ बुजुर्ग ताश खेल रहे थे.

मैं एक दुकान पर बैठ गया .

“क्या लोगे भाया ” पूछा उसने

मैं- जो भी खाने का है

वो- समोसा, कचोरी, भेल , नमकीन

मैं- एक चाय,

उसने सर हिलाया और थोड़ी देर में ही एक गिलास चाय दे गया.

सब कुछ तो एक सा ही था इस गाँव और मेरे गाँव में, फिर क्यों दुश्मनी थी , बस यही तो मेरा सवाल था , , तमाम सवालों में इस कद्र खोया था की कुछ लम्हों के लिए मैं भूल गया था ,

“तू यहाँ क्या कर रहा है ” ये पुजारी था जो अभी अभी उस दुकान पर आया था

मुझे कोफ़्त होती थी उस चूतिये से पर मेघा का बाप था इस लिए बस झेलना पड़ता था .

मैं- काम से आया था .

वो- तुझे क्या काम यहाँ

मैं- प्रीत का वचन निभाने

मैंने बस यु ही कह दिया था पर पुजारी की आँखों में मैंने खौफ देखा, जैसे उसे बुखार आ गया था, शायद मेरी बात दुकान वाले ने भी सुन ली थी . वो पास आके बोला- भाया,वापिस चला जा, और मुडके मत आना , गाँव में वैसे ही सब ठीक नहीं है , तू और दंगा करवाएगा, इस से पहले कोई और सुने , चला जा.

मैं- मुझे बस एक सवाल का जवाब चाहिए , जिसकी वजह से मैं यहाँ आया हु, और क्या ठीक नहीं है यहाँ

दुकानवाले ने इधर उधर देखा और बोला-भाया, तू जा. मेरी दूकान से जा.

बिना पुजारी की तरफ देखे मैं दुकान से बाहर आ गया पर मुझे कुछ याद आया तो मैंने पूछा - राणाजी के घर का रास्ता

उसने फीके चेहरे से मुझे देखा और अपनी ऊँगली सामने की तरफ कर दी.
 
#20

मेज पर दर्जनों बोतले थी शराब की पर मजाल क्या प्रज्ञा की निगाह भी गयी हो उस तरफ, और ऐसे न जाने कितने ही दिन बीत गए थे, जो कडवे पानी की एक घूँट भी गले से उतरी हो. आँखों पर एक सुर्खी सी छाई थी , कपडे अस्त-व्यस्त थे पर उसे कोई परवाह नहीं थी, परवाह थी तो बस दिमाग में चल रही उस उथल-पुथल के बारे में.

बरसो बाद अर्जुन्गढ़ और रतनगढ़ के बीच पंचायत हुई थी , दोनों पक्षों के अपने अपने आरोप थे, आस पास के गाँव के मौजिज लोग भी जुटे थे, क्योंकि दोनों गाँवो की नफरतो का इतिहास ही कुछ ऐसा था . प्रज्ञा के बदन में एक बेचैनी थी , और जैसे ही उसने गाड़ी की आवाज सुनी सब कुछ भूल कर वो नंगे पैर ही दौड़ पड़ी , निचे की और .

“क्या हुआ, क्या हुवा वहा पर,” राणा को देखते ही एक साँस में उसने जैसे कई सवाल कर दिए थे.

राणा ने भरपूर नजर अपनी पत्नी पर डाली और बोले- कुछ नहीं, वो हमें दोष देते है और हम उन्हें, हमेशा की तरह

प्रज्ञा- फिर

राणा- जंगल के मसले पर बात हुई , जंगल खाली होने पर वो भी चिंतित थे,

प्रज्ञा- मैंने भी अपने स्तर पर पड़ताल की थी पर इतनी खून्खारता कौन कर सकता है, ऐसे तो नहीं हो सकता की जानवरों के दल आपस में लड़ पड़े हो , इंसानों की तरह जानवरों में आपसी रंजिश नहीं होती .

राणा- बात तो सही है पर हम क्या करे, रातो को चोकिदारी भी करवा के देखा , कोई तो पकड़ में आये. , वैसे ठाकुर भानु ने भी वादा किया है की अपनी सीमा पर वो भी चोकसी करवायेंगे

प्रज्ञा - गाँव में खौफ है ,

राणा- कोशिश कर तो रहे है ,बरसो से ये जंगल शांत था , दोनों गाँवो की सरहद था पर कुछ तो हुआ है जो सामने नहीं आ रहा . पंचायत चाहती थी की दोनों गाँव नफरत भुला कर आगे बढे,

प्रज्ञा- क्या कहा आपने फिर

राणा- क्या कहना था , कुछ बातो को अधुरा छोड़ देना ठीक रहता है ,

प्रज्ञा- बीस साल हो गये मुझे यहाँ आये , बीस साल में मैंने एक भी ऐसी घटना नहीं देखि, जिस से लगे को हमारे और उनमे शत्रुता है , तो फिर ऐसी क्या बात है जो ये दुश्मनी है

राणा- बस चला आ रहा है , कुछ चीज़े हमें विरासत में मिली है . बचन है निभा रहे है . खैर, वैसे हमें शहर जाना था , मुनाफे में बड़ी रकम आई है होटल से लानी है , पर अभी क्या करू, थोड़ी देर में पंचायत का दूसरा चरण भी होगा.

प्रज्ञा- मैं संभाल लुंगी,वैसे भी मैं सोच रही थी थोडा बाहर निकलू

राणा- ठीक है .

दूसरी तरफ कबीर, प्रज्ञा की हवेली की तरफ बढ़ रहा था , गाँव जैसे पीछे छूट रहा था , बारिस अब भी छोटी छोटी बूँद बन कर गिर रही थी , पर कबीर को क्या परवाह थी , दूर से ही उसकी नजरो ने हवेली को देख लिया था , और देखता ही रह गया था , ऐसी शानदार ईमारत, कहने को तो कबीर के पिता का घर भी किसी महल से कम नहीं था पर इस ईमारत की निर्माण शैली अद्भुत थी,

कुछ लम्हों के लिए वो बस खो सा गया था और इसी अवस्था में वो मोड़ पर सामने से आती गाड़ी को नहीं देख पाया, बस टकराते टकराते बचा, पर जैसे ही नजरे संभली, वो फिर खो गया. ये प्रज्ञा की गाड़ी थी, , प्रज्ञा ने भी जैसे ही उसे देखा, सब भूल गयी वो .

गाड़ी से उतरते ही उसने कबीर के गाल पर एक थप्पड़ दिया और अगले ही पल उसे अपनी बाँहों में भर लिया.

“कमीने कहाँ था तू, तुझे ढूंढ ढूंढ कर मैं पागल हो गयी, हर पल मैं तुझे याद कर रही थी और तू भूल गया मुझे ”

“आहिस्ता से, ” मैं बस इतना बोल पाया.

पर प्रज्ञा को कहाँ ख्याल था उसने मुझे अपनी बाँहों में इस तरह जकड़ रखा था की उस पल यदि कोई और देख लेता तो वहीँ कत्ले आम हो जाना था

“कहाँ था, मेरी याद नहीं आई, ” उसने शिकायत करते हुए कहा

मैं- तुमसे मिलने ही तो आया हूँ ,

बस इतना ही कहा और मेरी आँखों से झरना फूट पड़ा, न जाने क्यों प्रज्ञा मेरी इतनी अपनी थी , मेरे आंसू उसके दामन को भिगोने लगे, उसके आगोश में मैं इस बारिश की तरह बरस जाना चाहता था .

प्रज्ञा- गाड़ी में बैठो.

मैं उसके पीछे पीछे गाड़ी में बैठा.

मैं- कहा चल रहे है ,

वो- पहले शहर, फिर ऐसी जगह जहाँ मैं जी सकू तुम्हारे साथ .

मैं- मेरी बात सुनो.

वो- तुम सुनो मेरी, वैसे तो मुझे बहुत कुछ कहना है पर अभी नहीं कहूँगी, और ये क्या हालत बना रखी है तुमने, और सबसे पहले ये बताओ इतने दिन तुम थे कहा, जानते हो हर जगह मैंने देखा, तुम्हारे खेत पर , जंगल में, तमाम जगह जहाँ तुम हो सकते थे और तुम थे की न जाने कहाँ लापता थे, जानते हो कितना घबराई थी मैं .

शहर आने तक पुरे रस्ते उसने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया बस अपनी ही गाती रही , हम उसके होटल आये, उसने कुछ देर अपना काम किया, फिर हमने साथ खाना खाया और फिर उसने कुछ फ़ोन किये, कुछ देर वो बात करती रही फिर हम वापिस जाने को तैयार थे,

मैं- अब कहाँ

वो- जहाँ बस हम दोनों हो.मेरे बाग़ पर

बाग़ पर पहुचते पहुचते आसमान पूरी तरह काला हो गया था , बिजलिया कडक रही थी , भीगते हुए मैंने गेट खोला और गाड़ी अन्दर आई, एक तो मेरी हालत वैसे ही ख़राब थी ऊपर से मैं भीग गया था . प्रज्ञा ने भी मेरी हालत को पहचान लिया था

प्रज्ञा- कबीर, ठीक तो हो न

मैं- हाँ

अन्दर कमरे में आकर मैंने अलमारी से तौलिया निकाला और खुद को पोंछने लगा. बिजली तो गुल थी प्रज्ञा ने लालटेन जलाई . उसके चेहरे पर नजर जाते ही मैं समझ नहीं पाया कौन ज्यादा खूबसूरत थी ये लौ, या प्रज्ञा.

प्रज्ञा- तुम कहाँ थे,

मैं- जहाँ मुझे नहीं होना था

प्रज्ञा- सीधे सीधे बताओ

मैं- जानना चाहती हो.

प्रज्ञा- हाँ

मैं- पक्का

प्रज्ञा- पहेली मत बुझाओ , अपने दोस्तों से कोई कुछ छुपाता है क्या

मैं- देखो फिर,

मैंने अपनी शर्ट उतार दी.
 
#21

मैं अपना तमाम दर्द उसे बताना चाहता था पर होंठ बस हिल कर रह गए, बहुत कुछ था उस लम्हे में जो मैं उसके सीने लग कर कहना चाहता था पर कांपते होंठ अपने शब्द खो चुके थे . जब होंठ कुछ न कह पाए तो तमाम दर्द आंसू बन कर आँखों से झरने लगा. प्रज्ञा कुछ नहीं बोली पर उसके दिल ने मेरी धडकनों को महसूस कर लिया था .

आगे बढ़कर एक शिद्दत से उसने बस मुझे आगोश में भर लिया. मेरे आंसू उसके गालो पर गिरने लगे, एक आसमान वो था जो बाहर बरस रहा था एक आसमान मेरी आँखों में था , अपनी उंगलियों से मेरे ज़ख्मो के निशान को महसूस करते हुए , मेरे सीने से लगी वो बिना कुछ कहे बस सांत्वना दे रही थी मुझे ,

एक ऐसा लम्हा जिसमे, दर्द था, सकूं था , किसी अपने के साथ होने का अहसास था ,सब कुछ था इस लम्हे में जिसे मैं जी रहा था, बहुत देर तक हम एक दुसरे से आगोश में रहे. बारिश की वजह से ठण्ड बढ़ने लगी थी , जैसे गिरती बर्फ के दरमियाँ किसी को जलती आग मिल जाए, उसके बदन का मुझे छूना कुछ ऐसा ही था.

उसकी सुबकियो ने मुझे जताया की इस जहां में कोई तो था जिसे फ़िक्र थी मेरी , फिर वो मुझसे अलग हो गयी.

“किसने किया ये, किसकी इतनी जुर्रत जो मेरे होते हुए तुम्हे हाथ लगाये, मैं उसकी दुनिया फूंक दूंगी , आग लगा दूंगी इस जहाँ में मैं ” प्रज्ञा ने गुस्से स चीखते हुए कहा

मैं- ये बस नियति थी , दुःख था सह लिया.

प्रज्ञा- मुझे बताओ कबीर, , बताओ मुझे किसके साथ झगडा हुआ तुम्हारा

मैंने उसका हाथ पकड़ा और उसे पास सोफे पर बिठाया.

मैं- देखो, मेरी आँखों में देखो, क्या मैं तुमसे झूठ बोलूँगा , किसी से झगड़ा नहीं हुआ ,

प्रज्ञा- तो ये हाल कैसे हुआ तुम्हारा.

मैं- बताता हु, सब बताता हूँ,

मैंने उसे तमाम बात बताई , प्रज्ञा की आँखों में अजीब सा दर्द देखा मैंने, और आंसू भी .

“इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे खबर नहीं भिजवाई , क्या मैं इतनी परायी हो गयी कबीर ” पूछा उसने

मैं- सबसे पहले तुम्हे किसी को यद् किया तो वो बस तुम थी , तुम्हारे होटल बहुत संदेसे भेजे मैंने

प्रज्ञा- मैं जा नहीं पाई उधर, कुछ चीजों में उलझी थी , पर काश मुझे मालूम होता तो एक पल अकेला नहीं छोडती तुम्हे.

मैं- अब ठीक हूँ मैं, और भला तुम्हारे होते हुए मुझे कुछ हो सकता है क्या. बस अब जंगल पार करते समय सावधानी रखूँगा

“जंगल अब सुरक्षित नहीं रहा ” प्रज्ञा ने कहा

मैं- जानता हु,

प्रज्ञा- नहीं, तुम नहीं जानते, बीते दिनों में जंगल , जंगल नहीं रहा, लाशो का एक ढेर बनके रह गया है, दोनों गाँवो के बहुत से लोगो की कटी फटी लाशे मिली है , नोची हुई, बहुत दर्दनाक हालातो में और बहुत से जानवरों की भी

प्रज्ञा की बातो ने जैसे बम सा फोड़ा था .

मैं- पर किसने किया ऐसा.

प्रज्ञा- नहीं, मालूम , दोनों गाँवो की पंचायत भी हुई, अपनी अपनी तरफ पहरा भी लगाया पर कोई नतीजा नहीं , जानते हो जब तुम नहीं थे, जब जब मैंने लाशे मिलने की खबर सुनी , कलेजा घबराता था मेरा. मैं बता नहीं सकती क्या हालत थी मेरी,

मैं- समझता हु, पर अब जाने दो इन बातो को , दो पल साथ हो अपनी बाते करो, वैसे इस शानदार बारिश में तुम्हे मेरे साथ नहीं बल्कि किसी की बाँहों में होना चाहिए.

प्रज्ञा मुस्कुरा पड़ी मेरी बात सुनकर, बोली- जब मेरी उम्र के हो जाओगे तो ये सब सोच कर हँसा करोगे तुम.

मैं- तब की किसने सोची, अभी जो है उसकी बात कर सकता हूँ मैं तो

प्रज्ञा- अभी तो बस तुम और मैं है

मैं- और ये बारिश , ये तनहा रात जिसे झकझोर रही है बारिश की ये बूंदे, न जाने कितने सवाल करती होंगी ये इस रात से

प्रज्ञा- उनकी बाते वो जाने,

मैं- आओ एक एक पेग लेते है

प्रज्ञा- तुम भी न, तुम्हारे लिए ठीक नहीं है जानते हो न

मैं- जाम तो बहाना है , किस नशे की इतनी मजाल जो तुम्हारे सामने होते हुए बहका दे,

प्रज्ञा- ये जादुई बाते, किसी कमसिन पर झट से असर कर जाएँगी, मुझ पर नहीं .

मैं- तुमसे ये सब कहने की जरुरत भी नहीं मुझे, जितना इस धरती की आह को ये बादल समझते है ठीक उतना ही मुझे समझती हो तुम, जैसा मैंने कहा जाम तो बस बहाना है ,तुम साथ हो ऊपर वाले की मेहरबानी है , करम है .

प्रज्ञा ने हौले से मेरे माथे को चूमा और बोली- कभी तुम्हे इश्क हुआ तो वो कोई सौभाग्यशाली होगी , जिसके हाथो में तुम्हारा हाथ होगा,

मैं- कभी कोई मिलेगी तो तुमसे जरुर मिलवाऊंगा उसे, वैसे लगता नहीं मुझे ऐसा कुछ

प्रज्ञा- क्यों भला.

मैं- तुम्हे जो देख लिया, अब तुमसी भला कौन हो दूजी, तुम्हारी परछाई हो जो वो कहाँ मिले मुझे

प्रज्ञा के होंठो पर जैसे कोई बात आकर रुक गयी .

उसने पास रखी बोतल उठाई और दो जाम बना लिए.

“लो, ” गिलास मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा उसने

मैं- ऐसे नहीं

वो- तो कैसे

मैं- अपने होंठो से जरा छू लो न

बड़ी गहरी आँखों से उसने मुझे देखा, क्या ये मौसम का असर था या कुछ और जो मैंने बस उसे ऐसा करने को कह दिया था, और वो भी पक्की वाली थी,उसने मेरे गिलास से दो घूँट भरी और जाम मुझे दे दिया.

“आओ बारिश देखते है ,” उसने कहा और बाहर आ गयी.

मैं उसके पीछे पीछे आया

“जानते हो कबीर, जब मैं तुम्हारी उम्र की थी न तो घंटो अपनी खिड़की पर खड़ी होकर मैं बरिशे देखा करती थी .भीग जाना चाहती थी मैं बरसातो में, नाचना चाहती थी पर बस कुछ ख्वाब बस ख्वाब रह गए ” उसने ठंडी आह भरते हुए कहा

मैं- तो किसने रोका है , तुम हो और ये बरसात है कर लो अपना ख्वाब पूरा

प्रज्ञा- नहीं, जाने दो कबीर, एक मुद्दत हुई उन बातो को , अल्हड उम्र की शोखिया थी बस

मैं- फिर न कहना, देखो एक बरसात तब थी एक आज हैं , उस समय रही होगी कुछ भी बात जिसने तुम्हे रोका , पर आज कोई बंदिश नहीं , देखो ये लहराती हवा तुम्हे कह रही है अपने साथ झुमने को. ये गीली मिटटी पायल बनकर तुम्हारे पैरो में लिपट जाना चाहती है, ये बरसात तुम्हारे जिस्म को नहीं तुम्हारे मन को भिगोना चाहती है .

ये कहकर मैंने प्रज्ञा को आंगन में धक्का दे दिया.

“ओ कबीर, ये क्या किया ” बस इतना ही कह पायी वो क्योंकि बारिश ने अगले ही पल उसे अपने आगोश में ले लिए. प्रज्ञा भीगने लगी, मेरी तरफ देखते हुए उसने अपनी चुनरिया को उतार कर फेक दिया और दोनों हाथ फैला कर खड़ी हो गयी.
 
#22

ये दिल कुछ ऐसे धड़का था की बारिश के शोर में भी धडकने सुनी जा सकती थी , मेरे सामने बाहें फैलाये एक समुन्दर खड़ा था , जो कह रहा था की ए छोटे छोटे तालाब आ मिल जा मुझमे, प्रज्ञा की आँखों में जो चमक थी वो बेशुमार थी, जैसे किसी चुम्बक ने लोहे के कण को अपनी तरफ खींच लिया हो. वैसे ही मैं उसकी तरफ बढ़ने लगा.

ठंडी बारिश ने एक पल के लिए मेरे बदन को झकझोर दिया पर अगले ही पल आराम हुआ, उसने मुझे अपने सीने से जो लगा लिया था . उसके कापते बदन की धडकनों को मैंने अपने जिस्म से होकर गुजरते महसूस किया .मेरे कंधे से अपना सर लगाये आगोश में लिपट गए थे हम दोनों, काश उस वक्त बिजली गिर जाती हम पर , तो ये परवाना भी अपनी शम्मा के लिए जल जाता.

मैंने उसका हाथ थमा और वो घूम गयी,वो नाचना चाहती थी मेरे साथ, मैंने सर हिला कर इशारा किया , बेशक बैंड बाजा नहीं था , कोई त्यौहार, कोई शादी ब्याह नहीं था पर फिर भी कुछ तो ऐसा था जिसे शब्दों में मैं बता नहीं पहुँगा

उसकी पायल की झंकार को मैंने दिल के किसी कोने में उतरते महसूस किया. बहुत देर तक मैं उसका साथ देता रहा , देखता रहा उसे, बल्कि यूँ कहूँ की जीता रहा उसके इस खास लम्हे में. और फिर अपनी उखड़ी सांसो को सँभालने की कोशिश करते हुए वो मेरी बाँहों में आ गिरी .

उसे यु महसूस करना अपने आप में एक सुख था. क्या लगती थी वो मेरी, मेरे जीवन में क्या हिस्सा था उसका ,और आगे इस रिश्ते का क्या अंजाम होना था ये तमाम सवाल मेरे पास थे पर फिलहाल इनके जवाब की मुझे न जरुरत थी न परवाह.

“अन्दर चले ” पूछा मैंने

“अभी नहीं ” उसने कहा

मैं- ठण्ड लग जाएगी

वो- मैंने कहा न अभी नहीं , मेरा सकूं मुझसे मत छीनो कबीर,

बेशक घनघोर मेह पड़ रहा था फिर भी मैंने प्रज्ञा के बदन की तपिश को अपने आगोश में फील किया. उसकी पकड मेरी बाँहों में कसती जा रही थी, और मैंने अपने बदन में भी चिंगारी सुलगती महसूस की, और ठीक उसी वक़्त मैंने उसे अपनी बाँहों से आजाद कर दिया

“क्या हुआ कबीर, ” बोली वो

मैं- हमें यही रुकना होगा,

वो- पर किसलिए

मैं- बस यु ही

वो- सच बोलो न

मैं- मुझे लगा मैं बहक जाऊंगा इस कमजोर लम्हे में

प्रज्ञा- मेरे पास आओ

एक बार फिर वो मेरी बाँहों में बाहे डाले खड़ी थी .

“जानते हो कबीर, तुम पर इतना भरोसा क्यों करती हूँ, क्योकि दिल तेरे सीने में धडकता जरुर है पर धड़कने उसमे मेरी है, इतना पाक, इतना साफ़ मेरे लिए तुमसे जरुरी कोई नहीं, और फिर क्या हुआ जो हम बहक जाये, ये सारी दुनिया ही तो बहकी हुई है , मेरे दोस्त ” वो बोली और इस स पहले की मैं उसे जवाब दे पाता मेरे होंठो को जैसे किसी ने सी दिया .

प्रज्ञा ने अपने तपते होंठो से मेरे लबो को छू लिया था , एक पल में ही उसने मेरे निचले होंठ को अपने दोनों होंठो में दबा लिया , प्रज्ञा मुझे शिद्दत से चूमे जा रही थी . मैं समझ नहीं पाया पर गुलाब नहीं बल्कि बहुत से गुलदस्ते मेरी सासों में समाते चले गए हो जाये, पर फिर मैंने चुम्बन तोड़ दिया.

“तुम होश में नहीं हो, प्रज्ञा, ,ये ठीक नहीं है ,हमारे रिश्ते को कमजोर कर देगा ये सब ” मैंने कहा

प्रज्ञा- परवाह नहीं

मैं- ये आग हमें बर्बाद कर देगी,

प्रज्ञा- मैं बर्बाद होना चाहती हु, तबाह होना चाहती हूँ इस रातके आगोश में मैं तुम होना चाहती हु कबीर, मैं तुम होना चाहती हूँ,

उसकी आँखों में आई सुर्खी, जैसे मुझे कुछ कह रही थी और फिर अगले ही पल उसने फिर से मुझे चूमना शुरू कर दिया . नियति ने अपना खेल खेलना शुरू कर दिया था, काश मैं ये उस पल जानता था इस रस्ते पर कभी नहीं चलता , पर तक़दीर के लिखे लेख कौन पलट सकता था भला इसका अंदाजा बहुत जल्दी होने वाला था मुझे, पर खैर, अभी तो बस एक दुसरे की बाँहों में हम थे जो एक नया रिश्ता बनाने की राह पर कदम रख चुके थे.

शबनमी होंठो के रस का कतरा कतरा मेरे मुह में घुल रहा था , पर खेल अभी शुरू होना हटा प्रज्ञा ने अपना हाथ मेरी पेंट में डाल दिया और

मेरे लिंग को अपनी मुट्ठी में कस लिया, मैं सिसक उठा ,उसने मुझे इशारा किया और मैं उसे अपनी गोद में उठाये कमरे के भीतर ले आया. लालटेन की लौ में उसका भीगा बदन, जिसपर कपडे धीरे धीरे कम होते जा रहे थे, और फिर मैंने प्रज्ञा को बस एक छोटी सी कच्छी में देखा जो उसके बदन के उस खास हिस्से को भी पूरी तरह से धक नहीं पा रही थी .

सुबहकी घास पर जो ओस की बूंदे लिपटी होती है ठीक वैसे ही उसके बदन पर बारिश लिपटी थी. दरअसल ये समां बहुत ही निराला था बाहर बरसते मेह और अन्दर के तूफान का एक संयोग बन रहा था

“इस तरह क्या देख रहे हो ”लरजती आवाज में पूछा उसने

“शोले और शबनम को एक साथ पहली बार देखा है ” बस इतना ही कह पाया मैं

पतली कमर में हाथ डाल कर उसे खींच लिया मैंने और उसके नितम्बो को सहलाने लगा. प्रज्ञा ने मेरे कच्छे को निचे सरका दिया और अपने खिलोनो को फिर से मुट्ठी में भर लिया . ठंडी हवा के झोंको के बीच हमारे गरम बदन सुलगने लगे थे, झटके खाने लगे थे और फिर उसे चूमते हुए मैं उसके सुडोल कुलहो को मसलने लगा, दबाने लगा. और भी पूरी कोशिश करने लगी मुझमे सामने की

प्रज्ञा ने मुझे बिस्तर पर खींच लिया मैं उसके ऊपर लेटकर उसके चाँद से चेहरे को चूमने लगा. मेरा लंड उसकी जांघो के जोड़ पर दस्तक दे रहा था , प्रज्ञा के बदन की थिरकन तेज होती जा रही थी, पुरे चेहरे कंधे को चूमते हुए मैं निचे को सरकता जा रहा था और फिर मेरी जीभ उसकी चुचियो पर पहुँच गयी . खुरदरी जीभ ने जैसे ही उसकी निप्पल को छुआ आग लग गयी उसके बदन में

“ओह, कबीर,,,,,,,,,,,,,,,,,, ”प्रज्ञा ने जोर से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया .
 
#23

बरसती रात में एक साया टूटे चबूतरे के पास खड़ा था , बारिश हो या न हो जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था , वो आँखे बस उस चबूतरे को घूरे जा रही थी ,

“मेरी हर तलाश बस इस जगह आकर खत्म हो जाती है , कुछ तो है जो यहाँ से जुड़ा है , पर यहाँ से आगे कोई कड़ी नहीं मिल पाती , आखिर क्यों हर बार निराशा ही हाथ लगती है मुझे, ” अपने आप पर जैसे चीख ही पड़ा था वो साया.

पर सब कुछ खामोश था सिवाय बारिश के, उसके सवालो का जवाब देने के लिए कोई नहीं था , या कोई था , कोई थी, एक कहानी जो बरसो पहले इस रेत में खो गयी थी जिसे वक्त ने भुला दिया था , उस कहानी के सिरे क्या यही कही पर थे,

“हे, मा तारा ये कैसी परीक्षा है मेरी , रात की नींद गयी दिन का करार, मेरे तमाम सपने खो गए है, कोई तो राह दिखाओ मुझे , कोई तो सूत्र हाथ लगे जो उलझन मेरी सुलझाये, मुझे इतना तो भान है की मैं शायद एक कड़ी हूँ इस उलझन की ,पर कोई राह नजर नहीं आती, ये तो सत्य है की इस कहानी की अपनी हकीकत है , तो क्या अब मैं अर्जुन्गढ़ जाऊ,” साए ने अपने आप से सवाल किया.

पर अफ़सोस सवाल बस सवाल ही रह गया. वो साया चबूतरे पर बैठ कर अपनी बेबसी और हताशा में डूब गया . और ठीक उसी वक्त टूटे चबूतरे से बहुत दूर हम दोनों भी भी एक उलझन में उलझे थे ,जिस्मो की उलझन में, बार बार मैं प्रज्ञा की दोनों चुचियो को चूस रहा था, चाट रहा था बेताबिया थी, बेचैनिया थी , आग थी ,बादल था जो उसके तन पर बारिश बन कर बरस जाता था .

अपने हाथो से उसकी चूत को टटोला मैंने तो पाया की एक नदी सी बह रहीथी उसकी जांघो के बीच, बेचैन प्रज्ञा ने मेरे लिंग को पकड़ा और उसे अपने छेद पर रगड़ने लगी, अब बारी मेरी थी, मैंने थोडा सा जोर लगाया और मेरा सुपाडा अन्दर की तरफ धंस गया. मैंने महसूस किया की प्रज्ञा की चूत ताई की तुलना में थोड़ी सी खुली थी , पर गर्म उतनी ही थी. धीरे धीरे मैं उसके अन्दर समाता चला गया .

“ओह कबीर, बच्चेदानी तक ठोकर जा रही है ओह ओह ” प्रज्ञा बुदबुदाने लगी. उसके नाखूनों की रगड़ मैंने अपने कंधो और पीठ पर महसूस की. जंगल में जैसे शेरनी खुली दौड़ लगा रही हो, ऐसा हाल था उस का जैसे जन्मो की प्यासी थी वो , उसने मुझे निचे गिरा दिया और खुद मेरे ऊपर आ गयी, अदा पसंद आई मुझे.

मेरे खूंटे को एक बार फिर से अपने बिल में डालने के बाद वो उस पर ऊपर निचे होने लगी, मैंने उसके नितम्बो को थाम लिया. वो अपना हाथ पीछे ले गयी और अपने बालो को खोल दिया. हुस्न को इस तरह मैंने कभी नहीं देखा था , और मुझे आभास हुआ की मैंने क्यों उस दिन कहा था की बोतल बेशक हाथ में है पर नशा सामने है

धीरे धीरे हमारी सांसे फूलने लगी थी, चेहरे पर लाल रंगत छाई थी पर किसे परवाह थी , नसों में खून के साथ साथ हवस दौड़ रही थी . फिर वो मुझपर झुकते चली गयी , मेरे होंठो को पीने लगी और मैं उसके , ये पहली बार था जब कोई औरत मुझ पर इस तरह से चढ़ी थी . प्रज्ञा की चूत का पानी बहते हुए मेरी जांघो को भी गीला कर चूका था .

बहुत देर तक वो अपनी मनमानी करती रही और फिर उसने मेरे गले पर काटना शुरू किया , उसकी उत्तेजना अंतिम चरण में थी, मेरे ज़ख्मो पर बेहद दवाब महसूस किया मैंने और फिर वो चीखते हुए निढाल हो गयी. . चूत ने अपना सारा रस उड़ेल दिया और मैं भी उस गर्मी को सह नहीं पाया. एक के बाद एक झटके लेते हुए मैंने अपने पानी से उसकी चूत को भर दिया.

एक बरसात बाहर रुक गयी थी, एक तूफान अन्दर गुजर गया था. वो मेरे ऊपर ही लेटी रही . उसकी आँखे बंद थी , सांसे अभी भी बेकाबू थी .

मैं- हट जाओ ऊपर से

वो उतर कर पास में लेट गयी , मैंने एक चादर हमारे जिस्म पर डाल ली, कुछ देर बाद उसने अपनी आँखे खोली, बड़े प्यार से वो मेरी तरफ देख रही थी .वो मुस्कुराई मैं भी . मेरी तरफ देखते देखते उसकी आँख लग गयी मैंने भी आँखे मूँद ली,

जब आँख कही तो बिस्तर पर मैं अकेला था , कपडे पहन कर बाहर आया तो वो आँगन में एक कुर्सी पर बैठी थी, हमारी नजरे मिली

प्रज्ञा- चाय पियोगे

मैं- हाँ पर बनाएगा कौन

वो- मैं और कौन

मैं- तुम,

वो- हाँ मै

मैं- जिसके हर हुक्म के लिए न जाने कितने नौकर हो, वो मेरे लिए चाय बनाएगी ,

वो- रसोई में आओ ,

खिड़की सी हलकी की धुप आ रही थी ,उसे चाय बनाते देखना भी एक सुख था, बार बार वो अपनी जुल्फों को सहलाती , उबलती चाय की भाप जो उसके चेहरे से टकराती कसम से मेरी धडकने बेकाबू हो गयी .

“ऐसे क्या देख रहे हो.” बोली वो

मैं- दिन के उजाले में चाँद

वो- ऐसी बाते न किया करो, उम्र रही नहीं मेरी

मैं- तो फिर मैं क्या कहूँ, काश मैं कोई कवी होता तो न जाने कितनी कविता लिख देता, कोई शायर होता तो गजल लिख देता.

प्रज्ञा- तुम साथ हो , मेरे लिए यही बहुत है , लो चाय पियो

चाय की चुसकिया लेते हुए, हम खामोश थे पर आँखे गुस्ताखिया कर रही थी , हलकी धुप में चमकता उसका जिस्म किसी ताजे गुलाब सा खिल रहा था और मैं फिर काबू नहीं रख पाया. मैंने कप साइड में रख दिया और उसे बाँहों में भर लिया.

“चाय तो पि लो ” बोली वो

मैं- इन होंठो का रस पीना है मुझे.

थोड़ी देर की चूमा चाटी के बाद हम फिर से तैयार थे मैंने उसे वाही दिवार के सहारे घुटनों पर झुका दिया और सलवार निचे करते हुए अपना लंड चूत में डाल दिया.एक बार फिर हम बहक गए थे, खैर, उस चुदाई के बाद हमें अलग होना ही था तो हम वापिस चल दिए. जैसे ही गाड़ी मंदिर क पास आई मैं बोला- इधर रोक दो

वो- मैं छोड़ आउंगी तुम्हे, जंगल सुरक्षित नहीं है

मैं- मुझे यहाँ एक काम है , यही रोको

प्रज्ञा- कबीर, समझो मेरी बात

मैं- प्रज्ञा, यही उतार दो मुझे,

प्रज्ञा- ठीक है , पर अपना ध्यान रखना तुम, फ़िक्र है मुझे तुम्हारी ,जल्दी ही मिलूंगी तुमसे

मैंने सर हिलाया और गाड़ी से उतर गया . वो आगे बढ़ गयी मैं मंदिर की तरफ . मंदिर के प्रांगन में मैंने उसे देखा, मां के श्रृंगार के लिए माला तैयार कर रही थी वो.

“मेघा ” पुकारा मैंने

उसने मुड कर देखा,

“मुसाफिरों को भटकना नहीं चाहिए, ” उसने कहा

मैं- मुसाफिर का नसीब मंजिल है

वो मुस्कुरा पड़ी, बोली- बारिशे आने वाली है तूफ़ान की दस्तक है

मैं- तुम हो न खे लेना मेरी पतवार

वो- इसी बात का तो मुझे डर है , आओ नाश्ता करवाती हूँ तुम्हे
 
#24
“तेरा बापू आ निकला तो ” कहा मैंने
मेघा- रोटिया सबकी एक सी ही होती है , चल आ, मालूम है मुझे भूखा है तू
मेघा ने अपना झोला उठाया और हम मंदिर के पीछे होते हुए जंगल की तरफ चल पड़े, थोड़ी दूर जाकर हम एक पेड़ के निचे बैठ गए.
मेघा- ले, रोटी है और चटनी है
मैं- बढ़िया , काश तू उम्र भर मेरे लिए रोटी बनाये
मेघा- सपने बहुत देखता है तू,
मैं- गरीब सपने ही देख सकता है
मेघा- ठीक ही है सपने है, टूटे भी तो क्या गम , आँख खुली और भूल गये
मैं- और यदि मैं इस सपने को हकीकत बनाना चाहू तो
मेघा ने अपने अंदाज में मेरी तरफ देखा और बोली- तेरी मेरी बात दोस्ती तक ही रहे तो बेहतर है , प्रीत न लगा
मैं- मेरा हाथ थामने से डरती है क्या
मेघा- डर होता तो तेरे साथ न होती , तुझसे दोस्ती की , पर हर रिश्ते की एक रेखा होती है कबीर,
मैं- फिर क्यों आई मेरी जिन्दगी में
मेघा- ले एक रोटी और ले
मैंने रोटी ली
मेघा- वैसे, तू इस तरफ मत आया कर गाँव के कई लोग इधर आने लगे है आजकल ,माहौल ठीक नहीं है तुझे कोई टोक न दे,
मैं- तुझे देखे बिना चैन भी तो नहीं आता मुझे, तू मान या न मान तेरे सिवा है ही कौन मेरा, जबसे मैंने तुझे देखा है कुछ और दीखता नहीं मुझे मैं क्या करू
मेघा- तेरी बाते मुझे समझ नहीं आती , वैसे मैं बहुत परेशां हु आजकल
मैं- क्यों भला
मेघा- वही प्रीत के वचन वाली कहानी
मैं- उसके बारे में क्या सोचना , जब इतने लोगो को फर्क नहीं पड़ता तो हमें भी नहीं पड़ना चाहिए.
मेघा- कबीर, मुझे लगता है वो सच है , इतिहास में हुई एक घटना
मैं- तो भी क्या फर्क पड़ता है, हमें मालूम भी तो नहीं कोई सिरा हाथ लगे तो कोई बात आगे बढे, मैंने भी बहुत लोगो से मालूमात की पर हाथ खाली
मेघा- चल छोड़, देर हुई मुझे चलना चाहिए.
मैं- फिर कब मिलेगी
मेघा- जल्दी ही
मेघा के जाने के बाद मैं भी अर्जुन्ग्गढ़ की तरफ्ब बढ़ गया, पुलिया पार करके मैंने मेन सड़क की तरफ जाने का सोचा, और उस तरफ चला ही था की मुझे एक जानी पहचानी गाड़ी दिखाई दी, ये मेरे पिता की गाड़ी थी . पर वो यहाँ इस बियाबान में क्या कर रहे थे . मैंने झाड़ियो के पास से देखा गाड़ी हिल रही थी,
भरी दोपहर में ये क्या हो रहा था क्या मेरे पिता किसी औरत को चोद रहे थे , पहली नजर में ऐसा ही लगता था और ऐसा ही था, मैंने और कोशिश की तो देखा की ताई , पिताजी की गोदी में नंगी बैठी थी,ये देख कर मेरे पैरो तले जमीन खिसक गयी,
बेशक ये सब मुझे नहीं देखना चाहिए था पर मैं जा भी नहीं सका, ताई के इस रूप के बारे में तो मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी , थोड़ी देर बाद अस्त व्यस्त हालत में वो दोनों गाड़ी स बाहर निकले और बाते करने लगे.
पिताजी- भाभी, तुम कबीर पर पूरा ध्यान नहीं दे रही हो, एक टींगर काबू नहीं आ रहा तुम्हारे, मैंने कहा था न चाहे तो सो जाना उसके साथ पर वो बात मालूम कर लेना , तुम तो जानती हो न कितना जरुरी है वो सब
ताई- तुम्हे क्या लगता है देवर जी, मैं कोशिश नहीं कर रही , उसे रिझाने की हर मुमकिन कोशिश कर रही हु, पर आजकल पता नहीं वो किधर गायब रहता है , ज्यादातर ताला ही होता है उसके कमरे पर
पिताजी-यही तो मेरी चिंता का विषय है , उसके कमरे की तलाशी भी ले ली हमने पर सब कोरा है
ताई- तुम्हे क्या लगता है उस विषय में जिज्ञासा नहीं हुई होगी, अपने सवालो के जवाब जरुर तलाश करेगा वो
पिताजी- काश वो नालायक घर छोड़ कर नहीं गया होता , तो नजरो के सामने रहता ,खबर रहती हमें
ताई- पर आखिर वो क्या वजह थी जिसकी वजह से उसने ये कदम उठाया,मैं जानना चाहती हूँ
पिताजी- जिद उसकी और क्या
पिताजी ने बात टाल दी थी पर मैं खुश था की उन्होंने ताई को वो घटना नहीं बताई पर दुःख इस बात का था की ताई किसी स्वार्थ के लिए मुझसे चुद रही थी .

अपने बिस्तर पर पड़ी प्रज्ञा की आँखे बंद थी पर तन सुलगा हुआ था , उसकी आँखों के सामने बार बार कबीर के साथ हुई चुदाई आ रही थी , ऐसा नहीं था की प्रज्ञा बहुत ही प्यासी औरत थी पर जबसे कबीर उसके जीवन में आया था बदल गयी थी वो. उसका हाथ सलवार के अन्दर से गुजरता हुआ चूत के छेद पर पहुच गया था .
आँखे बंद किये वो अपने भ्ग्नासे को आहिस्ता आहिस्ता रगड़ रही थी . की तभी निचे से आती आवाजो ने उसका ध्यान भटका दिया. उसने कपडे सही किये और निचे की तरफ चल पड़ी
“हुजुर, बहुत दिनों से अर्जुन्गढ़ का एक लड़का माता के मंदिर में आता है ” प्रज्ञा के कानो में पंडित की आवाज पड़ी तो वो तेजी से निचे आने लगी.
उसने देखा उसका पति और पंडित बाते कर रहे थे .
राणा- अर्जुनगढ़ का लड़का , वो भी हमारी जमीन पर क्या उसे डर नहीं , और मुझे बताने से पहले इस मामले से निपट क्यों नहीं लिए तुम पंडित
पंडित- हुकुम, आपने ही तो कहा है की भगवन का घर सबका है उसमे किसी तरह का भेद भाव न करो
राणा- तो फिर क्या औचित्य इस बात का,
पंडित- मैंने सोचा आपको खबर होनी चाहिए
राणा- नजर रखो उस पर, प्रयोजन क्या है उसका
पंडित- नजर है हुकुम वो बस आता है दर्शन करता है , जब तक उसका जी करता है बैठा रहता है और फिर वापिस चला जाता है .
राणा-कोई सिद्धि, तपस्या करने वाला है क्या
पंडित- नहीं हुकुम
राणा- उसे धमका के भगा दो, छोटे मोटे मामले खुद भी हल कर लिया करो
पंडित- डरता ही तो नहीं है ,इसीलिए आपके पास आया हूँ
राणा- फिर तो देखना पड़ेगा कौन है ऐसा विलक्ष्ण प्राणी जिसे किसी भी बात का खौफ नहीं है
“अवश्य ही ये कबीर होगा, मुझे सावधान करना होगा ”प्रज्ञा ने मन ही मन सोचा
राणा- पंडित, उसके बारे में मालूमात करो, हम जल्दी ही मिलेंगे उस छोकरे से
 
#25

एक ऐसी रात जिसमे सबकी नींद उडी हुई थी, सबके अपने अपने कारण थे, सब की आँखों में चिंता थी, करवटे बदल रहे थे, कबीर सोच रहा था की ताई किस चीज़ की जासूसी कर रही थी, प्रज्ञा कबीर को आगाह करने के बारे में सोच रही थी, मेघा के दिमाग में अपनी खोज थी, पंडित ये सोच रहा था की राणा को बताकर उसने ठीक किया या नहीं, और राणा अपनी हवेली से दूर शहर में होटल में किसी रांड की गांड मार रहा था .

पर वो ये नहीं जानते थे की नियति ने उन सब को एक ऐसे सूत्र में बांध दिया है जो उन सब की तकदीरो को ऐसे बदल देगा की सब तहस-नहस हो जायेगा, सुख शांति, हर्ष-उल्लास सब खत्म हो जायेगा . प्रज्ञा सावधानी से ऊपर से निचे आई वो उसी समय कबीर के पास जाना चाहती थी पर उसने देखा उसका बेटा जागा हुआ है, इतनी रात वो उसके सामने ऐसे नहीं निकल सकती थी तो वापिस मुड गयी

कबीर भी बेचैन था , उसे उम्मीद नहीं थी की ताई उसके बाप से चुदती होगी, ताई किसी स्वार्थ के कारन उसके बिस्तर पर आई थी इस बात ने गहरा झटका दिया था , पर करे तो क्या करे , वक्त की डोर तो उपरवाले के हाथ, वो जब ढीली करे तभी करे,

“आखिर मेरे पास ऐसा क्या है जिसके लिए ताई को जासूसी पर लगाया पिताजी ने , मैं तो सब कुछ हवेली छोड़ आया , किस तरह मैं उनकी किसी भी योजना का हिस्सा हूँ ” घूम फिर कर बस यही एक सवाल था , और पूरी रात ख़ामोशी से इसी सवाल पर कट गयी.

सुबह सुबह ही मैं सविता मैडम से मिलने चला गया.

“अरे कबीर, कितने दिनों बाद आये, मैं परेशां थी कही जाओ तो बता तो देते ” एक साँस में मैडम ने न जाने कितने सवाल कर दिए

मैं- तबियत ख़राब थी तो बस

मैडम- बताना था न

मैं- मैडम जी मुझे एक बात पता करनी थी .

मैडम- हाँ

मैं- क्या आप मुझे दोनों गाँवो की दुश्मनी का असली कारन बता सकती है .

मैडम- तुम कितनी बार मुझसे पूछोगे ये सब कबीर, और तुम्हे पता तो है न की मैं यहाँ की नहीं हूँ ये और बात है अब बस गयी हूँ यहाँ, खैर जाने दो नाश्ता करो पहले,

मैं- मास्टर जी दिखाई नहीं दे रहे ,

मैडम - तुम्हारे घर गए है ,तुम्हारे पिता पैसोके मामले में उन पर ही तो विश्वास करते है,

मैं- हम्म , मैडम जी खोये हुए इतिहास को कैसे तलाश किया जाये

मैडम- पुस्तकालय में बहुत किताबे है आके देख लो

मैं - मैं इस गाँव के इतिहास की बात कर रहा हूँ

मैडम- अपने बुजुर्गो से पूछो उनसे बेहतर कौन बताएगा

“बाबा , मैं बस इतना जानना चाहती हूँ की जब सबकी मन्नते यहाँ पूरी होती है तो मेरी क्यों नहीं होती ” मेघा ने पुजारी से पूछा

पुजारी- बिटिया, कोई यहाँ से खाली नहीं जाता, जरुर तुम्हारी मन्नत में स्वार्थ होगा.

मेघा- कैसा स्वार्थ बाबा,

पुजारी- ये तो तुम जानो या तुम्हारा मन , वैसे वो सबकी माँ है , सबकी झोली भरती है

मेघा- सो तो है बाबा. बाबा, ऐसी कोई पुस्तक तो होगी जिसमे अपने गाँव का इतिहास हो. मेरा मतलब ...............

“बिटिया, तुम्हारी खोज तुम्हारे जी का जंजाल न बन जाये ” पुजारी ने उसकी बात काट दी.

मेघा ने फिर कोई सवाल नहीं किया .

इधर प्रज्ञा कबीर के पास जाने को तैयार ही हो रही थी की उसके मायके से फ़ोन आया की उसकी मा बहुत बीमार है तो उसे उधर निकलना पड़ा . प्रज्ञा ने पहली बार खुद को बेबस महसूस किया पर मा के पास भी तो जाना था , इधर मैं मैडम के घर से अपने खेत पर जा रहा था की रस्ते पर मुझे एक गाड़ी दिखी, उसके पास हमारी नौकरानी खड़ी थी ,

मैं उधर गया.

मैं- क्या हुआ काकी

काकी- हुकुम, हम मंदिर जा रहे थे की गाड़ी ख़राब हो गयी , मैंने गाड़ी में देखा एक नयी नवेली औरत बैठी थी मैं समझ गया की ये मेरी भाभी ही होगी.

मैंने गाड़ी देखि , छोटी सी समस्या थी , कुछ देर में गाड़ी स्टार्ट हो गयी.

“ हो गयी काकी, ” इतना कह कर मैं आगे बढ़ा

“रुको लड़के, अपनी मेहनत का इनाम ले जाओ ” मेरे कानो में आवाज आई

मैं कुछ कहता इस से पहले भाभी गाड़ी से उतर आई और कुछ नोट मेरी हाथेली पर रख दिए.

मुझे थोडा गुस्सा सा भी आया और होंठो पर मुस्कराहट भी थी , मैंने वो नोट उसके ऊपर वारे और काकी के हाथ में दे दिए. अपना रास्ता पकड़ लिया.

“ये आपके देवर हैं छोटी मालकिन ” मैंने काकी को कहते सुना

और तभी उसे अपनी भूल का अहसास हुआ

“रुकिए देवर जी, हमसे भूल हुई हम पहचान नहीं पाए आपको ” भाभी ने मेरी तरफ आते हुए कहा

मैंने भी अपने हाथ जोड़ दिए,

मैं-आपका दोष नहीं भाभी , समय की बात है आप जाइये हवेली वाले छोटे लोगो के मुह नहीं लगा करते

मैं बस इतना कह पाया , और कुछ था भी तो नहीं , न उसके पास न मेरे पास , पर कहते है न तक़दीर जब गांड पर लात मारती है तो कुछ जोर से मारती है , और मेरे साथ भी ऐसा ही होने वाला था और इसका पता मुझे तब लगा जब मैं उस शाम तारा माता के मंदिर में पहुंचा
 
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