hotaks444
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कुच्छ देर कल्लू खड़े खड़े उन्हे देखता रहा फिर सुगना के निकट गया, जो सभी के हँसी में शामिल हुआ ये भूल गया था कि उसने कल्लू को अपने घर बुलाया है और वो कब का आया हुआ है. - "काका...आपने मुझे बुलाया था?"
कल्लू की बात से सुगना के साथ साथ सभी का ध्यान उसकी ओर गया.
"अरे कल्लू तुम कब आए?" सुगना चौंकते हुए बोला.
"मैं निक्की जी के साथ साथ ही आया हूँ काका." कल्लू ने जवाब दिया.
"माफ़ करना कल्लू, मैं तुम्हे देख नही पाया था." सुगना झेन्प्ते हुए बोला - "पर तुम्हे हुआ क्या है? तुम शॉल ओढकर क्यों आए हो. तबीयत तो ठीक है तुम्हारी?"
सुगना की बात सुनकर चिंटू और शांता की हँसी छूट गयी. कंचन ने चिंटू को इस बात पर हल्की सी चपत लगाई और कल्लू को देखने लगी.
"थोड़ी सी बुखार है काका. सुबह तक उतर जाएगी." कल्लू ने बताया - "आप बताओ काका....मुझे क्यों बुलाया था?"
"मुखिया जी से पता चला तुम कल खाद लेने नगर जा रहे हो. सोचा था एक बोरी खाद अपने लिए भी मग़वा लूँ." सुगना ने उत्तर दिया. - "पर अब तुम बीमार हो तो जाओगे कैसे?"
"सुबह तक ठीक हो जाएगी." कल्लू ने जवाब दिया. - "कल निकलने से पहले आपसे मिल लूँगा. अब इज़ाज़त दीजिए."
"ठहरो.....कुच्छ देर बैठो. एक गिलास गरम दूध हल्दी डाल के देता हूँ....पीलो, सुबह तक बुखार उतर जाएगा." सुगना ने उसे रोकते हुए कहा. फिर कंचन को दूध गरम करने को बोला.
कुच्छ ही देर में कंचन ने गरम दूध का गिलास उसे पकड़ाया. कंचन के हाथ से गिलास लेते हुए कल्लू का हाथ ज़ोर से काँपा. एक मीठा सा दर्द उसके सीने में हुआ. इस एहसास से की कंचन उसे दूध का गिलास पकड़ा रही है....वो बुखार में होने के बाद भी रोमांचित हो उठा. उसने एक नज़र उठाकर कंचन के चेहरे को देखा फिर उसके हाथ से गिलास ले लिया.
दूध पीने तक कंचन वहीं उसके पास खड़ी रही. वो धीरे धीरे दूध को अपने हलक के नीचे उतारने के बाद खाली गिलास कंचन को पकड़ाया. दूध पीने के बाद उसकी इच्छा कुच्छ देर और वहाँ बैठने की हो रही थी. वो कुच्छ देर और कंचन को देखना चाहता था. पर घर के लोग उसे ग़लत ना समझे ये सोचकर वो उठ खड़ा हुआ. फिर सुगना से सुबह मिलने की बात कहकर बाहर निकल गया.
निक्की कुच्छ लगभग घंटा भर कंचन के घर रहने के बाद हवेली लौट आई. जब वो हवेली से निकली थी तब बेहद तनाव में थी किंतु जब वो कंचन के घर से निकली तो हर तनाव से दूर थी. जब हवेली पहुँची तब डिनर के लिए नौकरों ने खाना सज़ा दिया था. ठाकुर साहब सोफे पर बैठे उसका इंतेज़ार कर रहे थे.
निक्की के हॉल में कदम रखते ही ठाकुर साहब ने पुछा - "इस वक़्त कहाँ से आ रही हो निक्की? क्या कंचन के घर गयी थी."
"हां पापा." निक्की मुस्कुराती हुई बोली और अपनी बाहों का हार उनके गले में डाल दिया.
"तुम्हारे चेहरे की खुशी देखकर ही मैं समझ गया था, तुम कंचन के घर से आ रही हो." ठाकुर साहब उसके गाल सहलाते हुए बोले - "सब ठीक तो है वहाँ?"
"हां.....सभी ठीक हैं, शांता बुआ भी ठीक है सुगना काका की तबिया भी अच्छी है. कुच्छ भी नही बदला जैसे में 6 साल पहले देखकर गयी थी सब वैसे ही हैं." निक्की एक एक करके सबकी हाल बताने लगी - "बस चिंटू बदल गया है. पहले उसके नाक से पानी बहता रहता था और हकला के बोलता था अब तो किसी को बोलने नही देता." ये कहकर निक्की चुप हुई.
"चलो अच्छा किया तुम उनसे मिल आई." ठाकुर साहब प्यार से बोले - "आओ अब बाकी की बातें खाने के टेबल पर करेंगे."
निक्की मुस्कुराती हुई डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गयी. फिर अपनी कुर्शी खींचकर उसपर बैठ गयी.
"संजय" ठाकुर साहब ने पास ही खड़े एक नौकर से बोले - "रवि को बुला लाओ. उससे कहो हम खाने की मेज पर उनका इंतेज़ार कर रहे हैं."
"जी मालिक." संजय बोला और रवि के कमरे की तरफ बढ़ गया.
कुच्छ ही देर में रवि सीढ़ियाँ उतरता दिखाई दिया. उसने खाने की मेज के पास आकर मुस्कुराते हुए ठाकुर साहब को प्रणाम किया फिर एक नज़र निक्की पर डालकर उसे हेलो बोलते हुए अपनी कुर्शी खिच कर बैठ गया.
निक्की की इच्छा तो नही हो रही थी कि उसके हेलो का जवाब दे. पर ठाकुर साहब की मौजूदगी का ख्याल करके उसे ज़बरदस्ती हेलो कहना पड़ा.
नौकरों के द्वारा खाने को प्लेट्स में निकालने के बाद तीनो लोग खाने में व्यस्त हो गये. ठाकुर साहब तो बस नाम मात्र के खा रहे थे. किंतु रवि खाने के मामले में कोई समझौता नही करता था.
"आपका यहाँ मन तो लग रहा है ना रवि?" ठाकुर साहब खाने के मध्य में रवि से मुखातीब हुए.
रवि ने थाली से नज़र हटाकर ठाकुर साहब को देखा फिर मुस्कुरकर बोला - "मन क्यों नही लगेगा ठाकुर साहब. यहाँ का वातावरण तो किसी का भी मन मोह लेगा. ये जगह प्राकृतिक सुंदरता से रंगा हुआ है. और मैं प्राकृतक प्रेमी हूँ." ये कहने के बाद रवि ने निक्की की ओर देखा. फिर आगे बोला - "मुझे शहर की बनावटी सुंदरता से कहीं अधिक गाओं की नॅचुरल खूबसूरती अच्छी लगती है."
रवि की बात का अर्थ समझकर निक्की का चेहरा गुस्से से तमतमा गया. पर अपने पापा का ख्याल करके वो अपने गुस्से पर तेज़ी से नियंत्रण कर ली.
"ह्म्म्म.....आप ठीक कह रहे हैं." ठाकुर साहब ने रवि की बात पर सहमति जताते हुए बोले - "हमें भी ये जगह बहुत पसंद आई थी. इसीलिए हम यहीं आकर बस गये."
"तो क्या.....ये जगह आपके पुरखो की नही है?" रवि ने जिग्यासा पुछा.
"नही....!" ठाकुर साहब बोले - "हम बनारस के रहने वाले हैं. वहाँ अभी भी हमारे पुरखों की ज़मीनें हैं. हम यहाँ एक बार किसी काम से आए थे. हमें ये जगह अच्छी लगी और हमने यहाँ ज़मीन खरीद ली. फिर इस हवेली का निर्माण कराया." हवेली की बाबत बोलते हुए ठाकुर साहब का चेहरा उदास हो गया. पर रवि इसकी वजह नही जान पाया. और ना ही निक्की.
रवि के मन में एक बार आया कि वो इसका कारण पुच्छे पर इस समय ये पुछ्ना उसे उचित नही लगा. खाने के मध्य में किसी को कष्ट पहुचाने वाली बाते नही पुच्छनी चाहिए. लेकिन रवि के मन में ऐसे काई सवाल थे जिनका जवाब सिर्फ़ ठाकुर साहब दे सकते थे. उसे राधा देवी की बीमारी के संबंध में भी जो बातें बताई गयी थी वो उसके गले नही उतर रही थी.
ठाकुर साहब ने उसे बताया था कि राधा जब प्रेग्नेंट थी तभी एक दिन वो सीढ़ियाँ उतरते वक़्त फिसल गयी थी. जिसकी वजह से राधा देवी को हॉस्पिटल ले जाया गया था.
उसी हॉस्पिटल में दीवान जी की पत्नी भी बच्चे की डेलिवरी के लिए भरती थी. और दुर्भाग्यवश उसी दिन दोनो की डेलिवरी भी हुई. उस दिन दीवान जी की पत्नी ने मुर्दा बच्ची को जन्म दिया. ये खबर लेकर जब नर्स हमारे पास आई और बच्चे के मरने की बात कही तो राधा को लगा कि उसके गिरने की वजह से उसकी बेटी मर गयी. बस उस बात को वो सह ना पाई और अपना मानसिक संतुलन खो बैठी.
वो अपने विचारों से बाहर निकला तो देखा कि निक्की उसे आश्चर्य से घुरे जा रही थी. उसने झेन्प्ते हुए अपनी दृष्टि खाने की थाली पर टिका दी.
कुच्छ देर बाद खाने की मेज से सभी उठ खड़े हुए और अपने अपने रूम की तरफ बढ़ गये.
*****
दिन के 11 बजे हैं. शांता नदी जाने की तैयारी कर रही है. इस वक़्त कंचन और चिंटू स्कूल गये हुए हैं. सुगना अपने खेतों में काम करने गया हुआ है. शांता अकेली घर में बैठी उकताने की बजाए नदी में जाकर नहाना ज़्यादा बेहतर समझी. उसने अपने पहनने के लिए कपड़े निकाले और बाहर से घर का ताला लगाकर नदी के रास्ते बढ़ गयी.
गाओं के सभी औरत मर्द नदी में ही नहाया करते थे. नदी में औरतो के लिए अलग घाट थी और मर्दों के लिए अलग. औरतों के घाट के तरफ मर्द नही जाते थे और मर्द के घाट की तरफ औरतें.
शांता अभी बस्ती से निकल कर कुच्छ ही दूर चली थी कि पिछे से किसी ने उसे नाम लेकर पुकारा - "अरी ओ शांता, ज़रा धीरे चलो.....मैं भी साथ आ रही हूँ."
शांता पिछे मूडी तो देखा सुंदरी तेज़ तेज़ चलती चली आ रही है.
"अरी आराम से भाभी. इतनी भी जल्दी क्या है. मैं खड़ी तो हूँ." सुंदरी के निकट आते ही शांता सुंदरी से बोली.
"अरी बहनी, तू नही जानती.....मैं अकेली होने से कितनी डरती हूँ." सुंदरी हाफ्ति हुई बोली. - "मैं कब से सोच रही थी नदी जाऊ, पर कोई साथी नही मिल रही थी. तुम्हे जाते देखी तो भागी भागी आई."
"भाभी अभी तो दिन है.....क्या दिन के उजाले में भी डरती हो?" शांता हंसते हुए बोली और धीरे धीर पग बढ़ने लगी.
कुच्छ देर कल्लू खड़े खड़े उन्हे देखता रहा फिर सुगना के निकट गया, जो सभी के हँसी में शामिल हुआ ये भूल गया था कि उसने कल्लू को अपने घर बुलाया है और वो कब का आया हुआ है. - "काका...आपने मुझे बुलाया था?"
कल्लू की बात से सुगना के साथ साथ सभी का ध्यान उसकी ओर गया.
"अरे कल्लू तुम कब आए?" सुगना चौंकते हुए बोला.
"मैं निक्की जी के साथ साथ ही आया हूँ काका." कल्लू ने जवाब दिया.
"माफ़ करना कल्लू, मैं तुम्हे देख नही पाया था." सुगना झेन्प्ते हुए बोला - "पर तुम्हे हुआ क्या है? तुम शॉल ओढकर क्यों आए हो. तबीयत तो ठीक है तुम्हारी?"
सुगना की बात सुनकर चिंटू और शांता की हँसी छूट गयी. कंचन ने चिंटू को इस बात पर हल्की सी चपत लगाई और कल्लू को देखने लगी.
"थोड़ी सी बुखार है काका. सुबह तक उतर जाएगी." कल्लू ने बताया - "आप बताओ काका....मुझे क्यों बुलाया था?"
"मुखिया जी से पता चला तुम कल खाद लेने नगर जा रहे हो. सोचा था एक बोरी खाद अपने लिए भी मग़वा लूँ." सुगना ने उत्तर दिया. - "पर अब तुम बीमार हो तो जाओगे कैसे?"
"सुबह तक ठीक हो जाएगी." कल्लू ने जवाब दिया. - "कल निकलने से पहले आपसे मिल लूँगा. अब इज़ाज़त दीजिए."
"ठहरो.....कुच्छ देर बैठो. एक गिलास गरम दूध हल्दी डाल के देता हूँ....पीलो, सुबह तक बुखार उतर जाएगा." सुगना ने उसे रोकते हुए कहा. फिर कंचन को दूध गरम करने को बोला.
कुच्छ ही देर में कंचन ने गरम दूध का गिलास उसे पकड़ाया. कंचन के हाथ से गिलास लेते हुए कल्लू का हाथ ज़ोर से काँपा. एक मीठा सा दर्द उसके सीने में हुआ. इस एहसास से की कंचन उसे दूध का गिलास पकड़ा रही है....वो बुखार में होने के बाद भी रोमांचित हो उठा. उसने एक नज़र उठाकर कंचन के चेहरे को देखा फिर उसके हाथ से गिलास ले लिया.
दूध पीने तक कंचन वहीं उसके पास खड़ी रही. वो धीरे धीरे दूध को अपने हलक के नीचे उतारने के बाद खाली गिलास कंचन को पकड़ाया. दूध पीने के बाद उसकी इच्छा कुच्छ देर और वहाँ बैठने की हो रही थी. वो कुच्छ देर और कंचन को देखना चाहता था. पर घर के लोग उसे ग़लत ना समझे ये सोचकर वो उठ खड़ा हुआ. फिर सुगना से सुबह मिलने की बात कहकर बाहर निकल गया.
निक्की कुच्छ लगभग घंटा भर कंचन के घर रहने के बाद हवेली लौट आई. जब वो हवेली से निकली थी तब बेहद तनाव में थी किंतु जब वो कंचन के घर से निकली तो हर तनाव से दूर थी. जब हवेली पहुँची तब डिनर के लिए नौकरों ने खाना सज़ा दिया था. ठाकुर साहब सोफे पर बैठे उसका इंतेज़ार कर रहे थे.
निक्की के हॉल में कदम रखते ही ठाकुर साहब ने पुछा - "इस वक़्त कहाँ से आ रही हो निक्की? क्या कंचन के घर गयी थी."
"हां पापा." निक्की मुस्कुराती हुई बोली और अपनी बाहों का हार उनके गले में डाल दिया.
"तुम्हारे चेहरे की खुशी देखकर ही मैं समझ गया था, तुम कंचन के घर से आ रही हो." ठाकुर साहब उसके गाल सहलाते हुए बोले - "सब ठीक तो है वहाँ?"
"हां.....सभी ठीक हैं, शांता बुआ भी ठीक है सुगना काका की तबिया भी अच्छी है. कुच्छ भी नही बदला जैसे में 6 साल पहले देखकर गयी थी सब वैसे ही हैं." निक्की एक एक करके सबकी हाल बताने लगी - "बस चिंटू बदल गया है. पहले उसके नाक से पानी बहता रहता था और हकला के बोलता था अब तो किसी को बोलने नही देता." ये कहकर निक्की चुप हुई.
"चलो अच्छा किया तुम उनसे मिल आई." ठाकुर साहब प्यार से बोले - "आओ अब बाकी की बातें खाने के टेबल पर करेंगे."
निक्की मुस्कुराती हुई डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गयी. फिर अपनी कुर्शी खींचकर उसपर बैठ गयी.
"संजय" ठाकुर साहब ने पास ही खड़े एक नौकर से बोले - "रवि को बुला लाओ. उससे कहो हम खाने की मेज पर उनका इंतेज़ार कर रहे हैं."
"जी मालिक." संजय बोला और रवि के कमरे की तरफ बढ़ गया.
कुच्छ ही देर में रवि सीढ़ियाँ उतरता दिखाई दिया. उसने खाने की मेज के पास आकर मुस्कुराते हुए ठाकुर साहब को प्रणाम किया फिर एक नज़र निक्की पर डालकर उसे हेलो बोलते हुए अपनी कुर्शी खिच कर बैठ गया.
निक्की की इच्छा तो नही हो रही थी कि उसके हेलो का जवाब दे. पर ठाकुर साहब की मौजूदगी का ख्याल करके उसे ज़बरदस्ती हेलो कहना पड़ा.
नौकरों के द्वारा खाने को प्लेट्स में निकालने के बाद तीनो लोग खाने में व्यस्त हो गये. ठाकुर साहब तो बस नाम मात्र के खा रहे थे. किंतु रवि खाने के मामले में कोई समझौता नही करता था.
"आपका यहाँ मन तो लग रहा है ना रवि?" ठाकुर साहब खाने के मध्य में रवि से मुखातीब हुए.
रवि ने थाली से नज़र हटाकर ठाकुर साहब को देखा फिर मुस्कुरकर बोला - "मन क्यों नही लगेगा ठाकुर साहब. यहाँ का वातावरण तो किसी का भी मन मोह लेगा. ये जगह प्राकृतिक सुंदरता से रंगा हुआ है. और मैं प्राकृतक प्रेमी हूँ." ये कहने के बाद रवि ने निक्की की ओर देखा. फिर आगे बोला - "मुझे शहर की बनावटी सुंदरता से कहीं अधिक गाओं की नॅचुरल खूबसूरती अच्छी लगती है."
रवि की बात का अर्थ समझकर निक्की का चेहरा गुस्से से तमतमा गया. पर अपने पापा का ख्याल करके वो अपने गुस्से पर तेज़ी से नियंत्रण कर ली.
"ह्म्म्म.....आप ठीक कह रहे हैं." ठाकुर साहब ने रवि की बात पर सहमति जताते हुए बोले - "हमें भी ये जगह बहुत पसंद आई थी. इसीलिए हम यहीं आकर बस गये."
"तो क्या.....ये जगह आपके पुरखो की नही है?" रवि ने जिग्यासा पुछा.
"नही....!" ठाकुर साहब बोले - "हम बनारस के रहने वाले हैं. वहाँ अभी भी हमारे पुरखों की ज़मीनें हैं. हम यहाँ एक बार किसी काम से आए थे. हमें ये जगह अच्छी लगी और हमने यहाँ ज़मीन खरीद ली. फिर इस हवेली का निर्माण कराया." हवेली की बाबत बोलते हुए ठाकुर साहब का चेहरा उदास हो गया. पर रवि इसकी वजह नही जान पाया. और ना ही निक्की.
रवि के मन में एक बार आया कि वो इसका कारण पुच्छे पर इस समय ये पुछ्ना उसे उचित नही लगा. खाने के मध्य में किसी को कष्ट पहुचाने वाली बाते नही पुच्छनी चाहिए. लेकिन रवि के मन में ऐसे काई सवाल थे जिनका जवाब सिर्फ़ ठाकुर साहब दे सकते थे. उसे राधा देवी की बीमारी के संबंध में भी जो बातें बताई गयी थी वो उसके गले नही उतर रही थी.
ठाकुर साहब ने उसे बताया था कि राधा जब प्रेग्नेंट थी तभी एक दिन वो सीढ़ियाँ उतरते वक़्त फिसल गयी थी. जिसकी वजह से राधा देवी को हॉस्पिटल ले जाया गया था.
उसी हॉस्पिटल में दीवान जी की पत्नी भी बच्चे की डेलिवरी के लिए भरती थी. और दुर्भाग्यवश उसी दिन दोनो की डेलिवरी भी हुई. उस दिन दीवान जी की पत्नी ने मुर्दा बच्ची को जन्म दिया. ये खबर लेकर जब नर्स हमारे पास आई और बच्चे के मरने की बात कही तो राधा को लगा कि उसके गिरने की वजह से उसकी बेटी मर गयी. बस उस बात को वो सह ना पाई और अपना मानसिक संतुलन खो बैठी.
वो अपने विचारों से बाहर निकला तो देखा कि निक्की उसे आश्चर्य से घुरे जा रही थी. उसने झेन्प्ते हुए अपनी दृष्टि खाने की थाली पर टिका दी.
कुच्छ देर बाद खाने की मेज से सभी उठ खड़े हुए और अपने अपने रूम की तरफ बढ़ गये.
*****
दिन के 11 बजे हैं. शांता नदी जाने की तैयारी कर रही है. इस वक़्त कंचन और चिंटू स्कूल गये हुए हैं. सुगना अपने खेतों में काम करने गया हुआ है. शांता अकेली घर में बैठी उकताने की बजाए नदी में जाकर नहाना ज़्यादा बेहतर समझी. उसने अपने पहनने के लिए कपड़े निकाले और बाहर से घर का ताला लगाकर नदी के रास्ते बढ़ गयी.
गाओं के सभी औरत मर्द नदी में ही नहाया करते थे. नदी में औरतो के लिए अलग घाट थी और मर्दों के लिए अलग. औरतों के घाट के तरफ मर्द नही जाते थे और मर्द के घाट की तरफ औरतें.
शांता अभी बस्ती से निकल कर कुच्छ ही दूर चली थी कि पिछे से किसी ने उसे नाम लेकर पुकारा - "अरी ओ शांता, ज़रा धीरे चलो.....मैं भी साथ आ रही हूँ."
शांता पिछे मूडी तो देखा सुंदरी तेज़ तेज़ चलती चली आ रही है.
"अरी आराम से भाभी. इतनी भी जल्दी क्या है. मैं खड़ी तो हूँ." सुंदरी के निकट आते ही शांता सुंदरी से बोली.
"अरी बहनी, तू नही जानती.....मैं अकेली होने से कितनी डरती हूँ." सुंदरी हाफ्ति हुई बोली. - "मैं कब से सोच रही थी नदी जाऊ, पर कोई साथी नही मिल रही थी. तुम्हे जाते देखी तो भागी भागी आई."
"भाभी अभी तो दिन है.....क्या दिन के उजाले में भी डरती हो?" शांता हंसते हुए बोली और धीरे धीर पग बढ़ने लगी.