hotaks444
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माँ कैसी दिखती है, मैं इसमे ख़ासी दिलचस्पी लेने लगा. मेरी नज़रें चोरी चोरी उसके बदन का मुआईना करने लगी जैसे वो मुझे सुंदर नज़र आने वाली किसी सुंदर लड़की क्या करती. मुझे माँ को, उसके बदन और उसके बदन की विशेषताओ का इस तरह चोरी चोरी अवलोकन करने में बहुत आनंद आने लगा. वो मुझे हर दिन ज़्यादा, और ज़्यादा सुंदर दिखने लगी और मैं भी खुद को अक्सर उत्तेजित होते महसूस करने लगा.
माँ की तरफ से भी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा था. मैने महसूस किया कि वो अब ज़्यादा हँसमुख हो गयी थी. वो पहले की अपेक्षा ज़्यादा मुस्कराती थी, उसकी चाल मे कुछ ज़्यादा लचक आ गयी थी, और तो और मैने उसे कयि बार कुछ गुनगुनाते भी सुना था. उसके स्वभाव मैं हमारी 'उस मज़े की रात' के बाद निश्चित तौर पर बदलाव आ गया था. चाहे उसने उस रात मुझे दूर हटा दिया था और जो कुछ हमारे बीच हो रहा था उसे रोक दिया था इसके बावजूद हमारे बीच घनिष्टता पहले के मुक़ाबले बढ़ गयी थी. हम एक दूसरे के नज़दीक आ गये थे- अध्यात्मिक दृष्टिसे भी और शारीरिक दृष्टि से भी.
वो मुझे अच्छी लगने लगी थी और मैने उसे एक दो मौकों पर बोला भी था कि वो बहुत अच्छी लग रही है. उसने भी दो तीन बार मेरी प्रशंसा की थी, मतलब एक तरह से मुझे विश्वास दिलाया था कि हमारे बीच जो कुछ भी हो रहा था वो दोनो और से था ना कि सिर्फ़ मेरी और से. कम से कम मेरी सोच अनुसार तो ऐसा ही था, मैं पूरा दिन माँ के ख़यालों में ही गुम रहने लगा था. एक दिन उमंग में मैने उसके लिए चॉक्लेट्स भी खरीदे.
मैने उसके मम्मे देखने के हर मौके का फ़ायदा उठाया. उसके मम्मे इतने बढ़िया, इतने बड़े-बड़े और इतने सुंदर थे कि मेरा मन उनकी प्रशंसा से भर उठता. हो सकता है इस बात का तालुक्क इस बात से हो कि कभी उन पर मेरा हक़ था मगर वो थे बहुत सुंदर. मैं नही जानता उसका ध्यान मेरी नज़र पर गया कि नही मगर अगर उसने ध्यान दिया था तो उसने मेरी तान्क झाँक को स्वीकार कर लिया था और इसकी आदि हो गयी थी.
मेरा ध्यान उसकी पीठ पर भी गया जब भी वो मुझसे विपरीत दिशा की ओर मुख किए होती. उसकी पीठ बहुत ही सुंदर थी. उसकी गंद का आकर बहुत दिलकश था, उभरी हुई और गोल मटोल, बहुत ही मादक थी. और उसे उस मादक गान्ड का इस्तेमाल करना भी खूब आता था. उसकी चाल मैं एसी कामुक सी लचक थी कि मैं अक्सर उससे सम्मोहित हो जाता था.
एक दिन मुझे देखने का अच्छा मौका मिला, मेरा मतलब पूरी तरह खुल कर उसका चेहरा देखने का मौका. वो कुछ कर रही थी और उसकी आँखे कहीं और ज़मीन हुई थीं, इस तरह से कि वो मुझे अपनी ओर घूरते नही देख सकती थी. मैने उसका चेहरा, उसके गाल, उसके होंठ और उसकी तोढी देखी और मेरा मन उसकी सुंदरता से मोहित हो उठा. मैने ध्यान दिया कि माँ के होंठ बड़ी खूबसूरती से गढ़े हुए थे जो अपने आप में बहुत मादक थे. उन्हे देख कर चूमने का मन होता था. इनसे हमारे चुंबनो को लेकर मेरी भावनाएँ और भी प्राघड़ हो गयी थीं जब मेरे दिल में यह ख़याल आया कि हमारे रात्रि चुंबनो के समय यही वो होंठ थे जिन्हे मेरे होंठो ने स्पर्श किया था. वो याद आते ही मुँह में पानी आ गया.
मैने इस बात पर भी ध्यान दिया कि वो बहुत प्यारी, बहुत आकर्षक है. वो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा करती थी कि मैं अभिभूत हो उठता. किचन में कुछ ग़लत हो जाने पर जिस तरह वो मुँह फुलाती थी, जब कभी किसी काम में व्यस्त होने पर फोन की घंटी बजती थी और उसकी थयोरियाँ चढ़ जाती थीं, जब वो बगीचे में किसी फूल को देखकर मुस्कराती थी. मुझे उसमे एक बहुत ही प्यारी और बहुत ही सुंदर नारी नज़र आने लगी थी.
जितना ज़्यादा मेरी उसमे दिलचपसी बढ़ती गयी उतना ही ज़्यादा मैं उसके प्रेम में पागल होता गया. 'पागल' यही वो लगेज है जो मैं समझता हूँ मेरी हालत को सही बयान कर सकता है. मगर मैं नही जानता था कि उसकी भावनाएँ कैसी थी जा वो क्या महसूस करती थी.
यह जैसे अवश्यंभावी था कि मेरे पिता को फिर से शहर से बाहर जाना था और लगता था जैसे वो इसी मौके का इंतेज़ार कर रही थी. इस बार खुद उसने हमारे रात को देखने के लिए फिल्म खरीदी थी और मैं उस फिल्म को उसके साथ देखने के लिए सहमत था. हम ने रात के खाने को बाहर के एक रेस्तराँ से मँगवाया और दोनो ने एकसाथ उस खाने का बहुत आनंद लिया. हम दोनो ने सोफे पर बैठकर फिल्म देखी, जिसमे मैं सोफे की एक तरफ बैठा हुया था और वो दूसरी तरफ. फिल्म ख़तम होने के बाद हम ने टीवी पर थोड़ा समय कुछ और देखा, अंत में हम टीवी देख देख कर थक गये. अपने कमरों में जाने की हमे कोई जल्दबाज़ी नही थी और ना ही सुभरात्रि कहने की कोई जल्दबाज़ी थी. हम तभी उठे जब और बैठना मुश्किल हो गया था और हमे उठना ही था.
माँ की तरफ से भी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा था. मैने महसूस किया कि वो अब ज़्यादा हँसमुख हो गयी थी. वो पहले की अपेक्षा ज़्यादा मुस्कराती थी, उसकी चाल मे कुछ ज़्यादा लचक आ गयी थी, और तो और मैने उसे कयि बार कुछ गुनगुनाते भी सुना था. उसके स्वभाव मैं हमारी 'उस मज़े की रात' के बाद निश्चित तौर पर बदलाव आ गया था. चाहे उसने उस रात मुझे दूर हटा दिया था और जो कुछ हमारे बीच हो रहा था उसे रोक दिया था इसके बावजूद हमारे बीच घनिष्टता पहले के मुक़ाबले बढ़ गयी थी. हम एक दूसरे के नज़दीक आ गये थे- अध्यात्मिक दृष्टिसे भी और शारीरिक दृष्टि से भी.
वो मुझे अच्छी लगने लगी थी और मैने उसे एक दो मौकों पर बोला भी था कि वो बहुत अच्छी लग रही है. उसने भी दो तीन बार मेरी प्रशंसा की थी, मतलब एक तरह से मुझे विश्वास दिलाया था कि हमारे बीच जो कुछ भी हो रहा था वो दोनो और से था ना कि सिर्फ़ मेरी और से. कम से कम मेरी सोच अनुसार तो ऐसा ही था, मैं पूरा दिन माँ के ख़यालों में ही गुम रहने लगा था. एक दिन उमंग में मैने उसके लिए चॉक्लेट्स भी खरीदे.
मैने उसके मम्मे देखने के हर मौके का फ़ायदा उठाया. उसके मम्मे इतने बढ़िया, इतने बड़े-बड़े और इतने सुंदर थे कि मेरा मन उनकी प्रशंसा से भर उठता. हो सकता है इस बात का तालुक्क इस बात से हो कि कभी उन पर मेरा हक़ था मगर वो थे बहुत सुंदर. मैं नही जानता उसका ध्यान मेरी नज़र पर गया कि नही मगर अगर उसने ध्यान दिया था तो उसने मेरी तान्क झाँक को स्वीकार कर लिया था और इसकी आदि हो गयी थी.
मेरा ध्यान उसकी पीठ पर भी गया जब भी वो मुझसे विपरीत दिशा की ओर मुख किए होती. उसकी पीठ बहुत ही सुंदर थी. उसकी गंद का आकर बहुत दिलकश था, उभरी हुई और गोल मटोल, बहुत ही मादक थी. और उसे उस मादक गान्ड का इस्तेमाल करना भी खूब आता था. उसकी चाल मैं एसी कामुक सी लचक थी कि मैं अक्सर उससे सम्मोहित हो जाता था.
एक दिन मुझे देखने का अच्छा मौका मिला, मेरा मतलब पूरी तरह खुल कर उसका चेहरा देखने का मौका. वो कुछ कर रही थी और उसकी आँखे कहीं और ज़मीन हुई थीं, इस तरह से कि वो मुझे अपनी ओर घूरते नही देख सकती थी. मैने उसका चेहरा, उसके गाल, उसके होंठ और उसकी तोढी देखी और मेरा मन उसकी सुंदरता से मोहित हो उठा. मैने ध्यान दिया कि माँ के होंठ बड़ी खूबसूरती से गढ़े हुए थे जो अपने आप में बहुत मादक थे. उन्हे देख कर चूमने का मन होता था. इनसे हमारे चुंबनो को लेकर मेरी भावनाएँ और भी प्राघड़ हो गयी थीं जब मेरे दिल में यह ख़याल आया कि हमारे रात्रि चुंबनो के समय यही वो होंठ थे जिन्हे मेरे होंठो ने स्पर्श किया था. वो याद आते ही मुँह में पानी आ गया.
मैने इस बात पर भी ध्यान दिया कि वो बहुत प्यारी, बहुत आकर्षक है. वो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा करती थी कि मैं अभिभूत हो उठता. किचन में कुछ ग़लत हो जाने पर जिस तरह वो मुँह फुलाती थी, जब कभी किसी काम में व्यस्त होने पर फोन की घंटी बजती थी और उसकी थयोरियाँ चढ़ जाती थीं, जब वो बगीचे में किसी फूल को देखकर मुस्कराती थी. मुझे उसमे एक बहुत ही प्यारी और बहुत ही सुंदर नारी नज़र आने लगी थी.
जितना ज़्यादा मेरी उसमे दिलचपसी बढ़ती गयी उतना ही ज़्यादा मैं उसके प्रेम में पागल होता गया. 'पागल' यही वो लगेज है जो मैं समझता हूँ मेरी हालत को सही बयान कर सकता है. मगर मैं नही जानता था कि उसकी भावनाएँ कैसी थी जा वो क्या महसूस करती थी.
यह जैसे अवश्यंभावी था कि मेरे पिता को फिर से शहर से बाहर जाना था और लगता था जैसे वो इसी मौके का इंतेज़ार कर रही थी. इस बार खुद उसने हमारे रात को देखने के लिए फिल्म खरीदी थी और मैं उस फिल्म को उसके साथ देखने के लिए सहमत था. हम ने रात के खाने को बाहर के एक रेस्तराँ से मँगवाया और दोनो ने एकसाथ उस खाने का बहुत आनंद लिया. हम दोनो ने सोफे पर बैठकर फिल्म देखी, जिसमे मैं सोफे की एक तरफ बैठा हुया था और वो दूसरी तरफ. फिल्म ख़तम होने के बाद हम ने टीवी पर थोड़ा समय कुछ और देखा, अंत में हम टीवी देख देख कर थक गये. अपने कमरों में जाने की हमे कोई जल्दबाज़ी नही थी और ना ही सुभरात्रि कहने की कोई जल्दबाज़ी थी. हम तभी उठे जब और बैठना मुश्किल हो गया था और हमे उठना ही था.