hotaks444
New member
- Joined
- Nov 15, 2016
- Messages
- 54,521
विजय की बातों से ही मुझे ख़याल आया कि मैं तो अभी नंगी ही बैठी हुई हूॅ तब से। मैंने सीघ्रता से अपनी नग्नता को ढॅकने के लिए अपने कपड़ों की तरफ नज़रें घुमाई। पास में ही मेरे कपड़े पड़े थे। मैंने जल्दी से अपनी साड़ी ब्लाउज पेटीकोट तथा ब्रा पैन्टी को समेटा किन्तु फिर मेरे मन में जाने क्या आया कि मैं वहीं पर रुक गई।
विजय की बातों ने मेरे अंदर ज़हर सा घोल दिया था। जो हमेशा मुझे इज्ज़त और सम्मान देता था आज वही मुझे आप की जगह तुम और तुम के बाद तू कहते हुए मेरी इज्ज़त की धज्जियाॅ उड़ाए जा रहा था। मुझे बाजार की रंडी तक कह रहा था। मेरे दिल में आग सी धधकने लगी थी। मुझे ये डर नहीं था कि विजय ये सब किसी से बता देगा तो मेरा क्या होगा। बल्कि अब तो सब कुछ खुल ही गया था इस लिए मैंने भी अब पीछे हटने का ख़याल छोंड़ दिया था।
मैने उसी हालत में खिसक कर विजय के पैर पकड़ लिए और फिर बोली__"तुम्हारे लिए मैं कुछ भी बनने को तैयार हूॅ विजय। मुझे इस तरह अब मत दुत्कारो। मैं तुम्हारी शरण में हूॅ, मुझे अपना लो विजय। मुझे अपनी दासी बना लो, मैं वही करूॅगी जो तुम कहोगे। मगर इस तरह मुझे मत दुत्कारो...देख लो मैंने ये सब तुम्हारा प्रेम पाने के लिए किया है। माना कि मैंने ग़लत तरीके से तुम्हारे प्रेम को पाने की कोशिश की लेकिन मैं क्या करती विजय? मुझे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। पहले भी मैंने तुम्हें ये सब जताने की कोशिश की थी लेकिन तुमने समझा ही नहीं इस लिए मैंने वही किया जो मुझे समझ में आया। अब तो सब कुछ जाहिर ही हो गया है,अब तो मुझे अपना लो विजय...मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए।"
"बंद करो अपनी ये बकवास।" विजय ने अपने पैरों को मेरे चंगुल से एक झटके में छुड़ा कर तथा दहाड़ते हुए कहा__"तुझ जैसी गिरी हुई औरत के मैं मुह नहीं लगना चाहता। मुझे हैरत है कि बड़े भइया ने तुझ जैसी नीच और हवस की अंधी औरत से शादी कैसे की? ज़रूर तूने ही मेरे भाई को अपने जाल में फसाया होगा।"
"जो मर्ज़ी कह लो विजय।" मैंने सहसा आखों में आॅसू लाते हुए कहा__"मगर मुझे अपने से दूर न करो। दिन रात तुम्हारी सेवा करूॅगी। मैं तुम्हें उस गौरी से भी ज्यादा प्यार करूॅगी विजय।"
"ख़ामोशशशश।" विजय इस तरह दहाड़ा था कि कमरे की दीवारें तक हिल गईं__"अपनी गंदी ज़ुबान से मेरी गौरी का नाम भी मत लेना वर्ना हलक से ज़ुबान खींचकर हाॅथ में दे दूॅगा। तू है क्या बदजात औरत...तेरी औकात आज पता चल गई है मुझे। तेरे जैसी रंडियाॅ कौड़ी के भाव में ऐरों गैरों को अपना जिस्म बेंचती हैं गली चौराहे में। और तू गौरी की बात करती है...अरे वो देवी है देवी...जिसकी मैं इबादत करता हूॅ। तू उसके पैरों की धूल भी नहीं है समझी?? अब जा यहाॅ से वर्ना धक्के मार कर इसी हालत में तुझे यहाॅ से बाहर फेंक दूॅगा।"
मैं समझ चुकी थी कि मेरी किसी भी बात का विजय पर अब कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं था। उल्टा उसकी बातों ने मुझे और मेरे अंतर्मन को बुरी तरह शोलों के हवाले कर दिया था। उसने जिस तरीके से मुझे दुत्कार कर मेरा अपमान किया था उससे मेरे अंदर भीषण आग लग चुकी थी और मैंने मन ही मन एक फैंसला कर लिया था उसके और उसके परिवार के लिए।
"ठीक है विजय सिंह।" फिर मैंने अपने कपड़े समेटते हुए ठण्डे स्वर में कहा था__"मैं तो जा रही हूं यहाॅ से मगर जिस तरह से तुमने मुझे दुत्कार कर मेरा अपमान किया है उसका परिणाम तुम्हारे लिए कतई अच्छा नहीं होगा। ईश्वर देखेगा कि एक औरत जब इस तरह अपमानित होकर रुष्ट होती है तो भविष्य में उसका क्या परिणाम निकलता है??"
इतना कह कर मैं वहाॅ से कपड़े वगैरा पहन कर चली आई थी। फिर उसके बाद क्या हुआ ये तो तुम्हें पता ही है अजय।
"हाॅ मेरी जान।" अजय सिंह जो जाने कब से रुका हुआ था अब फिर से प्रतिमा की गाॅड में लंड डाल कर धक्के लगाने लगा था, बोला__"मेरे कहने पर तुमने इस सबकी कोशिश तो बहुत की मगर वो बेवकूफ का बेवकूफ ही रहा। सोचा था कि मिल बाॅट कर सब खाएंगे पियेंगे मगर उसकी किस्मत में मरना ही लिखा था तो मर गया।"
"आआआआहहहह अब जरा मेरी चूॅत का भी कुछ ख़याल करो।" प्रतिमा ने सहसा सिसकते हुए कहा__"इसके साथ भी इंसाफ करो न आआआहहहह।"
अजय ने प्रतिमा के पिछवाड़े से लंड निकाल कर उसकी चूॅत में एक ही झटके से पेल दिया और दनादन धक्के लगाने लगा।
विजय की बातों ने मेरे अंदर ज़हर सा घोल दिया था। जो हमेशा मुझे इज्ज़त और सम्मान देता था आज वही मुझे आप की जगह तुम और तुम के बाद तू कहते हुए मेरी इज्ज़त की धज्जियाॅ उड़ाए जा रहा था। मुझे बाजार की रंडी तक कह रहा था। मेरे दिल में आग सी धधकने लगी थी। मुझे ये डर नहीं था कि विजय ये सब किसी से बता देगा तो मेरा क्या होगा। बल्कि अब तो सब कुछ खुल ही गया था इस लिए मैंने भी अब पीछे हटने का ख़याल छोंड़ दिया था।
मैने उसी हालत में खिसक कर विजय के पैर पकड़ लिए और फिर बोली__"तुम्हारे लिए मैं कुछ भी बनने को तैयार हूॅ विजय। मुझे इस तरह अब मत दुत्कारो। मैं तुम्हारी शरण में हूॅ, मुझे अपना लो विजय। मुझे अपनी दासी बना लो, मैं वही करूॅगी जो तुम कहोगे। मगर इस तरह मुझे मत दुत्कारो...देख लो मैंने ये सब तुम्हारा प्रेम पाने के लिए किया है। माना कि मैंने ग़लत तरीके से तुम्हारे प्रेम को पाने की कोशिश की लेकिन मैं क्या करती विजय? मुझे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। पहले भी मैंने तुम्हें ये सब जताने की कोशिश की थी लेकिन तुमने समझा ही नहीं इस लिए मैंने वही किया जो मुझे समझ में आया। अब तो सब कुछ जाहिर ही हो गया है,अब तो मुझे अपना लो विजय...मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए।"
"बंद करो अपनी ये बकवास।" विजय ने अपने पैरों को मेरे चंगुल से एक झटके में छुड़ा कर तथा दहाड़ते हुए कहा__"तुझ जैसी गिरी हुई औरत के मैं मुह नहीं लगना चाहता। मुझे हैरत है कि बड़े भइया ने तुझ जैसी नीच और हवस की अंधी औरत से शादी कैसे की? ज़रूर तूने ही मेरे भाई को अपने जाल में फसाया होगा।"
"जो मर्ज़ी कह लो विजय।" मैंने सहसा आखों में आॅसू लाते हुए कहा__"मगर मुझे अपने से दूर न करो। दिन रात तुम्हारी सेवा करूॅगी। मैं तुम्हें उस गौरी से भी ज्यादा प्यार करूॅगी विजय।"
"ख़ामोशशशश।" विजय इस तरह दहाड़ा था कि कमरे की दीवारें तक हिल गईं__"अपनी गंदी ज़ुबान से मेरी गौरी का नाम भी मत लेना वर्ना हलक से ज़ुबान खींचकर हाॅथ में दे दूॅगा। तू है क्या बदजात औरत...तेरी औकात आज पता चल गई है मुझे। तेरे जैसी रंडियाॅ कौड़ी के भाव में ऐरों गैरों को अपना जिस्म बेंचती हैं गली चौराहे में। और तू गौरी की बात करती है...अरे वो देवी है देवी...जिसकी मैं इबादत करता हूॅ। तू उसके पैरों की धूल भी नहीं है समझी?? अब जा यहाॅ से वर्ना धक्के मार कर इसी हालत में तुझे यहाॅ से बाहर फेंक दूॅगा।"
मैं समझ चुकी थी कि मेरी किसी भी बात का विजय पर अब कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं था। उल्टा उसकी बातों ने मुझे और मेरे अंतर्मन को बुरी तरह शोलों के हवाले कर दिया था। उसने जिस तरीके से मुझे दुत्कार कर मेरा अपमान किया था उससे मेरे अंदर भीषण आग लग चुकी थी और मैंने मन ही मन एक फैंसला कर लिया था उसके और उसके परिवार के लिए।
"ठीक है विजय सिंह।" फिर मैंने अपने कपड़े समेटते हुए ठण्डे स्वर में कहा था__"मैं तो जा रही हूं यहाॅ से मगर जिस तरह से तुमने मुझे दुत्कार कर मेरा अपमान किया है उसका परिणाम तुम्हारे लिए कतई अच्छा नहीं होगा। ईश्वर देखेगा कि एक औरत जब इस तरह अपमानित होकर रुष्ट होती है तो भविष्य में उसका क्या परिणाम निकलता है??"
इतना कह कर मैं वहाॅ से कपड़े वगैरा पहन कर चली आई थी। फिर उसके बाद क्या हुआ ये तो तुम्हें पता ही है अजय।
"हाॅ मेरी जान।" अजय सिंह जो जाने कब से रुका हुआ था अब फिर से प्रतिमा की गाॅड में लंड डाल कर धक्के लगाने लगा था, बोला__"मेरे कहने पर तुमने इस सबकी कोशिश तो बहुत की मगर वो बेवकूफ का बेवकूफ ही रहा। सोचा था कि मिल बाॅट कर सब खाएंगे पियेंगे मगर उसकी किस्मत में मरना ही लिखा था तो मर गया।"
"आआआआहहहह अब जरा मेरी चूॅत का भी कुछ ख़याल करो।" प्रतिमा ने सहसा सिसकते हुए कहा__"इसके साथ भी इंसाफ करो न आआआहहहह।"
अजय ने प्रतिमा के पिछवाड़े से लंड निकाल कर उसकी चूॅत में एक ही झटके से पेल दिया और दनादन धक्के लगाने लगा।