RajSharma Stories आई लव यू - Page 3 - SexBaba
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RajSharma Stories आई लव यू

दरवाजा खोला तो सामने क्रीम सिल्क और मैरून एंड ब्लैक बार्डर की बेहद खूबसूरत साड़ी में शीतल थीं। मेरी आँखों ने उनकी आँखों में देखा, तो मैं ये भूल गया कि उन्हें अंदर आने के लिए भी कहना है। उन्हें देखकर मैं अपना होश खो बैठा था। लगभग एक मिनट तक हम दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखते ही रहे। खुद को सँभालकर शीतल को अंदर आने के लिए कहा।

"हो गए तुम तैयार?" शीतल ने पूछा।

"हाँ, आई एम रेडी।" मने जवाब दिया। शीतल इतनी प्यारी लग रही थीं, कि मैं उनकी तारीफ में भी कुछ नहीं कह पा रहा था। हाँ, इतना जरूर कहा था,

"तुम्हारी लिप्टिक अच्छी नहीं लग रही है।" इतना सुनते ही शीतल उठीं और आईने में खुद को देखकर तुरंत अपनी लिप्टिक हटा दी। एक पल के लिए मुझे लगा कि मेरी पसंद-नापंसद उनके लिए कितना मैटर करती है।

"तो मैं एक सेल्फी ले लूँ, फिर चलते हैं।"- शीतल ने मोबाइल निकालते हुए कहा। मेरे बेड पर बैठकर शीतल अपनी मेल्फी ले रही थीं और मैं बस ये इंतजार कर रहा था कि कब वो कहें कि आओ न तुम भी फोटो में। लेकिन जैसा आपका दिल चाहता है, वैसा थोड़ी न हमेशा होता है।

प्रोग्राम के लिए आए सभी लोगों को होटल से वेन्यू तक ले जाने के लिए एक बस और एक कार नीचे खड़े थे। मुझे कार से जाना था और शीतल को बस से। एक यही पल भर का अकेलापन हम दोनों को खल रहा था। आगे मेरी कार चल रही थी और पीछे चल रही बस में खिड़की के किनारे शीतल बैठी थीं। खिड़की से बाहर देखती उनकी आँखें मुझे खोज रही थीं, तो मन इस बात से परेशान था कि यह सफर अकेला क्यों है।

खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है। तीन दिन हर पल उनके साथ रहने पर उनसे दर रहने का अहसास होना भी जरूरी था। शायद एक-दूसरे के बिना रहने का भी यह पहला अहसास था। इस अजीब से अहसास के साथ हम बेन्यू की तरफ बढ़ते जा रहे थे...

एक तसल्ली के साथ, कि चंद मिनटों बाद जब हम मिलेंगे, तो एक-दूसरे को अपनी बाँहों में भर लेंगे।

कार और बम की रफ्तार और साइज में फर्क होता है, इसलिए प्रोग्राम के वेन्यू पर मैं जल्दी पहुँच गया था। करीब दस मिनट बाद शीतल और बाकी लोग बस से पहुंचे थे।

"हेलो राज, कहाँ हो तुम?"

“मैं वेन्यू परहूँ, तुम लोग कहाँ हो?"

"अरे, हम लोग बाहर ही हैं; कौन-से गेट से एंट्री करनी है?"

"रुकिए, मैं आता हूँ बाहर।" ।

"ओके, जल्दी आइए, आई एम वेटिंग।" बेन्यू के गेट की तरफ बढ़ते हुए मेरे कदम ऐसे लग रहे थे, जैसे बरसों से जिस मंजिल की तरफ मैं बढ़ रहा है, बो अब चंद कदम दूर है। होटल से यहाँ तक आने में हमें मात्र आधा घंटा लगा होगा, लेकिन इस आधे घंटे के अकेलेपन में न जाने कितने सालों की दूरी का दर्द सह लिया था दोनों ने। इसीलिए एक बार जब शीतल सामने आई तो ऐसे लगा जैसे बचपन का बिछड़ा हुआ कोई अपना लौट आया हो। ये खुशी मन में थी। शीतल भी अपनी खुशी को दबा रही थीं। चेहरे पर इस खुशी का इजहार हम दोनों इसलिए नहीं कर पा रहे थे, कि हम एक-दूसरे को अपने दिल की हालत बताने से बच रहे थे। न मुझे ये पता था कि शीतल के दिल में मेरे लिए जगह बन गई है और न शीतल जानती थीं कि बो मेरे दिल के करीब आ गई हैं।
 
एक ऐतिहासिक कायक्रम का आगाज हो चुका था। हम दोनों मंच के बिलकुल सामने खड़े थे। प्रोग्राम की कई जिम्मेदारियाँ लेकर बैठना हमारे लिए संभव नहीं था, फिर भी एक-दूसरे के बहुत पास खड़े थे। शाम के आठ बजे मौसम ने अचानक से करवट ले ली थी। आसमान में पूर्णिमा का चाँद खिल चुका था और दूधिया चाँदनी से पूरा माहौल सराबोर हो चुका था। हल्की-हल्की ठंडी हवाओं ने शीतल के रोंगटे खड़े कर दिए थे। उनके दोनों हाथों ने एक-दूसरे को खुद की बाहों को जकड़ लिया था। उनके होठों पर ठंड का असर में देख पा रहा था...लेकिन इस माहौल में जो गर्माहट थी, बो हम दोनों के साथ से थी।

"तुम बहुत खूबसूरत लग रही होशीतल।" 'धन्यवाद ।' उन्होंने तिरछी नजरों से मुझे देखते हुए कहा था। प्रोग्राम अपने चरम पर था। लोग झूम रहे थे। फूलों और दीपों की महक वातावरण में पूरी तरह घुल चुकी थी, लेकिन शायद मैं और शायद शीतल भी इस प्रोग्राम से दूर कहीं अकेल्ने चले जाना चाहते थे। हमारे दिल, मन ही मन एक-दूसरे को अपना मान चुके थे।

इसी बीच एक आवाज आई "राज, आओ जरा!'' पहली लाइन में बैठे मेरे बॉस ने बुलाया था। "हाँ सर, कमिंग।" मैंने जवाब दिया और बॉस की तरफ बढ़ गया। बॉस और मेरे बीच एक दोस्त जैसा संबंध है। हम दोनों के बीच कभी बॉम वाली चीज नहीं होती है। मैं और बो, कार्यक्रम में आए मेहमानों की टाँग खींचने में लग गए। इस माहौल में हम दोनों खूब जोर से ठहाके लगा रहे थे। शीतल जहाँ अकेली खड़ी थीं, उधर मेरी पीठ थी। शीतल मुझे ही देखे जा रहीं थीं, लेकिन जब मैं उन्हें पलटकर देखता, तो वो स्टेज की तरफ देखने लगीं। में बॉस को छोड़कर शीतल के पास आ जाना चाहता था, लेकिन बॉम मुझे छोड़ नहीं रहे थे।

करीब पंद्रह मिनट बाद मैं शीतल के पास पहुंचा।

"और, मजा आ रहा है!'' मैंने कहा।

"बात मत करो राज।"

"अरे! क्या हुआ, ऐसे क्यों बोल रही हो?

"दूर खड़े हो जाओ राज और बात मत करना मुझसे।"

"अरे यार, क्या हुआ, ऐसे क्यों रिएक्ट कर रहे हो?" मुझे नहीं पता था कि क्या हुआ है। शीतल जिस तरह से नाराजगी दिखा रही थी, लग रहा था जैसे कोई अपना अपने से नाराज हो गया हो। शीतल के नाराज होने से ज्यादा हैरानी मुझे उनके अपनापन दिखाने पर हो रही थी। शीतल, एक हक से मुझसे नाराज हुई थीं। वो शायद ये मान बैठी थीं कि मेरे ऊपर उनका यह अधिकार है। ___

“मैंने तुमसे कहा था मुझे अकेले मत छोडिागा, मैं वहाँ किसी को नहीं जानती हूँ; फिर भी तुम मुझे छोड़कर अपने बॉस के साथ गप्पें मारने चले गए।" उन्होंने गुस्से से मेरी आँखों में आखें डालकर कहा।

"ओह गॉड, आई एम रियली सॉरी शीतल, आई एम रियली सॉरी।"

"नहीं राज, कोई जरूरत नहीं है सॉरी की; तुम जाओ अपने बॉस के पास और खूब हँसो।"

"अरे सच शीतल, मुझे एक पल के लिए याद ही नहीं रहा ये सब; सारी अगेन... मैं बादा करता हूँ अब तुमसे दूर नहीं जाऊँगा।"

शीतल का गुम्मा अब थोड़ा कम हो गया था। मुझे पहली बार लगा था कि मेरा पास होना या न होना शीतल के लिए कितना मैटर कर गया। मुझसे शिकायत करते वक्त उनकी आँखों में जो पानी छलक आया था, वो इस बात का सबूत था, कि वो मुझे चाहने लगी हैं, लेकिन अभी तक ये बात उनके होठों पर नहीं आई थी। हाँ, जो बात उनके होठों पर आती थी, वो थी "राज मियाँ, तुम छह साल छोटे हो मुझसे।”

"तो हम बैठ जाएँ अब? थक गए हैं खड़े-खड़े।" मैंने कहा। "हाँ, चलिए बैठ जाते है।" उन्होंने कहा। एक सोफे पर हम इस तरह बैठे थे, जैसे कोई न्यूली मैरिड कपल बैठा हो। प्रोग्राम में मौजूद कई लोगों की नजरें हमें एक रिश्ते में बाँध रही थीं। हम दोनों एक प्यारे जोड़े की तरह लग रहे थे। लोगों की आँखें हमें देखे ही जा रही थीं। फोटोगराफर्म के कैमरे की फ्लैश भी हम पर कई बार चल चुकी थी। शायद हम दोनों एक-दूसरे को पूरा कर रहे थे। मंच पर बॉलीवुड के जाने-माने गायक अरिजीत सिंह अपने गानों से सबको झमा रहे थे। लोग मस्ती में खो चुके थे। युवा, मंच के आगे मस्ती में नाच रहे थे। मैं भी भरपूर गानों का आंनद ले रहा था, लेकिन शीतल किसी कशमकश में थी... उन्हें गानों में मजा नहीं आ रहा था शायद। वो अपने हाथों की उँगलियों को मसल रही थीं। वो तो बस मुझसे बात करना चाहती थीं। वो बस मेरे साथ अकेले बैठे रहना चाहती थीं।
 
"ठंड लग रही है शीतल?"- मैंने पूछा।

"हाँ...मेरे हाथ बहुत ठंडे हो गए हैं।"

"छकर दिखाओ, कितने ठंडे हैं हाथ।" मेरे तो दोनों हाथ ट्राउजर की पॉकट में थे। सिर्फ मेरे गाल थे, जिन्हें शीतल छ सकती थीं।

"अरे, बड़े चालू हो राज ।" शीतल ने कहा।

बो जानती थीं कि अगर मैंने राज को छुआ, तो गाल पर छना पड़ेगा। मैं भी यही चाहता था कि वो मेरे गालों को अपने ठंडे हाथों से छाएँ। शीतल और मैं इतने पास बैठे थे, कि पंद्रह डिग्री तापमान में हम दोनों को ठंड नहीं लग रही थी। ये छोटे-छोटे पल बेशकीमती हीरे-जवाहरातों से कम नहीं थे लेकिन एक डर मेरे मन में था। कल सुबह हम वापस दिल्ली चले जाएंगे और यह खूबसूरत यात्रा खत्म हो जाएगी। मैं इन तीन दिनों से बाहर निकलना नहीं चाहता था। मैं दिल्ली वापस नहीं आना चाहता था। मैं चाहता था कि ये तीन दिन वापस से शुरू हो जाएँ और तब तक रिवाइंड होते रहें, जब तक मेरे शरीर में एक भी साँस बचे।

"चलिए खाना खाते हैं। मैंने कहा। "हाँ, बहुत भूख लगी हैं हम ता।" उन्होंने उठते हुए कहा। हम दोनों खाने के स्टॉल की तरफ बढ़ रहे थे। प्लेट बिलकुल मेरे सामने रखी थीं। शीतल, पास खड़े टीम के कुछ लोगों से बात करने लगी। इसी बीच ऑफिस के एक सीनियर ने मुझे प्लेट ऑफर की।

प्यार में छोटी-छोटी चीजें बहुत मायने रखती हैं। एक-दूसरे का खयाल रखना, हर कदम एक-दूसरे के साथ चलना। वायदा किया था शीतल से कि अब तुम्हें एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ेंगे, तो उनसे पहले प्लेट में खाना कैसे ले सकता था। तभी तो काफी देर तक प्लेट लेकर उनका इंतजार करता रहा। जब उनकी बात खत्म हुई,तभी हमने साथ खाना लगाया और ओपन स्पेस से दूर जाकर सोफे पर बैठ गए। इस पल को साथ बिताने की खुशी और कल सुबह सब-कुछ खत्म हो जाने का दर्द हम दोनों के चेहरे पर साफ झलक रहा था। मैं शीतल से बहुत छोटा था... तो मैं उन्हें अपने दिल की बात नहीं बता सकता था। अपने अतीत की बात बताते वक्त उन्होंने कहा था कि हम अब किसी और को प्यार नहीं कर पाएंगे... शायद इसलिए भी उनसे अपने दिल की बात करने का खयाल अपने दिल और दिमाग से निकाल दिया था। बस मैं तो उन पलों को जी रहा था ,जो हम साथ बिता रहे थे।

प्रोग्राम तो खत्म हो चुका था, लेकिन हम दोनों ही वहाँ से जाना नहीं चाहते थे। फिर एक बार हम उसी मोड़ पर थे, जहाँ शीतल को बस से होटल लौटना था और मुझे कार से। होटल से वेन्यू तक आने और वेन्यू से होटल वापस जाने में बहुत कुछ बदल चुका था। अब हम दोनों एक सेकेंड भी अकेले नहीं रह सकते थे, शायद आसान नहीं था अब एक पल रहना एक-दूसरे के बिना। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। अगर कार और बस से जाना मैंने तय किया होता, तो इरादा बदल देता, लेकिन यह सब पहले से तय था। लेकिन वो कहते हैं न कि प्यार में इंसान दिमाग से नहीं, दिल से सोचता है, इसलिए मैंने ठान लिया कि बम से ही जाऊँगा। वेन्यू से बस की तरफ बढ़ते हुए हमारे कदम पीछे खिंच रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे हम अधूरे से वापस जा रहे हैं। सच्चाई भी थी... शीतल से दिल की बात किए बिना ये सब खत्म जो हो रहा था। "ठंड लग रही है?" मैंने रास्ते में पूछा था। "हाँ, बहुत।" शीतल ने जवाब दिया। मैं कर भी क्या सकता था? मुझे नहीं पता था कि उनके दिल में मेरे लिए क्या है। मुझे अब तक नहीं पता था कि वो क्या सोच रही हैं मेरे बारे में। मैं चाहकर भी उन्हें अपनी बाँहों में नहीं भर सकता था, मैं चाहकर भी उन्हें अपने सीने की गर्माहट नहीं दे सकता था। बस, बेबस की तरह बस के पास जाकर फुटपाथ पर बैठ गया। प्रोग्राम के लिए आए लोग एक-एक कर बस में चढ़ते जा रहे थे। शीतल भी मेरे पास फुटपाथ पर बैठ गई। शायद वो कुछ कहना चाहती थीं। कार छोड़कर उनके साथ बस में सफर करने का निर्णय तो हमने ले लिया था, लेकिन इसकी कोई बजह मेरे पास नहीं थी। मैं और शीतल बस की आखिरी सीट पर साथ-साथ बैठ गए थे। एक बार तो मेरे मन में आया कि दूसरी सीट पर बैठ जाऊँ, लेकिन खुद को उनके पास बैठने से रोक नहीं पाया।

बस चल पड़ी थी। मैं शीतल के साथ बैठा जरूर था लेकिन एक दूरी बनाकर। मैं नहीं चाहता था कि शीतल को कहीं भी ऐसा लगे कि मैं किसी तरह का चांस मार रहा हूँ उन पर।
“राज, मेरी घड़ी खोल दीजिएगा, मुझसे खुलती नहीं है ये।" "ओके, मैं खोल दूँगा।" मैंने जवाब दिया। मैं समझ ही नहीं पाया, कि जिस घड़ी को बो न जाने कब से पहन रही हैं, उनसे वो क्यों नहीं खुलती है? में ये भी नहीं समझ पा रहा था कि वो घड़ी मुझसे क्यों खुलवा रही है। उनकी नजरें बस मुझे ही देखे जा रही थीं। वो मुझे देखकर भी न देखने का बहाना कर रही थीं। बस अपनी रफ्तार में थी। होटल की दूरी भी अब ज्यादा नहीं थी। बस, जैसे-जैसे होटल की तरफ बढ़ रही थी, शीतल की माँसे घबराहट से तेज होती जा रही थीं।

शीतल बार-बार मुझसे पूछ रहीं थीं कि होटल आ गया? "अभी कितनी दूर है होटल?" लेकिन उनके इस प्रश्न में होटल पहुँचने की जल्दी नही थीं। बो बस ये जानना चाहती थीं कि हम कितनी और देर एक साथ है। शीतल ने बड़ी खोलने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था। मैंने भी उनके हाथ को ऐसे पकड़ा, कि सीधे घड़ी को ही मेरी उँगलियाँ छएँ। मैं चाहकर भी उनके इस हाथ को पकड़ नहीं सकता था। एक झटके में शीतल की वो घड़ी मैंने खोल दी, जो उनकी काफी कोशिश के बाद भी नहीं खुलती थी। अब उनको छुने के सारे बहाने धराशायी हो चुके थे। शीतल के चेहरे से भी साफ लगा रहा था, जैसे उन्होंने मुझे छने का हर मौका गंवा दिया हो।
 
शीतल, बस की खिड़की की तरफ बैठी थीं। खिड़की से आती ठंडी हवा उन्हें तड़पा रहीं थी। बार-बार शीतल मुझसे कह रहीं थी, "राज, हमें ठंड लग रही है।" मैं समझ नहीं पाया कि शीतल क्यों बोल रही थीं कि खिड़की से ठंडी हवा आ रही है।

शायद वो चाहती थीं कि मैं उन्हें अपनी बाहों में भर लू और उनसे कहूँ, “थोड़ा पास आ जाइए।"
आँखें नम हो चुकी थीं और बस के पहिये होटल के बाहर रुक चुके थे। हम एक-दूसरे के कदमों के पीछे-पीछे होटल की तरफ बढ़ते जा रहे थे। शायद कोई उम्मीद अब नहीं बची थी। दिल रो रहा था बस...

रात के करीब बारह बज चुके थे और ढेर सारी हसीन यादों को समेटे छब्बीस जनवरी का दिन, सत्ताईस जनवरी में दाखिल हो चुका था। ठंड भी काफी बढ़ चुकी थी। होटल के कमरे की तरफ बढ़ते एक-एक कदम भारी हो रहे थे। चाहकर भी पैर आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे पैर थक चुके हैं। मैं और शीतल, दोनों फर्श की तरफ देखते देखते चल रहे थे। एक-दूसरे से कहना तो बहुत कुछ चाहते थे, लेकिन पहले कौन कहे और कैसे कहे, ये समझ नहीं आ रहा था। हम दोनों के पास दिल की हालत बयां न करने की एक ही वजह थी।

और वो वजह थीहमारी उम्र का दायरा...हम दोनों के बीच छह साल का अंतर। शीतल अपने कमरे में जा चुकी थीं। इससे पहले हम दोनों ने एक-दूसरे को 'गुड नाइट' जरूर कहा था। शीतल के कमरे का दरवाजा बंद हुआ, तो ऐसे लगा जैसे जिंदगी जीने की आखिरी उम्मीद भी मैं खो चुका हूँ। आँखों में आँसू लिए और एक टूटी हुई उम्मीद के साथ मैं अपने कमरे में चला गया। कमरे में लगे आईने के आगे खड़ा हुआ, तो आँसुओं को रोक नहीं पाया... जोर-जोर से रोने लगा। शायद पिछले कई साल में पहली बार में फूट-फूट कर रोया। फिर अचानक से उठा, आँसू पोंछे और बिना कपड़े बदले कमरे से बाहर निकल आया। एक पल के लिए सोचा, कि जो मैं करने जा रहा हूँ, वो ठीक है या नहीं और शीतल के कमरे की घंटी बजा दी। शीतल, शायद इसी विश्वास के साथ इंतजार में बैठी थीं कि कोई जरूर आएगा।

“अरे, चेंज नहीं किया अभी तक!'' मैंने जान-बूझकर कहा। शीतल कुछ कहतीं, उससे पहले ही मैंने कह दिया- “चलिए थोड़ी देर बाद कर लीजिएगा, अभी बैठते हैं साथ में।"

शीतल और मैं जब भी कमरे में एक साथ बैठते थे, तो कमरे का दरवाजा बंद होता था। होटल के कमरे अक्सर खोलकर रखे भी नहीं जाते हैं। लेकिन इस बार शीतल ने दरवाजा बंद नहीं किया था। मुझे लगा, शायद रात है, इसलिए उन्होंने कमरे का दरवाजा खोल रखा है। बाकी कमरों में ऑफिस के और भी लोग ठहरे थे। कोई कभी भी आ सकता था। शीतल अपने बेड पर बैठी थीं। मैं भी सोफे से उठकर उनके पास उनके बेड पर बैठ गया। बस हमारे और उनके बीच एक हाथ की दूरी थी और इस एक हाथ की दूरी में इस अजीब सी स्थिति का गवाह बन रहा था उनका लैपटाप।

शीतल ने कहा था राज, सुबह हम वापस दिल्ली जाएंगे। तुम्हें मैं एक बात बताऊँ... जब मुझे पता चला था कि कोई राज हमारे साथ चंडीगढ़ जाने वाले हैं, तो मैंने सोचा था कि कोई अच्छा शख्म साथ हो, जो हमारे साथ गलत तरीके से व्यवहार न करे और उसके साथ काम करने में मजा आए। जब आप पहली बार मुझसे मिले थे और तुमने कहा था कि चंडीगढ़ में तीन दिन कौन सोने वाला है, खूब मस्ती करेंगे चंडीगढ़ में... तो हमारी फ्रेंड्स ने मुझसे कहा था कि सँभलकर रहना। लेकिन मैं सच बताऊँ तुम्हें, ये तीन दिन मेरी जिंदगी के सबसे हसीन दिन हैं: ये तीन दिन में कभी नहीं भूल पाऊँगी और वो भी सिर्फ तुम्हारी बजह से। आप मेरे साथ आए, पर मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये दिरप मेरे लिए सबसे यादगार दिप हो जाएगी। राज, मैं इन यादों को हमेशा अपने साथ रचूंगी, कभी नहीं भुला पाऊँगी। थॅंक यू सो मच राज , मेरे साथ इतना अच्छा वक्त बिताने के लिए। मैं एक प्यारा दोस्त अपने साथ वापस लेकर जा रही है,थक यू सो मच: चंडीगढ़ बहत याद आएगा।"

ये सब कहते हुए उनकी आवाज टूटती जा रही थी। उनकी आँखें उनके कंट्रोल से बाहर हो चुकी थीं। लैपटॉप के की-बोर्ड पर नजरें गड़ाए शीतल रो रही थीं। किसी के बिछड़ने का दर्द, सबसे बड़ा दर्द होता है। हम दोनों को एक-दूसरे के रूप में एक अच्छा दोस्त तो मिल गया था, लेकिन हम दोनों के दिल, दोस्ती के आगे के रिश्ते की कल्पना कर चुके थे।

शीतल, चंडीगढ़ हमें भी बहुत याद आएगा; इन तीन दिनों की यादें हम कभी नहीं भुला पायेंगे। तुम्हारे साथ बिताया एक-एक पल हमारे लिए बहुत अनमोल है। हम हमेशा एक अच्छे दोस्त बनकर रहेंगे; ऑफिस में एक-दो बार मिल लिया करेंगे और फोन पर तो खूब बात किया करेंगे।

“ठीक है, अब मैं सोने जाता हूँ, रात काफी हो चुकी है"- मैंने उखड़े हुए मन से कहा था। "अरे रुकिए राज मियाँ घर जाकर आराम से सो जाइएगा... बैठिए कुछ देर और।" “यार शीतल, नींद आ रही है अब।" मैंने जवाब दिया।

"अरे यार, हमें कुछ काम है अभी; तो बैठिए न... चलिए कॉफी मगाते हैं।" शीतल ने बिना देर किए दो कॉफी ऑर्डर कर दी।

होटल में कॉफी आने में कम-से-कम आधा घंटा लगता था। मैं समझ गया था कि शीतल ने मुझे आधे घंटे के लिए तो बाँध ही लिया है। सच कहूँ, तो उनके पास से उठना मैं भी कहाँ चाहता था। शीतल अपने लैपटॉप पर उँगलियाँ घुमा रही थीं। मैं उन्हें देखे जा रहा था। मन एक अजीब-सी हालत में था। मेरा दिल मुझसे कह रहा था कि बता दे शीतल को सब-कुछ और दिमाग कह रहा था, नहीं। दिल की बात जुबां पर कई बार आई, लेकिन लबों ने हर बार ये कहकर रोक दिया, कि क्या करने चले हो जनाब? बो तुमसे बहुत बड़ी हैं और उनके दिल में कुछ नहीं हो सकता है तुम्हारे लिए।
 
विनीत की समझ में नहीं आया कि वह उसकी बात का क्या उत्तर दे। वह उठकर बैठ गया तथा दोनों हाथों में अपने सिर को थाम लिया। अर्चना बड़ी गहराई से उसके चेहरे की ओर देख रही थी। इस समय उसके मन में जो उथल पुथल थी, उसने उसे बेचैन बना रखा था। वो आशा और निराशा के बीच गोते लगा रही थी। पता नहीं विनीत क्या कहे?

वह अधिक बेचैनी को बरदाश्त न कर सकी। फिर पूछा- विनीत, क्या तुम मुझे भूल सकते हो?"

विनीत को कहना पड़ा-“अर्चना, किसी को भूल पाना मुश्किल होता है।"

"मैं अपनी बात कर रही हूं।"

"इसके लिये मैं कोशिश करूंगा कि मैं तुम्हें भूल जाऊं। हालांकि यह सब मेरे लिये मुश्किल ही होगा, परन्तु इसके अलावा कोई चारा भी मेरे पास नहीं है।"

सुनकर अर्चना को प्रसन्नता हुई। विनीत के हृदय में उसके लिये स्थान था। उसने तुरन्त ही कहा-"विनीत, मैं पहले पापा और अंकल से बात कर लूं, तब तक तुम अपने विचार को यहीं छोड़ दो। बाद में जो भी होगा, उसे मैं संभाल लूंगी।"

"ठीक है।” उसे कहना पड़ा।

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शाम को अर्चना के पिता सेठ गोविन्द कुमार कुछ जल्दी ही आ गये थे। विनीत जब से यहां मौजूद था तब से वे उसके कमरे की ओर नहीं गये थे। अर्चना को बुलाना होता तो नौकर को भेज देते थे। आज वे सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुंचे। उस समय विनीत और अर्चना एक ही सोफे पर बैठे हुये थे। विनीत जड़ था, परन्तु अर्चना की उंगलियां उसके बालों में तैर रही थीं। सहसा ही किसी की आहट पाकर अर्चना चौंकी। पलटी और फुर्ती से अपने स्थान पर खड़ी हो गयी। भय के कारण उसका चेहरा सफेद हो गया था। विनीत भी बैठा न रह सका।

“पापा! आप....।" उसके मुंह से निकला।

"हां....चला आया था।" परन्तु अर्चना जानती थी कि इस समय वे अकारण ही नहीं आये हैं। कोई न कोई बात अवश्य है। बात भी विनीत से सम्बन्धित ही होगी। उनके चेहरे को देखकर ही उसने अनुमान लगा लिया था। कुछ क्षणों की खामोशी के बाद वे बोले- अर्चना।"

“जी....."

"मुझे तुमसे कुछ कहना है।"

“जी....!"

“आओ मेरे साथ।" अर्चना ने एक बार विनीत की ओर देखा। जैसे कह रही हो, दाल में काला अवश्य है....परन्तु तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। मैं सब कुछ ठीक कर लूंगी।" वह उनके कमरे में आ गयी। सेठजी ने दरवाजे को बन्द कर दिया।

पलटकर तुरन्त उन्होंने कहा—“अर्चना, इस व्यक्ति की वास्तविकता क्या है?"

“जी....?" उसने अपनी ग्रीवा को तनिक उठाया।

“मैं जानना चाहता हूं कि विनीत नाम का यह ब्यक्ति कौन है?"

“पापा, मैंने आपसे बताया तो था....."

"तुमने केवल इतना बताया था कि विनीत अपने परिवार से अनबन करके कहीं दूर चला गया था। जब काफी समय बाद लौटा तो उसका परिवार वहां न था। मां स्वर्ग सिधार गयी थी, मकान को किसी दूसरे आदमी ने कब्जे में ले लिया था और सुधा व अनीता नाम की दो वहनें भी मजबूरी में कहीं चली गयी थीं।"

“यही विनीत की वास्तविकता है।"
 
एक बेड पर बैठे होने के बावजूद हम दोनों के बीच बातें कम हो रही थीं। दिल की हालत किसी प्यासे पंछी की तरह हो गई थी। पानी मामने था, लेकिन पी नहीं सकते थे। कमरे में एक अजीब-मा सन्नाटा था और इस सन्नाटे को तोड़ा, कॉफी लेकर आए बेटर ने। कमरे का दरवाजा अब तक खुला ही था।

शीतल के चेहरे पर कॉफी जल्दी आने की खुशी नहीं थी। उन्हें शायद लग रहा था कि कॉफी इतनी जल्दी क्यों आ गई। खैर, कर भी क्या सकते थे। अपनी बात बताने की हिम्मत दोनों में से कोई नहीं कर पा रहा था। कॉफी का एक-एक चूंट मटका नहीं जा रहा था। कॉफी अंदर जा रही थी और आँखों से आँसू निकलने को बेताब हो रहे थे। चाय जल्दी से खत्म कर मैं अपने कमरे में जाकर जी भरकर रो लेना चाहता था आज। शीतल तो कॉफी पी ही नहीं पा रही थीं।

“ओके शीतल, मैं जा रहा हूँ अब; कल मिलते हैं।'' मैंने उठते हुए कहा। "अरे यार, अभी..."

"हाँ शीतल, सुबह छह बजे की ट्रेन है: चार बजे उठना होगा और डेढ़ बज चुके हैं ... अब तुम भी सो जाओ, वरना उठ नहीं पाओगी सुबह।"

"ठीक है तुम सो जाओ, मैं कुछ देर और जागना चाहती हूँ अभी।"

"न चाहते हुए भी मैं उन्हें गुडनाइट बोलकर उनके कमरे से बाहर निकल आया। कमरे से निकलते हुए शीतल की तरफ देखा तक नहीं। शायद मैं जानता था कि उनकी आँखें रो रही हैं। आँखें तो मेरी भी बहने लगी थीं।

अपने कमरे में आते ही बिना कपड़े बदले मैं बिस्तर में घुस गया और जी भर के रोया। "हेलो, सो गए।" फोन पर शीतल का बाँदसएप मैसेज था।

"नहीं, अभी नहीं।" मैंने मैसेज किया।

"तो बात कर पाएंगे।" उनका मैसेज था।

“नहीं यार, कमरे की लाइट ऑफ है और बॉम हमारे साथ रुके हैं; मोबाइल की लाइट से उनको परेशानी होगी,कल बात करते हैं।"

"क्या राज मियाँ, कुछ घंटे बात कर लेंगे तो क्या हो जाएगा? घर जाकर आराम से मो जाएगा, अभी बात कर लीजिए प्लीज।"
"नहीं कर पाएँगे यार।" मैं हैरान था। अक्सर लोग कहते हैं कि थोड़ी देर बात कर लेंगे तो क्या हो जाएगा? लेकिन पहली बार कोई ये कह रहा था कि "कुछ घंटे बात कर लेंगे तो क्या हो जाएगा।"

"ठीक है, तुम सो जाओ, में कुछ देर आँख बंद कर लेटे रहना चाहती हूँ।"

"राज, दिन निकलने वाला है, सपना टूटने का वक्त आ गया है।"

"क्या मतलब है इसका?"

"अरे तुम नहीं समझोगे, सो जाओ।"

"ओके, गुडनाइट, टेक केयर; सुबह मिलते हैं।"

"हम्म... गुडनाइट" शीतल से रात भर बात करते रहना चाहता था, लेकिन बॉस मेरे कमरे में ही सो रहे थे, तो कर नहीं सकता था। फोन हाथ में लेकर सोने की एक कोशिश में कर रहा था, जो शायद ही पूरी होने वाली थी। आँखें बंद की, तो शीतल का चेहरा एक दम सामने आ गया। उस क्रीम कलर की साड़ी में वो ऐसे लग रही थीं, जैसे किसी संगमरमर की मूरत पर बर्फ की चादर पड़ी हो। इस खूबसूरत चेहरे को कैद कर मेरी आँखें कब अचेत हो गई, पता ही नहीं चला।

'गुडमानिंग, गुडमानिंग, गुडमानिंग, गुडमानिंग, गुडमानिंग!” फोन में अलार्म बज रहा था।

सुबह के साढ़े चार बजे थे। अलार्म बंद कर थोड़ी देर आँख खोलकर लेटा ही रहा। आँखें नींद से दुखने लगी थीं। दो घंटे ही तो हुए थे अभी सोए हुए। कमरे में रखे कॉफी मेकर में एक कप हाई कॉफी बनाई और बिस्तर पर बैठकर धीरे-धीर एक-एक चूंट पीने लगा। पहली बार वो कॉफी का कप मुझे भारी लग रहा था। हर छूट सटकने में हिम्मत करनी पड़ रही थी। और जब थक गया हिम्मत करते-करते तो कप साइड में रखा और सीधे बॉशरूम में चला गया। मन को समझा लिया था। दिल मानने को तैयार ही नहीं था कि वापस लौटने का वक्त आ चुका है, लेकिन दिमाग ने दिल को डाँटकर हकीकत समझा दी थी। तैयार होने से लेकर बैग पैक करने तक एक बात खटक रही थी। बो बात थी कि मैं शीतल को अपने दिल की बात बता नहीं पाया। अभी भी खयाल आया था कि स्टेशन के रास्ते में सब बता दूंगा, लेकिन खुद को समझा लिया। शायद दिल पर दिमाग हावी था।
 
पाँच बज चुके थे। शीतल अभी भी सोई हुई थीं। उन्हें उठाने के लिए फोन घुमा दिया। पाँच-छह रिंग के बाद एक आवाज आई-हेलो!'

“गुड मानिंग शीतल..उठिए, रेन का टाइम हो गया।" मैंने कहा था।

“शिट यार, पाँच बज गए: राज हम तुरंत तैयार होते हैं, हम तो सोते ही रह गए।" उन्होंने जवाब दिया।

फोन रखकर हम बस उनके तैयार होने का इंतजार कर रहे थे, या यों कहें कि उस दिन की पहली मुलाकात का इंतजार कर रहे थे। साढ़े पांच बजे मैं अपना लगेज लेकर उनके कमरे के बाहर था और मेरे हाथ खुद-ब-खुद उनके कमरे की घंटी की तरफ चले गए।

शीतल ने दरवाजा खोला। “गुडमॉनिंग...रेडी?"- मैंने पूछा।

“या रेडी"- उन्होंने जवाब दिया।

"तो फिर चलें!'' मैंने पूछा।

'चलिए।' उन्होंने कहा।

हम दोनों होटल के फस्ट फ्लोर से ग्राउंड फ्लोर पहुँच चुके थे। दोनों एक-दूसरे से बात करने का बहाना चाहते थे, लेकिन बात नहीं कर पा रहे थे। मैं तो सोच रहा था कि क्या कहूँ और कैसे कहूँ। हम दोनों कार में बैठ चुके थे। रेलवे स्टेशन के लिए कार ने रफ्तार पकड़ ली थी। छह बजे हमें शताब्दी एक्सप्रेस से बापस दिल्ली आना था। चौदह दिसंबर को जिस वक्त हम दिल्ली से चंडीगढ़ के लिए रवाना हुए थे, तब से अब तक हम दोनों के बीच काफी कुछ बदल चुका था। अब शीतल मेरे लिए ऑफिस की एक सहयोगी नहीं थी। अब वो एक खास शख्म हो गई थीं मेरे लिए। दिल्ली से चंडीगढ़ आते हुए भले ही अलग अलग कोच में बैठना मुझे नहीं खटका था, लेकिन दिल्ली लौटते वक्त अलग कोच में पांच घंटे बिताना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। चंडीगढ़ आने से पहले मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि जो शीतल मेरे साथ जा रही हैं, उनसे मुझे प्यार हो जाएगा; वरना रिजर्वेशन उनके साथ ही कराने की कोशिश जरूर करता। में कार में आगे वाली सीट पर बैठा था और शीतल पीछे सीट पर बैठी थीं।

“शीतल, खाली सड़कें कितनी अच्छी लग रही हैं न!" मैंने पूछा।

मेरे इस सवाल के जवाब में एक चुप्पी थी।

“शीतल... क्या हुआ? देखिए कितना अच्छा लग रहा है चंडीगढ़।” मैंने फिर कहा था। इस बार भी वो कुछ नहीं बोलीं। एक सन्नाटा था कार में।

मुझे लगा शायद जाने का वक्त है, तो वो मुझसे जान-बूझकर बात नहीं कर रही हैं। स्टेशन पहुंचने तक मैंने दोबारा उनसे कोई बात नहीं की। पूरे रास्ते मैं चुप ही रहा। स्टेशन पर कार से उतरते हुए उन्होंने अपनी नजरें मुझसे चुरा ली थीं। मैं उनके चेहरे की तरफ देख रहा था, लेकिन वो मेरी आँखों में अपनी आँखें नहीं डाल रही थीं। प्लेटफार्म नंबर एक की तरफ बढ़ते हुए भी उन्होंने एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा।

"शीतल, क्या हुआ? ऐसे क्यू रिएक्ट कर रही हो?” मैंने हैरानी के साथ पूछा।

"कुछ नहीं राज, तुम चले जाओ; बो रहा सी-5 तुम्हारा कोच ।" शीतल ने तीखी नजरों से मेरी तरफ देखा था।

"अरे, चला जाऊँगा तुम लोगों को बिठाकर।"

"हम लोग बैठ जाएंगे, तुम प्लीज चले जाओ।"

“यार कैसी लड़की है ये; तीन दिन साथ काम करना था, तो अच्छे से बात की, अब जाने की बारी आई तो अंजान हो गए। बहुत मतलबी निकली ये तो।"- पहली बार मेरे मन में ये खयाल आया था। लेकिन हमें जाने के लिए कहते हुए शीतल की आँखें नम हो चुकी थीं, तो मेरे मन में आया ये बेहूदा खयाल तुरंत बाहर हो गया। मुझे जाने के लिए कहने पर जिनकी आखरोरही हों,बो मतलबी तो नहीं हो सकती हैं।
 
शीतल और मैं, उनके कोच सी-1 की तरफ बढ़ रहे थे। दो बैग उन्होंने पकड़े थे और कुछ लगेज मेरे पास था। शीतल अब अपनी सीट पर बैठ चुकी थीं। ये साथ बिताया हुआ आखिरी पल था चंडीगढ़ में।

"ठीक है शीतल, बॉय, टेक केयर।" मैंने उनसे नजरें चुराते हुए कहा था।

"नाइस मीटिंग यू।"

मैं बिना उनकी तरफ देखे, सी-1 कोच से बाहर निकल गया। कोच के भीतर अगर मैं शीतल की तरफ देख लेता, तो अपने आँसू रोक नहीं पाता। लेकिन सी-1 कोच से सी-5 कोच की तरफ जाते वक्त भी आँसू कहाँ रुके थे। ऐसा लग रहा था जैसे सब-कुछ खो दिया है मैंने। जिंदगी में कुछ नहीं बचा है मेरे पास। एक दुःख ये था कि शीतल को अपने दिल की बात नहीं बता पाया और एक दुःख उनके आज के व्यवहार ने दिया था। लगेज, मीट के ऊपर रखकर सीट में समा गया था मैं। बहती हुई मेरी आँखें विंडो से बाहर देखे जा रही थीं। फोन अभी भी मेरे हाथ में था; इस उम्मीद के साथ कि शायद शीतल का कोई मैसेज आएगा। अगले दो मिनट तक उनका मैसेज नहीं आया तो वाट्सएप खोलकर रात के मैसेज को पढ़ने लगा।

रात में जो शीतल ने कहा था, वो अब समझ में आया था। शीतल ने कहा था, 'दिन निकलने वाला है, सपना टूटने का वक्त हो गया है।'

शीतल किस सपने की बात कर रही थीं, मैं अब पूरी तरह समझ गया था। शीतल के दिल में मेरे लिए जगह बन गई थी। उन्हें हमारा साथ टूटने पर दुख हो रहा था। वो परेशान थीं इस बात से, कि कल हम वापस दिल्ली चले जाएंगे और फिर मब पहले जैसा हो जाएगा। जिंदगी के ये बेहद खूबसूरत तीन दिन फिर कभी लौट के नहीं आएंगे।

फोन पर मैसेज टोन ने एक खलल डाल दिया था, लेकिन खुशी इस बात की थी कि मैसेज शीतल का ही था।

“नाइस मीटिंग विद यू राज....सॉरी फॉर माई बिहेवियर.....बिल बि फाइन सून; थेंक्स फॉर गुड़ मेमारीज। - शीतल"

उनके इस मैसेज को पढ़कर मेरे आँसू मेरे कंदरोल से बाहर हो गए। आँख बंद की, तो भी आँसू बाहर बह निकले। पास बैठी एक मैडम मुझे रोते हुए देख भी रही थीं। मेरी नजर उन पर पड़ी तो खुद को सँभाला।

प्यार रुलाता बहुत है साहब । खुशनसीब होते हैं, जिन्हें प्यार में रोना नसीब होता है।

मैमेज का सिलसिला जारी था। मैंने भी उन्हें मैसेज में कह दिया, “आई डोंट नो शीतल, वॉट आर यू थिंकिंग: रात भी तुमने कुछ गलत नहीं कहा था, आई एम रीडिंग योर चैट... तुम भी फिर से पढ़ना, रीयली हैप्पी टू हेव यू एज ए फ्रेंड, काइंडली टेक केयर योरसल्फ।"
"चलो छोड़ो जी... क्या फालतू सोचना... आगे का पता नहीं, पर ये छोटी-मी मुलाकात खूबसूरत थी, एनज्वॉय एंड टेक केयर।"- शीतल का मैसेज था।

"फालतू! गोट...तुम एनज्वॉय करो।

"जी, मैं फालतू बहुत सोचती हूँ, बुद्धि खराब है मेरी... और हाँ, कभी मौका मिले तो ऑफिस के पास जो समोसे बाला है, उसका रास्ता बता दीजिएगा, आई लब समोसे, गॉड ब्लेम यू।" - उनका मैसेज था। होटल में यूं ही ऑफिस के पास समोसे बाले का जिक्र कर दिया था शीतल से। मैं हैरान था, उन्हें ये छोटी-सी बात तक याद थी मेरी।

“अगर सिर्फ रास्ते की बात है, तो ऑफिस की पाकिंग से थोड़ा आगे है; आई एम श्योर, यू विल रियली एनज्वॉय देयर।" - मैंने थोड़ा गुस्से में रिप्लाई कर दिया था।

“थॅंक यू राज जी।" उन्होंने मैसेज किया।

“नो नीड टू से 3क्स शीतल; इतनी दोस्ती है तुमसे, कि बिना थॅंक्स के कुछ बता सकें तुम्हें एंड आई बिल रियली मिस योर कंपनी ऑलवेज।"- मैंने भी लिख दिया था।

"सेमहीयर। विश यू बेस्ट ऑफ लक इन योर फ्यूचर।"

“थैक्स, एनज्वॉय योर जर्नी, अपना खयाल रखना।"

"श्योर...जर्नी के शुरू में ही बॉय बोल देती हूँ...क्योंकि हमारी सीट अलग हैं, हमारे कोच अलग हैं... हमारे स्टेशन अलग हैं, डिपार्टमेंट अलग हैं...जिंदगी अलग है; बाय!"

“गुड...थोड़ा मुश्किल है मेरे लिए बाय बोलना।"

“जिंदगी बहुत-सी चीजें हमसे करा लेती है। कभी किसी के लिए तुम्हारे मन में कुछ खूबसूरत अहसास होगा, तब जरूर समझोगे तुम; अभी शायद मुश्किल होगा तुम्हारे लिए। राज, कभी प्यार हुआ नहीं तुम्हें किसी से। बेहद खूबसूरत और मुश्किल होता है। कभी भगवान ने चाहा तो जरूर मिलेंगे।'- शीतल का मैसेज था ये।

"इतना सब मुझे बताने की बजह और जरूरत?"

"वजह बताई नहीं जाती...जरूरत महसूस कराई नहीं जाती। राज, पागल हूँ मैं; बम दिल में कुछ रख नहीं पाती, छुपाना नहीं आता कुछ भी... तुम इग्नोर मार दो।" उन्होंने कहा था।
"तुम तो छुपा ही रहे हो। इग्नोर करने वाली बातें नहीं हैं ये सब; बताएंगे तो अच्छा लगेगा मुझे। मैं फोर्स नहीं कर रहा हूँ आपको... एज यू विश।"

“राज, क्या मेरे बताने से कुछ बदल जाएगा? जिस दिन तुम ये जवाब दे पाओगे, उस दिन बहुत कुछ बताऊँगी तुम्हें, वादा है मेरा... वर्ना जाने देंगे सच में।"

"शीतल आई वॉन्ट टू नो, प्लीज टेल मी... चीजें बदलती भी हैं, समझे।" __
 
“सवाल का जवाब सोचो राज; क्या मेरे बताने में कुछ बदल जाएगा या तुम्हारी फेहरिस्त में एक नाम और जुड़ जाएगा।"

“मेरी कोई फेहरिस्त नहीं है शीतल: यू आर द फन्ट गर्ल, जिसे इतने करीब से जानने की कोशिश की है। चंडीगढ़ आने से पहले तुम मेरे लिए शीतल थीं, लेकिन अब मेरी दोस्त हो। ऑफिशियल रिलेशन नहीं है अब तुमसे, इसलिए तुम्हारे खुश और अपसेट होने से फर्क पड़ेगा मुझे... चीजों को बदलने की कोशिश की जाती है।"

"राज जवाब देने की अच्छी कोशिश की है तुमने में भी करती हूँ। चंडीगढ़ आते वक्त सोचा नहीं था कि आने वाले तीन दिन इतने खास होंगे, कि उनके खत्म होने के डर से मैं किसी को जबरदस्ती चाय पर अपने कमरे में बिठाए रखूगी या उसके साथ पंद्रह मिनट की बस यात्रा में किसी और की बातें तक सुनना नहीं चाहूँगी। राज, शायद हमें इसे एक प्यारी-सी जर्नी समझकर भूल जाना चाहिए, क्योंकि हम बताने पर आएंगे तो काफी कुछ बता देंगे तुम्हें।"

“कार में सीट होने के बावजूद मैं बस में आपके साथ होटल गया था; उसकी बजह ये थी कि मैं एक सिंगल मिनट भी आपसे बात किए बिना रहना नहीं चाहता था और रही बात इस जर्नी को भूलने की; तो आप भूल सकते हैं, मुझसे नहीं हो पाएगा।"- मैंने कहा।

अब शीतल अपने दिल की वो सारी बातें बताती जा रही थीं, जो मुझे पता नहीं थीं और जो मैं उन तीन दिन में समझ नहीं पाया था।

शीतल ने अगले मैसेज में बताया, “तुम जब पहली बार नोएडा ऑफिस में मिले थे और दरवाजा खोलकर सर के केबिन में आए थे, तो मुझे तुम अच्छे लगे थे। हम तो बस तुम्हें देखते ही रह गए थे। हाँ, तब मुझे तुम पर क्रश जरूर हुआ था, लेकिन तुमसे प्यार करने के बारे में मैंने नहीं सोचा था। कल जब प्रोग्राम चल रहा था और जब तुम मुझे पंद्रह मिनट के लिए अकेला छोड़कर चले गए, तो मुझे बहुत फर्क पड़ा था। जब तुम अपने बॉस के साथ खड़े होकर बातें कर रहे थे और तुम्हारी पीठ मेरी तरफ थी, तो हम तुम्हें ही देख रहे थे। तुम नहीं जानते, छब्बीस जनवरी की रात जब तुम और मैं साथ में बस में बैठे थे, तो मैं कितनी बेसब्री से बस की लाइट बंद होने का इंतज़ार कर रही थी। जब लाइट बंद नहीं हुई तब मैंने घड़ी खुलवाने का बहाना बनाया था, ताकि ये महसूस कर सकें कि तुम्हारे हाथ का स्पर्श कैसा है। हमारे कमरे में जब आखिरी रात साथ बैठे थे, तब भी हमारे अंदर बहुत कुछ चल रहा था। उस वक्त मैं लैपटॉप खोलकर जरुर बैठी थी, पर बहुत कुछ कहना चाहती थी तुमसे, लेकिन डर से कह नहीं पाए। जानती हूँ मैं गलत हूँ: मुझे कोई हक नहीं आपको पसंद करने का... कोशिश करूंगी कि खुद को रोक लूँ... पूरी कोशिश करूंगी।"

मैं जानता था कि शीतल के दिल में मेरे लिए प्यार पनप चुका है। मैं और शीतल दोनों जानते थे कि कितना भी कोशिश कर लें, लेकिन अब कंट्रोल करना मुश्किल है।

इसीलिए मैंने भी उन्हें बताया था कि जब आप स्टेज की तरफ देख रहे थे, तो मैं आपको ही देख रहा था। मैं बॉस से बात जरूर कर रहा था, लेकिन मन आपकी तरफ ही लगा था। वजह सिर्फ इतनी-सी थी, कि जो कुछ हो रहा था, बस अच्छा लग रहा था। ___

जब आप हमारी तरफ देखते थे, तो हम स्टेज की तरफ देखने लगते थे। ये पल तो लौट के नहीं आएंगे। आपके साथ घूमने जाना, पकौड़े खाना, जो काम अपने कमरे में बैठकर अकेले किया जा सकता था, उसके लिए आपको साथ बिठाना और लैपटॉप खोल, खाली पीली इधर-उधर करना बहुत मिस करूंगी।"शीतल ने लिखा था। _

'आपके साथ पान खाना, रोज गार्डन तक नाइट वॉक' होटल से दूसरे होटल तक आपके साथ चलना, लास्ट वाले प्रोग्राम में बिना डरे आपका नाम इंट्रोड्यूस कराना, मैं भी बहुत मिस करुंगा।" - मैंने कहा था।

हम दोनों के दिल में जो बात अब तक छिपी हुई थी, वो बाहर आ चुकी थी। हम दोनों जान चुके थे कि हम एक-दूसरे को प्यार करने लगे हैं। दोनों के दिल एक-दूसरे के पास आ जाना चाहते थे, लेकिन हमारे बीच पाँच कोच की दूरी थी। मैसेज से बात करते-करते ट्रेन करनाल पार कर चुकी थी। दूर बैठे दो दिलों की हालत खराब हो रही थी।
 
जब कोई बात अधूरी रह जाती है तो ज्यादा अखरती है। यही हुआ। मेरे फोन की बैटरी खत्म हो चुकी थी। अब मैं शीतल को कोई मैसेज नहीं कर सकता था। उधर, शीतल मुझे मैसेज किए जा रही थीं। वो हर पल इस इंतजार में थीं कि दिल्ली आने से पहले मैं उनके कोच में आऊँ, लेकिन पता नहीं क्या उथल-पुथल दिमाग में थी, कि मैं बेबस अपनी सीट पर ही बैठा रहा। ट्रेन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। हमारे दिलों की धड़कन की रफ्तार तो उससे भी तेज थी। अचानक ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन से पहले रुक गई। मैंने यहीं उतरना मुनासिब समझा। जैसे ही मने रेन से नीचे कदम रखा, तो रेन चल दी। अब मैं कुछ नहीं कर सकता था। शीतल दूर हो रही थीं। ट्रेन से उतरकर स्टेशन से बाहर निकलने में दम निकल रहा था। कोई अपना छुट रहा था, वो भी बिना मिले। घर जाकर सबसे पहले मोबाइल को चार्जिंग पर लगाया। मोबाइल स्विच ऑन होते ही शीतल के कई मारे मैसेज थे।

उन मैसेज में चिंता भी थी और नाराजगी भी। चिंता ये थी कि मैं रिप्लाई क्यों नहीं कर रहा हूँ और फोन क्यों स्विच ऑफ है।

और नाराजगी ये थी कि मैंने मोबाइल जान-बूझकर स्विच ऑफ क्यों कर लिया है? एक मैसेज और था। राज, उतरते समय आप बाय बोलने भी नहीं आए, हम स्टेशन पर खड़े होकर आपके आने का इंतजार ही करते रह गए। क्यों नहीं आए आप? एक बार आ जाते तो क्या बिगड़ जाता?

शीतल से मिलकर न आने पर बहुत पछतावा हुआ, लेकिन ये सच है कि अगर मैं उन्हें बाय बोलने गया होता, तो हम दोनों एक-दूसरे को बाहों में भर लेते और तब तक नहीं छोड़ते, जब तक हमारे शरीर एक-दूसरे में समा न जाते।

थोड़ी ही देर में शीतल का फोन था

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"हमने अपनी जिंदगी में कभी किसी चीज के लिए पछतावा नहीं किया है, इसलिए जो हमारे दिल में था आपको बता दिया। राज, आपके साथ चंडीगढ़ में एक-एक पल बिताना हमें अच्छा लग रहा था। आपके साथ घूमना-फिरना, खाना खाना, एक साथ कमरे में बैठे रहना, देर तक आपको अपने कमरे में रोकना, प्रोग्राम में हमारे साथ रहने के लिए कहना, आपके साथ बस में जाना, आपसे अपनी घड़ी खुलवाना, सब हमें अच्छा लग रहा था।"

प्रोग्राम में जब आप अपने बॉस के साथ बात कर रहे थे और पंद्रह मिनट के लिए हमें अकेला छोड़कर चले गए थे, तो हमारे अंदर बेचैनी हो गई थी। हम नहीं समझ पा रहे थे कि हमें क्या हो रहा है। हम सोच रहे थे कि सब तो ठीक है, फिर हमें अजीब क्यों लग रहा है? हम खुद को अधूरा महसूस क्यों कर रहे हैं? जब आपकी तरफ हमने देखा तो समझ आया कि हमारी जिंदगी में कुछ मिसिंग है और जो मिसिंग है,वो हैं आप। आपका साथ न होना हमें खल रहा था। आपका साथ छोड़कर जाना हमें बुरा लगा था।

"लेकिन एक बात बताएं राज; अच्छा ही हुआ कि आप पंद्रह मिनट हमें अकेला छोड़कर गए। अगर आप हमें छोड़कर नहीं गए होते, तो हम ये समझ ही नहीं पाते कि...।' इतना कहकर शीतल एक पल के लिए चुप हो गई थीं।

"शीतल, रुक क्यों गई? प्लीज बोलिए न!'' मैंने पूछा। "राज, अगर आप हमें छोड़कर नहीं गए होते, तो हम कैसे समझ पाते कि हमें आपसे प्यार हो गया है।" - शीतल ने कहा था।

"शीतल...फिर से कहिए।" मैंने कहा। मेरे कान एक बार और सुनना चाहते थे, जो उन्होंने कहा था।
 
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