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"उम्म्म......वाहह....!" रवि ने चटकारा लिया. - "मेरी तो किस्मत खुल गयी कंचन, तुम कितना स्वदिस्त खीर बनाती हो. आहा.....अब तो विवाह के बाद रोज़ तुम्हारे हाथ की बनी खीर खाउन्गा."
कंचन का चेहरा खुशी से खिल गया. उसके मुरझाए हुए चेहरे की रौनक लौट आई. अपने साहेब के मूह से अपनी प्रसंसा पाकर उसका रोम रोम महक उठा.
हालाँकि खीर उतनी स्वदिस्त नही थी. रवि ने बस कंचन को खुश करने के लिए......बढ़कर तारीफ़ की थी. वो नही चाहता था कि कंचन के दिल को ज़रा भी ठेस पहुँचे. इच्छा ना होते हुए भी रवि सारा खीर चाट कर गया. कंचन बलिहारी हो जाने वाली नज़रों से उसे खीर खाते हुए देखती रही. जो मन अभी कुच्छ देर पहले तरह तरह की शंकाओं से पीड़ा ग्रस्त था अब वो खुशी के झूले में सवार आकाश की बुलंदियों में सैर कर रहा था. अब उसे किसी चीज़ की चिंता नही थी. माहौल फिर से सुहाना हो उठा था. पक्षियो का कलरव अब उसे अच्छा लगने लगा था. प्रकृति में बिखरा सौंदर्या अब उसकी आँखों को भी भाने लगा था.
"पीने के लिए पानी कहाँ है?" अचानक रवि की आवाज़ से कंचन चौंकी. साथ ही हड़बड़ाई.
वह तो जल्दबाज़ी में पानी लाना ही भूल गयी थी. कंचन दायें बायें देखने लगी. उसका चेहरा फिर से उदास होता चला गया. रवि को समझते देर नही लगाई. वह तपाक से बोला - "कोई बात नही, अच्छा हुआ तुम पानी नही लाई. पानी पीने के बाद मेरे मूह से खीर का स्वाद चला जाता. जो कि मुझे अच्छा नही लगता." ये कहकर रवि एक गड्ढे में जमे बारिस के पानी से हाथ धोने लगा.
"साहेब, मैं आपके लिए कल फिर से खीर बनाकर लाउन्गि साथ में पानी भी." कंचन रवि के पास जाते हुए बोली.
"नही....बिल्कुल नही." रवि खड़ा होकर रुमाल से अपना मूह सॉफ करते हुए बोला - "अब तुम्हे खीर लाने की ज़रूरत नही है. आज के बाद तुम मेरे लिए कोई भी परेशानी नही उठाओगी. अब जो भी खिलाना पिलाना हो विवाह के बाद मेरे घर आकर खिलाना. अब तुम सिर्फ़ एक ही काम करो. मुझसे प्रेम करो. मेरे पास आओ. मेरे साथ बैठो और बातें करो." रवि ये कहते हुए उसके चेहरे को दोनो हाथों से भर लेता है. और उसकी आँखों में झाँकने लगता है.
कंचन की निगाहें भी रवि पर ठहर जाती है. वह भी अपनी आँखों में शर्म लिए अपनी उठी गिरती पलकों के साथ रवि को देखने लगती है.
तभी ! दूर कहीं जोरदार बिजली कड़कती है और कंचन चिहुनकर रवि से लिपट जाती है. रवि भी उसे अपनी मजबूत बाहों में भीच लेता है.
मौसम एक बार फिर से करवट लेता है. पर इस बार भयंकर गर्जना के साथ. आकाश में बादल फिर से मंडराने लगते हैं. और कुच्छ ही पलों में फिर से बूँदा बाँदी शुरू हो जाती है.
रवि कंचन को लेकर तेज़ी से उस पत्थेर की ओर बढ़ा, जो झरने के बिल्कुल निकट था और जिसमें बारिश से बचने के लिए खोहनुमा स्थान था. वहाँ तक पहुचने में उन्हे मुस्किल से दो मिनिट लगे. पर इतनी ही देर में बारिश की तेज़ बूंदे उन्हे भीगा चुकी थी. कंचन तो पहले ही भीगी हुई थी किंतु अब रवि भी लगभग भीग चुका था.
*****
कल्लू की आँखे नम थी. ऐसा बारिश की बूँदों की वजह से नही था. उसकी आँखें उस पीड़ा से गीली हुई थी जो इस वक़्त उसका दिल महसूस कर रहा था.
कल्लू काफ़ी देर से कंचन और रवि को छुप-छुप कर देख रहा था. वो वहाँ उस वक़्त से था जब कंचन अकेली खड़ी रवि का इंतेज़ार कर रही थी.
कंचन को अकेली बेचैनी से वहाँ देखकर कल्लू समझ गया था कि कंचन वहाँ किसी से मिलने आई है. पर किससे मिलने आई है यही जानने की उत्सुकता उसे वहाँ रोके रखी थी. वह छुप्कर सब कुच्छ देखता रहा था. कंचन अकेली बारिश में नही भीगी थी. वह भी भीगा था. कंचन के साथ उसकी आँखों से भी आँसू बहे थे ये सोचकर कि जिसे वा बचपन से प्यार करता आया है. जिसे देखकर वह अब तक जीता आया है वो किसी और के लिए बेक़रार है. वह वहीं झाड़ियों के पिछे खड़ा बारिस में भीगते हुए कंचन का रोना उसका सिसकना, फिर रवि का आना उससे कंचन का लिपटना, उसे खीर खिलाना. और फिर गुफा के अंदर जाना. वो सब कुच्छ अपनी आँखों से देख चुका था. और ये सब देखकर उसका मंन टूटकर रोने को कर रहा था. लेकिन आज वो अकेला नही रोना चाह रहा था. आज वो एक कंधा ढूँढ रहा था जिसपर अपना सर रखकर जी भर-कर रो सके.
वह वहाँ से बोझील कदमो के साथ मुड़ा. उपर चढ़ा तो देखा सामने निक्की खड़ी उसे घुरे जा रही है. उसकी आँखों में अनगिनत सवाल थे. उसे देखते ही कल्लू सकपका गया. फिर अपनी नज़रें नीची करके तेज़ी से अपने रास्ते बढ़ गया. निक्की पलटकर उसे जाते हुए देखती रही.
कंचन का चेहरा खुशी से खिल गया. उसके मुरझाए हुए चेहरे की रौनक लौट आई. अपने साहेब के मूह से अपनी प्रसंसा पाकर उसका रोम रोम महक उठा.
हालाँकि खीर उतनी स्वदिस्त नही थी. रवि ने बस कंचन को खुश करने के लिए......बढ़कर तारीफ़ की थी. वो नही चाहता था कि कंचन के दिल को ज़रा भी ठेस पहुँचे. इच्छा ना होते हुए भी रवि सारा खीर चाट कर गया. कंचन बलिहारी हो जाने वाली नज़रों से उसे खीर खाते हुए देखती रही. जो मन अभी कुच्छ देर पहले तरह तरह की शंकाओं से पीड़ा ग्रस्त था अब वो खुशी के झूले में सवार आकाश की बुलंदियों में सैर कर रहा था. अब उसे किसी चीज़ की चिंता नही थी. माहौल फिर से सुहाना हो उठा था. पक्षियो का कलरव अब उसे अच्छा लगने लगा था. प्रकृति में बिखरा सौंदर्या अब उसकी आँखों को भी भाने लगा था.
"पीने के लिए पानी कहाँ है?" अचानक रवि की आवाज़ से कंचन चौंकी. साथ ही हड़बड़ाई.
वह तो जल्दबाज़ी में पानी लाना ही भूल गयी थी. कंचन दायें बायें देखने लगी. उसका चेहरा फिर से उदास होता चला गया. रवि को समझते देर नही लगाई. वह तपाक से बोला - "कोई बात नही, अच्छा हुआ तुम पानी नही लाई. पानी पीने के बाद मेरे मूह से खीर का स्वाद चला जाता. जो कि मुझे अच्छा नही लगता." ये कहकर रवि एक गड्ढे में जमे बारिस के पानी से हाथ धोने लगा.
"साहेब, मैं आपके लिए कल फिर से खीर बनाकर लाउन्गि साथ में पानी भी." कंचन रवि के पास जाते हुए बोली.
"नही....बिल्कुल नही." रवि खड़ा होकर रुमाल से अपना मूह सॉफ करते हुए बोला - "अब तुम्हे खीर लाने की ज़रूरत नही है. आज के बाद तुम मेरे लिए कोई भी परेशानी नही उठाओगी. अब जो भी खिलाना पिलाना हो विवाह के बाद मेरे घर आकर खिलाना. अब तुम सिर्फ़ एक ही काम करो. मुझसे प्रेम करो. मेरे पास आओ. मेरे साथ बैठो और बातें करो." रवि ये कहते हुए उसके चेहरे को दोनो हाथों से भर लेता है. और उसकी आँखों में झाँकने लगता है.
कंचन की निगाहें भी रवि पर ठहर जाती है. वह भी अपनी आँखों में शर्म लिए अपनी उठी गिरती पलकों के साथ रवि को देखने लगती है.
तभी ! दूर कहीं जोरदार बिजली कड़कती है और कंचन चिहुनकर रवि से लिपट जाती है. रवि भी उसे अपनी मजबूत बाहों में भीच लेता है.
मौसम एक बार फिर से करवट लेता है. पर इस बार भयंकर गर्जना के साथ. आकाश में बादल फिर से मंडराने लगते हैं. और कुच्छ ही पलों में फिर से बूँदा बाँदी शुरू हो जाती है.
रवि कंचन को लेकर तेज़ी से उस पत्थेर की ओर बढ़ा, जो झरने के बिल्कुल निकट था और जिसमें बारिश से बचने के लिए खोहनुमा स्थान था. वहाँ तक पहुचने में उन्हे मुस्किल से दो मिनिट लगे. पर इतनी ही देर में बारिश की तेज़ बूंदे उन्हे भीगा चुकी थी. कंचन तो पहले ही भीगी हुई थी किंतु अब रवि भी लगभग भीग चुका था.
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कल्लू की आँखे नम थी. ऐसा बारिश की बूँदों की वजह से नही था. उसकी आँखें उस पीड़ा से गीली हुई थी जो इस वक़्त उसका दिल महसूस कर रहा था.
कल्लू काफ़ी देर से कंचन और रवि को छुप-छुप कर देख रहा था. वो वहाँ उस वक़्त से था जब कंचन अकेली खड़ी रवि का इंतेज़ार कर रही थी.
कंचन को अकेली बेचैनी से वहाँ देखकर कल्लू समझ गया था कि कंचन वहाँ किसी से मिलने आई है. पर किससे मिलने आई है यही जानने की उत्सुकता उसे वहाँ रोके रखी थी. वह छुप्कर सब कुच्छ देखता रहा था. कंचन अकेली बारिश में नही भीगी थी. वह भी भीगा था. कंचन के साथ उसकी आँखों से भी आँसू बहे थे ये सोचकर कि जिसे वा बचपन से प्यार करता आया है. जिसे देखकर वह अब तक जीता आया है वो किसी और के लिए बेक़रार है. वह वहीं झाड़ियों के पिछे खड़ा बारिस में भीगते हुए कंचन का रोना उसका सिसकना, फिर रवि का आना उससे कंचन का लिपटना, उसे खीर खिलाना. और फिर गुफा के अंदर जाना. वो सब कुच्छ अपनी आँखों से देख चुका था. और ये सब देखकर उसका मंन टूटकर रोने को कर रहा था. लेकिन आज वो अकेला नही रोना चाह रहा था. आज वो एक कंधा ढूँढ रहा था जिसपर अपना सर रखकर जी भर-कर रो सके.
वह वहाँ से बोझील कदमो के साथ मुड़ा. उपर चढ़ा तो देखा सामने निक्की खड़ी उसे घुरे जा रही है. उसकी आँखों में अनगिनत सवाल थे. उसे देखते ही कल्लू सकपका गया. फिर अपनी नज़रें नीची करके तेज़ी से अपने रास्ते बढ़ गया. निक्की पलटकर उसे जाते हुए देखती रही.