Desi Porn Kahani काँच की हवेली - Page 7 - SexBaba
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Desi Porn Kahani काँच की हवेली

"आप मेरे साथ मेरे घर चलिए.....मैं आपके पति के बारे में सब कुच्छ बताता हूँ." दीवान जी घर की तरफ रुख़ करते हुए बोले.

कमला जी उनका अनुसरण करती हुई उनके पिछे चल पड़ी.

दीवान जी, कमला जी के साथ घर के अंदर दाखिल हुए.



"बैठिए बेहन जी.....!" दीवान जी हॉल में पड़े सोफे की तरफ इशारा करते हुए बोले.



कमला जी सकुचाते हुए बैठ गयी.



"कहिए क्या लेंगी आप?" दीवान जी सोफे पर बैठते हुए बोले.



"इस वक़्त कुच्छ भी खाने पीने की इच्छा नही है दीवान जी. आप कृपा करके ये बता दीजिए कि आप मेरे पति को कैसे जानते हैं? और इस वक़्त वे कहाँ हैं? आप नही जानते दीवान जी मैं उनसे बातें करने के लिए उनकी एक झलक देखने के लिए कितनी बेचैन रही हूँ."



"मैं आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ. किंतु आप धीरज रखिए.....आज आपके सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा." दीवान जी बिस्वास दिलाते हुए बोले - "आपको याद है जिस दिन आप हवेली में आईं थी. उस दिन मैं आपका शुभ समाचार लेने आपके कमरे में गया था."



"हां याद है, किंतु उस बात का मेरे पति से क्या संबंध है?"



"उस दिन मैने आपके कमरे में एक फोटो फ्रेम देखा था, तब मैने फोटो की तरफ इशारा करके पुछा था कि ये किन की तश्वीर है. और आपने कहा था कि वो आपके पति हैं."



"हां....मुझे याद है...." कमला जी तत्परता से बोली.

"मेरे ऐसा पुछ्ने का कारण ये था कि मैं आपके पति की तश्वीर को पहचान गया था. आपकी पुष्टि के लिए बता दूं कि उनका नाम मोहन कुमार है."



"हां......आपने ठीक कहा, उनका नाम मोहन कुमार ही है. लेकिन आप उनसे कब और कहाँ मिले थे? और यदि आप उन्हे पहले से जानते थे तो आपने अब तक ये बात हम से छुपाई क्यों?" कमला जी के मन में एक साथ कयि सवाल उमड़ पड़े.



"सही वक़्त का इंतेज़ार कर रहा था बेहन जी, और अब वो वक़्त आ गया है" दीवान जी अपने शब्दों में पीड़ा भरते हुए बोले - "मोहन बाबू से मेरी पहली मुलाक़ात देल्ही में हुई थी. मैने ही उन्हे रायगढ़ आने का न्योता दिया था."



"रायगढ़....? लेकिन किस लिए?" कमला जी दीवान जी के तरफ सवालिया नज़रों से देखती हुई बोली.



"बेहन जी.....! आज आपके सामने ये जो चमकती दमकती खूबसूरत काँच की हवेली खड़ी दिखाई दे रही है. इसका निर्माण आपके पति के ही हाथों हुआ है."



कमला जी की आँखें आश्चर्य से फैल गयी.



"आप ये तो जानती ही होंगी कि आपके पति काँच के कुशल कारीगर थे." दीवान जी ने बोलना आरंभ किया. - "जब ठाकुर साहब ने मुझसे हवेली के निर्माण की बात कही, तब मैं काँच के कारीगरों की तलाश में देल्ही गया. वहीं पर आपके पति से मुलाक़ात हुई और उन्हे कुच्छ पेशगी देकर रायगढ़ आने का निमंत्रण दिया."



कमला जी बिना हीले डुले दीवान जी की बातों को सुनती रही.



दीवान जी आगे बोले - "मेरे लौटने के तीसरे दिन ही मोहन बाबू रायगढ़ आ पहुँचे. मैने उन्हे हवेली के निर्माण संबंधी बातें बताई. अगले रोज़ वो देल्ही लौट गये. उन्हे अपने साथ काम करने के लिए कुच्छ और सहायक कारीगर की ज़रूरत थी. 2 दिन बाद जब वो आए तो उनके साथ 20 और कारीगर थे.

आते ही उन्होने निर्माण कार्य शुरू कर दिया. लगभग 20 महीने बाद हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उन दिनो ठाकुर साहब अपनी पत्नी राधा जी के साथ बनारस में रहते थे. हवेली के निर्माण के दौरान वो महीने में एक दो बार आते, थोड़ा बहुत काम का ज़ायज़ा लेते फिर चले जाते.

जब हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उस दिन ठाकुर साहब, अपनी पत्नी राधा देवी के साथ आए. उस दिन राधा जी की गृह प्रवेश की खुशी में हवेली को दुल्हन की तरह सज़ाया गया था. काम करने वाले सभी कारीगर जा चुके थे. सिवाए मोहन बाबू के. वे जाने से पहले ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बात करना चाहते थे.

मैं उस पूरा दिन हवेली में ही रहा था. गृह प्रवेश के बाद.....जब लोगों की भीड़ कम हुई.....ठाकुर साहब राधा जी को हवेली दिखाने लगे. उस दिन ठाकुर साहब बहुत खुश थे. उनका खुश होना लाजिमी भी था. काँच की हवेली उनका सपना था.....जिसे उन्होने राधा जी के बतौर मूह दिखाई बनवाने का प्रण किया था.



शाम का वक़्त हो चला था. ठाकुर साहब राधा जी के साथ हॉल में खड़े थे. मैं उनके पिछे खड़ा था. वे राधा जी को काँच की बनी दीवारों को दिखाते हुए कह रहे थे. - "राधा इन दीवारों को देखो. क्या इनमें तुम्हे कुच्छ विशेषता दिखाई देती है?"

राधा जी ध्यान से काँच की दीवार को देखने लगी. किंतु उनके समझ में कुच्छ ना आया. राधा जी ने पलट कर ठाकुर साहब की तरफ अपनी निगाह घुमाई.

राधा जी को अपनी और सवालिया नज़रों से देखते पाकर....ठाकुर साहब जान गये कि राधा जी को कुच्छ भी समझ में नही आया है. - "राधा....इसके काँच के टुकड़ों में देखो. तुम्हे कहीं भी तुम्हारी ताश्वीर दिखाई नही देगी. ये इस तरह से बनाई गयी है कि किसी भी चीज़ का प्रतिबिंब इसपर नज़र नही आता."



राधा जी ने अबकी बार ध्यान से देखा. अबकी बार उनकी आँखें आश्चर्य से फैलती चली गयी. ठाकुर साहब मुस्कुरा उठे. साथ ही उन्हे ये आश्चर्य भी हुआ कि इतनी अनोखी चीज़ देखने के बाद भी राधा जी ने प्रशन्शा नही की.



"आओ.....तुम्हे और भी कुच्छ दिखाते हैं." ठाकुर साहब वहाँ से मुड़ते हुए बोले. फिर राधा जी को लेकर हवेली के विशाल कमरों की तरफ बढ़ गये. मैं उनके पिछे था.



"इन्हे देखो राधा. इसकी कारीगरी को देखो. जानती हो ये काँच हम ने फ्रॅन्स से मँगवाए हैं." ठाकुर साहब इस वक़्त अपने शयन-कक्ष में थे. ये कहने के बाद ठाकुर साहब राधा जी के तरफ देखने लगे. राधा जी काँच की अद्भुत कारीगरी देखने में मगन थी.



ठाकुर साहब इसी तरह हवेली का कोना कोना घूम घूम कर राधा जी को हवेली दिखाते रहे और हर एक काँच की विशेषता बताते रहे.

पूरी हवेली घूम लेने के पश्चात ठाकुर साहब राधा जी को लेकर अपने कमरे में वापस आए.

राधा जी गर्भवती से होने की वजह से हवेली घूमते घूमते काफ़ी थक चुकी थी.



"अब बताओ राधा, तुम्हे ये हवेली कैसी लगी?" ठाकुर साहब हसरत भरी नज़र से राधा जी को देखते हुए बोले.



"अत्यंत सुंदर.....!" राधा जी मुस्कुरकर बोली - "किंतु उस प्यार से अधिक सुंदर नही जो आपके दिल में मेरे लिए है. आपने जिस प्यार से मेरे लिए ये हवेली बनवाया है, उसी प्यार से अगर आप मेरे लिए कोई झोपड़ा भी बनवाते तब भी मुझे उतनी ही खुशी होती, जितनी की आज हो रही है."



राधा जी के जवाब से ठाकुर साहब निराश हो गये. उनकी सारी खुशियों, सारे उमंगों पर जैसे पानी फिर गया. राधा जी के द्वारा ऐसी भव्य हवेली की तुलना किसी साधारण झोपडे से किए जाने पर उनके दिल को गहरा आघात लगा. -"राधा, लगता है थकान की वजह से तुम हवेली के दरो-दीवार को ठीक से देख नही पाई हो, इसलिए इसकी तुलना एक साधारण झोपडे से कर रही हो. किंतु जब तुम इसकी अद्भुत कारीगरी को ध्यान से देखोगी तब इसकी प्रशन्शा किए बगैर नही रह सकोगी."



ठाकुर साहब के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंच गयी थी. राधा जी को शीघ्र ही अपनी भूल का एहसास हुआ. उन्होने अपनी भूल सुधारते हुए कहा - "मेरा ये मतलब नही था. मेरे कहने का मतलब था कि आप अगर मेरे लिए प्यार से एक झोपडे का भी निर्माण करवाते तब भी वो मुझे अपने प्राणो से प्रिय होता. किंतु यहाँ तो आपने मेरे लिए साक्षात इन्द्र-महल बनवा दिया है. सच-मुच ऐसी भव्य इमारत की तो मैने कल्पना तक नही की थी."



इससे पहले की ठाकुर साहब राधा जी को कोई उत्तर दे पाते....दरवाज़े पर नौकर की आवाज़ गूँजी.

"मालिक.....मोहन बाबू आपसे मिलना चाहते हैं." सरजू बोला और सर झुकाकर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.



"उन्हे यहीं भेज दो." ठाकुर साहब सरजू से बोले.



उत्तर पाकर सरजू वापस लौट गया.

कुच्छ ही देर में मोहन बाबू कमरे के अंदर दाखिल हुए. अंदर आते ही उन्होने हाथ जोड़कर सभी को नमस्ते किए.



"राधा.....!" ठाकुर साहब राधा जी से बोले. - "इनसे मिलो......ये मोहन हैं. इन्होने ही इस अद्भुत हवेली का निर्माण किया है. काँच की जितनी भी कारीगरी तुम देख रही हो.....सब इन्ही के हाथों का चमत्कार है."
 
ठाकुर साहब की बात सुनते ही राधा जी बिस्तर से उठ खड़ी हुई. फिर मोहन बाबू को प्रशानशात्मक दृष्टि से देखती हुई बोली - "मोहन जी, आपकी कारीगरी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है, आपकी अद्भुत चित्रकारी ने मेरा मन मोह लिया है. काँच में ऐसी सुंदर कारीगरी मैने आज तक नही देखी. आपकी कारीगरी अमिट है. मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी की आज आप जैसे उत्तम कलाकार से मिलना हुआ."

राधा जी के कहने की देरी थी और ठाकुर साहब के सीने पर एक ज़ोर का घुसा पड़ा. राधा जी के मूह से जिस प्रशन्शा को सुनने के लिए वे घंटो तक हवेली का कोना कोना घुमाते रहे थे. जिस प्रशन्शा को पाने के लिए उन्होने हवेली के निर्माण में पानी की तरह पैसे बहा दिए थे. जिस प्रशन्शा के वे सालों से आकांक्षी थे. वही प्रशन्शा..... राधा जी के मूह से उन्हे ना मिलकर मोहन बाबू को मिल रही थी. वे अंदर ही अंदर से तड़प उठे. वे खुद को अपमानित सा महसूस करने लगे.



"ये मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है राधा जी, कि आपको मेरा काम पसंद आया." मोहन जी आभार प्रकट करते हुए बोले -"मैं एक कारीगर हूँ, जब किसी के द्वारा अपने काम की प्रशन्शा सुनता हूँ तो मन एक सुखद एहसास से भर जाता है. आप लोगों को मेरा काम पसंद आया. अब मैं यहाँ से सुखी मन से जा सकूँगा."



"तुम हम से किस लिए मिलना चाहते थे?" ठाकुर साहब रूखे स्वर में मोहन बाबू से पूछे.



"ठाकुर साहब, अब मेरा काम पूरा हो चुका है, किंतु घर जाने से पहले आपसे कुच्छ ज़रूरी बातें करनी थी. अगर आप अपना कुच्छ समय मुझे दे सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी." मोहन जी आदर-पूर्वक बोले.



"इस वक़्त हम काफ़ी थके हुए हैं मोहन. तुम आज भर रुक जाओ. जो भी बातें हैं..... हम रात के खाने के बाद कर लेंगे. तुम कल सबेरे चले जाना."



"ठीक है ठाकुर साहब, आप कहते हैं तो मैं आज भर रुक जाता हूँ. नमस्ते !" मोहन बाबू उत्तर देने के बाद नमस्ते कहकर वहाँ से चले गये.



मैने भी ठाकुर साहब और राधा जी से इज़ाज़त ली और हॉस्पिटल के लिए रवाना हो गया. मेरी पत्नी पिच्छले दो दिनो से हॉस्पिटल में डेलिवरी के लिए भरती थी. मुझे उसे देखने जाना था. हॉस्पिटल से लौटने के बाद मैं अपने घर में हवेली के निर्माण संबंधी खर्चे का लेखा जोखा करने लगा. आज ही मुझे पूरा हिसाब ठाकुर साहब को दिखाना था.

दो घंटे के बाद, लगभग 7 बजे के आस-पास मैं पुनः हवेली पहुँचा. किंतु अभी मैं दरवाज़े तक ही पहुँचा था कि मुझे हॉल से मोहन बाबू और राधा जी की बातें करने की आवाज़ें सुनाई दी. ना जाने क्यों..... पर मेरे कदम वहीं पर ठिठक गये. और मैं चोरी छुपे उनकी बातें सुनने का प्रयास करने लगा. हालाँकि मैं राधा जी की तरफ से शंकित नही था पर आज दिन की घटनाओ के मद्दे-नज़र..... मेरे मन में उनकी बातें सुनने की लालसा जाग उठी.



मैं दरवाजे की आड़ लेकर उनके बीच हो रही बातों को सुनने लगा.

राधा जी कह रही थी - "मोहन जी, आप कुच्छ अपने परिवार के बारे में भी बताइए. कौन कौन हैं आपके घर में?"



मोहन बाबू - "सिर्फ़ दो लोग, एक मेरी पत्नी और दूसरा मेरा 6 साल का बेटा."



राधा जी - "आपने कहा कि, आपको अक्सर काम के सिलसिले में घर से बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में वे लोग काफ़ी अकेले हो जाते होंगे. खास कर आपकी पत्नी. क्या आपने इस बारे में कभी सोचा है?"



मोहन बाबू - "इस बात का एहसास मुझे भी है राधा जी. पर क्या करें विवशता ही ऐसी है, ना चाहते हुए भी उनसे दूर रहना पड़ता है."



राधा जी - "तो क्या आपके लिए पैसा इतना मायने रखता है?"



मोहन बाबू - "नही राधा जी, पैसा मेरे लिए मेरे परिवार से बढ़कर नही है. मैं चाहता तो हवेली का निर्माण 6 महीने पहले ही पूरा कर देता. किंतु तब शायद ये उतनी सुंदर ना होती जितना की अब देख रही हैं. किंतु मैं अपने काम के साथ समझौता नही करता. अगर मैं अपने काम से संतुष्ट ना होता तो मैं तब तक काम करता रहता जब तक कि मैं पूरी तरह से संतुष्ट ना हो जाउ. फिर चाहें इसके लिए मुझे यहाँ कुच्छ साल और क्यों ना बिताना पड़ता. मैं बस इतना चाहता हूँ कि मैं जो भी काम करूँ....लोग उसे सराहें, पसंद करें. और मेरी कारीगरी की प्रशन्शा करें."



राधा जी - "आप एक सच्चे कारीगर हैं मोहन जी, मुझे आप जैसे कला-प्रेमी से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई. मैं आपके कला-कौशल को दिल से सम्मान देती हूँ. और साथ ही आपको धन्यवाद भी कहती हूँ कि आपने इस हवेली के लिए अपना कीमती समय दिया."



मोहन बाबू - "इस धन्यवाद के असली हक़दार तो आपके पति ठाकुर साहब हैं. जिन्होने सचे मन से आपके लिए ऐसी भव्य हवेली का निर्माण करवाया. आप सच में बहुत भाग्यशाली हैं राधा जी, कि आपको ठाकुर साहब जैसा देवता पति मिला. इस युग में पत्नी के प्रति ऐसा निश्चल प्रेम शायद ही किसी पुरुष के हृदय में हो. वे सच में देवता हैं."



राधा जी - "आपका बहुत बहुत धन्यवाद मोहन जी. ये सच है कि ठाकुर साहब को अपने पति के रूप में पाकर मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ. हम दोनो के ही दिलों में एक दूसरे के लिए अथाह प्रेम है."



मोहन बाबू - "होना भी चाहिए. इस रिश्ते में प्रेम और बिस्वास का बहुत बड़ा स्थान है."



राधा जी - "ह्म्‍म्म.......आप ठीक कहते हैं. वैसे आप सालों बाद घर जा रहे हैं, आपके मन में तो काफ़ी उत्सुकता होगी अपनी पत्नी और बेटे से मिलने की?"



मोहन बाबू - "बस एक ही बात सोचे जा रहा हूँ, पता नही कैसे होंगे वे लोग? किस हाल में जी रहे होंगे. इतने दिनो तक मैं उनकी कोई खबर तक नही ले पाया."



राधा जी - "दिल छोटा ना कीजिए मोहन जी. ईश्वर की कृपा से वे अच्छे ही होंगे. आप जब घर जाएँ तो उनके लिए भेंट ज़रूर लेकर जाइएगा. और हो सके तो घर पहुँचकर वहाँ का शुभ-समाचार ज़रूर भेज दीजिएगा. मुझे आपके शकुशल घर पहुँचने का इंतेज़ार रहेगा."



राधा जी के ये शब्द सुनकर मेरा मन उनके प्रति श्रधा भाव से भर गया. मैने अब उनकी बातों को सुनना व्यर्थ जाना. मैं दरवाज़े की औट से बाहर निकला और हवेली के अंदर प्रविष्ट हुआ. हॉल में पहुँच कर मैने राधा जी और मोहन बाबू को नमस्ते किया और फिर ठाकुर साहब के कमरे की तरफ बढ़ गया.

मैं कुच्छ देर ठाकुर साहब के पास बैठा उन्हे खर्चे का लेखा जोखा समझाता रहा. इस कार्य में 2 घंटे से भी अधिक समय बीत गया. कार्य पूरा होने तक रात्रि भोजन का समय भी हो चला था. ठाकुर साहब के आदेश पर मैं भी खाने में शामिल हो गया.

लगभग एक घंटे के बाद हम भोजन से फारिग हुए.

राधा जी अपने कमरे में सोने चली गयीं.

हवेली का एक मात्र नौकर सरजू भी....दिन भर का थका हारा होने की वजह से ठाकुर साहब से आग्या लेकर अपने रहने के स्थान पर सोने चला गया.

मोहन बाबू को ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बातें करनी थी इसलिए हम तीनो ही हॉल में पड़े सोफे पर बैठे रह गये.

"कहिए क्या कहना चाहते थे आप?" ठाकुर साहब मोहन बाबू की ओर देखकर बोले.

"

ठाकुर साहब, बात यह है कि मुझे कलकत्ता में एक काँच का मंदिर बनाने का काम मिला है. मैं इसी संबंध में आपसे बात करना चाहता था."



"ये तो बड़ी खुशी की बात है, किंतु ये बात आप हमें क्यों बता रहे हैं?"



"ठाकुर साहब असल बात यह है कि 15 दिन पहले कलकत्ता से उस मदिर के ट्रस्टी यहाँ आए थे. उन्होने इस काँच की हवेली को देखा और अब वे लोग मुझसे इसी रूप का कलकत्ता में एक भव्य मदिर बनवाना चाहते हैं."
 
"हरगिज़ नही." ठाकुर साहब तेज़ी से बोले - "कलकत्ता तो क्या....पूरे विश्व में ऐसी इमारत दूसरी नही बननी चाहिए."



"लेकिन इसमें हर्ज़ क्या है ठाकुर साहब?" मोहन बाबू आश्चर्य से ठाकुर साहब की तरफ देखते हुए बोले.

"वो इसलिए कि अगर ऐसी कोई दूसरी इमारत बनी तो इसका मोल कम हो जाएगा. और हमें ये मंज़ूर नही."

"लेकिन ये कैसे संभव है ठाकुर साहब? मैं एक कारीगर हूँ. मुझे जब भी कहीं किसी चीज़ के निर्माण का कार्य मिलेगा....मैं तो करूँगा ही. क्योंकि ये मेरा व्यवसाय है. मेरी कला है. मैं अपने हाथ नही रोक सकता." मोहन बाबू विरोध जताते हुए बोले.

"बात को समझने की कोशिश करो मोहन, ये हवेली हमारी और हमारी पत्नी राधा की यादगार है. हम इसकी दूसरी मिसाल हरगिज़ नही चाहते."



"ये हवेली आपका सपना होगा ठाकुर साहब, मेरा नही, मेरे सपने कुच्छ और हैं, मैं एक कारीगर हूँ और मुझे अवसर मिला तो मैं इससे भी उँचा उठकर अपना कला-कौशल दिखाना चाहूँगा. और ऐसा करने से आप मुझे नही रोक सकते."



"मोहन.......!" ठाकुर साहब झटके से खड़े होते हुए चीखे. - "हमारा नाम ठाकुर जगत सिंग है, हम क्या कर सकते हैं क्या नही, इसका तुम्हे अभी अंदाज़ा नही. व्यर्थ की ज़िद ना करो. मत भूलो कि तुम इस वक़्त मेरी छत के नीचे बैठे हो. तुम चाहो तो हम तुम्हे इतनी दौलत दे सकते हैं कि तुम्हारी कयि पीढ़ियों तक को काम करने की ज़रूरत महसूस ना होगी."



"व्यर्थ की ज़िद तो आप कर रहे हैं ठाकुर साहब, मैं काग़ज़ के चन्द टुकड़ों के लिए अपनी उमर भर की कला का सौदा नही कर सकता." मोहन बाबू भी तैस में आकर उठ खड़े हुए.



"तो फिर तुम जैसे लोगों से अपनी बात मनवाने के हमें और भी तरीके आते हैं."



"आप हमें धमकी दे रहे हैं?"



"नही....धमकी कमज़ोर लोग दिया करते हैं. हम तो चेतावनी दे रहे हैं. अगर तुमने हमारी बात नही मानी तो हम अपनी बात मनवाने के लिए कुच्छ भी कर सकते हैं."

"आप जो चाहें कर लीजिएगा. किंतु अब मैं यहाँ एक क्षण भी नही रुक सकता. मैं जा रहा हूँ" मोहन बाबू ठोस शब्दों में बोले और अपने कमरे की तरफ बढ़ गये.



ठाकुर साहब और मोहन बाबू की गरमा गर्मी से मेरा दिमाग़ काम करना बंद कर चुका था. मैं केवल मूक-दर्शक बना उनके बीच हो रहे तकरार को देख रहा था.



कुच्छ ही देर में मोहन बाबू अपना सामान हाथों में उठाए कमरे से बाहर निकले.

उन्हे देखकर ठाकुर साहब की आँखें सुलग उठी.

मोहन बाबू हॉल में आए अपना सामान नीचे रखकर ठाकुर साहब और मुझे नमस्ते किए. फिर अपना सामान उठाकर जाने को मुड़े.



"तुम ऐसे नही जा सकते मोहन?" ठाकुर साहब किसी ज़हरीले साँप की तरह फुफ्कार छोड़ते हुए बोले.



"मैं तो जा रहा हूँ ठाकुर साहब. और ये मेरा अंतिम निर्णय है."



"तो फिर हमारा भी अंतिम निर्णय सुन लो मोहन, अगर तुमने हवेली के बाहर कदम रखने की कोशिश भी की, तो हम तुम्हे गोली मार देंगे." ठाकुर साहब ये कहते हुए दीवार पर टाँग रखी बंदूक की तरफ बढ़ गये. उन्होने बंदूक उतारी और मोहन बाबू पर तान दी.



"ठाकुर साहब, आप बंदूक की ज़ोर दिखा कर मुझे डरा नही सकते. मेरा फ़ैसला अटल है." मोहन बाबू ठाकुर साहब की धमकियों की परवाह ना करते हुए बोले. फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ गये.



"रुक जाओ मोहन....!" ठाकुर साहब ज़ोर से दहाड़े.



किंतु मोहन बाबू उनकी बातों को अनसुना करते हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ते रहे.

ठाकुर साहब की आँखों में खून उतर आया. उन्होने बंदूक संभाली. मेरी धड़कने बढ़ चली. बात यहाँ तक बढ़ जाएगी मैने सोचा ना था. किंतु इससे पहले कि मैं कुच्छ कर पाता "ढायं" की आवाज़ के साथ ठाकुर साहब के बंदूक से एक गोली चली. निशाना था मोहन बाबू की पीठ. गोली उनके पीठ पर अंदर तक धसती चली गयी. मोहन बाबू एक चीख के साथ लहराए और फर्श पर गिरते चले गये. उनके हाथ में थमा सूटकेस इधर उधर बिखर गया.

मैं फटी फटी आँखों से मोहन बाबू को ज़मीन पर तड़प्ते हुए देखने लगा. अभी मैं उस सदमे से बाहर भी नही निकल पाया था कि एक ज़ोरदार चीख से मेरा ध्यान टूटा. मैने आवाज़ की दिशा में देखा. राधा जी सीढ़ियों के पास खड़ी फटी फटी आँखों से खून से लथपथ मोहन बाबू की ओर देखे जा रही थी.



"र.......राधा.....!" ठाकुर साहब के मूह से घुटि घुटि सी चीख निकली.



राधा जी तेज़ी से सीढ़ियाँ उतरती हुई मोहन बाबू के पास आईं.



"म.........मोहन जी !" राधा जी मोहन बाबू के घायल शरीर को देखती हुई बोली - "ये सब कैसे हो गया मोहन जी?"



मोहन बाबू पीड़ा भरी सूरत लिए राधा जी को देखने लगे. राधा जी को देखते ही उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े. वे टूटते हुए शब्दों में राधा जी से बोले - "म....माफ़फ.....कीजिए.......राधा जी, मैने.....आपसे.....ग़लत.....कहा.....था....कि, आपके......पति......देवता......हैं.......वे......द.......देवता.......नही.......हैं."



"मोहन जी, आपको कुच्छ नही होगा मोहन जी. मैं अभी डॉक्टर को बुलाती हूँ." राधा जी, मोहन जी की हालत पर बिलखती हुई बोली.



"म.....मेरा.......वक़्त.....पूरा.......हो........चुका.....है.......राधा जी......हो.......सके.....तो......मेरी.......पत्नी......को......इसकी......सूचना.......दे......दीजिएगा." ये अंतिम शब्द कह कर मोहन जी हमेशा के लिए खामोश हो गये.



राधा जी पत्थेर की मूरती बनी मोहन बाबू की लाश को घुरती बैठी रहीं.

ठाकुर साहब राधा जी को यूँ मोहन बाबू के लाश के पास बैठा देख घबरा गये. वे राधा जी के पास गये. फिर उन्हे कंधे से हिलाकर बोले - "राधा, तुम्हे क्या हो गया है राधा? तुम्हे इस हालत में यहाँ नही आना चाहिए था. चलो तुम्हे कमरे तक छोड़ आते हैं."



राधा जी एक झटके से उठी. फिर विक्षिप्त नज़रों से ठाकुर साहब की तरफ देखती हुई बोली - "आपने सुना......मोहन जी क्या कह रहे थे?......मेरे पति देवता नही हैं."



"रधाआअ.......! ये तुम्हे क्या हो गया है राधा?" ठाकुर साहब राधा जी की हालत पर घबराकर बोले - "हमारा बिसवास करो राधा, हम इसकी जान नही लेना चाहते थे."



जवाब में राधा जी पीड़ा भरी नज़रों से ठाकुर साहब को देखने लगी, उनकी आँखों में उस वक़्त ऐसी पीड़ा व्याप्त थी कि जिस पर नज़र पड़ते ही ठाकुर साहब अंदर से सहम गये.



"राधा.......होश में आओ राधा." ठाकुर साहब राधा जी को झंझोड़ते हुए बोले.



"मेरे पति देवता नही हैं. उन्होने निर्दोष मोहन का खून कर दिया." राधा जी बड़बड़ाई.

राधा जी की मानसिक स्थिति बिगड़ चुकी थी. बार बार एक ही शब्द दोहरा रहीं थी. "मेरे पति देवता नही हैं."

राधा जी इसी शब्द को बार बार दोहराते दोहराते अचानक ही हँसने लगी.

ठाकुर साहब पागलों की तरह राधा जी के तरफ देखने लगे.

राधा जी क़ी हँसी तेज़ होती चली गयी. और फिर ठहाकों में तब्दील हो गयी.

मैं हैरान-परेशान सा कभी मोहन बाबू की लाश को देख रहा था तो कभी पागलों की तरह ठहाके लगाती राधा जी को.

मोहन बाबू की दुखद मृत्यु ने राधा जी को पागल कर दिया. पाप ठाकुर साहब ने किया था...किंतु उसकी सज़ा पिच्छले 20 सालों से देवी समान राधा जी को भुगतनी पड़ रही है.
 
उस हादसे से मैं इस क़दर सुन्न पड़ा हुआ था कि मुझे कुच्छ भी होश नही था. मैं पत्थेर की मूरत बना पूरे घटनाक्रम को समझने की कोशिश कर रहा था. मैं कभी राधा जी के बारे में सोचने लगता तो कभी मोहन बाबू के बारे में. ज़हन पर शाम के वक़्त की वो बातें जो मोहन बाबू और राधा जी के बीच हुई थी, मुझे रह रह कर याद आ रही थी.

कितने खुश थे शाम को ये सोचकर की दो दिन बाद वे अपने घर लौटेंगे और आप लोगों से मिल सकेंगे. रात खाने के वक़्त भी उनके चेहरे पर वही खुशी विराजमान थी. उन्हे तनिक भी इसका अंदाज़ा नही था कि आज की रात उनकी ज़िंदगी की आखरी रात हो सकती है. जो आँखें अपने परिवार को देखने की खुशी में चमक उठी थी. कौन जानता था कि वोही आँखें कुच्छ देर में सदा के लिए बंद होने वाली है.


सोचा तो मैने भी नही था कि पल में इतना सब कुच्छ हो जाएगा. किंतु अनहोनी तो हो चुकी थी. कुच्छ देर पहले के जीते जागते मोहन बाबू अब मेरे सामने लाश में तब्दील हुए पड़े थे

ठाकुर साहब बदहावाश राधा जी को संभालने में लगे हुए थे. राधा जी थोड़ी शांत हुई तो ठाकुर साहब उन्हे उठाकर अपने कमरे में ले गये. फिर हॉल में उस जगह पर आए जहाँ मोहन बाबू का निर्जीव शरीर पड़ा था.

"इस लाश को ठिकाने लगाना होगा दीवान जी. वो भी रातों रात....अगर इस खून की भनक भी किसी को हो गयी तो हम ज़िंदगी भर जैल की हवा खाते रहेंगे."

"जी मालिक..." मेरे मूह से मुश्किल से निकला. मैं आगे की आग्या के लिए ठाकुर साहब की सूरत देखने लगा.

"इसे स्टोर रूम में लिए चलते हैं. वहाँ का फर्श अभी कच्चा है. वहीं खड्‍डा खोद कर इसे दफ़न कर देंगे." ठाकुर साहब मेरी और देखकर बोले.

मेरी गर्दन अपने आप हां में हिलने लगी.

"दीवान जी, इस रहस्य को आप अपने तक ही सीमित रखिएगा. अन्यथा हमारे साथ आप भी लपेटे में आ जाएँगे." ठाकुर साहब ने मुझे चेतावनी दी.

मेरी गर्दन फिर से हां में हिली.

मेरी स्वीकृति मिलते ही ठाकुर साहब मोहन बाबू के शरीर को सर के तरफ से पकड़ कर उठा लिए.....फिर मेरी ओर देखकर आँखों की भाषा में लाश उठाने का संकेत किए. मैं हरकत में आया. मैं मोहन बाबू के पावं के तरफ आया और उनके टाँगो को पकड़कर उठा लिया.

मोहन बाबू की लाश को उठाए हम धीरे धीरे स्टोर रूम की तरफ बढ़ते चले गये.

स्टोर रूम में पहुँचकर हम ने लाश को नीचे रखा. फिर गड्ढा खोदने के लिए औज़ार ढूँढने लगे. पास ही एक कोने में मजदूरों का सामान पड़ा था. मैने ज़मीन खोदने के लिए गैन्ति (पिक) और ठाकुर साहब ने कुदाल (स्पेड) उठा लिए.

मैने काँच के बने फर्श को एक नज़र देखा फिर अपनी शक्ति का भरपूर प्रयोग करते हुए गैन्ति को फर्श पर मारने लगा.

"थक्क....थककक...." करती गांटी की आवाज़....रात के सन्नाटे को चीरती हुई पूरी हवेली में गूँजती जा रही थी. आवाज़ बाहर ना जाए इसके लिए हम ने हवेली के सारे खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए थे.

मैं पसीने से लथ-पथ गैन्ति चलाए जा रहा था. गैन्ति की आवाज़ के साथ साथ कभी कभी राधा जी की चीख और ज़ोर के ठहाकों से भी हवेली गूँज उठती थी.

जब कभी उनकी चीख या ठहाके हमारे कानों से टकराते तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते. किंतु हम उसकी परवाह किए बिना अपना काम करते रहे. मैं ज़मीन खोदता रहा और ठाकुर साहब मिट्टी उठाते रहे. लगभग 3 घंटे की अथक मेहनत के बाद हम ने इतना गड्ढा खोद लिया था कि हम मोहन बाबू की लाश को दफ़ना सकें.

मोहन बाबू की लाश को दफ़नाने के बाद हम वापस हॉल में आए और हॉल में फैले मोहन बाबू के खून को सॉफ करने लगे. कुच्छ ही देर में हम ने वो काम भी पूरा कर लिए था. इस पूरी प्रक्रिया में मेरी जो हालत थी वो मैं ही जानता था.

मोहन बाबू के खून के सारे सबूत मिटाने के बाद मैं अपने घर आ गया.
 
मोहन बाबू के शरीर के साथ साथ उनकी मौत का रहस्य भी सदा के लिए हवेली के नीचे दबकर रह गया. किसी को ज़रा भी भनक नही लगी कि रात हवेली में क्या हुआ. गाओं का कोई भी इंसान ये नही जान पाया कि हवेली में कितने कारीगर काम करने के लिए आए थे और कितने लौटकर गये. गाओं वालों को ना तो कारीगरों के काम से कोई मतलब था ना उनके नाम और पते से. हां....पर एक नयी खबर जो गाओं वालों के कानो तक पहुँची वो थी राधा देवी के पागल होने की. कोई नही जान पाया कि एक दिन पहले हवेली में आई राधा जी को अचानक रातों रात क्या हो गया कि वो पागल हो गयी?

लोग हैरान हुए परेशान हुए. ठाकुर साहब के दुख का अनुभव करके दुखी भी हुए पर कोई ये नही जान पाया कि ये सब हुआ कैसे? लोगों को इसका जवाब या तो मैं दे सकता था या फिर ठाकुर साहब."

अपनी बात पूरी करके दीवान जी ने कमला जी की तरफ देखा.

कमला जी की आँखों से आँसुओं की बाढ़ बह निकली थी. जो रुकने का नाम ही नही ले रही थी.

कमला जी को रोता देख दीवान जी अपनी सफलता पर मन ही मन मुस्कुराए.

"बेहन जी.....हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा." दीवान जी शोक प्रकट करते हुए बोले - "उस वक़्त मैं विवश था. ठाकुर साहब की मदद करना मेरी मजबूरी बन गयी थी. मेरी पत्नी हॉस्पिटल में थी. मुझे रुपयों की सख़्त ज़रूरत थी. उनकी मदद करने के अलावा मेरे पास और कोई चारा ना था. अगर मैं अपनी स्थिति को भूलकर उनका विरोध करता भी तो सिवाए मुझे नुकसान के कुच्छ ना मिलता. ठाकुर साहब अपने बचाव के लिए कुच्छ भी कर सकते थे. वो मेरी जान भी ले सकते थे. मैं उनके हर आदेश पालन के लिए पूरी तरह से मजबूर था. उन्होने जो भी कहा बिना अधिक सोचे मैं करता चला गया."

"मुझे आपसे कोई शिकायत नही है दीवान जी. उल्टे आपका आभार मानती हूँ कि आपने इस रहस्य को मेरे सामने खोला. वरना मैं सारी ज़िंदगी यही सोचती रहती कि मेरे पति काम पर गये हैं और एक दिन ज़रूर लौटकर आएँगे." कमला जी की रुलाई फुट पड़ी थी.

कमला जी को रोते देख दीवान जी के होंठों में मुस्कुराहट तैर गयी. उनकी ये चाल कारगर होती नज़र आ रही थी.

"लेकिन मैं ठाकुर साहब को माफ़ नही करूँगी दीवान जी." कमला जी अपने आँसुओं को पोछ्ती हुई आगे बोली - "वो समझते हैं इतना बड़ा अपराध करके भी वो बच जाएँगे तो ये उनकी भूल है. मैं उन्हे जैल की हवा खिलाकर रहूंगी."

"नही बेहन जी, आप क़ानूनन उनका कुच्छ नही बिगाड़ सकती." दीवान जी उन्हे टोकते हुए बोले - "बात बहुत पुरानी हो चुकी है, अब तो मोहन बाबू के अवशेष भी मिट्टी में मिल गये होंगे. हम उन्हे मुज़रिम साबित नही कर सकते."

"तो क्या आप चाहते हैं मैं उन्हे अपने पति का खून माफ़ कर दूँ." कमला जी सवालिया नज़रों से दीवान जी को देखती हुई बोली.

"हरगिज़ नही...." दीवान जी तपाक से बोले - "उनका अपराध क्षमा के लायक ही नही है. उन्हे सज़ा ज़रूर दीजिए.....पर ऐसी सज़ा जो मौत से भी बदतर हो."

"तो आप बताइए दीवान जी, जो आप कहेंगे मैं वोही करूँगी. किंतु उन्हे माफ़ नही करूँगी." कमला जी अपने जबड़े भिच कर बोली.

"उनकी सबसे बड़ी सज़ा ये होगी कि आप कंचन को अपनी बहू बनाने से इनकार कर दें. उनकी आधी ज़िंदगी तो राधा जी के दुख में रोते गुज़री है, शेष आधी ज़िंदगी अब बेटी के दुख में रोते हुए गुज़रेगी." दीवान जी कुटिलता के साथ मुस्कुराते हुए बोले.

"कंचन को अपनी बहू बनाने के बारे में तो अब मैं सोच भी नही सकती. जिसके बाप ने मेरे माँग का सिंदूर उजाड़ा है मैं अपने बेटे के हाथों उसकी माँग भराई कैसे करवा सकती हूँ. अब वो कभी मेरे घर की बहू नही बन सकती. कभी भी नही...." कमला जी ढृढ शब्दों में बोली.

कमला जी के अंतिम शब्द सुनकर दीवान जी गदगद हो उठे. उनका छोड़ा हुआ तीर निशाने पर लग चुका था.

"कमला जी वैसे तो मैं बहुत साधारण आदमी हूँ, पर फिर भी जब कभी आपको मेरी मदद की ज़रूरत हो मुझे ज़रूर याद कीजिएगा. मेरे घर के दरवाज़े आपके लिए हमेशा खुले रहेंगे." दीवान जी दबे शब्दों में कमला जी को अपने घर आने का निमंत्रण दे गये.

"आपका एहसान होगा हम पर दीवान जी. वैसे भी इस गाओं में आपके सिवा हमारा कोई नही."

"आप जाइए बेहन जी और रवि बाबू को लेकर आइए. आज से ये घर आप ही का घर है." दीवान जी कमला जी से बोले.

कमला जी दीवान जी को धन्यवाद कहती हुई उठी और दीवान जी के घर से बाहर निकल गयी.

उनके जाते ही दीवान जी अपनी पत्नी रुक्मणी से बोले. - "अब मेरा बदला पूरा हुआ रुक्मणी. तुमने ये तो सुना होगा कि लोग एक तीर से दो निशाने भी करते हैं, लेकिन आज मैने एक तीर से तीन निशाने किए हैं. तीन..."

रुक्मणी दीवान जी की सूरत देखती रही, किंतु उनकी बातों का अर्थ नही जान पाई.

"नही समझी... .." दीवान जी रुक्मणी को आश्चर्य से देखते हुए बोले - "आज कमला जी को उनके पति की मौत का रहस्य बताकर मुझे तीन फ़ायदे हुए हैं. पहला ये कि कमला जी का बिस्वास जीत लिया. दूसरा ये कि रवि से कंचन को हमेशा के लिए अलग कर दिया. और तीसरा फ़ायदा...." दीवान जी हौले से मुस्कुराए - "तीसरा फ़ायदा ये हुआ कि उस नमक हराम सुगना से निक्की की बर्बादी का बदला ले लिया. कंचन से जितना ठाकुर साहब को प्रेम ना होगा उससे कयि गुना अधिक सुगना को उससे प्रेम है. अब उसे पता चलेगा कि खुद की जान से प्यारी किसी चीज़ को जब तकलीफ़ होती है तब खुद के दिल पर क्या गुज़रती है. मैने उसे ऐसा घाव दिया है कि अब वो सारी उमर सिवाए सिसकने, तड़पने और फड़फड़ाने के अतिरिक्त कुच्छ भी ना कर पाएगा."
 
कमला जी हवेली में दाखिल हुई. हॉल में ठाकुर साहब, कंचन और रवि बैठे हुए चाइ पी रहे थे. ठाकुर साहब पर नज़र पड़ते ही कमला जी का चेहरा सख़्त हो गया. नफ़रत की एक चिंगारी उनके पूरे बदन में दौड़ गयी.

ठाकुर साहब ने जैसे ही कमला जी को हॉल में आते देखा सोफे से खड़े होकर उन्हे नमस्ते किए.

किंतु कमला जी ठाकुर साहब के नमस्ते का उत्तर दिए बिना मूह मोड़ कर अपने कमरे की ओर बढ़ गयीं.

ठाकुर साहब भौचक्के से कमला जी को जाते हुए देखते रहे. कमला जी के इस व्यवहार पर उन्हे बेहद हैरानी हुई. उन्हे ये समझ में नही आया कि अचानक कमला जी को क्या हो गया.

यही दशा कंचन और रवि की थी.

कंचन तो घबराहट के मारे सिकुड सी गयी थी. वो सदा ही कमला जी से भयभीत रहती थी.

किंतु रवि अपनी मा के इस रूखे व्याहार का कारण जानने उनके पिछे पिछे उनके कमरे तक जा पहुँचा.

"क्या बात है मा?" रवि ने रूम के अंदर कदम रखते ही कमला जी से पुछा - "आप ठाकुर साहब के नमस्ते का उत्तर दिए बिना ही उपर आ गयीं. क्या उनसे कोई भूल हो गयी है जो आपने उनका इस तरह से अपमान किया?"

"मान-अपमान जैसा शब्द उस ठाकुर के लिए नही है रवि, जिसके पहलू में तुम बैठे थे. ये तो वो इंसान है जिसका बस चले तो अपनी झूठी शान कायम रखने के लिए अपनी बीवी और बेटी की भी बलि दे दे."

"क्या कह रही हो मा?" रवि ने धीरे से किंतु आश्चर्य से कमला जी को देखते हुए कहा.

"रवि तू बचपन से ही अपने पिता के बारे में पुछ्ता था ना कि वो कहाँ गये हैं? क्यों तुमसे मिलने नही आते? और मैं तुम्हे झूठी दिलासा दिया करती थी. मैं खुद भी बरसों से झूठी आस के सहारे जी रही थी. सालों से मेरा मन कह रहा था कि तुम्हारे पिता के साथ कुच्छ तो अनहोनी हुई है. पर मैं कभी मायूस नही हुई और उनका इंतेज़ार करती रही. लेकिन आज 20 साल बाद ये पता चला कि वे लौटकर क्यों नही आए."

"क्या.....तो क्या पीताजी का पता चल गया मा? कहाँ हैं पीताजी और इतने बरसों तक वे लौटकर क्यों नही आए?" रवि उत्सुकता से अपनी मा के चेहरे को देखता हुआ बोला. उसके मन में अपने पिता के बारे में जानने की जिग्यासा बचपन से थी और इस वक़्त तो वो दीवाना हुआ जा रहा था.

कमला जी रवि की बेताबी देखकर कराह उठी. वो भीगी पलकों से रवि को देखने लगी.

"जवाब दो मा....कुच्छ तो बताओ." रवि मा को खामोश देखकर दोबारा पुछा.

"वे इस लिए लौटकर नही आ सके रवि....क्योंकि 20 साल पहले ही ठाकुर साहब ने उनका क़त्ल कर दिया था."

"क.....क्या?" रवि फटी फटी आँखों से मा को देखने लगा. उसने जो कुच्छ सुना उसपर यकीन करना उसे मुश्किल हो रहा था - "क्या कह रही हो मा? पीताजी का खून हो गया है...वो भी ठाकुर साहब के हाथों....?"

"हां रवि, यही सच है." जवाब में कमला जी ने दीवान जी के मूह से सुनी सारी बातें रवि के सामने दोहरा दी.

अपने पिता का हश्र जानकार रवि का खून खौल उठा. गुस्सा ऐसा सवार हुआ की उसका दिल चाहा अभी वो जाकर ठाकुर साहब का गला दबा दे. लेकिन कमला जी के समझाने पर वो रुक गया.

कमला जी अपना पति खो चुकी थी पर बेटा नही खोना चाहती थी. अपने घर से इतनी दूर अकेले ठाकुर साहब से भिड़ना उनके लिए ख़तरनाक हो सकता था.

"अब हम इस घर में नही रहेंगे रवि. जिस घर की दीवारों पर मेरे पति के खून के छींटे पड़े हों, उस घर की हवा भी मेरे लिए ज़हर है. हम आज ही अपने घर लौट चलेंगे."

रवि कुच्छ ना बोला. वो कोई निर्णय लेने के पक्ष में नही था और ना ही कमला जी की बात काटने का उसमे साहस था.

कमला जी आनम फानन अपना सामान पॅक करने लगी. उनको सामान पॅक करते देख रवि भी अपने कपड़े और दूसरी चीज़ें अपने सूटकेस में भरने लगा.

लगभग 20 मिनिट बाद दोनो अपना सामान उठाए कमरे से बाहर निकले.

हॉल में अभी भी कंचन और ठाकुर साहब बैठे हुए थे. वे दोनो अभी भी इसी बात पर विचार-मग्न थे कि कमला जी को क्या हुआ है. उनका व्यवहार अचानक से क्यों बदल गया है.

कंचन तो चिंता से सूख सी गयी थी. वो हमेशा ही कमला जी से डारी सहमी रहती थी. ना जाने वो किस बात पर भड़क जाएँ. हमेशा यही प्रयास करती थी कि उससे ऐसी कोई भूल ना हो जिससे कमला जी नाराज़ हो जाएँ. किंतु आज जब कमला जी का रूखा व्यवहार देखा तो सोच में पड़ गयी. कमला जी से उसकी आखरी मुलाक़ात रात को हुई थी. तब से लेकर अब तक की सारी बातें याद करने लगी और ये जानने की कोशिश करने लगी की उससे कब और कहाँ कौन सी भूल हुई. पर लाख सोचने पर भी उसे अपनी ग़लती नज़र नही आई.

कंचन अभी इन्ही सोचो में गुम थी कि उसे कमला जी और रवि सीढ़ियाँ उतरते दिखाई दिए. उनके हाथ में थामे सूटकेस पर जब उसकी नज़र गयी तो उसके होश उड़ गये. उसका दिल किसी अनहोनी की कल्पना करके ज़ोरों से धड़क उठा.

ठाकुर साहब की भी हालत कुच्छ अच्छी नही थी. कमला जी और रवि को सीढ़ियाँ उतरते देख उनके चेहरे का रंग भी उड़ चुका था. वो विष्मित नज़रों से दोनो को सीढ़ियाँ उतरते देखते रहे.

जैसे ही दोनो सीढ़ियाँ उतरकर हाल में आए - ठाकुर साहब लपक कर उनके पास गये. - "बेहन जी ये सब....? आप लोग इस वक़्त कहाँ जा रहे हैं?"

ठाकुर साहब के पुछ्ने पर कमला जी के दिल में आया कि जितना भी उनके अंदर ज़हर है वो सब उनपर उगल दे. पर सिर्फ़ खून के घूट पीकर रह गयी. गुस्से की अधिकता में उनसे इतना ना बोला गया. दो टुक शब्दों में उन्होने जवाब दिया - "हम हवेली छ्चोड़कर जा रहे हैं. अब हम यहाँ नही रह सकते."

"क...क्या? लेकिन क्यों? क्या हम से कोई भूल हुई है?"

"क्या आप सच में नही जानते कि आपसे क्या भूल हुई है?" कमला जी तीखे बान छोड़ती हुई बोली. - "आपने जो किया है उसे भूल कहना भी भूल का अपमान होगा ठाकुर साहब, आपने तो पाप किया है....पाप."

ठाकुर साहब का सर चकरा गया. उनके समझ में नही आया कि कमला जी किस पाप की बात कर रहीं है. उनसे रातों रात ऐसा कौन सा पाप हो गया है जिसके लिए कमला जी हवेली छोड़ कर जा रही हैं. जब कुच्छ भी समझ में नही आया तो उन्होने पुछा - "मैं सच में नही समझ पा रहा हूँ बेहन जी आप क्या कह रही हैं?"

"मोहन कुमार याद है आपको?"

"म......मोहन कुमार....?" ठाकुर साहब बुरी तरह से चौंके. वे हकलाते हुए बोले - "आ.....आप किस मोहन कुमार की बात कर रही हैं?"

"मैं उसी मोहन कुमार कारीगर की बात कर रही हूँ जिसे आप लोगों ने हवेली में काँच की कारीगरी के लिए बुलवाया था. मैं उसी मोहन कुमार की बात कर रही हूँ जिसके पीठ पर आपने इसलिए गोली मारी थी ताकि वो फिर से ऐसी भव्य हवेली का निर्माण ना कर सके."

"आ....आप..." ठाकुर साहब की ज़ुबान लड़खड़ा कर रह गयी. मूह से आगे एक भी बोल ना फूटे. उन्हे ऐसा महसूस हुआ जैसे हवेली की पूरी छत उनके सर पर आ गिरी हो.

"हां मैं उसी मोहन कुमार की विधवा हूँ."

ठाकुर साहब मूह फेड कमला जी को देखते रह गये.

कंचन भी अवाक थी. कमला जी की बात सुनकर उसे गहरा धक्का लगा था. उसने सपने में भी नही सोचा था कि उनके पिता ठाकुर जगत सिंग जिन्हे पूरा गाओं देवता समझता है उनके हाथ किसी के खून से रंगे हो सकते हैं.

इस रहस्योदघाटन से कंचन सकते में आ गयी थी. ठाकुर साहब के उपर जो पहाड़ टूटा था उससे भी कहीं बड़ा पहाड़ कंचन पर टूटा था. सॉफ शब्दों में कहें तो उसकी पूरी दुनिया ही लूट चुकी थी.

इस विचार के आते ही कि अब वो सदा के लिए रवि को खो चुकी है. कमला जी अब उसे किसी भी कीमत पर अपनी बहू स्वीकार नही करेंगी, वो सूखे पत्ते की तरह काँप उठी थी. उसकी हालत इस वक़्त ऐसी थी कि वो रवि से गुहार करना तो दूर उससे नज़र भी नही मिला पा रही थी. वो बस अंदर ही अंदर अपनी बाद-किस्मती पर सिसक रही थी.

उसने फिर भी साहस करके रवि को देखा. रवि की नज़रें भी कंचन पर ही टिकी हुई थी. किंतु कंचन से नज़र टकराते ही उसने अपना मूह फेर लिया.

कंचन की आँखें भर आई.

ठाकुर साहब के पास कहने के लिए कुच्छ था ही नही. और कुच्छ था भी तो कमला जी से कहने का साहस नही कर पा रहे थे. वो पत्थर की मूरत में तब्दील हो चुके थे.

उन्हे जब होश आया कमला जी और रवि हवेली से बाहर निकल चुके थे. ठाकुर साहब पलटकर कंचन को देखने लगे. कंचन की आँखों में आँसू थे. कंचन को रोता देख उनके दिल पर आरी सी चल गयी. किंतु इससे पहले की वो कंचन के सम्मुख दिलासा के दो बोल भी बोल पाते....कंचन मूडी और अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी. ठाकुर साहब का सिर अपराध से झुक गया. वे निढाल होकर सोफे पर पसर गये.

*****
 
कमला जी और रवि जैसे ही हवेली से बाहर निकले दीवान जी भागते हुए उनके पास आए.

"सामान मुझे दीजिए बेहन जी. मैं लिए चलता हूँ. मेरा घर आपके होने से पवित्र हो जाएगा." दीवान जी खुशी से आँखें चमकाते हुए बोले और कमला जी से सूटकेस लेने लगे.

"हम अपने घर जाना चाहते हैं दीवान जी. अब हम इस गाओं में नही रुकेंगे."

कमला जी की बात सुनकर दीवान जी के होश उड़ गये. उन्हे अपनी योजना असफल होती नज़र आई. वे तुरंत बात बनाकर बोले - "ऐसा ना कहिए बेहन जी, कुच्छ दिन हमारे घर रुक जाइए. हमें अपनी सेवा का मौक़ा दें. मोहन बाबू को यहाँ लाने वाला मैं ही था. मुझे भी प्रयशचित का मौक़ा दीजिए. कम से कम 2 दिन के लिए ही सही पर इनकार मत कीजिए."

कमला जी रवि को देखने लगी.

रवि के लिए जैसे ठाकुर साहब थे वैसे ही दीवान जी. उसे ना तो ठाकुर साहब की सूरत पसंद थी और ना ही दीवान जी की. पर मरता क्या नही करता. ना जाने क्यों उसका मन भी यही चाह रहा था कि वो अभी गाओं छोड़ कर ना जाए. कोई तो बंधन था जो उसे रोक रहा था. उसने सहमति में सर हिलाते हुए कहा - "दीवान जी ठीक कह रहे हैं मा. हमें कुछ दिन रुकना चाहिए."

कमला जी का मन विचलित था. पर ना ना करके भी वो दिन के लिए रुकने को राज़ी हो गयीं.

उनकी हां देखकर दीवान जी का चेहरा खिल गया. उन्होने कमला जी का सामान उठाया और अपने घर की तरफ बढ़ गये. रवि और कमला जी भी उनका पद-अनुसरण करते हुए उनके पिछे चल पड़े.

दीवान जी उन्हे उनके कमरे तक ले गये. रवि काफ़ी देर तक कमला जी के साथ बैठा उन्हे दिलासा देता रहा. कमला जी ने लंच भी नही किया. कुच्छ देर बाद थकान ने उन्हे आ घेरा और वो बिस्तर पर आराम की ग़र्ज़ से लेट गयीं. उन्हे आराम करता देख रवि भी अपने कमरे में चला आया.

रवि बिस्तर पर लेटा कंचन के बारे में सोच रहा था. हवेली से निकलते वक़्त उसका मुरझाया हुआ सूरत बार बार आँखों के आगे आ रहा था. उसने सोचा - "इसमे कंचन का क्या दोष....उसने तो कुच्छ भी नही किया. वो तो सुगना के घर पली बढ़ी है. हवेली के हर पाप और मक्कारी-फरेब से दूर रही है. फिर मैं उसे किस बात की सज़ा दे रहा हूँ. अगर उसका गुनाह इतना है कि वो ठाकुर जैसे खूनी की बेटी है तो मुझे ये भी नही भूलना चाहिए कि उसे जन्म देने वाली औरत राधा जैसी देवी है."

राधा जी की याद आते ही उसकी सोच का दायरा घुमा. "राधा जी, उनका इलाज भी तो अधूरा है, उन्हे किस भरोसे छोड़ कर जाउन्गा? क्या डॉक्टर होने का कर्तव्य यही है? नही... उन्हे इस वक़्त मेरे साथ की मेरे इलाज़ की ज़रूरत है, ऐसी हालत में मैं उन्हे छोड़ कर नही जा सकता. मुझे इस संबंध में मा से बात करनी होगी."

रवि उठा और मा के कमरे में दाखिल हुआ.

कमला जी सो चुकी थी. रवि उनके पायतने बैठा उनके जागने का इंतेज़ार करने लगा.

काफ़ी देर बाद कमला जी की आँख खुली.

"कैसी हो मा?" उन्हे जागता देख रवि बोला - "मा मैं आपसे कुच्छ बात करना चाहता हूँ."

"हां बोलो...." कमला जी उठकर बैठी हुई बोली.

"मा, मैं कुछ दिन और यहाँ रहने की बात कर रहा था."

"क्यों....क्या कंचन का भूत अभी तक तुम्हारे दिमाग़ से उतरा नही है?"

"इसमे उसका क्या दोष है मा? उसने तो कुच्छ नही किया. वो तो गाओं में पली बढ़ी एक ग़रीब लड़की है. उसका हवेली वालों से कोई लेना देना नही. फिर उसे इस बात की सज़ा क्यों दे मा?"

"बस कर रवि." कमला जी आँखें तरेर कर बोली - "फिर कभी अपनी ज़ुबान पर उस लड़की का नाम भी मत लाना, अगर मैं उसे अपने घर ले आई तो वो लड़की ज़िंदगी भर मेरी छाती में शूल की तरह चुभती रहेगी. वो उस हत्यारे की बेटी है जिसने मेरी माँग का सिंदूर उजाड़ा. मुझे उसके साए से भी नफ़रत है."

"और राधा जी. क्या उनसे भी इतनी ही नफ़रत है. जिन्हे पिताजी की मौत ने इतना दुखी किया कि वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठी. जो पिच्छले 20 सालों से बंद कोठरी में पड़ी ना तो जी रही हैं ना मर रही हैं. क्या उनके बारे में भी ऐसे ही विचार हैं आपके?"

कमला जी चूप हो गयी. राधा जी की याद आते ही उनका गुस्सा पल में गायब हो गया. - "उस देवी से मुझे भी हमदर्दी है...पर बेटा...!"

"मा....राधा जी के बारे में सोचो मा. बिना कोई अपराध किए उनका पूरा जीवन बंद कोठरी में बीत गया. क्या आप चाहती हैं कि निर्दोष होते हुए भी वो इसी तरह एक दिन मर जाएँ? मा मैं जब कभी उनके कमरे में जाता था उनकी आँखों में एक अज़ीब सी पीड़ा का अनुभव करता था. किंतु जैसे ही उनकी नज़र मुझपर पड़ती उनके सूखे चेहरे पर खुशी दौड़ जाती थी. जाने क्या बात थी पर उन्हे देखकर मुझे तुम्हारी याद आ जाती थी. उनका मेरे सिवा कोई नही है मा. कम से कम एक डॉक्टर होने के नाते मैं उन्हे मरते हुए नही छोड़ सकता."

"ठीक है रवि, तुम उनका इलाज़ करो, जब तक वो ठीक नही हो जाती. हम इसी गाओं में रहेंगे." कमला जी भावुक होकर बोली.

"थॅंक यू मा." रवि उन्हे अपनी छाती से लगाते हुए बोला.

"लेकिन कंचन के बारे में मेरा फ़ैसला अभी भी वोही है. मैं उसे अपने घर की बहू कभी नही बनाउंगी."

कमला जी के इस बात पर रवि ने चुप्पी साध लेना ही बेहतर समझा.
 
शाम के 5 बजे थे. कंचन अपने कमरे में चिंता-मग्न बैठी थी. चिंटू टीवी का साउंड उँचा किए टीवी देखने में मशगूल था.

कंचन के मस्तिष्क पर आज दिन की घटना का चलचित्र चल रहा था. कमला जी के मूह से ये सुन लेने के पश्चात कि उसके पिता ने 20 साल पहले रवि के पिता की हत्या की थी. उसका कोमल दिल आहत हो चुका था. उसके पिता हत्यारे हैं, सिर्फ़ इसलिए कि ऐसी हवेली दोबारा ना बने, उन्होने रवि के निर्दोष पिता का खून कर दिया. ये एहसास उसे अंदर से कचोटे जा रहे थे. उसे तेज़ घुटन सी महसूस होने लगी थी.

"अब मैं यहाँ नही रहूंगी." वो मन ही मन बोली - "पता नही साहेब के दिल पर क्या गुज़र रही होगी. क्या सोचते होंगे वो मेरे बारे में.....यही ना कि मैं कितनी संगदिल हूँ जिस घर में उनके पिता का खून बहा है मैं उसी घर में मज़े से रह रही हूँ. नही.....अब मैं यहाँ नही रह सकती. मैं अभी चली जाती हूँ."

कंचन ने अपने विचारों को विराम दिया और चिंटू को देखा. चिंटू टीवी पर नज़रे जमाए बैठा था.

"चिंटू..." कंचन ने उसे पुकारा. किंतु चिंटू के कानो में ज़ू तक नही रेंगी. कंचन ने दोबारा पुकारा. पर इस बार भी चिंटू का ध्यान नही टूटा. कंचन गुस्से से उठी और उसके हाथ से रिमोट छीन्कर टीवी बंद कर दी.

चिंटू मूह फूला कर बोला - "दीदी टीवी देखने दो ना. कितनी अच्छी पिक्चर आ रही थी."

"नही, अब चलो यहाँ से. हम बस्ती जा रहे हैं. अब हम यहाँ नही रहेंगे." कंचन चिंटू के रूठने की परवाह किए बिना उसका हाथ पकड़ कर उसे खींचती हुई कमरे से बाहर निकल गयी.

हॉल में मंटू दिखाई दिया. कंचन मंटू से ये कहकर कि वो बस्ती जा रही है, हवेली से बाहर निकल गयी.

हवेली से निकलकर बस्ती की ओर जाते हुए चिंटू की नज़रें बार बार हवेली की तरफ मूड रही थी. उसे हवेली छूटने का बेहद दुख हो रहा था. यहाँ उसे हर चीज़ के मज़े थे. रोज़ अच्छे और स्वदिस्त पकवान भर पेट खाने को मिल रहा था, ताज़े फल, फ्रूट के साथ गिलास भर कर मेवे वाला दूध भी सुबह शाम पीने को मिल रहा था. वहाँ गाओं में टीवी नही थी, यहाँ दिन भर टीवी देखने का मज़ा ले रहा था.

किंतु कंचन को चिंटू के मन की दशा का भान नही था. वह तो अपने दुख से दुखी उसका हाथ थामे उसे जबरन खींचती हुई बस्ती की ओर बढ़ी चली जा रही थी.

चलते हुए अचानक ही कंचन को ये ख्याल आया. -"साहेब और मा जी, हवेली से निकल कर कहाँ गये होंगे? कहीं साहेब गाओं छोड़कर अपने घर तो नही चले गये?"

कंचन के बढ़ते हुए कदम थम गये.

चिंटू ने उसे हसरत से देखा. उसे लगा शायद दीदी अब हवेली लौटेगी.

"अब क्या करूँ?" कंचन ने खुद से पुछा.

वो कुच्छ देर खड़ी सोचती रही. पहले उसका मन चाहा वो घर जाकर बाबा को सब बात बता दे और बाबा को रवि और माजी को मनाने स्टेशन भेज दे. शायद वे लोग अभी भी वहीं हों. पर अगले ही पल उसे ये विचार आया कि जब तक वो घर जाकर अपने बाबा को बताएगी और उसके बाबा जब तक स्टेशन आएँगे. तब तक कहीं साहेब और मा जी ट्रेन में बैठकर घर ना चले जाएँ.

उसने खुद ही स्टेशन जाने का विचार किया.

वो चिंटू को लिए तेज़ी से मूडी. और स्टेशन के रास्ते आगे बढ़ गयी.

कंचन स्टेशन पहुँची. उसकी प्यासी नज़रें रवि की तलाश में चारों तरफ दौड़ने लगी.


स्टेशन लगभग खाली था. प्लॅटफॉर्म पर कोई ट्रेन नही थी.

काफ़ी देर इधर उधर ढूँढने के बाद भी उसे रवि कहीं दिखाई नही दिया.

रवि को ना पाकर उसके चेहरे पर उदासी फैल गयी. मन रोने को हो आया. दबदबाई आँखों से एक बार फिर उसने पूरे स्टेशन पर अपनी नज़रें घुमाई. लेकिन रवि तो ना मिलना था ना मिला.

वो वहीं लोहे की बनी बर्थ पर बैठकर सिसकने लगी.

चिंटू के समझ में कुच्छ भी नही आ रहा था. लेकिन कंचन को रोता देख उसे भी रोना आ रहा था.

तभी किसी ट्रेन के आने की आवाज़ उसके कानो से टकराई.

उसने गर्दन उठाकर आती हुई ट्रेन के तरफ देखा.

धड़-धड़ाती हुई ट्रेन प्लॅटफॉर्म पर आकर रुकी. उसके रुकते ही यात्रियों के उतरने और चढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया. कुच्छ देर पहले जो स्टेशन खाली सा दिख रहा था अब लोगों की भीड़ से भरने लगा था.

कंचन कुछ सोचते हुए उठी. चिंटू को बर्थ पर बैठे रहने को बोलकर खुद ट्रेन के समीप जाकर खिड़कियों से ट्रेन के अंदर बैठे मुसाफिरों को देखने लगी.

उसकी नज़रें रवि को ढूँढ रही थी.

अभी कुच्छ ही पल बीते थे की उसके पिछे से किसी ने उसे पुकारा.

अपना नाम सुनकर कंचन तेज़ी से मूडी. किंतु अपने सामने बिरजू को खड़ा देख उसकी सारी तेज़ी धरी की धरी रह गयी.

"कंचन जी किसको ढूँढ रही हैं आप?" बिरजू अपने काले दाँत दिखाकर धूर्त मुस्कान के साथ पुछा.

"मैं साहेब को ढूँढ रही हूँ." कंचन अटकते हुए बोली.

"साहेब....?" बिरजू ने अज़ीब सा मूह बनाया - "ओह्ह्ह....तो तुम डॉक्टर बाबू की बात कर रही हो. उन्हे तो मैने ट्रेन के अंदर बैठे देखा है."

"क्या सच में भैया....?" कंचन खुशी से चहकते हुए बोली - "क्या उनकी माजी भी साथ थी?"

"हां माजी भी साथ थी. क्या तुम उनसे मिलना चाहती हो?"

"हां....!" कंचन हन में सर हिलाई.

"तो फिर आओ मेरे साथ.....तुम्हे डॉक्टर बाबू और उनकी माजी से मिलाता हूँ."

कंचन बिरजू के साथ ट्रेन में चढ़ गयी. रवि के मिलने की खुशी से वो फूले नही समा रही थी. मारे खुशी के उसकी आँखें डब-डबा गयी थी. रवि से मिलने की दीवानगी में वो ये भी नही समझ पाई कि बिरजू उसे झाँसे में ले रहा है और वो किसी मुशिबत में गिरफ्तार होने वाली है.

बिरजू के लिए ये बिन माँगी मुराद थी. इससे अच्छा अवसर शायद उसे फिर कभी नही मिलने वाला था.

लगभग पूरे गाओं को पता था कि बिरजू 2 दिनो से शहर गया हुआ है. अब ऐसे में वो कंचन को लेकर कहीं भी जा सकता था. किसी को उसपर शक़ नही होने वाला था.

उसने सोचा भी यही था. कंचन पर नज़र पड़ते ही उसके मन में ये सोच लिया था कि वो कंचन को लेकर शहर जाएगा. कुच्छ दिन उसके साथ ऐश करेगा फिर उसे कहीं बेचकर गाओं लौट आएगा.

उसका सोचा लगभग सही हुआ था. बस ट्रेन चलने की देरी थी.

इस स्टेशन में ट्रेन 5 मिनिट के लिए रुकती थी. और अब 5 मिनिट पूरे होने को आए थे. ट्रेन किसी भी वक़्त छूट सकती थी.

किंतु कंचन को इसका होश नही था. वो किसी भी कीमत में रवि को शहर जाने से रोकना चाहती थी. वो बड़े ध्यान से ट्रेन में बैठे मुसाफिरों के चेहरों को देखती हुई
आगे बढ़ती जा रही थी.

बिरजू उसे आगे और आगे लिए जा रहा था.

सहसा ट्रेन ने सीटी बजाई. कंचन कुच्छ समझ पाती उससे पहले ट्रेन ने एक झटका खाया और चल पड़ी.

ट्रेन को चलता देख कंचन के होश उड़ गये. उसने बिरजू को आवाज़ लगाई. बिरजू थोड़ा आगे बढ़ गया था.

"ये देखो रवि बाबू यहाँ बैठे हैं." बिरजू ने कंचन को समीप बुलाते हुए कहा.

कंचन बिजली की गति से उसके करीब पहुँची.

वहाँ देखा तो रवि और मा जी नही थी.

उसे देखकर बिरजू धूर्त'ता से मुस्कुराया.

कंचन के पसीने छूट गये. किंतु अगले ही पल कंचन उसी गति से दरवाज़े की तरफ भागी.

बिरजू उसके पिछे लपका.

कंचन जब तक दरवाज़े तक पहुँचती. ट्रेन हल्की रफ़्तार पकड़ चुकी थी.

बिरजू भी उसके पिछे दरवाज़े तक पहुँचा. वो आज किसी भी कीमत पर कंचन को जाने देना नही चाहता था. ऐसा मौक़ा उसे फिर कभी नही मिलने वाला था.
 
ट्रेन के खुलते ही चिंटू घबरा उठा. उसने कंचन को बिरजू के साथ ट्रेन में चढ़ते देख लिया था. कंचन के ना आने से चिंटू की हिचकियाँ शुरू हो गयी. वो सीट पर खड़े खड़े रोने लगा.

तभी उसकी नज़र कंचन पर पड़ी. चलती ट्रेन में अपनी दीदी को जाते देख चिंटू का नन्हा दिल काँप उठा. उसकी दीदी उसे छोड़ कर कहाँ जा रही है? क्या वो अब कभी उससे नही मिल सकेगा. वो दीदी कहता हुआ सीट से कुदा और कंचन को छुने, उससे मिलने, उसे रोकने दौड़ पड़ा.

कंचन की नज़र भी चिंटू पर पड़ चुकी थी. चिंटू को प्लॅटफॉर्म पर यूँ भागता देख कंचन घबरा उठी. उसने पलटकर पिछे देखा. बिरजू उसके पिछे खड़ा मुस्कुरा रहा था.

कंचन ने आव देखी ना ताव.....एक ज़ोर की छलान्ग मारी और ट्रेन से नीचे कूद गयी.

बिरजू हक्का-बक्का रह गया.

उसने सपने में भी नही सोचा था कि कंचन इस तरह ट्रेन से कूद सकती है. लेकिन उसने भी ठान रखा था चाहें कुच्छ भी हो जाए आज वो कंचन को हाथ से जाने नही देगा.

ट्रेन अब स्टेशन से बाहर निकल चुकी थी और उसकी रफ़्तार भी बढ़ गयी थी.

बिरजू दरवाज़े से दो कदम पिछे हटा फिर द्रुत गति से ट्रेन के बाहर छलान्ग मारा.

किंतु किस्मत आज उसके साथ नही थी.

ट्रेन से कूदने से पहले वो ये नही देख पाया कि आगे बिजली का खंभा आने वाला है. वो जैसे ही ट्रेन से बाहर कुदा, उसका सर बिजली के खंभे से जा टकराया.

बिरजू खंभे से टकराकर नीचे गिरा. गिरते ही वो कुच्छ देर फड़फड़ा फिर शांत हो गया.

उसे गिरता देख प्लॅटफॉर्म पर मौजूद लोग तेज़ी से उसकी तरफ लपके.

कंचन भी उस दृश्य को अपनी खुली आँखों से देख चुकी थी. लेकिन उसे इस वक़्त चिंटू की चिंता थी.

ट्रेन से कूदने से उसका घुटना और हाथ बुरी तरह से छील गया था. जहाँ से रक्त की धार बह निकली थी. किंतु वो अपने दर्द की परवाह ना करते हुए फुर्ती से खड़ी हुई. फिर चिंटू की तलाश में दृष्टि घुमाई.

उसे चिंटू दौड़ता हुआ अपनी ओर आता दिखाई दिया.

कंचन ने आगे बढ़कर चिंटू को अपनी बाहों में समेट लिया. उसके गले लगते ही चिंटू फफक-कर रो पड़ा. कंचन की भी रुलाई फुट पड़ी.

कुच्छ देर में उनका रोना थमा तो कंचन चिंटू को लिए उस ओर बढ़ गयी. जिस ओर बिरजू गिरा था.

वहाँ लोगों की भीड़ जमा होती जा रही थी.

कंचन चिंटू को लिए भीड़ के नज़दीक पहुँची. वो आगे बढ़कर अंदर का नज़ारा देखने लगी. अंदर का दृश्य देखते ही उसका कलेजा मूह को आ गया.

बिरजू मरा पड़ा था. उसकी भयावह आँखें खुली अवस्था में भीड़ को घूर रही थी. सर फटने की वजह से ढेर सारा खून बहकर ज़मीन पर फैल गया था.

कंचन ज़्यादा देर उस दृश्य को नही देख सकी. वो भीड़ से बाहर निकली और चिंटू का हाथ थामे घर के रास्ते बढ़ गयी.

बिरजू की भयानक मौत ने उसके नारी मन को भावुक कर दिया था.

*****

शाम ढल चुकी थी. सुगना और दिनेश जी आँगन में बिछी चारपाई पर लेटे हुए थे.

शांता रसोई में दिनेश जी के लिए खाना परोस रही थी.

सुगना को अभी भूख नही थी. जब से कंचन हवेली गयी थी सुगना की भूख ही मिट गयी थी. यही हाल शांता का भी था. दोनो बच्चो के एक साथ चले जाने से घर सूना सूना सा हो गया था. किसी का भी दिल किसी चीज़ में नही लगता था.

शांता का मन फिर भी दिनेश जी से थोड़ा बहुत बहल जाता था. पर सुगना का दिल हमेशा कंचन की चिंता से भरा रहता था. उसे ये तो पता था क़ि हवेली में कंचन को कोई कष्ट ना होगा. फिर भी उसका मन कंचन की चिंता से घिरा रहता था.

अभी सिर्फ़ दो ही दिन हुए थे कंचन को हवेली गये और इस घर में मुर्दनि सी छा गयी थी. दो दिन पहले ये घर कंचन और चिंटू की नोक-झोंक, लड़ाई-झगड़े शोर-गुल से महका करता था. अब यहाँ हर दम वीरानी से छाई रहती.

पहले बिना विषय के भी सुगना और शांता घंटो बात कर लेते थे. अब विषय होने पर भी चार शब्द बोले नही जाते थे.

उनका दुखी हृदय कोई भी बात करने को राज़ी ही ना होता था. अब उनकी बातें सिर्फ़ हां-हूँ में पूरी हो जाती थी.

इस वक़्त भी सुगना कंचन के बारे में ही सोच रहा था. मूह में बीड़ी की सीलि दबाए वो कंचन के बचपन के दीनो में खोया हुआ था.

तभी दरवाज़े पर हलचल हुई.

सुगना ने गर्दन उठाकर देखा. कंचन चिंटू के साथ आँगन में परवेश करती दिखाई दी.

"कंचन...!" उसपर नज़र पड़ते ही सुगना के मूह से बरबस निकला.

सुगना की आवाज़ से शांता भी रसोई से बाहर निकली.

"बाबा..." कंचन कहती हुई सुगना से आ लिपटी.

"बेटी तुम लोग इस वक़्त यहाँ, और ये क्या हालत बना रखी है तूने? वहाँ सब ठीक तो है?" सुगना ने कंचन के हुलिए और मुरझाए चेहरे को देखते हुए कहा.

कंचन के जवाब देने से पहले शांता भी रसोई से आँगन में आ चुकी थी.

"सब गड़-बॅड हो गया है. वहाँ कुच्छ भी ठीक नही है." कंचन रुनवासी होकर बोली.

"क्या कह रही है तू....?" सुगना चौंकते हुए बोला - "ठाकुर साहब कैसे हैं? रवि बाबू और उनकी माजी कैसी हैं?"

"पिताजी अच्छे हैं, साहेब और माजी भी ठीक हैं....लेकिन वहाँ....."

"वहाँ सब अच्छे हैं तो फिर गड़-बॅड क्या है...?"

जवाब में कंचन ने हवेली से लेकर बिरजू के मरने तक की सारी बातें बता दी.

सुनकर सुगना के साथ साथ शांता और दिनेश जी के मूह भी खुले के खुले रह गये.

एक तरफ बिरजू की मौत से जहाँ शांता ने राहत की साँस ली, वहीं दूसरी तरफ रवि के पिता की मौत का रहस्य जानकर सुगना चींतीत हो उठा. उसे चिंता कंचन की थी. उसके विवाह की थी. इस रहस्य को जान लेने के पश्चात कमला जी कंचन को अपने घर की बहू बनाना स्वीकार करेंगी या नही ये सवाल उसके दिमाग़ में उथल-पुथल मचा रहा था.

"तू चिंता मत कर बेटी.....चल खाना खा ले. सब ठीक हो जाएगा." शांता उसे गले से लगाती हुई बोली.

"कुच्छ ठीक नही होगा बुआ." कंचन नाक फुलाकर बोली. - "मा जी मुझे अपनी बहू कभी नही बनाएँगी. मैं उन्हे पसंद नही."

"दुखी ना हो बेटी, तू तो लाखों में एक है. मेरे होते तुझे चिंता करने की ज़रूरत नही है. मैं सब ठीक कर दूँगा." सुगना ने कंचन को दिलाषा देते हुए कहा.

शांता कंचन को अंदर ले गयी और उसके ज़ख़्मो पर मरहम लगाने लगी. लेकिन जो ज़ख़्म उसके दिल पर लगे थे, उसका मरहम शांता के पास ना था और ना ही सुगना के पास.

सुगना चारपाई पर बैठा गेहन चिंता में डूबा हुआ था. वो यही सोचे जा रहा था. क्या वास्तव में कमला जी अपने पति की मृत्यु को भूलकर कंचन को अपनी बहू अपना सकेंगी. या फिर ज़िंदगी भर कंचन को रवि बाबू के लिए तड़पना पड़ेगा. उसकी सोच गहरी होती जा रही थी. पर उसे अपने किसी भी सवाल का जवाब नही मिल रहा था.

सचमुच इस बार वादी ने ऐसा तीर छोड़ा था जिसकी कोई काट उसके पास ना थी. वो सिर्फ़ तड़प सकता था. तड़प उठा था.
 
. रात बीत चुकी थी. घर के सभी लोग चादर ताने सो चुके थे. किंतु कंचन की आँखों से नींद कोसो दूर थी. उसे नींद आती भी तो कैसे? उसके जीवन में जो तूफान आया था उसने ना सिर्फ़ कंचन की खुशियाँ, उसके सपने, बल्कि उसकी आँखों से नींद भी उड़ा ले गया था.

कंचन की दशा इस वक़्त ऐसी थी जैसे जल बिन मछली. रवि से अलग होकर जीने की कल्पना ही उसे मार देने के लिए काफ़ी थी.

कंचन बिस्तर पर लेटी हुई उन पलों में खोई हुई थी, जो उसने रवि के साथ बीताए थे. उसकी बातें, उसकी खामोशी, उसका रूठना, उसका मनाना, उसकी बाहों में सिमट कर सब कुच्छ भुला देना. सब कुच्छ कितना अच्छा लगता था उसे. वे सारे लम्हे एक एक करके उसकी आँखों के आगे किसी चलचित्र की तरह आ जा रहे थे.

"क्या वो पल फिर से लौटकर आएँगे? क्या मैं फिर से उनके साथ प्यार के वो लम्हे बिता सकूँगी? क्या मुझे फिर से साहेब के उन मजबूत बाहों का घेरा मिलेगा?" कंचन खुद से बातें करने लगी.

"नही...अब साहेब तुम्हे कभी नही मिलेंगे." उसके दिल के किसी कोने से आवाज़ आई - "तुम्हारे पिता ने उनके पिता का खून किया है. साहेब एक बार तुम्हे माफ़ कर भी दें, पर माजी तुम्हे कभी माफ़ नही करेंगी. वो तो तुम्हे पहले भी पसंद नही करती थी और अब तो बिल्कुल भी नही...."

कंचन छटपटा उठी. -"कैसे जियूंगी मैं? जो साहेब नही मिले तो मैं तो मर जाउन्गि." उसके मूह से एक कराह सी निकली और आँखों से आँसू धूलक कर उसके गालो में फैल गये. कंचन उन्हे आष्टिं से पोछती हुई सिसक पड़ी.

उसका दिल इस वक़्त अंधेरी कोठरी बना हुआ था. उम्मीद की एक भी किरण उसे दूर दूर तक दिखाई नही दे रही थी. उसकी समझ में नही आ रहा था, वो क्या करे? कहाँ जाए कि उसके मन का गुबार निकल सके. उसे इस वक़्त सिर्फ़ आह भर रोने को मन कर रहा था. उसकी दशा ठीक उस नन्ही बालिका की तरह थी, जिसने दुकान से कोई मन-पसंद खिलोना खरीदा हो, पर घर लाते समय रास्ते में गिर कर टूट गया हो. जैसे उस बालिका के दुख का अनुमान कर पाना संभव नही, वैसे ही इस वक़्त कंचन के दुखों का अनुमान लगा पाना संभव नही था.

कंचन कुच्छ देर यूँही रोती रही फिर कुच्छ सोचते हुए अपने बिस्तर से उठी और कोने में जाकर खड़ी होकर छप्पर को देखने लगी.

उसकी दृष्टि छप्पर पर फँसी एक थेलि पर टिकी थी. उसने हाथ बढ़ाकर उस थेलि को उतार लिया. उस थेलि में रवि का वो जूता था जिसे कंचन घाटी से उठा लाई थी.

उसने जूता बाहर निकाला और उसे अपनी छाती से लगाकर सिसक पड़ी. जूते को छाती से लगाते ही उसके बेचैन दिल को एक सुकून मिला. वो बिस्तर पर जाकर लेट गयी और जूते को अपनी छाती से लगाए मन ही मन बोली - "साहेब आप जहाँ भी रहें खुश रहें, मैं अब आपके यादों के सहारे जी लूँगी.. मेरा जी बहलाने के लिए आपका जूता ही बहुत है. मैं रोज़ इसे अपने माथे से लगाकर आपको ऐसे ही ख्यालो में पूजती रहूंगी. और आपके खुशियों की प्रार्थना करती रहूंगी."

कंचन बार बार रवि के जूते को कभी छाती से लगाती कभी गालो में फिराती तो कभी माथे से लगा लेती. काफ़ी देर तक इसी तरह रवि के जूते को लिए वो रोती सुबक्ती रही. फिर कब उसकी आँख लग गयी उसे पता ही ना चला.
 
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