desiaks
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आशा बड़ी मुश्किल से कॉफी समाप्त कर सकी थी। आकर्षक युवक ने एक बीयर मंगा ली थी, आशा ने कनखियों से देखा था कि वह बीच-बीच में उसे देख लेता है और उसकी यहां मौजूदगी आशा को नर्वस ही नहीं, बल्कि एक प्रकार से आतंकित-सी करती जा रही थी।
उसने जल्दी से कॉफी खत्म की, उठी और लिफ्ट में सवार होकर फिफ्थ फ्लोर पर स्थित अपने कमरे में चली गई, दरवाजे की चटखनी अन्दर से चढ़ाई और आगे बढ़कर धम्म् से बिस्तर पर गिर गई।
वह इस तरह हांफ रही थी जैसे बहुत दूर से भागकर आई हो।
दिमाग में ढेर सारे सवाल उठ रहे थे—क्या ये युवक संयोग से यहां आ गया है?
नहीं, इतना बड़ा संयोग भला कैसे हो सकता है?
वह उसी के पीछे आया है—निश्चय ही उससे कहीं कोई गलती हो गई है और उसी गलती का परिणाम है, उसके पीछे लगा हुआ यह युवक।
दरअसल कोहिनूर देखने जाकर ही उसने गलती की।
यदि अशरफ, विक्रम, विजय या विकास में से कोई कोहिनूर देखने म्यूजियम में पहुंच गया तो यह दूसरी और काफी बड़ी गलती होगी—उसे उन्हें रोकना चाहिए—भलाई इसी में है कि वे वहां न जाएं, यदि उनमें से भी कोई नर्वस हो गया तो ऐसा ही एक जासूस उसके पीछे भी लग जाएगा और उस स्थिति में सिक्योरिटी तुरन्त यह सोचेगी कि दोनों संदिग्ध व्यक्ति एक ही होटल में ठहरे हैं।
यदि कोई नर्वस न भी हुआ तब भी एक ही होटल से क्रमवार पांच व्यक्तियों का कोहिनूर देखने जाना सिक्योरिटी के कान खड़े कर देगा।
अपने साथियों को सचेत करके रहेगी वह।
मगर कैसे?
वह युवक जिन्न की तरह उसके पीछे लग गया है।
आशा के दिमाग में विचार उठा कि क्या वह अब भी हॉल ही में होगा?
कम-से-कम एक घण्टे तक वह बिस्तर पर यूं ही विचारों में गुम पड़ी रही—फिर यह सोचकर उठी कि घबराकर उसे इस तरह कमरे में बन्द नहीं हो जाना चाहिए—साहस से काम लिए बिना वह कुछ भी नहीं कर सकेगी।
हॉल में कदम रखते ही उसने शान्ति की सांस ली।
युवक कहीं भी नहीं था।
अब उसने विजय, विकास, अशरफ और विक्रम की तलाश में नजरें चारों तरफ घुमाईं—चारों में से एक भी कहीं नजर नहीं आ रहा था।
मुख्य द्वार पार करके वह होटल से बाहर निकल आई।
अभी पार्किंग के समीप से गुजर ही रही थी कि दिल धक्क से रह गया— क्षणमात्र के लिए ठिठकी, नजर युवक से टकराई, एक कार की टेक लिए खड़ा वह सिगरेट फूंक रहा था।
गर्दन को एक झटका देकर आशा आगे बढ़ गई।
अब उसे इसमें कोई शक नहीं रह गया कि युवक उसी को वॉच कर रहा है, दिल धक्-धक् करता रहा, एक टैक्सी को रोककर वह उसमें बैठ गई, कनखियों से युवक को भी एक टैक्सी रोकते देखा।
युवक वाली टैक्सी उसके पीछे लग गई।
इस युवक से वह पीछा छुड़ाना चाहती थी, किन्तु सोचने लगी कि क्या इस युवक को डांट देना उचित होगा, डांट वह आसानी से सकती थी, परन्तु सोचने वाली बात ये थी कि क्या उसके डांट देने से सिक्योरिटी यह नहीं समझ जाएगा कि वह भी खेली-खाई है?
इस हरकत से तो उन्हें पक्का यकीन हो जाएगा कि वह साधारण लड़की नहीं है।
आशा ने सोचा कि फिलहाल उसे ऐसा कोई काम करना ही नहीं है जिससे युवक को कोई प्वॉइंट मिले अतः उसे पीछा करने दे, उसका वह बिगाड़ ही क्या सकता है?
अन्तिम रूप से यही निश्चय करके वह युवक से लन्दन की विभिन्न सड़कें नपवाती रही। रात के नौ बजे वह एलिजाबेथ वापस लौटी, युवक उसके पीछे ही था।
हॉल में विजय पर नजर पड़ते ही उसकी आंखें चमक उठीं, बशीर बने विजय ने नीले सूट पर लाल टाई बांध रखी थी और सच्चाई ये है कि विजय को नहीं, विजय के जिस्म पर ये कपड़े देखकर आशा की आंखों में चमक आई थी, ये कपड़े किसी विशेष बात का संकेत थे।
विजय डिनर ले रहा था।
अपरिचितों की तरह ही एक नजर उसने आशा को देखा और पुनः खाने में व्यस्त हो गया—विजय की ठोड़ी पर लगी मुल्लाओं वाली दाढ़ी गस्सा चबाने के साथ-साथ अजीब-से ढंग से हिल रही थी।
डैथ हाउस में कैद पड़े बशीर की तरह ही विजय का रंग बिल्कुल काला नजर आ रहा था।
युवक को हॉल में दाखिल होता देखते ही आशा ने विजय पर से नजर हटा ली, एक खाली सीट पर बैठ गई और डिनर का ऑर्डर देकर जब उसने हॉल में डिनर ले रहे अन्य लोगों पर नजर घुमाई तो वहीं उसे मार्गरेट, डिसूजा और चक्रम के रूप में विकास, विक्रम और अशरफ भी नजर आए।
एक सीट पर बैठकर युवक ने भी डिनर का ऑर्डर दे दिया था। खाना खाने के बाद अशरफ, विक्रम और विकास अलग-अलग अपने कमरों में चले गए, विजय तब तक भी जुटा पड़ा था, जब आशा निपट चुकी—निपटते ही वह उठी और फिर विजय या युवक में से किसी की भी तरफ ध्यान दिए बिना सीधी लिफ्ट की तरफ बढ़ गई।
लॉक खोलकर अपने कमरे में दाखिल हुई और लाइट ऑन करते ही उसके कण्ठ से चीख निकलते रह गई, सारा समाना विखरा पड़ा था—किसी ने कमरे की तलाशी ली थी।
¶¶
कमरे में अंधेरा था। सभी खिड़की-दरवाजे मजबूती के साथ अन्दर से बन्द, पर्दे खिंचे हुए—पूरी तरह नीरवता छाई हुई थी वहां, परन्तु पलंग पर पड़ा, आंखें खोले विजय अंधेरे को घूर रहा था। रह-रहकर वह अपनी कलाई पर बंधी रेडियम डायल रिस्टवॉच में समय देख लेता था।
डेढ़ बजते ही बन्द दरवाजे पर सांकेतिक अन्दाज में दस्तक हुई। विजय तुरन्त उठ खड़ा हुआ, नि:शब्द अंधेरे में ही दरवाजे के समीप पहुंचा—बिना किसी प्रकार की आहट उत्पन्न किए उसने दरवाजा खोल दिया—खामोशी के साथ एक परछाईं अन्दर आ गई।
निराहट विजय ने दरवाजा वापस बन्द कर दिया।
अचानक ही ‘क्लिक’ की बहुत धीमी आवाज के साथ कमरे में एक मध्यम दर्जे की टॉर्च रोशन हो उठी, प्रकाश का दायरा ‘फक्क’ से कमरे की छत से जा टकराया।
सारा लेंटर स्पष्ट चमकने लगा।
टॉर्च परछाईं के हाथ में थी और अब कमरे में बिखरे मध्यम प्रकाश में बेशक—दूसरे को स्पष्ट देख सकते थे, चक्रम के रूप में आगन्तुक अशरफ था, आगे बढ़कर उसने उसी पोजीशन में टॉर्च एक मेज पर रख दी।
“कहो प्यारे झानझरोखे?” विजय फुसफुसाया।
“क्या कहूं?”
“जो कहा न जाए।”
बुरा-सा मुंह बनाया अशरफ ने, धीमें स्वर में बोला— “मौका मिलते ही तुम ये बकवास करनी नहीं छोड़ोगे।”
चुप रह जाने वाला विजय था तो नहीं, लेकिन पता नहीं क्या सोचकर रह गया।
उसके बाद पन्द्रह-बीस मिनट के अन्तराल से, उसी सांकेतिक दस्तक के बाद क्रमशः विकास और विक्रम भी आ गए, सवा दो बजे यानी सबसे अन्त में विक्रम आया परन्तु कमरे में आशा को न पाकर बोला— “क्या बात है, आशा कहां है?”
“वह नहीं आई!” अशरफ ने कहा।
विक्रम ने चौंकते हुए पूछा—“क्यों?”
“पता नहीं!” विकास बोला— “हम खुद हैरत में हैं, प्रोग्राम के मुताबिक मेरे और आपके बीच में यानी ठीक दो बजे उन्हें आना चाहिए था, मगर वो नहीं आई।”
अशरफ बोला, “वाकई आशा के न आने पर मैं भी हैरान हूं!”
“जो अपने टिपारे खुले नहीं रखते वे अक्सर इसी तरह हैरान रह जाते हैं प्यारो और चूं-चूं करती हुई चिड़िया न केवल खुद चुग जाती है बल्कि अपने बच्चों और रिश्तेदारों के लिए दाना ट्रक में भरकर ले भी जाती है।”
उसने जल्दी से कॉफी खत्म की, उठी और लिफ्ट में सवार होकर फिफ्थ फ्लोर पर स्थित अपने कमरे में चली गई, दरवाजे की चटखनी अन्दर से चढ़ाई और आगे बढ़कर धम्म् से बिस्तर पर गिर गई।
वह इस तरह हांफ रही थी जैसे बहुत दूर से भागकर आई हो।
दिमाग में ढेर सारे सवाल उठ रहे थे—क्या ये युवक संयोग से यहां आ गया है?
नहीं, इतना बड़ा संयोग भला कैसे हो सकता है?
वह उसी के पीछे आया है—निश्चय ही उससे कहीं कोई गलती हो गई है और उसी गलती का परिणाम है, उसके पीछे लगा हुआ यह युवक।
दरअसल कोहिनूर देखने जाकर ही उसने गलती की।
यदि अशरफ, विक्रम, विजय या विकास में से कोई कोहिनूर देखने म्यूजियम में पहुंच गया तो यह दूसरी और काफी बड़ी गलती होगी—उसे उन्हें रोकना चाहिए—भलाई इसी में है कि वे वहां न जाएं, यदि उनमें से भी कोई नर्वस हो गया तो ऐसा ही एक जासूस उसके पीछे भी लग जाएगा और उस स्थिति में सिक्योरिटी तुरन्त यह सोचेगी कि दोनों संदिग्ध व्यक्ति एक ही होटल में ठहरे हैं।
यदि कोई नर्वस न भी हुआ तब भी एक ही होटल से क्रमवार पांच व्यक्तियों का कोहिनूर देखने जाना सिक्योरिटी के कान खड़े कर देगा।
अपने साथियों को सचेत करके रहेगी वह।
मगर कैसे?
वह युवक जिन्न की तरह उसके पीछे लग गया है।
आशा के दिमाग में विचार उठा कि क्या वह अब भी हॉल ही में होगा?
कम-से-कम एक घण्टे तक वह बिस्तर पर यूं ही विचारों में गुम पड़ी रही—फिर यह सोचकर उठी कि घबराकर उसे इस तरह कमरे में बन्द नहीं हो जाना चाहिए—साहस से काम लिए बिना वह कुछ भी नहीं कर सकेगी।
हॉल में कदम रखते ही उसने शान्ति की सांस ली।
युवक कहीं भी नहीं था।
अब उसने विजय, विकास, अशरफ और विक्रम की तलाश में नजरें चारों तरफ घुमाईं—चारों में से एक भी कहीं नजर नहीं आ रहा था।
मुख्य द्वार पार करके वह होटल से बाहर निकल आई।
अभी पार्किंग के समीप से गुजर ही रही थी कि दिल धक्क से रह गया— क्षणमात्र के लिए ठिठकी, नजर युवक से टकराई, एक कार की टेक लिए खड़ा वह सिगरेट फूंक रहा था।
गर्दन को एक झटका देकर आशा आगे बढ़ गई।
अब उसे इसमें कोई शक नहीं रह गया कि युवक उसी को वॉच कर रहा है, दिल धक्-धक् करता रहा, एक टैक्सी को रोककर वह उसमें बैठ गई, कनखियों से युवक को भी एक टैक्सी रोकते देखा।
युवक वाली टैक्सी उसके पीछे लग गई।
इस युवक से वह पीछा छुड़ाना चाहती थी, किन्तु सोचने लगी कि क्या इस युवक को डांट देना उचित होगा, डांट वह आसानी से सकती थी, परन्तु सोचने वाली बात ये थी कि क्या उसके डांट देने से सिक्योरिटी यह नहीं समझ जाएगा कि वह भी खेली-खाई है?
इस हरकत से तो उन्हें पक्का यकीन हो जाएगा कि वह साधारण लड़की नहीं है।
आशा ने सोचा कि फिलहाल उसे ऐसा कोई काम करना ही नहीं है जिससे युवक को कोई प्वॉइंट मिले अतः उसे पीछा करने दे, उसका वह बिगाड़ ही क्या सकता है?
अन्तिम रूप से यही निश्चय करके वह युवक से लन्दन की विभिन्न सड़कें नपवाती रही। रात के नौ बजे वह एलिजाबेथ वापस लौटी, युवक उसके पीछे ही था।
हॉल में विजय पर नजर पड़ते ही उसकी आंखें चमक उठीं, बशीर बने विजय ने नीले सूट पर लाल टाई बांध रखी थी और सच्चाई ये है कि विजय को नहीं, विजय के जिस्म पर ये कपड़े देखकर आशा की आंखों में चमक आई थी, ये कपड़े किसी विशेष बात का संकेत थे।
विजय डिनर ले रहा था।
अपरिचितों की तरह ही एक नजर उसने आशा को देखा और पुनः खाने में व्यस्त हो गया—विजय की ठोड़ी पर लगी मुल्लाओं वाली दाढ़ी गस्सा चबाने के साथ-साथ अजीब-से ढंग से हिल रही थी।
डैथ हाउस में कैद पड़े बशीर की तरह ही विजय का रंग बिल्कुल काला नजर आ रहा था।
युवक को हॉल में दाखिल होता देखते ही आशा ने विजय पर से नजर हटा ली, एक खाली सीट पर बैठ गई और डिनर का ऑर्डर देकर जब उसने हॉल में डिनर ले रहे अन्य लोगों पर नजर घुमाई तो वहीं उसे मार्गरेट, डिसूजा और चक्रम के रूप में विकास, विक्रम और अशरफ भी नजर आए।
एक सीट पर बैठकर युवक ने भी डिनर का ऑर्डर दे दिया था। खाना खाने के बाद अशरफ, विक्रम और विकास अलग-अलग अपने कमरों में चले गए, विजय तब तक भी जुटा पड़ा था, जब आशा निपट चुकी—निपटते ही वह उठी और फिर विजय या युवक में से किसी की भी तरफ ध्यान दिए बिना सीधी लिफ्ट की तरफ बढ़ गई।
लॉक खोलकर अपने कमरे में दाखिल हुई और लाइट ऑन करते ही उसके कण्ठ से चीख निकलते रह गई, सारा समाना विखरा पड़ा था—किसी ने कमरे की तलाशी ली थी।
¶¶
कमरे में अंधेरा था। सभी खिड़की-दरवाजे मजबूती के साथ अन्दर से बन्द, पर्दे खिंचे हुए—पूरी तरह नीरवता छाई हुई थी वहां, परन्तु पलंग पर पड़ा, आंखें खोले विजय अंधेरे को घूर रहा था। रह-रहकर वह अपनी कलाई पर बंधी रेडियम डायल रिस्टवॉच में समय देख लेता था।
डेढ़ बजते ही बन्द दरवाजे पर सांकेतिक अन्दाज में दस्तक हुई। विजय तुरन्त उठ खड़ा हुआ, नि:शब्द अंधेरे में ही दरवाजे के समीप पहुंचा—बिना किसी प्रकार की आहट उत्पन्न किए उसने दरवाजा खोल दिया—खामोशी के साथ एक परछाईं अन्दर आ गई।
निराहट विजय ने दरवाजा वापस बन्द कर दिया।
अचानक ही ‘क्लिक’ की बहुत धीमी आवाज के साथ कमरे में एक मध्यम दर्जे की टॉर्च रोशन हो उठी, प्रकाश का दायरा ‘फक्क’ से कमरे की छत से जा टकराया।
सारा लेंटर स्पष्ट चमकने लगा।
टॉर्च परछाईं के हाथ में थी और अब कमरे में बिखरे मध्यम प्रकाश में बेशक—दूसरे को स्पष्ट देख सकते थे, चक्रम के रूप में आगन्तुक अशरफ था, आगे बढ़कर उसने उसी पोजीशन में टॉर्च एक मेज पर रख दी।
“कहो प्यारे झानझरोखे?” विजय फुसफुसाया।
“क्या कहूं?”
“जो कहा न जाए।”
बुरा-सा मुंह बनाया अशरफ ने, धीमें स्वर में बोला— “मौका मिलते ही तुम ये बकवास करनी नहीं छोड़ोगे।”
चुप रह जाने वाला विजय था तो नहीं, लेकिन पता नहीं क्या सोचकर रह गया।
उसके बाद पन्द्रह-बीस मिनट के अन्तराल से, उसी सांकेतिक दस्तक के बाद क्रमशः विकास और विक्रम भी आ गए, सवा दो बजे यानी सबसे अन्त में विक्रम आया परन्तु कमरे में आशा को न पाकर बोला— “क्या बात है, आशा कहां है?”
“वह नहीं आई!” अशरफ ने कहा।
विक्रम ने चौंकते हुए पूछा—“क्यों?”
“पता नहीं!” विकास बोला— “हम खुद हैरत में हैं, प्रोग्राम के मुताबिक मेरे और आपके बीच में यानी ठीक दो बजे उन्हें आना चाहिए था, मगर वो नहीं आई।”
अशरफ बोला, “वाकई आशा के न आने पर मैं भी हैरान हूं!”
“जो अपने टिपारे खुले नहीं रखते वे अक्सर इसी तरह हैरान रह जाते हैं प्यारो और चूं-चूं करती हुई चिड़िया न केवल खुद चुग जाती है बल्कि अपने बच्चों और रिश्तेदारों के लिए दाना ट्रक में भरकर ले भी जाती है।”