Thriller Sex Kahani - कांटा - Page 11 - SexBaba
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Thriller Sex Kahani - कांटा

"व....वह कैसे?"

“कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली।"

"क...क्या मतलब?"

“समझें श्रीमान। कहां रीनी श्रीमती, जो कि आसमान की सितारा है श्री-श्री जैसी हस्ती की इकलौती लाड़ली है। जबकि
कहां वह जतिन श्रीमान, जो आप ही की तरह श्री-श्री की कंपनी के महज एक मुलाजिम। अब आप ही बताए, किसी फन्ने खां के लिए इन दोनों की अहमियत एक बराबर आखिर कैसे हो सकती है? या फिर...।” उसने जरा ठहरकर तिरछी निगाहों से अजय को देखा, फिर आगे बोला “हो सकती हैं...?"

“न...नहीं हो सकती।” अजय ने हिचकिचाते हुए स्वीकार किया “काफी पेचीदा मामला लगता है।"

“आप खुद ही देख लीजिए श्रीमान। अगर ऐसा न होता तो क्या सरकारी तनख्वाह की पाई-पाई हलाल करने वाले इंस्पेक्टर को यह मिस्ट्री सुलझाने में इतना वक्त लगता?"

“क..क्या तुम यही बताने के लिए यहां मेरे पास आए हो?"

"अजी तौबा कीजिए श्रीमान। सरकार का यह नमक हलाल इंस्पेक्टर आपको इतना गैर-जिम्मेदार लगता है, जो सरकारी पेट्रोल को इतनी बेरहमी से इस्तेमाल करेगा।"

त....तो फिर?” अजय फिर आशंकित हो उठा था।

“वैसे बात बहुत ज्यादा खास नहीं है जजमान, मगर फिर भी बात तो सरासर है।"

"लेकिन बात क्या है इंस्पेक्टर?"

“दरअसल...।” मदारी ने एकात्मक अपनी कमर में खोंसी हड़कड़ी निकालकर अजय के चेहरे के सामने लहराई और फिर वह पहले जैसे ही सहज भाव से बोला “मैं आपको गिरफ्तार करने आया हूं भगवान । यू आर अंडर अरेस्ट।”

“व्हाट!"

अजय एकाएक जैसे आसमान से गिरा था। वह भौंचक्का सा होकर मदारी का मुंह देखने लगा।
कितनी ही देर तक सहगल की वह हालत रही।

बात ही ऐसी थी।

टैक्सी ड्राइवर की नकली पगड़ी और दाढ़ी-मूंछ हटते ही जो चेहरा नजर आया था, वह गोपाल का चेहरा था। जिसकी आंखों में सहगल को साफ-साफ अपनी मौत नजर आयी थी। जबकि गोपाल की जैसे बरसों की मुराद पूरी हो गई थी।

उस शातिर अपराधी के चेहरे पर सुकून के भाव आ गए थे।

"हे...हे. हे..।" वह एक खतरनाक हंसी हंसकर फिर बोला। उसका लहजा सहगल का मजाक उड़ाने वाला था “ड्राइवर भी फर्जी, पैसेंजर भी फर्जी। कैसी रही बाबा।”

"त...त..तुम?" बोलने की कोशिश में सहगल हकलाया और आंखें फाड़-फाड़कर गोपाल को देखता हुआ बोला “तुम?"

“मैं ही है न बाबा।” गोपाल बड़ी मुहब्बत से बोला। फिर उसने एक फरमाइशी आह भरी “शुक्र है कि अपने बाबा ने मेरे को पहचान लिया। अब...।" उसकी निगाह सहगल की सरदार वाली पगड़ी और दाढ़ी-मूंछ पर घूमी “इस बहरूप की जरूरत नक्को। इसको उतारकर अलग कर ले। या फिर ठहर, यह काम मैं खुद करता हूं।" उसने झपट्टा मारकर एक ही झटके में सहगल की पगड़ी उछाल दी और उसके चेहरे से नकली दाढ़ी-मूंछ खींचकर अलग कर दी। अब सहगल अपने असली चेहरे में उसके सामने था।

“जी आया नूं।" गोपाल से नाटकीय अंदाज में बोला। फिर उसने हाथों से सहगल की बलैया ले डाली “कितना अरसा हो गया इस सूरत को देखे हुए, जरा सी भी तो नहीं बदली। नजर न लग जाए किसी की।"

"क....क्या नहीं बदली?" सहगल हकलाया और अपलक गोपाल को देखने लगा था।

“तेरी सूरत भोलेनाथ, और क्या? बीस साल पहले जब तू मेरे गैंग में काम करता था तो कैसा मरगिल्ला हुआ करता था जवानी की तौहीन उड़ाता था। औरों पे जवानी में शबाब आता है, पर तेरे को तो बुढ़ापे में आया। नहीं? हा...हा...हा.हा।"

गोपाल ने जोर से अट्टहास किया।
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“द...देख गोपाल...।” सहगल एकाएक पुरजोर स्वर में बोला। उसके लहजे में घिघियाहट साफ झलक रही थी “मैं...।"

“अभी सुनेगा न।” गोपाल ने उसे बोलने का मौका नहीं दिया था “खातिर जमा रख बाबा, मैं तेरी बात ठोककर सुनेगा। पण पहले तेरे को मेरी बात सुनना होगा। वैसे...।” सहसा वह ठिठका फिर उसे घूरकर बोला "तेरे को ऐसा तो नहीं लग रहा कि मैं तेरा नाम भूल गया होयेगा।"

“न...नहीं। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता।”

“बराबर बोला बाबा। मैं साला बादशाह अपने पंटर का नाम कैसे भूल जाएगा। सवाल ही नहीं उठता। हा...हा...हा..।" उसने फिर से जोर का अट्टहास किया। लेकिन फिर एकाएक खामोश हो गया।
सहगल टकटकी लगाकर उसे देखने लगा था।

"मगर तेरे को तो अपना नाम याद है या फिर तू अपना नाम भूल गया?" गोपाल ने पूछा “बोल बाबा। तेरे को अपना नाम याद है न?"

"ह...हां।” सहगल ने कठिनता से सहमति में अपना सिर हिलाया और कसमसाकर बोला “य..याद है।"

“अच्छा।" गोपाल ने हैरान होने का दिखावा किया, जैसे कि उसे सहगल की बात पर विश्वास न हुआ हो, फिर बोला “तो फिर एक बार जरा ऊंचा बोलकर बता ताकि मेरे को यकीन आ जाए।”
सहगल हिचकिचाया।

“तूने सुना नहीं बाबा।” गोपाल का लहजा सर्द हुआ था “लगता है ऊंचा सुनने लगा है कान में कोई नुक्स आ गया है।"

“स...स...साबिर।” सहगल ने कहा।
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“क्या बोला, मैंने सुना नहीं। जरा फिर से बोल।"

“सा...साबिर ।” सहगल ने दोहराया।

"शाबाश।” गोपाल खुश हो गया “यानि कि तेरे को अपना नाम याद है। अब आगे बोल ।”
 
“आ...आगे क्या बोलू?"

"तेरा नाम तो काफी बढ़िया था, फिर बदल क्यों डाला। साबिर बाबा से सहगल बाबा क्यों बन गया?"

"वो मैं...मैं..."

“मिमिया मत साबिर बाबा। मिमियाने वाले लोग मेरे को पसंद नहीं। मिमियाये बिना बता।"

“वह दरअसल सब तुम्हारे गिरफ्तार होने की वजह से हुआ। तुम्हारे बाद हम सबको भी अपनी गिरफ्तारी का खौफ सताने लगा था, इसीलिए...।"

“इसीलिए तूने अपना नाम बदल दिया साबिर बाबा से सहगल बाबा बन गया। ठीक?”

“ह...हमें अपनी-अपनी राह तो लगना ही था। और फिर अकेले मैंने ही तो ऐसा नहीं किया था। गैंग के दूसरे तमाम आदमी भी गिरफ्तारी के खौफ से अंडरग्राउंड हो गए थे और अपनी पुरानी पहचान के साथ वे इस शहर में बने नहीं रह सकते थे। सबको अपनी पहचान बदलनी जरूरी थी।"

“इसी वास्ते तू अपनी पहचान बदलकर सहगल बाबा बन गया।” गोपाल खून के धूंट पीता हुआ बोला “मेरे दूसरे पंटरों ने भी ऐसा ही किया। बराबर?"

"ह...हां।” सहगल ने पहलू बदला।

“और फिर उसके बाद तू सीधा उस जानकी की कंपनी का एकाउंटेंट बन गया? नहीं?"

"नहीं।"

"क्या नहीं?"

"तुम्हारा गैंग छोड़ने के बाद कितने ही सालों तक मैं पुलिस के खौफ से अंडरग्राउंड बना रहा। उसके बाद....।"

“मगर तेरे को पुलिस का इतना खौफ क्यों था? मेरे बाकी के पंटर को पुलिस का खौफ क्यों था? गैंग का मुखिया तो मैं था
जो गिरफ्तार हुआ था। तुम लोग कहां गिरफ्तार हुए थे?"

“नहीं हुए थे। लेकिन सब कुछ तुम्हारी जुबान के ऊपर था। अगर पुलिस तुम्हारी जुबान खुलवाने में कामयाब हो जाती तो...।" उसने जानबूझकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।"

"तो तुम सारे के सारे पंटर भी गिरफ्तार हो जाने वाले थे।" गोपाल ने उसका वाक्य पूरा किया “यह कहना चाहता है तू?"

"ह...हां।” उसने कठिनता से सहमति में सिर हिलाया।

"मैंने लिया तुम हरामखोरों में से किसी का नाम? पुलिस मेरी जुबान खुलवा पाई ?"

“न...नहीं। मगर..."

“खैर जाने दे।” वह पुनः बातों का छोर पकड़ता हुआ बोला “आगे बता। अंडरग्राउंड होने के बाद फिर तूने क्या किया?
जानकी लाल सेठ की नौकरी कर लिया?"

"नहीं। वह बहुत बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी थी, जहां इतनी जल्दी मुझे एकाउटेंट की नौकरी नहीं मिलने वाली थी।"

"क्यों नहीं मिलने वाली थी? तेरे पास एकाउंटेंट की डिग्री तो बराबर थी वह भी एक दम असली। चौबीस कैरेट सोने जैसी खरी।"

"ह...हां थी।” मगर उस कम्पनी के लिहाज से मैं प्रैशर था।

“कहां फ्रैशर था। मेरे साथ कितने साल तूने काम किया था?" "लेकिन... म..मैं वहां उसका हवाला नहीं दे सकता था। कहीं भी तुम्हारी नौकरी का जिक्र नहीं कर सकता था।"

“इसीलिए तूने दूसरी छोटी-मोटी कंपनियों में नौकरी करके पहले अनुभव बटोरा। ठीक?"

"ह..हां।"
“लेकिन साले, हरामी, हलकट, तुझे छोटी-मोटी नौकरी करने की जरूरत ही क्या थी? मेरा इतना सारा रोकड़ा था तो तेरे पास, जो तू हथियाकर भाग निकला था।"

“व...व..वो..."

“अरे भाई, मैं ठहरा स्साला हिस्ट्रीशीटर। रोकड़ा तो मैं खूब कमा सकता था लेकिन उसको कहीं इन्वेस्ट नहीं कर सकता था, जबकि तेरे साथ ऐसा नहीं था। तेरा तो कोई पुलिस रिकार्ड तक नहीं था, इसीलिए मैंने वह सारा पैसा तेरे नाम पर इन्वेस्ट किया था, और उस पर सरकार को बाकायदा टैक्स भी चुकाता था।" वह रुका, उसने फिर प्रश्नसूचक नेत्रों से सहगल को देखा “मेरा सब मिलाकर टोटल कितना नावां बनता होगा? बीस करोड़ से कम तो क्या बनता होगा?"

सहगल जवाब देने के बजाय थूक निगलने लगा।

“वह सारा का सारा रोकड़ा तेरे ही हाथ में तो था वीर मेरे। मेरी सारी चल-अचल सम्पत्ति बेचकर तू उसे डकार गया था
और वह हर घड़ी तेरे पास था। इतने रोकड़े पर तो सारी जिंदगी ऐश किया जा सकता था, फिर भी तू पचास हजार की
एकाउंटेंट की नौकरी पर मरता रहा? क्यों बाबा?"

सहगल इस बार भी कोई जवाब न दे सका। वह व्यग्र भाव से पहलू बदलने लगा।

"अरे बोल बाबा। गूंगा हो गया क्या? और कुछ नहीं तो यही बोल दे कि जमा पूंजी में इजाफा न हो और केवल खर्च ही होता रहे तो एक दिन कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है. या फिर दसरी वजह भी बता दे कि दनिया को शक हो जाता। लाजिमी भी है, आदमी कुछ कमाए धमाए न, केवल दोनों हाथों से खर्च करे तो शक होना लाजिमी होता है। अरे बोल मेरे शेर, तू गूंगा क्यों हो गया?"
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