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- Dec 5, 2013
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कंचन इस वक़्त अपने घर में चारपाई पर उकड़ू बैठी हुई है. वो उन लम्हो में डूबी है, जब झरने के पास रवि से मिली थी. उसकी मष्टिसक में रवि के आत्मीयता से कहे गये शब्द घूम रहे हैं, उन्ही बातों को याद करके कभी उसके होठ मुस्कुरा उठते तो कभो वो उदास हो जाती.
वो सोच रही थी - आज कितना अच्छा मौक़ा था....साहेब से अपने दिल की बात कहने का. पर मैं मूर्ख क्यों ना कही उनसे. कह देती तो क्या हो जाता. उफ्फ उन्होने पुछा भी था....पर मैं सोचती रह गयी...और जो बोला भी तो क्या "जाइए...मैं नही बताती, आप बड़े वो हो." मैं ऐसी मूर्खों जैसी बात क्यों कह गयी?. अब साहेब क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में?. क्या साहेब अब भी वहीं होंगे? क्यों ना मैं वापस जाकर देखूं....शायद साहेब मिल जाएँ. लेकिन जो मैं उनसे फिर मिली तो साहेब क्या सोचेंगे? चाहें साहेब जो भी सोचे, पर इसी तरह उनसे मिलूंगी तभी तो वो मेरा हाल जानेगे. जो ना मिली तो वो कैसे जान पाएँगे कि मेरे दिल में क्या है?
"आए कंचन क्या हुआ है तुम्हे?" अचानक कंचन के कानो से आवाज़ टकराई तो वो चिहुनक-कर पलटी. नज़रें उठी तो देखा सामने बुआ खड़ी थी. और आश्चर्य से उसे देखे जा रही थी.
"कब से खड़ी देख रही हूँ, तू अपने आप हंस रही है, कभी खुद से झुंझला रही है, मैं सामने खड़ी हूँ पर तेरा ध्यान ही नही है मुझपर, सब ठीक तो है?" बुआ ने सवाल किया.
"नही....हान्ं....मैं....मुझे कुच्छ नही हुआ है, मैं ठीक हूँ." कंचन हक्लाई.
"हां....नही....मैं." बुआ हैरानी से कंचन के शब्द दोहराई. फिर कंचन को घुरती हुई बोली - "क्या बोल रही है तू? सॉफ सॉफ बोल. तू इस तरह उदास सी क्यों बैठी थी? तुझे कुच्छ तो हुआ है."
"कुच्छ भी तो नही हुआ है बुआ. मैं ठीक तो हूँ." कंचन बोली और कमरे से बाहर जाने लगी.
"अब कहाँ जा रही है? अभी तो बाहर से आई है तू....फिर से बाहर क्या करने जा रही है?" शांता बुआ उसे बाहर जाते देख बोली - "और आज तू स्कूल क्यों नही गयी?"
"स्कूल जाने को मन नही किया, कल चली जाउन्गि, अभी हवेली जा रही हूँ." ये कहकर वो तेज़ी से बाहर निकल गयी.
कंचन तेज़ी से चलती हुई उसी झरने के पास पहुँची, जहाँ पर वो रवि को छोड़ कर गयी थी. उसे ये उम्मीद थी कि शायद रवि अब भी वहीं हो.
वो उस जगह पर पहुँच कर अपनी निगाहें चारो तरफ दौड़ाने लगी. पर रवि को कहीं ना पाकर उसका दिल बैठ गया. वह एक बार फिर से इधर-उधर . मार कर रवि को ढूँढने लगी, पर जो था ही नही वो मिलता कैसे. वह निराश होकर एक पत्थेर पर बैठ गयी. घर से कितनी उमंगे लेकर आई थी, पर रवि को ना पाकर उसका मॅन भारी हो गया. अचानक से वो उठी और हवेली के रास्ते अपने कदम बढ़ाती चली गयी.
कंचन इस वक़्त अपने घर में चारपाई पर उकड़ू बैठी हुई है. वो उन लम्हो में डूबी है, जब झरने के पास रवि से मिली थी. उसकी मष्टिसक में रवि के आत्मीयता से कहे गये शब्द घूम रहे हैं, उन्ही बातों को याद करके कभी उसके होठ मुस्कुरा उठते तो कभो वो उदास हो जाती.
वो सोच रही थी - आज कितना अच्छा मौक़ा था....साहेब से अपने दिल की बात कहने का. पर मैं मूर्ख क्यों ना कही उनसे. कह देती तो क्या हो जाता. उफ्फ उन्होने पुछा भी था....पर मैं सोचती रह गयी...और जो बोला भी तो क्या "जाइए...मैं नही बताती, आप बड़े वो हो." मैं ऐसी मूर्खों जैसी बात क्यों कह गयी?. अब साहेब क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में?. क्या साहेब अब भी वहीं होंगे? क्यों ना मैं वापस जाकर देखूं....शायद साहेब मिल जाएँ. लेकिन जो मैं उनसे फिर मिली तो साहेब क्या सोचेंगे? चाहें साहेब जो भी सोचे, पर इसी तरह उनसे मिलूंगी तभी तो वो मेरा हाल जानेगे. जो ना मिली तो वो कैसे जान पाएँगे कि मेरे दिल में क्या है?
"आए कंचन क्या हुआ है तुम्हे?" अचानक कंचन के कानो से आवाज़ टकराई तो वो चिहुनक-कर पलटी. नज़रें उठी तो देखा सामने बुआ खड़ी थी. और आश्चर्य से उसे देखे जा रही थी.
"कब से खड़ी देख रही हूँ, तू अपने आप हंस रही है, कभी खुद से झुंझला रही है, मैं सामने खड़ी हूँ पर तेरा ध्यान ही नही है मुझपर, सब ठीक तो है?" बुआ ने सवाल किया.
"नही....हान्ं....मैं....मुझे कुच्छ नही हुआ है, मैं ठीक हूँ." कंचन हक्लाई.
"हां....नही....मैं." बुआ हैरानी से कंचन के शब्द दोहराई. फिर कंचन को घुरती हुई बोली - "क्या बोल रही है तू? सॉफ सॉफ बोल. तू इस तरह उदास सी क्यों बैठी थी? तुझे कुच्छ तो हुआ है."
"कुच्छ भी तो नही हुआ है बुआ. मैं ठीक तो हूँ." कंचन बोली और कमरे से बाहर जाने लगी.
"अब कहाँ जा रही है? अभी तो बाहर से आई है तू....फिर से बाहर क्या करने जा रही है?" शांता बुआ उसे बाहर जाते देख बोली - "और आज तू स्कूल क्यों नही गयी?"
"स्कूल जाने को मन नही किया, कल चली जाउन्गि, अभी हवेली जा रही हूँ." ये कहकर वो तेज़ी से बाहर निकल गयी.
कंचन तेज़ी से चलती हुई उसी झरने के पास पहुँची, जहाँ पर वो रवि को छोड़ कर गयी थी. उसे ये उम्मीद थी कि शायद रवि अब भी वहीं हो.
वो उस जगह पर पहुँच कर अपनी निगाहें चारो तरफ दौड़ाने लगी. पर रवि को कहीं ना पाकर उसका दिल बैठ गया. वह एक बार फिर से इधर-उधर . मार कर रवि को ढूँढने लगी, पर जो था ही नही वो मिलता कैसे. वह निराश होकर एक पत्थेर पर बैठ गयी. घर से कितनी उमंगे लेकर आई थी, पर रवि को ना पाकर उसका मॅन भारी हो गया. अचानक से वो उठी और हवेली के रास्ते अपने कदम बढ़ाती चली गयी.