Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट - Page 4 - SexBaba
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Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट

वो जगह आइलैंड के घने बसे और रौनक वाले हिस्‍से से-जो कि वैस्‍टएण्‍ड कहलाता था-बहुत बाहर थी इसलिये जाहिर था कि नीलेश ने फासले से आना था और आना कैसे था, इसकी उसे कोई खबर नहीं थी ।

वो जानती थी खुद का कोई वाहन उसके पास नहीं था और रात की उस घड़ी पब्लिक कनवेंस मिलने में दिक्‍कत हो सकती थी ।
दुश्‍वारी के उस आलम में वो सब अपने आपको तसल्लियां थीं वर्ना क्‍या पता उसका ख्‍याल बदल गया हो और असने उधर का रुख भी न किया हो ! उसने उससे रोकड़ा भी तो मांगा था ! क्‍या पता रोकडे़ की वजह से बिदक गया हो और मुंह छुपा के बैठ गया हो !
नीलेश वहां पहुंचे ही नहीं, इस खयाल उसे बहुत डराया ।
रात की अस घड़ी वो उजाड़ बियाबान जगह थी जहां परिंदा पर नहीं मार रहा था । करीब ओल्‍ड यॉट क्‍लब थी लेकिन वो आइलैंड का एक पुराना लैंडमार्क ही था । वो एक मुद्‍दत से बंद थी और अब तो उसकी इमारत भी खंडहर में तब्‍दील होती जा रही थी ।

जहां वो खड़ीं थी, वहां रोशनी का साधन सायबान में टिमटिमाता एक बीमार सा बल्‍ब था, बार का मालिक जिसे शायद उसी की सहूलियत के मद्‍देनजर जलाता छोड़ गया था । उस वीराने में और नीमअंधेरे में अब उसे बाकायदा डर लगने लगा था ।
उसने सामने निगाह दौड़ाई ।
सड़क से पार का इलाका पहाड़ी था और वहां बिखरे बिखरे से कुछ मकान बने हुए थे । उनमें से काफी फासले के सिर्फ एक मकान में रोशनी थी, बाकी सब अंधेरे के गर्त में डूबे हुए थे ।
बावक्‍तेजरूरत क्‍या उसे उस रोशन मकान से कोई मदद हासिल हो सकती थी?

और नहीं तो वो वहां से नीलेश का फोन ही ट्राई कर सकती थी ।
फिर अपनी नकारात्‍मक सोच पर उसे खुद अपने पर गुस्‍सा आने लगा ।
नीलेश आयेगा-उसने खुद को तसल्‍ली दी-जरुर आयेगा । वो वदाखिलाफी नहीं कर सकता था । रोकड़े के बारे में वो आ कर अपनी कोई मजबूरी जाहिर कर सकता था ले‍किन आने में कोताही नहीं कर सकता था ।
वो कोई आम आदमी नहीं था जो कि आम आदमियों जैसी आम हरकतें करता । खास आदमी था वो ।
खास आदमी !
क्‍या खासियत थी उसमें ! कौन था वो ! आइलैंड पर किस फिराक में था ! किसी फिराक में तो बराबर था । उसकी हरकतें ऐसी थीं कि गनीमत थी कि सिर्फ उसकी तीखी निगाह में आयी थीं ।

कौन था !
क्‍या उस गोवानी रैकेटियर फ्रांसिस मैग्‍नारो के किसी दुश्‍मन का, किसी प्रोफेशनल राइवल का कोई जासूस !
नहीं, नहीं । दुश्‍मन का जासूस तो कोई दुश्‍मन जैसा ही रैकेटियर, गैंगस्‍टर, मवाली होता ! नीलेश तो उसे भला आदमी जान पड़ता था ।
उसकी ये भी मजबूरी थी कि अपनी कोंसिका क्‍लब की कलीग्स में से किसी से माली इमदाद मांगने वो नहीं जा सकती थी । क्‍लब में उसकी इतनी करीबी दो ही बारबालायें थीं-यासमीन और डिम्‍पल-लेकिन उस घड़ी उसका उन पर भी ऐतबार नहीं बन रहा था, उनमें से कोई भी उसकी खबर पुजारा को कर सकती थी और पुजारा उसकी बाबत आगे महाबोले को खबरदार कर सकता था ।

महाबोले के खयाल से ही उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गयी । उसने महाबोले से पंगा लिया था जो कि उसकी सबसे बड़ी गलती थी । उसकी आमद के वक्‍त उसे सदानंद रावले को घर नहीं लाना चाहिये था । वो भी किया तो शायद उसकी खता माफ हो जाती लेकिन तो बाकायदा उसके साथ जुबानदराजी की, उसे हूल दी कि वो उसका-महाबोले का-ऐसा बुरा कर सकती थी जो उसे बहुत भारी पड़ता ।
क्‍यों जोश में उसका माथा फिर गया था और वो महाबोले जैसे दरिंदे की मूंछ का बाल नोंचने पर आमादा हो गयी थी !
हिम्‍मत करके वो लीडो क्‍लब में कारमला से-जो कि पहले कोंसिका क्‍लब में उसके साथ बारबाला थी-मदद मांगने गयी थी लेकिन कारमला ने साफ बोल दिया था‍ कि उसके पास उसको उधार देने के लिये छोटा मोटा रोकड़ा भी नहीं था ।

जो कि सरासर झूठ था । कमीनी देना ही नहीं चाहती थी, उसकी कोई मदद करना ही नहीं चाहती थी, उसके सामने ही ऐसा मिजाज दिखा रही थी जैसे उसकी आमद से बेजार हो ।
कोनाकोना आइलैंड का रुख करना उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी लेकिन गोवा में रोनी डिसूजा ने उसे ऐसे सब्‍जबाग दिखाये थे, ऐसा यकीन दिलाया था कि वो आइलैंड पर चांदी काटती कि अपने बॉस मैग्‍नारो के साथ जब उसने आइलैंड का रुख किया था तो वो भी उसके साथ चली आयी थी । वहां पहुंच कर ही उसे मालूम हुआ था कि वहां आने वाली सम्‍भ्रांत टूरिस्‍ट महिलाओं में से आधी वहां आती ही खास मौजमेले की तलब लेकर थी इसलिये ‘ईजी ले’ थीं और उस जैसी बारबालाओं का धंधा बिगाड़ती थीं ।

रोकड़े की जरूरत उसको इसलिये तो थी ही कि उसकी जेब खाली थी - उसका सब कुछ पीछे बोर्डिंग हाउस में रह गया था - इसलिये भी थी कि रोकडे़ की मजबूती के बिना वो आइलैंड से कूच नहीं कर सकती थी । स्‍टीमर पर सवार होने के लिये वो पायर पर कदम भी रखती तो पलक झपकते महाबोले की गिरफ्त में होती । सेलर बार में ही उसे एक सेलर मिला था जो स्‍टीमर के पायर छोड़ चुकने के बाद उसे बीच समुद्र में उस पर चढ़ा देने का जुगाड़ कर सकता था ।
वो इस हकीकत से वाकिफ थी कि आइलैंड पर कोस्‍ट गार्ड्‌स की छावनी थी और छावनी का अपना प्राइवेट पायर था । उस सेलर का दावा था कि उधर भी उसका ऐसा जुगाड़ था कि वो मोटरबोट पर उसे वहां से पिक कर सकता था । लिहाजा उसने कब, कैसे आइलैंड छोड़ा, किसी को हरगिज खबर न लगती ।

फीस दो हजार रूपये ।
एक बार आइलैंड से निजात मिल जाने के बाद फिर आगे की आगे देखी जाती ।
महाबोले की ताकत आइलैंड तक ही सीमित थी, उसे यकीन था कि आइलैंड से बाहर वो न उसे ढूंढ़ सकता था और न उसका कुछ बिगाड़ सकता था ।
तभी दूर कहीं से आती एक कार के इंजन की आवाज उसके कानों में पड़ी । साथ ही कार की हैडलाइट्स से सड़क के दोनों ओर की झाड़ियां और पेड़ रोशन हुए ।
थैंक गॉड ! एट लास्‍ट !
हैडलाइट्स की रोशनी करीब से करीबतर होती गयी और इंजन की आवाज तेज होती गयी ।

वो सायबान के नीचे से निकल कर सड़क के किनारे आ खड़ी हुई ।
कार करीब पहुंची ।
लेकिन हैडलाइट्स की रोशनी इतनी तीखी थी कि उसे उसके पीछे कुछ दिखाई न दिया ।
वो और करीब पहुंची ।
तब सबसे पहले तो उसे यही दिखाई दिया कि वो कार नहीं, जीप थी ।
जीप !
ब्रेकों की चरचराहट के साथ वो उसके करीब आकर खड़ी हुई ।
उसने आंखे फाड़ फाड़ कर सामने देखा ।
आखिर उसे सामने जो दिखाई दिया, उसने उसके प्राण कंपा दिये ।
जीप के अपनी ओर के पहलू पर ‘पुलिस’ लिखा उसने साफ पढ़ा ।

उसे अपने दिल की धड़कन रूकती महसूस हुई ।
एकाएक वो घूमी और जीप की ओर पीठ करके सड़क पर सरपट दौड़ चली ।
वो जानती थी कि वो सड़क पर ही दौड़ती नहीं रह सकती थी, जीप फिर स्‍टार्ट होती और पलक झपकते उसके सिर पर पहुंच जाती ।
उसे मालूम था बार के पिछवाड़े में बार की पार्किंग थी जहां कहीं छुपने का जुगाड़ हो सकता था । सड़क छोड़ कर वो बाजू की झाड़ियों में घुस गयी और अंधाधुंध आगे अंधेरे में लपकी ।
 
तभी उसकी सैंडल की हील कहीं उलझीं और वो धड़ाम से मुंह के बल गिरी । उसका मुंह कचरे में धंस गया जिसेमें से उठती मुश्‍क साफ बना रही थी कि वो किचन का कचरा था । उसने उठने की कोशिश की तो उसका पांव फिर फिसल गया और फिर ढ़ेर हो गयी ।

तभी हैडलाइट्स की रोशनी उस पर पड़ी ।
आतांकित भाव से उसने कचरे में से मुं‍ह निकाला और सिर घुमाकर पीछे देखा ।
जीप झाड़ियों के पार तिरछी खड़ी थी और कोई उसकी ड्रायविंग सीट से नीचे कदम रख रहा था ।
उसके मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली और वो भरसक उठ कर अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश करने लगी ।
तभी जीप का ड्राइवर उसके सिर पर आ खड़ा हुआ ।
महाबोले ।
वो नीचे झुका ।
“नहीं ! नहीं !”
“क्‍या नहीं नहीं ?” - वो सहज भाव से बोला - “कुछ हुआ तेरे को ?”

“मु-मुझे...मुझे...छोड़ दो ।”
“छोड़ दूं ?” - वो पूर्ववत् सहज भाव से बोला - “पकड़ा कब ?”
“मु-मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो ।”
“बोले तो कचरा है, इस वास्‍ते कचरे में पड़ा रहना चाहती है ।”
“म-म-मैं...मैं...”
“उठ के खड़ी हो । जिस हाल में है उसमें तो ढण्‍ग से मिमिया भी नहीं पा रही है ।”
“म-मैं...”
“सुना नहीं !”
स्‍तब्‍ध वातावरण में महाबोले की कड़क की आवाज जोर से गूंजी ।
लेकिन वहां सुनने वाला कौन था !
गिरती पड़ती रोमिला उठ कर अपने पैरों पर खड़ी हुई ।
“कपड़े झाड़ ! मुंह पोंछ !”
रोबोट की तरह उसने आदेश का पालन किया ।

महाबोले ने उसकी बांह थामी और उसे मजबूती से साथ चलाता वापिस जीप की ओर बढ़ा ।
“क-कहां...जा...जा...”
“अरे, जहां भी जायेंगे” - महाबोले ने पुचकारा - “यहां से तो बेहतर ही जगह होगी !”
“म-म...मैं माफी...माफी चाहती हूं ।”
“किस बात की ? क्‍या किया तूने ?”
“तु...तुम जो कहोगे, म-मैं करूंगी ।”
“जरूर । मेरे को तेरे से ऐसी उम्‍मीद बराबर है । लेकिन यहीं तो नहीं करेगी ! किसी कायदे की जगह पहुंचेगी तो करेगी न !”
“म-मैं...”
“तू ही । और कौन ! जीप में बैठ ।”
“न-हीं !”
एकाएक वो जोर से चीखी ।
फिर चीखी ।

और उसकी पकड़ से आजाद होने के लिये तड़पने लगी ।
महाबोले ने एक जोर का झांपड़ मुंह पर रसीद किया ।
“साली कुतरी !” - महाबोले सांप की तरह फुंफकारा - “जीप में बैठ वर्ना यहीं ढ़ेर कर दूंगा ।”
आतंकित रोमिला जीप में पैसेंजर सीट पर सवार हो गयी ।
सामने से घेरा काट कर महाबोले परली तरफ पहुंचा और ड्राइविंग सीट पर स्टियरिंग के पीछे बैठ गया ।
“इ-इधर” - रोमिला बड़ी मुश्किल से बोल पायी - “कैसे पहुंच गये ?”
“पहले तू बोल ! यहां क्‍या कर रही थी ?”
“कुछ नहीं ।”
“कुछ नहीं ?”

“यूं ही इधर निकल आयी थी । बार देखा तो एक ड्रिंक के लिये भीतर चली गयी थी । फिर बार बंद हो गया और मेरे को लिफ्ट के लिये बाहर वेट करना पड़ा ।”
“कौन देता लिफ्ट तेरे को ?”
“कोई भी । जो कोई इधर से गुजरता दिखाई दे जाता ।”
“कौन दिखाई दे जाता ? किसका इंतजार कर रही थी ?”
“किसी का नहीं । खास किसी का नहीं । यकीन करो मेरा ।”
“कोई वजह यकीन करने की ?”
“मैं...मैं...तुम्‍हारी...”
“थी ! मेरे को हूल देने से पहले थी ।”
“मैंने कुछ नहीं किया । कुछ किया तो अनजाने में किया । मैं शर्मिंदा हूं, दिल से माफी मांगती हूं ।”

“लिहाजा अब मेरे खिलाफ नहीं है ?”
“बिल्‍कुल नहीं ।”
“मेरी तरफ है ?”
“हां । दिलोजान से तुम्‍हारी तरफ हूं ।”
“मैंने यकीन किया तेरी बात पर ।”
“रोमिला ने चैन को प्रत्‍यक्ष सांस ली ।
“अब बोल, किसका इंतजार कर रही थी ? कौन आने वाला था ?”
“कोई नहीं । मैंने बोला न...”
“मैंने सुना ! साली, जानती नहीं किससे जुबान लड़ा रही है ! मैं तेरे बताये बिना भी मालूम कर लूंगा ।”
“ब-बताये बिना भी मा-मालूम कर लोगे ?”
“बार के मालिक से । रामदास मनवार से । जो तू नहीं बक रही, वो वो बतायेगा मेरे को ।”

“उ-उसे कुछ नहीं मालूम ।”
“अपना मोबाइल दिखा मेरे को ।”
“मो-मो-बाइल !”
“हां मोबाइल ! इधर कर ।”
“वो...वो...”
“हुज्‍जत नहीं मांगता मेरे को । साली, नंगी करके बरामद करूंगा ।”
रोमिला ने कांपते हाथों से गिरहबान में से फोन बरामद किया और उसे सौंपा ।
“इधर से किसी को फोन लगाया होगा” - महाबोले बोला - “तो ‘डायल्‍ड नम्‍बर्स’ में दर्ज होगा...ये तो साला डैड है ।”
“बै-बैटरी खल्‍लास है ।” - रोमिला बोली - “चार्ज करना भूल गयी ।”
“हूं । तो लैंड लाइन से फोन लगाया !”
वो खामोश रही ।
महाबोले ने फोन उसकी गोद में डाल दिया ।

“ये बार मेरा देखा भाला है” - फिर बोला - “यहां का इकलौता पब्लिक फोन बार काउंटर के कोने में ही है । तूने उस पर से काल लगाई होगी तो मनवार ने कुछ जरूर सुना होगा ।”
“न-हीं ।”
“क्‍या नहीं ? नहीं सुना होगा ?”
“हं-हां ।”
“यानी मानती है, तसदीक करती है काल लगाई थी ?”
“टैक्‍सी बुलाने के लिये ।”
“बंडल ! साली अभी बोल के हटी कि लिफ्ट के लिये खड़ी थी । टैक्‍सी वाला वालंटियर है जो तेरे को लिफ्ट देगा !”
“वो...वो नहीं आ रहा था ।”
“क्‍या बोली ?”
“मेरे को बोला गया था कि कोई टैक्‍सी अवेलेबल नहीं थी । इस वास्ते लिफ्ट की उम्‍मीद में बाहर खड़ी थी ।”

“बहुत बक चुकी । बहुत बकवास कर चुकी । अब साफ बोल, सच बोल, किसका इंतजार था ? कौन आने वाला था ?”
“मैं सच बोलूंगी तो और नाराज हो जाओगे !”
“नहीं होऊंगा । बोल !”
“एक हैवी कस्‍टमर मिल गया था । वो आने वाला था ।”
“हैवी कस्‍टमर बोले तो ?”
“डबल-बल्कि उससे भी ज्‍यादा-फीस भरने वाला ।”
“क्‍या कहने !”
“मैं क्‍या करती ! आज कल मेरे को रोकड़े की शार्टेज ।”
“बाइयों को हमेशा ही होती है ।”
“जब बाई बोला तो बोलो क्‍या गलत किया !”
उसने जवाब न दिया । उसने जीप का इंजन स्‍टार्ट किया, दक्षता से उसे घुमाया और फिर वापिस सड़क पर उधर डाल दिया जिधर से कि वो आया था ।

“गलत किया ।” - एकाएक वो यूं बोला जैसे खुद से बात कर रहा हो ।
“लेकिन...”
“साली, जो मेरे को गलत लगे, वो गलत । जो मैं गलत बोले, वो गलत । मैं तेरे को पहले दिन बोल के रखा, तू मेरी इजाजत के बिना कुछ नहीं कर सकती । फिर भी कभी कुछ कर लिया तो इसलिये कि मैंने तेरा लिहाज किया । लेकिन लिहाज हमेशा नहीं होता । या होता है ?”
रोमिला ने जल्‍दी से इंकार में सिर हिलाया ।
“फिर भी साली भाग खड़ी हुई ! कौन इजाजत दिया तेरे को ?”
“मैंने कुछ गलत नहीं किया । इसलिये सोचा कि इजाजत की जरूरत नहीं थी ।”

“साली, ये फैसला भी मेरे को करने का कि तू कुछ गलत किया कि नहीं किया ।”
“ये जुल्‍म है ।”
“झेलना पड़ेगा । तू मेरे आइलैंड पर है । झेलना पड़ेगा ।”
“मैंने कभी तुम्‍हारी मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं किया । कोई एक मिसाल दो कि...”
“बकवास बंद कर ! साली मेरे को होशियारी दिखाती थी ! उल्‍लू बनाती थी ! समझती थी कि बना लेगी । अच्‍छा होता साला पहले दिन ही पेंदे पर लात जमाता और आइलैंड से बाहर करता । पहले ही दिन मेरे को लगा था कि कोई ही श्‍यानी आइलैंड पर आ गयी थी जो श्‍यानपंती से बाज नहीं आने वाली थी...”
 
“मैं नहीं हूं ऐसी लेकिन अगर ऐसी समझते हो तो जाने दो मुझे । जो काम पहले दिन करना था, वो अब कर लो । मुझे बोलो इधर से नक्‍की होने को, मैं होती हूं ।”
“नक्‍की तो तेरे को होना ही है ।” - एकाएक जीप की रफ्तार घटने लगी - “और जो काम होना ही है, उसमें देर करने का का फायदा ?”
“क-क्‍या !”
“पण तू स्‍टाइल से नक्‍की होगी । ऐसे कि कुछ साथ ले के नहीं जायेंगी । जैसी तेरी मां तुझे दुनिया में लाई वैसे मैं तुझे अपने आइलैंड से आउट बोलूंगा ।”
“क्‍या !”

“साली, तेरा बदन ही तेरा है जिसकी कि तू तिजारत करती है । तू खाली अपनी चमड़ी ओढ़ के इधर से नक्‍की करेगी ।”
“देवा ! देवा !, ऐसा जुल्‍म न करना !”
वो हंसा ।
“मजाक ! मजाक कर रहे हो !”
वो फिर हंसा ।
“प्‍लीज, कह दो कि मजाक कर रहे हो ।”
“मैंने पहले कभी किया मजाक तेरे से ?”
“लेकिन...लेकिन...”
“चुप कर !”
उस घड़ी धीमी गति से चलती जीप रूट फिफ्टीन के ऐसे हिस्‍से से गुजर रही थी कि उसकी बायीं तरफ एक रेलिंग थी, रेलिंन के आगे ढ़लान थी और ढ़लान के आगे सड़क के समानांतर चलता एक गहरा नाला था ।

आती बार वो न्‍यू लिंक रोड से आया था जो कि आइलैंड पर हाइवे का दर्जा रखती थी इसलिये कभी उजाड़ नहीं होती थी । वापिसी में उस रोड को नजरअंदाज करके उसने पुरानी सड़क पकड़ी थी जो कि रूट फिफ्टीन कहलाती थी और जो रात के तकरीबन हर वक्‍त सुनसान पड़ी होती थी ।
उसने कार रोकी । वो रोमिला की तरफ घूमा ।
“अभी मैं साबित करके दिखाता हूं कि मेरी कोई बात मजाक नहीं ।”
उसके कहने का ढ़ण्‍ग ही ऐसा था कि रोमिला का दिल डूबने लगा ।
“क-क्‍या करोगे ?” - बड़ी मुश्किल से वो बोल पायी ।

“साबित करूंगा न, कि मैं मजाक नहीं करता । खास तौर से किसी गश्ती के साथ !”
“क्‍या करोगे ?”
“तेरे को मादरजात नंगी करूंगा और दफा करूंगा ।”
“तु-तुम ऐसा नहीं कर सकते ।”
“कौन रोकेगा मुझे ?”
“मैंने आगे किसी से बात की है । मैं तुम्‍हारे बारे में बहुत कुछ जानती हूं । मैं मुंह फाङूंगी तो...”
महाबोले ने उसको गले से पकड़ लिया ।
उसकी घिग्‍घी बंध गयी ।
“दूसरी बार तूने मेरे को ये हूल दी ।” - उसका स्‍वर हिंसक हो उठा - “किससे बात की है ! कौन-सा नया खसम किया है ? बोल !”

“पुलिस से ।”
“पुलिस से ! अरी, इडियट ! मैं हूं पुलिस ! यहां की पुलिस मेरे से शुरू होती है और मेरे पर खत्‍म होती है ।”
“तुम्‍हारी पुलिस से नहीं ।”
“तो और किस से ?”
“वो लोग बाहर से हैं ।”
“कौन लोग ? किसी एक का नाम ले !”
“गला छोड़ो ।”
महाबोले ने हाथ खींच लिया ।
“अब बोल !”
“गोखले ।”
“कौन ?”
“गोखले । नीलेश गोखले ।”
“वो कोंसिका क्‍लब का बाउंसर !”
“जो दिखाई देता है, हमेशा वही सच नहीं होता ।”
“बोले तो ?”
“वो सीक्रेट एजेंट है ।”
“पुलिस का ?”

“और किसका !”
“कहां की पुलिस का ?”
“जब मुम्‍बई से है तो मुम्‍बई पुलिस का ही होगा !”
“वो बोला तेरे को ऐसा ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“मैंने भांपा ।”
“इतनी चतुर सुजान है तू कि साली इतनी बड़ी बात भांप ली ?”
“तुम मुझे कुछ न समझो तो इसका मतलब ये तो नहीं...”
“शट अप !”
रोमिला सहमकर चुप हो गयी ।
गोखले ! सीक्रेट एजेंट !
इस खयाल से ही उसको दहशत हो रही थी ।
अगर वो बात सच थी तो वो पहला मौका था जब कोई सरकारी एजेंट बिना उसकी, बिना उसके भेदियों की, जानकारी में आये आइलैंड पर पहुंच गया था ।

नहीं, नहीं । ऐसा नहीं हो सकता था । उसके भेदिये मुम्‍बई पुलिस में भी थे । उनसे इतनी चूक नहीं हो सकती थी कि कोई भेदिया उधर का रुख करता और उन्‍हें भनक तक न लगती ।
लड़की झूठ बोल रही थी । अपनी जान बचाने की खातिर यकीनन झूठ बोल रही थी, गोखले को मिसाल बना कर सीक्रेट एजेंट का हौवा खड़ा कर रही थी क्‍योंकि जानती थी कि वो ही एक भीङू था जो हाल में अकेला उधर आ के बसा था ।
गोखले आम आदमी था, वो सीक्रेट एजेंट नहीं हो सकता था । आखिर उसकी भी तो कुछ स्‍टडी थी ।
 
लड़की जान बचाने के लिये सीक्रेट एजेंट की फर्जी कहानी खड़ी करने की कोशिश कर रही थी ।
“क्‍या सीक्रेट है उसमें ?” - प्रत्‍यक्षतः वो बोला - “सीक्रेट एजेंट है तो क्‍या सीक्रेट मिशन है उसका यहां ?”
“मु-मुझे नहीं मालूम ।”
“लेकिन ये मालूम है कि वो सीक्रेट एजेंट है ?”
“हं-हां ।”
“क्‍या खाक सीक्रेट एजेंट है जिसकी हकीकत एक कालगर्ल ने, एक बारबाला ने भांप ली ?”
“अब मैं क्‍या बोलूं !”
“उसने खुद तो नहीं किया अपना राज फाश तेरे पर ?”
“वो किसलिये !”
“तेरे से कोई बयान हासिल करने के लिये ?”
“बयान !”

“तसदीकशुदा ! साईंड स्‍टेटमेंट !”
“किस बाबत ?”
“यहां की खुफिया कारगुजारियों की बाबत !”
“मैं तो कुछ जानती नहीं !”
“शायद जानती हो !”
उसने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया ।
“साली, मेरे साथ सोती थी । तू जानती है मैं कई बार नशे में लापरवाह हो जाता हूं । शायद नशे में मैंने ही कुछ कहा हो जो याद कर लिया हो ! अपने बार के बारे में ! इम्‍पीरियल रिट्रीट में चलते मैग्‍नारो के जुआघर के बारे में ! मनोरंजन पार्क की ओट में चलते ड्रग्‍स ट्रेड के बारे में ! किसी भी बारे में !”

वो खामोश रही ।
“जवाब दे !”
“मैं कुछ नहीं जानती ।”
“तू बराबर कुछ जानती है ।”
“नहीं ।”
महाबोले ने होल्‍स्‍टर से गन निकाल कर उसकी कनपटी से सटा दी ।
“जवाब दे ! - वो सांप की तरह फुंफकारा - “सच बोल । वर्ना अगली सांस नहीं आयेगी ।”
रोमिला स्‍पष्‍ट सिर से पांव तक कांपी । उसे अपनी आंखों के सामने मौत नाचती दिखाई दी ।
“स-सच बोलूं तो” - वो बड़ी मुश्किल से बोल पायी - “बख्‍श दोगे ?”
“हां ।”
“जानबख्‍शी कर दोगे ?”
“सच बोलेगी तो !”
“वादा करते हो ?”
“करता हूं । तू मेरा खिलौना है” - महाबोले का लहजा नर्म पड़ा - “कोई अपना खिलौना खुद अपने हाथों से तोड़ता है ?”

“फिर भी कनपटी से गन सटाए हो !”
“क्‍योंकि तू बाज नहीं आ रही ।”
“अब आ रही हूं न !”
“सच बोलेगी ?”
“हां । कसम गणपति की ।”
महाबोले ने गन वापिस होलस्‍टर में रख ली ।
“अब बोल !” - वो बोला ।
“अपना वादा याद रखना !”
“याद है । बोल अब !”
“तुम्हारा खयाल सही है । तुम नशे में बहुत बोलते हो । उस वजह से इस आइलैंड पर क्‍या कुछ होता है, उसकी बाबत मैं बहुत कुछ जान गयी हूं । दिन में मेरे बोर्डिंग हाउस के कमरे में जैसे तुम मेरे से पेश आये थे, उसने मुझे बहुत दहशत में डाला था । मुझे लगा था कि तुम कभी भी मुझे मक्‍खी की तरह मसल दोगे; बस, मेरे तुम्‍हारे हाथ में आने की देर थी । दहशत की मारी तभी से मैं तुम से छुपती फिर रही थी । मैं जानती थी तुम मुझे तलाश करावा रहे होते इसलिये पायर पर कदम रखना खुदकुशी करने जैसा था । मैं अपना सामान वगैरह उठाने के लिये बोर्डिंग हाउस के अपने कमरे में भी नहीं लौट सकती थी क्‍योंकि मुझे गारंटी थी कि तुम्‍हारा कोई न कोई आदमी वहां मेरे लौटने का इंतजार कर रहा होगा । ऐसे में मुझे कहीं से कोई आदमी मदद हासिल होने की उम्‍मीद हुई तो वो गोखले से ही हुई । मैं उस पर जाहिर कर भी चुकी थी कि मैं उसे कोई और ही समझती थी । मैंने उससे कांटैक्‍ट करने की कोशिश की तो वो हो न सका । कांटैक्‍ट करते रहने के लिये किसी सेफ ठिकाने की जरूरत थी और वैसे ठिकाने के तौर पर मैंने सेलर्स बार को चुना जिससे मैं पहले से वाकिफ थी । सेलर्स बार जिस इलाके में है, वो आइलैंड की घनी आबादी से-आई मीन, वैस्‍टएण्‍ड से-दूर है, हैसियत में मामूली है, इतना कि तकरीबन टूरिस्‍ट्स को तो उसके वजूद की भी खबर नहीं लगती । मैं वहां चली गयी और गोखले से लगातार कांटैक्‍ट करने की कोशिश करने लगी ।”

“इरादा क्‍या था ?”
“इरादा उससे सौदा करने का था । जो वो जानना चाहता था, वो मैं उसे बताती, बदले में वो मुझे आइलैंड से सुरक्षित बाहर निकालने का इंतजाम करता और तब तक मेरे लिये प्रोटेक्‍शन का इंतजाम करता जब तक कि...कि...उसका सीक्रेट मिशन मुकम्‍मल न हो जाता ।”
“हूं ।”
“मेरी दूसरी प्राब्‍लम थी कि मेरी जेब खाली थी । घर से निकलते वक्‍त मैं एक कायन पर्स ही उठा पायी थी जिसमें यूं समझो कि कायन ही थे, चिल्‍लर ही थी । गोखले से कांटैक्‍ट हो जाता तो मुझे उससे माली इमदाद की भी उम्‍मीद थी ।”

“हुआ ?”
“क्‍या ?”
“अरे, भई, कांटैक्‍ट ?”
“हां, आखिर हुआ । उसने सेलर्स बार में मेरे पास आना कबूल किया । मैं उसके इंतजार में पीछे मौजूद थी, वो तो पहुंचा नहीं, तुम आ गये ।”
“उसने सेलर्स बार में पहुंचने की हामी भरी थी ?”
“हां । रास्‍ते में कहीं अटक गया होगा लेकिन आया जरूर होगा । मेरा दिल कहता है कि इस घड़ी वो वहीं होगा । बेशक खुद वापिस चल के देख लो, वहां खड़ा मेरा इंतजार करता मिलेगा ।”
“उसको जो कुछ बताती वो तो मुलाकात पर - जो कि हुई नहीं - बताती न ! पहले से क्‍या बता चुकी है ?”

“कुछ नहीं ।”
“कुछ नहीं ?”
“खास कुछ नहीं । अब तुम मेरी जानबख्‍शी कर दोगे तो कुछ बताऊंगी भी नहीं । अपनी जुबान को ताला लगा लूंगी ।”
“तेरे लगाये ताले पर मुझे ऐतबार नहीं । वक्‍त की जरूरत ऐसे ताले की है जो कि हमेशा के लिये लगे । ऐसा ताला सिर्फ मेरे पास है ।”
“क-कैसा ताला ?”
“सोच ।”
रोमिला ने हड़बड़ा कर उसकी तरफ देखा । अंधेरे में भी उसे उसकी आंखो में मौत बसी दिखाई दी ।
नहीं, उस शख्‍स का अपना वादा निभाने का कोई इरादा नहीं था । वो झूठा था, फरेबी था, उसे नहीं बख्‍शने वाला था ।
 
विकट स्थिति थी ।
उसकी अक्‍ल कहती थी कि गोखले एक मामूली आदमी था लेकिन जेहन के किसी कोने में ये बात भी सिर उठाती जान पड़ती थी कि रोमिला ने उसका जो आकलन किया था, वो सच हो सकता था ।
इसी उधेड़बुन में वो सड़क पर आकर जीप पर सवार हुआ ।
रोमिला के तन से उतारा सामान उसके लिये कोई प्राब्‍लम नहीं था, वो उसे झील में गर्क कर सकता था, समुद्र के हवाले कर सकता था जहां से कि वो कभी बरामद न हो पाता ।
वापिसी में वो फिर जमशेद जी पार्क से गुजरा और उसकी निगाह फिर बैंच पर लुढ़के पडे़ बेवडे़ पर पडी़ ।

वो तब भी उसी हालत में था जिस हालत में वो उसे पहले दो बार देख चुका था ।
साला मरा ही तो नहीं पड़ा था !
उसने जीप रोकी और गर्दन निकाल कर गौर से बेवड़े की तरफ देखा ।
नहीं, मर नहीं गया था । सांस चलती साफ पता लग रही थी ।
वो जीप आगे बढाने ही लगा था कि एक खयाल बिजली की तरह उसके जेहन में कौंधा !
ओह !
अब वो हवलदार जगन खत्री पर खफा नहीं था । अब वो खुश था कि उस रात उससे अपनी ड्‌यूटी में कोताही हुई थी । हवलदार ने उस रात अपनी ड्‌यूटी मुस्‍तैदी से की होती तो कवर अप का जो सुनहरा मौका उस घड़ी उसके सामने था, वो न होता ।

अब सब कुछ पहले से कहीं उम्‍दा तरीके से सैट हो जाने वाला था ।
वो जीप से उतरा और दबे पांव चलता बेवडे़ के करीब पहुंचा ।
उस घड़ी न पार्क में कोई था, न सड़क पर दोनों तरफ दूर दूर तक कोई था । उसने जेब से रोमिला का सामान और अपना रूमाल निकाला और बारी बारी एक एक आइटम को रगड़ कर, पोंछ कर-ताकि उस पर से फिंगरप्रिंट्स न बरामद हो पाते-बेसुध बैंच पर लुढ़के पडे़ बेवडे़ की जेबों में ट्रांसफर करना शुरू कर दिया ।
उसका काम मुकम्‍मल होने के और उसके वापिस जाकर जीप में सवार हो जाने के दौरान बेवड़े के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी ।

वो अपने थाने वापिस लौटा ।
वहां उसने अपनी वर्दी और जूतों का भी बारीकी से मुआयना किया और जहां कहीं झाड़ पोंछ की जरूरी महसूस की, पूरी सावधानी से की ।
शीशे के आगे खड़े हो कर उसने वर्दी का बारीक मुआयना किया और पीक कैप को सिर से उतार कर एक खूंटी पर टांगा । फिर वो अपने कमरे से निकला और बगल के कमरे पर पहुंचा । उस कमरे का दरवाजा आधा खुला था, बरामदे में से उसने दरवाजे के पार भीतर निगाह दौडा़ई ।
भीतर हवलदार खत्री, सिपाही महाले और सिपाही भुजबल बैठे ताश खेल रहे थे ।

जबकि तीनों में से एक को बाहर ड्‌यूटी रूम में होना चाहिये था जहां कि थाने का मेन टेलीफोन था जो कि कभी भी बज सकता था ।
ड्‌यूटी में कोताही के लिये उसने हवलदार खत्री की वाट लगाने का खयाल किया । लेकिन फौरन ही उस खयाल से किनारा कर लिया ।
वो उठ कर गश्‍त पर निकल पड़ता तो तभी पकड़ कर बेवडे़ को थाने ले आता ।
जो कि ठीक न होता ।
उसका इतना जल्‍दी पकड़ जाना स्‍वाभाविक न जान पड़ता ।
***
नीलेश की अपने मंजिल पर देर से पहुंचने की कई वजह बन गयीं ।

पहले पहिया पंचर हो गया, फिर वो रास्‍ता भटक गया, सही रास्‍ते लगा तो सेलर्स बार उसे दिखाई न दिया और वो आगे निकल गया । बहुत आगे से धीरे धीरे कार चलाता वो वापिस लौटा तो उस बार वो उसकी निगाह में आया ।
उसने बार के सामने कार रोकी ।
वहां सायबान के नीचे इकलौता बल्‍ब जल रहा था जिसके अलावा बार के भीतर बाहर सब जगह अंधेरा था । उसने कार से उतर कर बार की एक शीशे की खिड़की में से भीतर झांकने की कोशिश की तो भीतर अंधकार के अलावा उसे कुछ दिखाई न दिया ।

बहुत भीतर कहीं एक नाइट लाइट जान जान पड़ती थी जो उस अंधेरे में जुगनू की तरह टिमटिमा रही थी । नाइट लाइट की रोशनी इतनी कम थी कि अपने आजू बाजू को ही रोशन करने काबिल नहीं थी, खिड़की तक उसके पहुंचने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था ।
फिर उसकी तवज्‍जो बार के बंद दरवाजे पर टेप से लगे एक कागज की तरफ गयी । वो खिड़की पर से हटा और दरवाजे पर पहुंचा ।
कागज कम्‍प्‍यूटर पुलआउट था जिस पर कुछ दर्ज था ।
करीब मुंह ले जा कर, आंखें फाड़ फाड़ कर ही वो उस पर दर्ज इबारत को पढ़ सकते में कामयाब हो पाया । लिखा थाः

इन केस आफ इमरजेंसी प्‍लीज डायल ओनर रामदास मनवार ऐट 43922
आपातकलीन स्थिति में ‘43922’ पर बार के मालिक रामदास मनवार को फोन करें ।
उसने कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
डेढ़ बज चुका था । उसके हिसाब से बार को बंद हुए अभी कोई ज्‍यादा देर हुई नहीं हो सकती थी । उस लिहाज से तो मालिक ने अभी घर-जहां कहीं भी वो रहता था-बस पहुंचा ही होना था ।
उसने ‘43922’ पर काल लगाई ।
तत्‍काल उत्तर मिला ।
“क्‍या है ?” - उतावली आवाज आई - “कौन है उधर ? क्‍या मांगता है ?”
नीलेश ने अत्‍यंत अनुनयपूर्ण स्‍वर में बताया वो क्‍या मांगता था ।

“हां ।” - जवाब मिला - “जैसा तुम बोला, था वैसा एक छोकरी उधर । टू आवर्स से किसी से फोन पर कांटैक्‍ट करता था पण होता नहीं था । आखिर कांटैक्‍ट हुआ तो उसका वेट करता था । बार का क्‍लोजिंग टाइम हो गया, क्‍लोजिंग टाइम से ज्‍यास्‍ती टाइम हो गया, फिर भी वेट करता था । मैं बोला मेरे को पाजिटिवली बार बंद करने का था तो बड़ा बोल बोला ।”
“बड़ा बोल !”
“बरोबर ।”
“बड़ा बोल क्‍या ?”
“बोला, बार एक्‍स्‍ट्रा टेम खोल के रखने वास्‍ते मेरे को कम्‍पैंसेट करेगा । मेरे टेम की फीस भरेगा !”
 
एकाएक उसने जीप से बाहर छलांग लगा दी । और अंधेरे में रेलिंग की तरफ लपकी ।
वो रेलिंग लांघ कर नीचे ढ़लान पर उतर जाती तो शायद महाबोले उसे न तलाश कर पाता ।
जीप इस तरीके से वहां खड़ी हुई थी कि उसकी पैसेंजर साइड रेलिंग की तरफ थी । महाबोले दूसरी तरफ से उतरता और उसको जीप का घेरा काट कर उसके पीछे आना पड़ता । वो छोटी सी एडवांटेज भी उसकी जान बचाने में बड़ा रोल अदा कर सकती थी ।
रेलिंग फुट फुट के फासलों पर लगे लोहे के गोल पाइपों से बनी हुई थी । झपट कर वो उस पर चढ़ी और परली तरफ कूदी । उस कोशिश में उसकी एक सैंडल की एड़ी कहीं अटकी और वो उसके पांव पर से छिटक कर अंधेरे में कहीं जा गिरी । रफ्तार से दौड़ पाने के लिये जरूरी था कि वो दूसरी सैंडल भी उतार फेंकती लेकिन ऐसा करने के लिये रुकना जरूरी होता जबकि उस घड़ी रुकना तो क्‍या, ठिठकना भी अपनी मौत खुद बुलाना था । लिहाजा गिरती पड़ती, तवाजन खोती, सम्‍भलती वो जितनी तेजी से उतर सकती थी, ढ़लान उतरने लगी । ढ़लान का स्लोप उसकी उम्‍मीद से ज्‍यादा तीखा था, इसलिये वांछित गति से वो नीचे नहीं उतर पा रही थी ।

दूसरे, उसका वहम था कि वो महाबोले जैसे दरिंदे की रफ्तार और तुर्ती फुर्ती का मुकाबला कर सकती थी । अंधेरे में उसे खबर भी न लगी कि वो उसके सिर पर सवार था । उसका मजबूत हाथ उसकी टी-शर्ट के कालर पर पड़ा और टी-शर्ट उसके कंधो पर से उधड़ती चली गयी ।
“तेरा खेल खत्‍म है, साली !” - महाबोले की फुंफारती आवाज उसके कान मे पड़ी - “अब मैं बंद करता हूं तेरा मुंह हमेशा के लिये ।”
उसके दोनों हाथों की उंगलियां पीछे से उसकी गर्दन से लिपट गयीं और गले पर कसने लगीं ।
रोमिला उसकी लोहे के शिकंजे जैसी पकड़ में तड़पने लगी और हाथ पांव पटकने लगी । रहम की फरियाद करने के लिये मुंह खोला तो आवाज न निकली । उसके गले पर उंगलियों की पकड़ मुतवातर कसती जा रही थी, महाबोले का एक घुटना उसकी पीठ में यूं खुबा हुआ था कि उसका जिस्‍म धनुष की तरह यूं तन गया था कि उसके पांव जमीन पर से उखड़ गये थे ।

तभी महाबोले का पांव फिसल गया ।
रोमिला को लिये दिये वो धड़ाम से फर्श पर ढ़ेर हुआ ।
रोमिला का सिर इतनी जोर की आवाज करता एक चट्‌टान से टकराया कि महाबोले ने घबरा कर उसे छोड़ दिया । उसका निर्जीव शरीर उसके सामने जमीन पर लुढ़क गया ।
कितनी ही देर वो हांफता हुआ उसके करीब उकङू बैठा रहा । फिर उसने हाथ बढा़ कर उसके सिर को छुआ । तुरंत उसने उंगलियों पर चिपचिप महसूस की । उसने घबरा कर हाथ खींच लिया और जमीन पर उगी घास में रगड़ कर उंगलियां साफ करने लगा ।
कुछ क्षण बाद हिम्‍मत करके उसने फिर हाथ बढा़या और इस बार उसकी नब्‍ज टटोली, दिल की धड़कन टटोली, शाह रग टटोली ।

कहीं कोई जुम्बिश नहीं ।
वो निश्‍चित तौर पर मर चुकी थी ।
अलबत्ता ये कहना मुहाल था कि गला घोंटा जाने से मरी थी या चट्‌टान से टकराकर तर‍बूज की तरह सिर फट जाने से मरी थी ।
बड़ी शिद्‌दत से वो उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हुआ । अब उसके सामने बड़ा सवाल ये था कि क्‍या उसका रिश्‍ता रोमिला की मौत से जोड़ा जा सकता था ?
कैसे जोड़ा जा सकता था ?
किसी ने उसे रूट फिफ्टीन पर नहीं देखा था-उधर का रुख करते तक नहीं देखा था-न ही किसी ने उसे सेलर्स क्‍लब के करीब देखा था ।

लाश बरामद होती तो तफ्तीश से यही पता लगता कि वो दुर्घटनावश हुई मौत थी । सिर से बेतहाशा बहे खून की वजह से चट्‌टान ने भी खून से लिथड़ी होना था जो कि अपनी कहानी आप कहती ।
उसकी मौत से पहले उसका गला घोंटने की भी कोशिश की गयी थी, ये बात या तो किसी की तवज्‍जो में आती नहीं, या वो खुद सुनिश्‍चित करता कि किसी की तवज्‍जो में न आये । आखिर वो उस थाने का थानेदार था जिसके तहत वो वारदात हुई थी ।
लेकिन उस बात में एक फच्‍चर था ।
लाश की बरामदी के बाद रोमिला का कोई करीबी, कोई खैरख्‍वाह मांग कर सकता था कि लाश का पोस्‍टमार्टम होना चाहिये था । उसकी मांग वाजिब भी होती क्‍योंकि यूं हुई पाई गई मौत के केस में पोस्‍टमार्टम जरूरी था । आइलैंड पर पोस्‍टमार्टम का कोई इंतजाम नहीं था, उसके लिये लाश को मुरुड भेजा जाना जरूरी था । अपने थाने में वो कैसी भी रिपोर्ट गढ़ के बना सकता था लेकिन पोस्‍टमार्टम रिपोर्ट से कोई हेराफेरी उसके लिये टेढी़ खीर थी । और पोस्‍टमार्टम रिपोर्ट से जरूर ये स्‍थापित होता कि मौत भले ही खोपड़ी खुल जाने से हुई थी लेकिन ऐसा होने से पहले उसका गला भी घोंटा गया था ।

किसने घोंटा ?
किसी लुटेरे ने, लड़की को लूटने की खातिर जिसने उस पर हाथ डाला ।
बढ़िया !
उसके कान में सोने के टॉप्‍स थे, गले में नैकलेस था, हाथ में अंगूठी थी, एक कलाई पर घड़ी थी, दूसरी में एक कड़ा और दो चूड़ियां थी । वो सब सामान उसने लाश पर से उतार कर अपने कब्‍जे में कर लिया । हैण्‍डबैग उसके पास था ही नहीं लेकिन यही समझा जाता कि लूट के बाकी माल के साथ हैण्‍डबैग भी लुटेरा ले गया ।
कायन पर्स !
उसके कायन पर्स का जिक्र किया था ।
कायन पर्स उसकी जींस की बैक पॉकेट से बरामद हुआ । उसके पास हैण्‍डबैग होता तो कायन पर्स का मुकाम हैण्‍डबैग होता ।

उसने कायन पर्स भी अपने काबू में कर लिया ।
एक आखिरी निगाह मौकायवारदात पर डाल कर वो वापिस लौट चला ।
सब सैट हो गया था ।
लेकिन अब एक दूसरी फिक्र भी तो थी जो उसके जेहन में दस्‍तक दे रही थी ।
बकौल खुद, वो गोखले को बहुत कुछ बताने वाली थी लेकिन ये कैसे पता चले कि क्‍या कुछ बता चुकी थी !
और उसके इस कथन में कितनी सच्‍चाई थी, कितना वहम था, कि गोखले सीक्रेट एजेंट था !
क्‍या उसने गोखले से इस बात का जिक्र किया हो सकता था कि महाबोले से उसको जान का खतरा था ?
 
“अच्‍छा, ऐसा बोली वो ?”
“बरोबर ! पण किधर से टेम की फीस भरने का था ! बार से एक ड्रिंक लिया, उसका पेमेंट करने का वास्‍ते तो रोकड़ा था नहीं उसके पास । साफ, खुद ऐसा बोला । मैं भी नोट किया कि ऐसीच था । खाली एक कायन पर्स था उसके पास जिसमें से कायन निकालती थी और पीसीओ से किधर फोन लगाती थी । मैं बोला वांदा नहीं, ड्रिंक आन दि हाउस । जिद करके बोली उसका फिरेंड उसके लिये रोकड़ा ला रहा था, वो आ कर बार का बिल भी भरेगा और मेरा जो टेम उसकी वजह से खोटी हुआ, उसको भी कम्‍पैंसेट करेगा ।”

“ओह ! फिर ?”
“फिर क्‍या ! मेरे को बाई फोर्स उसको बाहर करना पड़ा । जरूरी था बार बंद करने का वास्‍ते ।”
“बाहर निकाला तो किधर गयी ?”
“किधर भी नहीं गयी । उधरीच खडे़ली वेट करती थी । बोलती थी इस्‍पेशल करके फिरेंड था, गारंटी कि जरूर आयेगा । मैं तो उसको बार के सामने के सायबान के नीचू खड़ा छोड़ के उधर से नक्‍की किया था । मेरे निकल लेने के बाद मेरे को कैसे मालूम होयेंगा किधर गयी !”
“ओह !”
“मैं उसको खबरदार किया कि रात के उस टेम उधर कोई आटो टैक्‍सी नहीं मिलता था, लिफ्ट आफर किया पण वो नक्‍की बोली । बोली उधरीच ठहरेगी ।”

“इधर तो वो नहीं है !”
“तो बोले तो वेट करती थक गयी आखिर । कोई टैक्‍सी मिल गयी, या लिफ्ट मिल गयी, चली गयी उधर से ।”
“कहां ?”
“मेरे को कैसे मालूम होयेंगा !”
“ये भी ठीक है । ऐनी वे, थैंक्‍यू ।”
उसने सम्‍बंध विच्‍छेद किया ।
कहां गयी !
लिफ्ट या टैक्‍सी मिल भी गयी तो कहां गयी !
अपने बोर्डिंग हाउस में लौटने की तो मजाल नहीं हो सकती थी !
या शायद उसे कोई टैक्‍सी आटो या लिफ्ट नहीं मिली थी और इंतजार से आजिज आ कर वो पैदल ही वापिस लौट पड़ी थी ।

तो रास्‍ते में उसे दिखाई क्‍यों न दी ?
क्‍योंकि उसकी मुकम्‍मल तवज्‍जो कार चलाने में थी ।
अब वापिसी में वो उस पर निगाह रखते कार चला सकता था ।
वो कार में सवार हुआ और उसने कदरन धीमी रफ्तार से वापिसी के रास्‍ते पर कार बढा़ई । हर घडी़ असे लग रहा था कि रोमिला उसे आगे सड़क पर चलती दी कि दिखाई दी । कई बार उसे लगा कि वो आगे सड़क पर थी और एकाएक ब्रेक लगाई लेकिन सब परछाइयों का खेल निकला । सड़क पर पैदल कोई नहीं था ।
यूं ही कार चलाता वो वापिस वैस्‍टएण्‍ड पहुंच गया ।

जहां सब कुछ या बंद हो चुका था या हो रहा था ।
मनोरंजन पार्क की रोनक समाप्‍तप्राय थी ।
जमशेद जी पार्क उजाड़ पड़ा था, खाली ऐंट्री के करीब के एक बैंच पर एक आदमी-जो कि बेवडा़ जान पड़ता था-दीन दुनिया से बेखबर सोया पड़ा था ।
विभिन्‍न सड़कों पर भटकता वो कोंसिका क्‍लब के आगे से भी गुजरा ।
वो भी बंद हो चुकी थी ।
रात की उस घडी़ कहीं जीवन के कोई आसार थे तो ‘इम्‍पीरियल रिट्रीट’ में थे ।
पता नहीं क्‍या सोच कर उसने कार रोकी ।
‘इम्‍पीरियल रिट्रीट’ का ग्‍लास डोर ठेल कर वो भीतर दाखिल हुआ ।

वहां रिसैप्‍शन डैस्‍क के पीछे टाई वाला एक युवक मौजूद था जो कि एक कम्‍प्‍यूटर के साथ व्‍यस्‍त था ।
“कब से ड्‌यूटी पर हो ?” - नीलेश रोब से बोला ।
उसके लहजे का और उसके व्‍यक्‍तित्‍व का युवक पर प्रत्‍याशित प्रभाव पड़ा ।
“शाम सात बजे से ।” - वो बोला ।
“तब से यहीं हो ?”
“जी हां ।”
“मैं एक लड़की का हुलिया बयान करने जा रहा हूं । गौर से सुनना ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
नीलेश ने तफसील से रोमिला का हुलिया बयान किया ।
युवक ने गौर से सुना ।
“पिछले एक घंटे में ये लड़की यहां आयी थी ?” - नीलेश ने पूछा ।”

“जी नहीं ।” - युवक निसंकोच बोला ।
“पक्‍की बात ?”
“जी हां ।”
“शायद टॉप फ्लोर पर जाने के लिये लिफ्ट पर सवार हो गयी हो और तुम्‍हें खबर न लगी हो !”
“टॉप फ्लोर पर कहां ?”
“अरे, भई, कै...बिलियर्ड रूम में ।”
“आपको मालूम है टॉप फ्लोर पर बिलियर्ड रूम है ?”
“है तो सही !”
“कैसे मालूम है ?”
“अपने रोनी ने बताया न !”
“रोनी ?”
“डिसूजा । रोनी डिसूजा । मैग्‍नारो साहब का राइट हैंड ।”
“आप तो बहुत कुछ जानते हैं !”
“ऐसीच है । अभी जवाब दो । मैं बोला, टॉप फ्लोर पर जाने को वो लड़की लिफ्ट पर सवार हुई हो और तुम्‍हें खबर न लगी हो !”

“ये नहीं हो सकता ।”
“क्‍यों ? क्‍यों नहीं हो सकता ?”
“रात की इस घडी़ मेरी ओके के बिना लिफ्ट वाला किसी को ऊपर बिलियर्ड रूम में ले कर नहीं जा सकता । भले ही वो कोई हो ।”
“ओह ! थैंक्‍यू ।”
युवक मशीनी अंदाज से मुस्‍कराया ।
नीलेश वापिस सड़क पर पहुंचा ।
उसके अपने बोर्डिंग हाउस वापिस लौटी होने की कोई सम्‍भावना नहीं थी, फिर भी उम्‍मीद के खिलाफ करते हुए उसने वहां का चक्‍कर लगाने का फैसला किया ।
वो मिसेज वालसंज बोर्डिंग हाउस वाली सड़क पर पहुंचा ।
उसने कार परे ही खड़ी कर दी और उसमें से निकल कर पैदल आगे बढ़ा ।

इस बार सिपाही दयाराम भाटे स्‍टूल पर बैठा होने की जगह उसे एक बाजू से दूसरे बाजू चहलकदमी करता मिला ।
चहलकदमी वो कैसे बेमन से खानापूरी के लिये कर रहा था इसका सबूत था कि नीलेश उसके ऐन पीछे पहुंच गया तो उसे उसकी मौजूदगी की खबर लगी ।
वो चिहुंक कर उसकी तरफ घूमा ।
“क्‍या है ?” - फिर कर्कश स्‍वर में बोला ।
“गोखले है ।”
“क्‍या !”
“अरे, भई, मेरा नाम नीलेश गोखले है । रोमिला सावंत का फ्रेंड हूं । सामने वाले बोर्डिंग हाउस में रहती है । जानते हो न उसे ?”
“जानता हूं तो क्‍या ?”

“उसे लौटते देखा ?”
“नहीं ।”
“पक्‍की बात ?”
“प्रेत की तरह किसी के पीछे आन खड़ा होना गलत है । मैं हाथ चला देता तो ?”
“तो जाहिर है कि मैं ढेर हुआ पड़ा होता । शुक्र है चला न दिया । मैं सारी बोलता हूं ।”
“ठीक है, ठीक है ।”
“तो रोमिला सावंत नहीं लौटी ?”
“अरे, बोला न, नहीं लौटी ।”
“मेरे को उससे बहुत जरूरी करके मिलना था ।”
“अकेले तुम्‍हीं नहीं हो ऐसी जरूरत वाले ।”
“अच्‍छा !”
“क्‍यों मिलना था ?”
“वो क्‍या है कि मेरी उसके साथ डेट थी । पहुंची नहीं, इसलिये फिक्र हो गयी । अभी मालूम तो होना चाहिये न, कि क्‍यों नहीं पहुंची !”

“डेट्स क्रॉस कर गयी होंगी !”
“बोले तो ?”
“किसी और को भी मिलने की बोल बैठी होगी ! तुम्‍हारे को भूल गयी होगी या जानबूझ के नक्‍की किया होगा !”
“ऐसा ?”
“हां । ऐसी लड़कियां वादा करती हैं तो निभाना जरूरी नहीं समझतीं ।”
“कम्‍माल है ! तुम्‍हें तो बहुत नॉलेज है ऐसी लड़कियों की ! खुद भुगते हुए जान पड़ते हो !”
“अरे, मैं शादीशुदा, बालबच्‍चेदार आदमी हूं ।”
“तो क्‍या हुआ ! मर्द का दिल है ! मचल जाता है !”
वो हंसा, तत्‍काल संजीदा हुआ, फिर बोला - “अब नक्‍की करो ।”
“अभी ।” - नीलेश विनीत भाव से बोला - “अभी ।”

“अब क्‍या है ?”
“मैं सोच रहा था, ऐसा हो सकता है कि वो लौट आई हुई हो और तुम्‍हें उसके आने की खबर ही न लगी हो !”
“क्‍यों, भई ! मैं अंधा हूं ?”
“नहीं । मैं तो महज...”
“और फिर तुम क्‍यों बढ़ बढ़ के मेरे सवाल कर रहे हो ?”
“यार, मैं उसका फ्रेंड हूं - ब्‍वायफ्रेंड हूं - उसकी सलामती के लिये फिक्रमंद हूं । कुछ लिहाज करो मेरा । फरियाद कर रहा हूं ।”
नीलेश के ड्रामे का उस पर फौरन असर हुआ । वो पिघला ।
“क्‍या लिहाज करूं ?” - वो नम्र स्‍वर में बोला ।
 
“यार, सख्‍त, बोर, थका देने वाली ड्‌यूटी कर रहे हो, न चाहते हुए भी कोई छोटी मोटी कोताही हो ही जाती है । हो सकता है इधर आने की जगह वो पिछवाडे़ के रास्‍ते भीतर चली गयी हो और तुम्‍हें खबर ही न लगी हो !”
“नहीं हो सकता । क्‍योंकि इस बोर्डिंग हाउस का पिछवाडे़ से कोई रास्‍ता है ही नहीं !”
“ओह !”
“बाजू से-वो सामने की गली से-एक रास्‍ता है लेकिन वो बराबर मेरी निगाह में है ।”
“जरूर, जरूर । लेकिन निगाह किसी की भी चूक सकती है । खाली एक ही बार तो चूकना होगा न निगाह ने !”

“तुम तो मुझे फिक्र में डाल रहे हो !”
“मैं पहले से फिक्र में हूं । क्‍यों न फिक्र दूर कर लें ?”
“बोले तो ?”
“बाजू के रास्‍ते से ऊपर जा कर चुपचाप उसके कमरे में झांक आने में क्‍या हर्ज है ?”
वो सोचने लगा ।
“बाजू के दरवाजे का रास्‍ता भीतर से बंद तो होता नहीं होगा वर्ना कैसे कोई चुपचाप उधर से दाखिल हो सकता है ?”
“नहीं, बंद तो नहीं होता ! कोई ऐसा सिस्‍टम है कि बंद दरवाजा धक्‍का देने पर नहीं खुलता । दो तीन बार हिलाओ डुलाओ तो खुल जाता है ।”

“फिर क्‍या वांदा है ! जा के आते हैं ।”
महाबोले की फटकार के बाद से भाटे बहुत चौकस था फिर भी सोता पकड़ा गया था, इसलिये उसका अपने आप पर से भरोसा हिला हुआ था । असल में खुद उसे भी अंदेशा था कि लड़की किसी तरीके से उसकी निगाह में आये बिना अपने कमरे में पहुंच ही तो नहीं गयी हुई थी !
“चलो !” - एकाएक वो निर्णायक भाव से बोला ।
नीलेश ने मन ही मन चैन की सांस ली ।
बाजू के रास्ते से चुपचाप वो इमारत में दाखिल हुए और दूसरी मंजिल पर पहुंचे ।

नीलेश ने हैंडल घुमाकर हौले से दरवाजे को धक्‍का दिया ।
“खुला है ।” - वो फुसफुसाया ।
“देवा !” - भाटे हताश भाव से वैसे ही फुसफुसाया - “वो घर में है और मुझे खबर ही नहीं कि कब आयी । महाबोले साहब मेरी खाल खींच लेंगे ।”
“अभी से क्‍यों विलाप करने लगे ! पहले कनफर्म तो हो जाये कि भीतर है !”
“जब दरवाजा खुला है....”
“क्‍यों खुला है ?” कोई दरवाजा खुला छोड़ के सोता है !”
“ओह !”
“चुप करो । देखने दो ।”
नीलेश ने अंधकार में डूबे कमरे में कदम डाला । आंखे फाड़ फाड़ कर उसने सामने निगाह दौड़ाई । उसे न लगा कि वहां कोई था । हिम्‍मत करके उसने स्विच बोर्ड तलाश किया और वहां रोशनी की ।

कमरा खाली था । वो वहां नहीं थी ।
उसने आगे बढ़ कर बाथरूम में झांका । वो वहां भी नहीं थी ।
वार्डरोब में उसके होने का मतलब ही नहीं था फिर भी उसने उसे खोल कर भीतर निगाह दौड़ाई ।
इतना कुछ कर चुकने के बाद कमरे की अस्‍तव्‍यस्‍तता की ओर उसकी तवज्‍जो गयी । नेत्र सिकोडे़ उसने बैड पर खुले पडे़ सूटकेस और उसके भीतर बाहर बिखरे कपड़ों पर निगाह डाली ।
साफ जाहिर हो रहा था कि कूच की तैयारी में थी कि कोई विघ्‍न आ गया था ।
फिर उसकी तवज्‍जो उस ब्रा की तरफ भी गयी जिसमें किसी ने सिग्रेट मसल कर बुझाया था ।

नयी ब्रा ! कीमती ब्रा !
ऐसी बेहूदा हरकत किसने की ? क्‍यों की ? रोमिला की मौजूदगी में की या उसकी गैरहाजिरी में कोई वहां आया ?
किसी बात का जवाब हासिल करने का कोई जरिया उसके पास नहीं था ।
“अरे, भई, हिलो अब ।” - भाटे उतावले स्‍वर में बोला ।
“बस, जरा दो मिनट....” - नीलेश ने याचना की ।
“नहीं ।” - भाटे सख्‍ती से बोला - “मरवाओगे मेरे को ! हिल के दो ।”
“बड़ी देर से हुआ ये अंदेशा....”
“ओफ्फोह ! अब हिल भी चुको ।”
“जो हुक्‍म, जनाब ।”
उसने बिजली का स्विच आफ किया ।

अपने उस अभियान में उसके हाथ कुछ नहीं आया था, उसकी जानकारी में कोई इजाफा नहीं हुआ था । दोनों वहां से बाहर निकले ।
और वापिस सड़क पर पहुंचे ।
“हो गयी तसल्‍ली !” - भाटे बोला - “मिट गयी फिक्र !”
“हां, दारोगा जी । उम्‍मीद करता हूं कि तुम्‍हारी भी ।”
भाटे को अपने लिये दारोगा का सम्‍बोधन बहुत अच्‍छा लगा, बहुत कर्णप्रिय लगा ।
“अब तुम क्‍या करोगे ?” - वो बोला ।
“एक जगह और है मेरी निगाह में” - नीलेश संजीदगी से बोला - “जहां कि वो हो सकती है । जा कर पता करूंगा ।”

“वहां न हो तो थाने पहुंचना ।”
नीलेश सकपकाया ।
“काहे को ?” - वो बोला ।
“अरे, भई, गुमशुदा की तलाश का केस है । रिपोर्ट नहीं लिखवाओगे ?”
“अभी उसमें टाइम है । इतनी जल्‍दी कोई गुमशुदा नहीं मान लिया जाता । मैं कल तक इंतजार करूंगा ।”
“वो कल भी न मिले तो थाने पहुंचना ।”
“ठीक है ।”
“ताकीद है । बल्कि हुक्‍म है ।”
“किसका ?”
“जिसको अभी दारोगा बोला, उसका ।”
ढक्‍कन ! सच में ही खुद को दारोगा समझने लगा ।
“हुक्‍म सिर माथे, दारोगा जी । तामील होगी ।”
“निकल लो ।”

लम्‍बी ड्राइव के बाद नीलेश कोस्‍ट गार्ड्‌स की छावनी पहुंचा ।
उसे बैरियर पर रुकना पड़ा ।
एक सशस्‍त्र गार्ड वाच केबिन से निकल कर उसके पास पहुंचा ।
“डिप्‍टी कमाडेंट हेमंत अधिकारी साहब से मिलना है ।” - नीलेश बोला ।
“टाइम मालूम ?” - गार्ड रूखे स्‍वर में बोला ।
“मालूम । मेरे को इजाजत है ट्वेंटी फोर आवर्स में कभी भी काल करने की ।”
गार्ड ने संदिग्‍ध भाव से उसका मुआयना किया।
“रोकोगे तो मुश्किल होगी ।” - नीलेश बोला ।
“किसके लिये ?”
“तुम्‍हारे लिये ।”
गार्ड हड़बड़ाया । उसके चेहरे पर अनिश्‍चय के भाव आये ।

“स्‍पैन आउट आफ इट ।” - नीलेश डपट कर बोला - “इट्स ऐन इमरजेंसी !”
वो और हड़बड़ाया ।
“नाम बोलो ।” - फिर बोला ।
“नीलेश गोखले ।”
“इधर ही ठहरो । हैडलाइट्स आफ करो । इंजन बंद करो ।”
नीलेश ने दोनों बातों पर अमल किया, उसने कार की पार्किंग लाइट्स जलती रहने दी और अपनी ओर का दरवाजा थोड़ा खोल कर रखा ताकि कार के भीतर रोशनी रहती ।
गार्ड वापिस वाच केबिन में चला गया ।
लौटा तो उसके व्‍यवहार में पहले जैसी असहिष्‍णुता नहीं थी ।
“इधरीच ठहरने का ।” - वो बोला - “वेट करने का ।”

“ठीक है ।”
पांच मिनट खामोशी से कटे ।
फिर भीतर से एक आदमी लपकता हुआ बैरियर पर पहुंचा । उसने गार्ड को बैरियर उठाने का इशारा किया और खामोशी से नीलेश के साथ कार में सवार हो गया । उसके इशारे पर नीलेश ने कार आगे बढ़ाई । पेड़ों से ढ़ंकी सड़क पर आगे मार्गनिर्देशन की उसे जरूरत नहीं थी, वो वहां पहले भी आ चुका था ।
एक बैरेक के आगे ले जाकर उसने कार रोकी ।
दोनों कार से बाहर निकल कर बैरक के बरामदे में पहुंचे और अगल बगल चलते एक बंद दरवाजे पर पहुंचे । दरवाजे पर हेमंत अधिकारी के नाम का परिचय पट लगा हुआ था । उस व्‍यक्‍ति ने चाबी लगा कर दरवाजा खोला और भीतर की बत्तियां जलाई ।

“बैठो ।” - वो बोला - “साहब को सोते से जगाया गया है । तैयार हो कर आते हैं ।”
नीलेश ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कुछ पियोगे ?”
“नहीं । थैक्‍यू ।”
वो चला गया ।
 
नीलेश ने सिग्रेट सुलगाने के बारे में सोचा लेकिन फिर खयाल छोड़ दिया ।
वो प्रतीक्षा करता रहा ।
आखिर सिविलियन ड्रैस में डिप्‍टी कमांडेंट हेमंत अधिकारी वहां पहुंचा ।
नीलेश ने उठ कर उसका अभिवादन किया ।
“बैठो, बैठो ।” - जमहाई छुपाता वो अपनी एग्‍जीक्‍यूटिव चेयर पर ढे़र हुआ ।
“थैक्‍यू, सर ।”
“बोलो !”
“डीसीपी पाटिल साहब से बात करना है ।”

पिछली बार की तरह ही उसने कोई हैरानी न जाहिर की, कोई हुज्‍जत न की, सह‍मति में सिर हिलाया और मेज के एक लॉक्‍ड दराज को खोल कर उसमें से एक फोन निकाल कर अपने सामने मेज पर रखा ।
वो टेलीफोन ऐसा था, दुनिया का कोई तकनीकी उपकरण जिसकी लाइन टेप नहीं कर सकता था ।
वो उस पर काल लगाने लगा ।
काल कनैक्‍ट होने के लिये इंतजार शुरू हुआ ।
आखिर उसने फोन नीलेश को थमाया और कहा - “पाटिल साहब लाइन पर हैं ।”
नीलेश ने रिसीवर कान से लगाया और बिना औपचारिकता में टाइम जाया किये अपनी विस्‍तृत रिपोर्ट पेश की ।

आखिर वो खामोश हुआ ।
“उधर ही ठहरो ।” - डीसीपी पाटिल की आवाज आयी - “आते हैं ।”
“जी !”
“अधिकारी साहब को फोन दो ।”
उसने रिसीवर वापिस अधिकारी को थमा दिया ।
अधिकारी ने खामोशी से कुछ क्षण फोन सुना, फिर उसे क्रेडल पर रखा और फोन वापिस दराज में बंद कर दिया । फिर बिना कुछ बोले वो वहां से रूखसत हो गया ।
तत्‍काल पहले वाला व्‍यक्‍ति वापिस लौटा ।
“आओ ।” - वो बोला ।
“कहां ?” - नीलेश सशंक भाव से बोला ।
“भई, तुम्‍हारा इंतजार आसान करते है ।”
वो उसे बैरक के कोने के एक कमरे में लाया जहां मैट्रेस बिछी एक फोल्डिंग बैड पड़ी थी । उसने एक अलमारी खोल कर उसमें से दो कम्‍बल और एक तकिया निकाला और बैड पर डाला ।

“पड़ जाओ ।” - वो बोला ।
“थैंक्‍यू । साहब ने मुम्‍बई से आना है । घंटों लगेंगे ।”
“इसीलिये ये इंतजाम किया । जब टाइम आयेगा तो जगा देंगे ।”
“थैंक्‍यू ।”
उसके जाने के बाद नीलेश ने सिर्फ कोट और जूते उतारे और कम्‍बल ओढ़ कर पड़ गया ।
तकिये से सिर लगने की देर थी कि वो नींद के हवाले था ।
***
सिपाही दयाराम भाटे थाने पहुंचा ।
और महाबोले के रूबरू हुआ ।
उसने बोर्डिंग हाउस पर नीलेश गोखले की आमद की बाबत एसएचओ साहब को बताया ।
वो चुप हुआ तो महाबोले असहाय भाव से उसकी तरफ देखने लगा ।

भाटे बौखला गया ।
“कमरे में क्‍यों जाने दिया ?”
“साहब जी, लड़की का ब्‍वायफ्रेंड था” - भाटे बोला - “उसके लिये फिक्रमंद था, फरियाद करता था ।”
“तू शिवाजी महाराज है ! फरियाद सुनता है !”
“नहीं, साब जी, वो बात नहीं, और भी बात थी ?”
“और क्‍या बात थी ?”
“साब जी, आपने मुझे सोते पकड़ा, लताड़ लगाई, उस वजह से मैं हिला हुआ था । खुद पर से मेरा विश्‍वास हिला हुआ था । वो....वो गोखले आ के आइडिया सरकाया कि हो सकता था वो बोर्डिंग हाउस में लौट भी आई हुई हो और मुझे खबर न लगी हो । तब मेरे को ही लगने लगा कि मेरे को मालूम होना चाहिये था कि वो ऊपर कमरे में थी या नहीं थी । मैंने सोचा एक पंथ दो काज हो जायेंगे, गोखले की फरियाद की सुनवाई भी हो जायेगी और मेरे को भी मालूम पड़ जायेगा ऊपर की क्‍या पोजीशन थी !”

“इसलिये तू उसके साथ बोर्डिंग हाउस में गया ? ऊपर लड़की के कमरे में गया ?”
“हां, साब जी ।”
“दरवाजा खोला, कमरे में झांका, देखा, वहां लड़की नहीं थी और तुम दोनों लौट आये ?”
भाटे को सांप सूंघ गया ।
“यही हुआ न !”
बड़ी मुश्किल से वो इंकार में सिर हिला पाया ।
“तो और क्‍या हुआ ?”
“वो....वो भीतर चला गया, जा के बत्‍ती जला दी, मेरे को भी भीतर जाना पड़ा ।”
“फिर ?”
“वो टायलेट में गया, उसने वार्डरोब को खोल के भीतर झांका....”
“क्‍योंकि लड़की गठरी थी जो वार्डरोब में भी पड़ी हो सकती थी !”

“ऐसा कैसे होगा, साब जी ! पण वार्डरोब खोली जरूर थी उसने । और भी इधर उधर काफी कुछ टटोला था ।”
“जैसे तलाशी ले रहा हो !”
“अभी बोले तो हां । पण, साब जी, तब मेरे को ऐसा नहीं लगा था ।”
“तब क्‍या लगा था ? सूई तलाश कर रहा था ?”
“अब क्‍या बोलूं, साब जी ! मेरे से गलती हुई जो मैंने उसका लिहाज किया, उसकी फरियाद से पिघला । पण, साब जी, मैं उधर फुल चौकस था, कुछ उठाने नहीं दिया था मैने उसको उधर से ।”
“बहुत कमाल किया । साला अक्‍खा ईडियट !”

“पण, साब जी....”
“चुप कर, एक मिनट ।”
भाटे ने होंठ भींच लिये ।
चिंतित भाव से महाबोले ने एक सिग्रेट सुलगाया और उसके छोटे छोटे कश लगाने लगा ।
गोखले का एक्‍शन उसे फिक्र में डाल रहा था ।
क्‍यों गया वो रोमिला के कमरे में ?
किस हासिल की उम्‍मीद में गया ?
सिर्फ ये जानना चाहता था कि रोमिला घर लौट आयी हुई थी या नहीं तो वो तो दरवाजे पर से ही जाना जा सकता था !
क्‍या माजरा था ?
गोखले की वो हरकत उसे फिक्र में डाल रही थी । क्‍यों ढूंढ़ रहा था वो रोमिला को ? उसके कमरे में क्‍यों घुसा ? तलाशी क्‍यों लेने लगा ? किस हासिल की उम्‍मीद थी ? ब्‍वायफ्रेंड बोलता था खुद को लड़की का ! अभी कल आइलैंड पर कदम पडे़ थे, आज दोस्‍ती भी हो गयी, आशिकी भी हो गयी, ब्‍वायफ्रेंड का दर्जा भी हासिल हो गया ! क्‍या उस की सोच गलत थी कि वो आम आदमी था ? आम आदमी था तो उसकी हरकतें आम आदमी जैसी क्‍यों नहीं थीं ?

फिर से सोचना पडे़गा कुतरे के बारे में ।
झुंझला कर उसने सिग्रेट परे फेंक दिया और फिर भाटे की तरफ आकर्षित हुआ ।
“लौट क्‍यों आया ?” - उसने पूछा ।
“क-क्‍या बोला, साब जी ?”
“तेरे को उस लड़की की आमद पर निगाह रखने का था । निगरानी बीच में छोड़ के यहां क्‍यों आ मरा ?”
“साब जी, तीन बज रहे है, अब तक नहीं आयी थी तो अब क्‍या आती !”
“ये फैसला करना तेरा काम है ?”
“म-मैं.....वापिस चला जाता हूं ।”
“अब इधर ही मर । जा दफा हो ।”
भाटे यूं वहां से भागा जैसे वापिस घसीट लिया जा सकता हो ।

***
 
“मेरे एम्‍पालायर को-गोपाल पुजारा को-मेरे वहां की बारबाला रोमिला सावंत से मेल जोल से ऐतराज था । उसने इस बाबत मुझे वार्न भी किया था । फिर और भी ज्‍यादा ऐतराज उसे श्‍यामला मोकाशी से मेरे बढ़ते ताल्‍लुकात से हुआ जो कि यहां के म्‍यूनीसिपल प्रेसीडेंट बाबूराव मोकाशी की बेटी है और बाबूराव मोकाशी बाई प्राक्‍सी कोंसिका क्‍लब का मालिक है । इस लिहाज से बारमैन गोपाल पुजारा-जो कि खुद को मालिक बताता है-उसका मुलाजिम हुआ । पुजारा ने मालिक की बेटी से मेरे बढ़ते ताल्‍लुकात देखे तो मुझे उनसे बाज आने के लिये चेता कर एक तरह से मालिक से वफादारी दिखाई । मैंने उसकी चेतावनी पर अमल करने की कोई नीयत न दिखाई तो उसने खडे़ पैर मुझे नौकरी से निकाल बाहर किया । सर, मेरे खयाल से तो ये वजह है मेरी बर्खास्‍तगी की, न कि ये कि मेरी पोल खुल गयी है, मेर पर्दाफाश हो गया है ।”

दोनों उच्‍चाधिकारियों की फिर निगाह मिली ।
“सो” - फिर जायंट कमिश्‍नर एकाएक बदले स्‍वर में बोला - “यू आर ए लेडीज मैन हेयर !”
“अपने काम की जगह” - डीसीपी बोला - “अपने मिशन की जगह आशिकी पर जोर है !”
“नो सच थिंग, सर” - नीलेश व्‍यग्र भाव से बोला - “नो सच थिंग । आई अश्‍योर यू दिस टू इज आल पार्ट आफ माई जॉब ।”
“एक्‍सप्‍लेन !”
“सर, मेरी पिछली रिपोर्ट की कितनी ही बातें ऐसी हैं जो मैंने जाने अनजाने रोमिला सावंत से निकलवाई और इस संदर्भ में अभी आगे मुझे उससे और भी ज्‍यादा उम्‍मीदें हैं । रोमिला फिलहाल गायब है, मेरी पहुंच से बाहर है, लेकिन देर सबेर तो मिलेगी ! तब उससे मैं अभी और भी बहुत कुछ जानूंगा । श्‍यामला मोकाशी को भी मैं सिर्फ और सिर्फ इसलिये कल्‍टीवेट कर रहा हूं क्‍योंकि वो यहां के बड़े महंत बाबूराव मोकाशी की बेटी है जो कि करप्‍ट थानेदार अनिल महाबोले और गोवानी रैकेटियर फ्रांसिस मैग्‍नारो के साथ हैण्‍ड इन ग्‍लव है । सर, मैं मोकाशी की बेटी को मोकाशी तक पहुंचने की सीढ़ी बनाना चाहता हूं, लड़की में बस मेरी इतनी ही दिलचस्‍पी है ।”

“वैरी क्‍लैवर आफ यू ! वैरी क्‍लैवर आफ यू इनडीड !”
“फैमिनिन अट्रैक्‍शन को फैटल अट्रैक्‍शन बोला गया है ।” - जायंट कमिश्‍नर बोला - “रास्‍ता न भूल जाना !”
“सर, रास्‍ता अभी बरकरार है तो हरगिज नहीं भूलूंगा । आप बताइये, बरकरार है ?”
“हूं । दैट्स क्‍वाइट ए क्‍वेश्‍वन ।”
“सर, इजाजत दें तो एक सवाल पूछूं ?”
“पूछो ।”
“अगर मैं नहीं तो मिशन खत्‍म ? या मेरी जगह कोई दूसरा आदमी लेगा ?”
“पेचीदा सवाल है । नौकरी से बर्खास्‍तगी की जो आल्‍टरनेट वजह तुमने सुझाई है, उसकी रू में पेचीदा सवाल है । अगर वजह वो है जो हमें दिखाई देती है - ये कि तुम एक्‍सपोज हो चुके हो - तो दूसरा आदमी कुछ नहीं कर पायेगा । वो लोग खबरदार हो चुके होंगे । तुम्‍हारा कवर दो हफ्ते चल गया, उसका दो दिन नहीं चलेगा । नो, युअर रिप्‍लेसमेंट इज आउट ।”

“तो फिर मैं.....”
“अभी फाइनल बात सुनो !”
“सर !”
“जो कुछ तुमने अब तक किया है, वो कभी कम नहीं है और वक्‍त आने पर उसका रिवार्ड तुम्‍हें जरूर मिलेगा...”
“ये अक्‍लमंद को इशारा है, इंस्‍पेक्‍टर गोखले !” - डीसीपी बोला - “तुम समझ सकते हो कि कौन से रिवार्ड की बात हो रही है ।”
“सर, आपने मुझे इंस्‍पेक्‍टर गोखले कहा” - नीलेश भर्राये कण्ठ से बोला - “तो रिवार्ड तो मुझ मिल भी गया ।”
डीसीपी मुस्‍कराया ।
“बट दैट्स अनदर स्‍टोरी ।” - वार्तालाप का सूत्र फिर अपने हाथ में लेता जायंट कमिश्‍नर बोला - “मैं ये कह रहा था कि जो कुछ तुमने अब तक किया है, वो भी कम नहीं है । तुम्‍हारी रिपोर्ट कहती है कि कोंसिका क्‍लब आइलैंड पर नॉरकॉटिक्‍स ट्रेड की ओट है । अगर ये बात सच निकली तो जाहिर है कि रेड होने पर वहां से ड्रग्‍स का जखीरा बरामद होगा । अब तुम ये भी हिंट दे रहे हो कि कोंसिका क्‍लब का असली मालिक म्‍यूनीसिपल प्रेसीडेंट बाबूराव मोकाशी है और गोपाल पुजारा महज उसका फ्रंट है । अगर हम मोकाशी को कोंसिका क्‍लब का असली मालिक साबित कर पाये तो नॉरकॉटिक्‍स वाले एक ऑफेंस के लिये ही सात साल के लिये नपेगा । इंस्‍पेक्‍टर अनिल महाबोले की मीनाक्षी कदम को छीलने की वाहियात करतूत को बाजरिया विक्टिम-मीनाक्षी कदम-साबित करने की स्थिति में हम हैं लेकिन वो कोई मेजर आफेंस नहीं है । उससे वो सिर्फ सस्‍पेंड हो सकता है और डिपार्टमेंटल इंक्‍वायरी का शिकार हो सकता है । कुछ साबित हो भी गया तो छोटी मोटी सजा होगी, बड़ी हद नौकरी से जायेगा जो कि कतई काफी नहीं । वो लम्‍बा नपे, उसके लिये या तो वो नॉरकॉटिक्‍स ट्रेड में मोकाशी का जोडी़दार साबित होना चाहिये या उसका अपना कोई इंडिविजुअल, इंडीपेंडेंट मेजर क्राइम रोशनी में आना चाहिये । इस सिलसिले में वो लड़की रोमिला सावंत-जो कि तुम कहते हो कि गायब है-हमारे बहुत काम आ सकती है । उस लड़की की बरामदी जरूरी है । उससे हासिल जानकारी महाबोले का वाटरलू बन सकती है ।”

“वो मेरे काबू में थी, बैड लक ही समझिये कि हाथ से निकल गयी ।”
“फिर हाथ आ जायेगी लेकिन ऐसा जल्‍दी हो, इसके लिये एक्‍स्‍ट्रा एफर्ट करना पडे़गा ।”
“एक्‍स्‍ट्रा एफर्ट !”
“मैं डिप्‍टी कमांडेंट अधिकारी से बात करूंगा । ऐज ऐ स्‍पैशल केस, कोस्‍ट गार्ड्‌स उसकी तलाश में हमारी मदद करेंगे ।”
“ओह !”
“हमारे टॉप के करप्‍ट कॉप महाबोले के सारे मातहत भी करप्‍ट हैं, इस बात को हमने अपनी एडवांटेज में यूज करना है । एक बार महाबोले की गर्दन हमारे हाथ में आ गयी तो देखना उसके वफादार मातहत ही उसके खिलाफ बढ़ बढ़ के बोलने लगेंगे ।”

नीलेश ने खामोशी से सह‍मति में सिर हिलाया ।
“बाकी इस बात का हमें रंज है कि ‘इम्‍पीरियल रिट्रीट’ के बारे में तुम कुछ न कर सके ।”
“सर, उसके सैकंड फ्लोर पर चलते जुआघर की खुफिया तसवींरे खींचने के लिये वहां एंट्री दरकार है जो कि मेरी कोंसिका क्‍लब के बारमैन-कम-बाउंसर की हैसियत में मुमकिन नहीं थी । बतौर कस्‍टमर मै वहां दाखिला नहीं पा सकता था क्‍योंकि हर कोई मुझे पहचानता है । वैसे एक स्‍ट्रेटेजी मेरे दिमाग में है लेकिन उसके लिये औकात दिखानी होगी । और औकात बनाने के लिये हैल्‍प की जरूरत है जिसकी बाबत मैं आपको दरख्‍वास्‍त भेजने ही वाला था ।”

“अब बोलो । कैसी दरख्‍वास्‍त ?”
“में भेष बदल कर, सम्‍पन्‍न टूरिस्‍ट बन कर वहां जा सकता हूं । इसके लिये किसी एक्‍सपर्ट मेकअप मैन की सर्विस हासिल होनी चाहिये और जुआघर में उड़ाने के लिये रोकड़ा होना चाहिये ।”
“प‍हला काम आसान है । दूसरे के लिये कमिश्‍नर साहब से बात करनी पडे़गी । पुलिस हैडक्‍वार्टर में ऐसे कोई फंड्स उपलब्‍ध नहीं होते । कैसे इंतजाम होगा, कमिश्‍नर साहब बोलेंगे । अभी वेट करो ।”
“वेट करू ? यानी मुझे विदड्रा नहीं किया जा रहा ?”
“तुम्‍हारी इस एक्‍सप्‍लेनेशन की रू में, कि नौकरी से तुम्‍हारी डिसमिसल की वजह तुम्‍हारा राजफाश हो गया होना नहीं है, हम तुम्‍हें थोड़ी और ढ़ील देने का मन बना रहे हैं ।”

“थैंक्‍यू, सर ।”
“लेकिन सावधान ! सूली पर तुम्‍हारी जान है !”
“आई अंडरस्‍टैण्‍ड, सर । ऐज डीसीपी साहब सैड, फोरवार्न्‍ड इज फोरआर्म्‍ड, आई विल बी एक्‍सट्रीमली केयरफुल ।”
“गुड ! वुई विश यू आल दि बैस्‍ट ।”
वार्तालाप वहीं समाप्‍त हो गया ।
***
थाने के अपने कमरे में बैठे महाबोले ने सामाने पड़ा फोन उठाया और उसे कान से लगा कर यूं बोलने लगा जैसे किसी वार्तालाप में शामिल हो, कुछ सुन रहा हो, कुछ कह रहा हो, कुछ पूछ रहा हो ।
थाने में एक ही फोन था जो कि बाहर ड्‌यूटी आफिसर की टेबल पर था और उसी की पैरेलल लाइन उसके पास थी । फोन पर वो जानबूझ कर ऊंचा बोल रहा था ताकि आवाज बगल के कमरे तक पहुंच पाती जहां कि हवलदार खत्री, सिपाही महाले और सिपाही भुजबल तब भी मौजूद थे और अब उनमें भाटे भी जा मिला था ।
 
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