Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट - Page 5 - SexBaba
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Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट

आखिर उसने जानबूझ कर आवाज करते हुए रिसीवर क्रेडल पर पटका और महाले को आवाज लगाई ।
लपकता हुआ सिपाही अनंत राम महाले वहां पेश हुआ ।
“अरे, कोई जना फोन भी सुना करो !” - महाबोले झल्‍लाया ।
“फोन !” - महाले सकपकाया - “कब बजा ?”
“साली ताश से फुरसत हो तो पता लगे न !”
“ताश ! वो तो कब की बंद है !”
“तो सो रहे होगे सबके सब । अभी फोन बजा, किसी ने न उठाया तो इधर मैंने उठाया....”
“साब जी, हमें बिल्‍कुल घंटी सुनाई न दी....”
“अब छोड़ वो बात । मैंने सुन लिया न ! एक ट्रक वाले का फोन था जो कि रूट फिफ्टीन से गुजर रहा था । बोलता है उसने नाले की साइड की रेलिंग से पार ढ़लान पर एक औरत की लाश पड़ी देखी....”

“ऐसीच पिनक में होगा कोई साला ।”
“नहीं होगा तो ? जो उसने रिपोर्ट किया, उस पर हम कान मे मक्‍खी उड़ायेंगे ?”
“अरे, नहीं साब जी ।”
“जा के देखो । तफ्तीश करो ।”
“साब जी, रूट फिफ्टीन तो बहुत लम्‍बी सड़क है.....”
“ठीक ! ठीक ! उधर एक सेलर्स बार है, मालूम ?”
“मालूम ।”
“उससे कोई आधा किलोमीटर आबादी की ओर बोला वो । जहां ‘डीप कर्व अहेड । ड्राइव स्‍लो’ का बोर्ड लगा है, वहां ।”
“मैं समझ गया ।”
“जा के पता करो कि केस है या सच में ही कोई पिनक में बोला ।”

“मैं अकेला, साब जी.....”
“अरे, हवलदार खत्री साथ जायेगा न ! आज गश्‍त पर भी नहीं निकला कुछ तो करे कम्‍बख्‍त !”
“अभी, साब जी ।”
“बोले तो भाटे को भी ले के जाओ । मेरी तरफ से खास बोलना ये उसकी सजा ।”
“ठीक !”
महाले लपकता हुआ वहां से रूखसत हुआ ।
दो मिनट बाद महाबोले को बाहर से जीप के रवाना होने की आवाज आयी ।
एक घंटे में जीप वापिस लौटी ।
हवलदार जगन खत्री ने महाबोले के कमरे में कदम रखा ।
“क्‍या हुआ ?” - महाबोले सहज भाव से बोला - “होक्‍स काल निकली ?”

“नहीं, सर जी” - खत्री उत्‍तेजित भाव से बोला - “लाश मिली । वैसे ही मिली जैसे ट्रक ड्राइवर आपको बोला । वहीं मिली जहां वो बोला ।”
“कोई टूरिस्‍ट ! कोई एक्‍सीडेंट.....”
“टूरिस्‍ट नहीं, सर जी, जानी पहचानी लड़की ।”
“कौन ?”
“नाम सुनेंगे तो हैरान हो जायेंगे ।”
“कर हैरान मेरे को !”
“रोमिला सावंत ।”
“रोमिला !” - खत्री को दिखाने के लिये महाबोले कुर्सी पर सीधा हो कर बैठा - “पुजारा की बारबाला !”
“वही ।”
“ठीक से पहचाना ?”
“सर जी, मैं ठीक से नहीं पहचानूंगा तो कौन पहचानेगा ! रोज तो वास्‍ता पड़ता था ।”

“पक्‍की बात, मरी पड़ी थी ? बेहोश तो नहीं थी ?”
“अरे, नहीं, सर जी । मैंने क्‍या मुर्दा पहली बार देखा ! लट्‌ठ की तरह अकड़ी पड़ी थी ।”
“देवा ! तभी रात को घर न लौटी ।”
“जब रूट फिफ्टीन पर मरी पड़ी थी तो कैसे घर लौटती !”
“ठीक !”
“महाले और भाटे उधर ही हैं । मैं आपको खबर करने आया ।”
“किसी चीज को छुआ तो नहीं ? मौकायवारदात के साथ कोई छेड़ाखानी तो नहीं की ?”
“अरे, नहीं, सर जी । सड़क के पास रेलिंग के पार उसकी एक सैंडल लुढ़की पड़ी थी, उस तक को नहीं छेड़ा ।”

“गुड !”
“लगता है, रेलिंग के साथ साथ चल रही थी कि पांव फिसल गया । गिरी तो रेलिंग के नीचे से होती-या ऊपर से पलट कर-ढ़लान पर लुढ़कती चली गयी । सिर एक चट्‌टान से टकराया तो....मगज बाहर । बुरी हुई बेचारी के साथ ।”
“अरे, ये गारंटी है न कि है वो अपनी रोमिला ही ?”
“सर जी, शक की कोई गुंजायश नहीं । मैं रोमिला को घुप्‍प अंधेरे में पहचान सकता हूं ।”
“बुरा हुआ । लेकिन इतनी दूर रूट फिफ्टीन पर कर क्‍या रही थी ? वो भी पैदल चलती ?”
“क्‍या पता ! बोले तो मौत ने जिधर बुलाना था, बुला लिया ।”
 
“तेरे को पक्‍की है एक्‍सीडेंट का केस है ?”
“नहीं, सर जी, पक्‍की कैसे होगी ?”
“तो एक्‍सीडेंट क्‍यों बोला ?”
“क्‍योंकि लगता था ऐसा । मेरा अंदाजा है कि पांव फिसला.....”
“अंदाजों से पुलिस का कारोबार चलता है ?”
“अब जो मेरे को लगा, मैंने बोल दिया ।”
“पुलिस को हर सम्‍भावना पर विचार करना पड़ता है । क्‍या पता उसे धक्‍का दिया गया हो !”
“क्‍या बोला, सर जी ?”
“कोई लुटेरा टकरा गया हो ! अकेली जान कर लूट लिया हो ! फिर अपनी करतूत छुपाने के लिये उसे रेलिंग के पार ढ़लान पर धक्‍का दे दिया हो ! या खोपड़ी पहले फोड़ी हो और धक्‍का बाद में दिया हो !”

“लेकिन, सर जी, वहां चट्‌टान पर खून....”
“खुली खोपड़ी भी चट्‌टान से टकरा सकती है । क्‍या !”
“बरोबर, सर जी ।”
“बड़ी हद ये हुआ होगा कि चट्‌टान से टकरा कर और खुल गयी होगी और एक निगाह में यही जान पड़ता होगा कि चट्‌टान से टकरा कर खुली ।”
“ब्रीलिंयट, सर जी । मैं आपके दिमाग से क्‍यों नहीं सोच पाता ?”
“मुझे ये किसी नशेबाज का काम जान पड़ता है जिसकी नशे तलब ने अकेली लड़की पर हमला करके उसका माल-जेवर वगैरह-हथियाने के लिये उसे उकसाया । रात को जब मैं गश्‍त पर निकला था” - महाबोले ने ड्रामाई अंदाज से खत्री की तरफ आंखे तरेंरी - “जिस पर कि तेरे को होना चाहिये था....”

“मैं सारी बोलता हूं, सर जी, लेकिन वजह” - खत्री ने हौले से अपनी आंख के नीचे तब भी मौजूद गूमड़ को छुआ - “आपको मालूम है.....”
“ठीक ! ठीक ! साले दो भीङू गये फिर भी पिट के आये । मैने रोनी डिसूजा की भी सूजी थूंथ देखी है ।”
“पीट के भी तो आये, सर जी ! काम करके आये ! अभी और करो अगरचे कि विघ्‍न न आ गया होता ।”
“बस कर । मुझे बात भुला दी । क्‍या कह रहा था मैं ?”
“आप कह रहे थे.....”
“हां । मैं कह रहा था कि रात जब मै गश्‍त पर निकला था तो एक फुल टुन्‍न भीडू मेरी निगाह में आया था.....”

“कहां ?”
“सेलर्स बार के पास ।”
“अरे ! फिर तो, सर जी, यूं कहिये कि मौकायवारदात के पास ।”
“उसके बाद वही बेवड़ा मेरे को जमशेद जी पार्क के एक बैंच पर बैठा फिर दिखाई दिया था और मुझे साफ लगा था कि छुप छुप कर सीधे बोतल से ही घूंट लगा रहा था ।”
“माल हाथ आ गया तो बोतल खरीद ली ! साला जश्‍न मनाने लग गया !”
“मुफ्त के माल की अपनी लज्‍जत होती है ।”
“पण अब तो साला वहां से कब का नक्‍की कर गया होगा !”
“नीट पी रहा था ! क्‍या पता बोतल खींच गया हो !”

“आपका मतलब है, नशे में अभी भी वहीं पड़ा होगा !”
“हो सकता है । पता करने में क्‍या हर्ज है ?”
“बरोबर बोला, सर जी । बोतल का नशा थोड़े में तो नहीं उतर जाता !”
“ठीक ! मैं सब-इंस्‍पेक्‍टर जोशी को बुलाता हूं और रोमिला का केस उसको सौंपता हूं-वो कत्‍ल के केस की ड्रिल जानता समझता है-और खुद तुम्‍हारे साथ चलता हूं क्‍योंकि तुम्‍हें वो जगह तलाश करने में दिक्‍कत हो सकती है जहां मैंने उस बेवडे़ को देखा था ।”
“ये बढि़या रहेगा, सर जी ।”
जीप पर सवार थानेदार और हवलदार जमशेद जी पार्क पहुंचे ।

तब वातावरण में भोर का उजाला फैलना अभी बस शुरू ही हुआ था ।
“वो रहा !” - महाबोले तनिक उत्‍तेजित भाव से बोला ।
ड्राइविंग सीट पर बैठे हवलदार खत्री ने तत्‍काल जीप को ब्रेक लगाई ।
“कहां ?” - वो बोला ।
“वो, जो उधर बैंच पर लेटा हुआ है । साला अभी भी टुन्‍न है । नहीं जानता कि सवेरा हो गया है ।”
“अच्‍छा ही है, सर जी, वर्ना उठ के चल दिया होता ।”
“चल !”
दोनों जीप से उतर कर बेवडे़ की तरफ लपके । वो बैंच के करीब पहुंचे तो हवलदार का पांव नीचे पड़ी बोतल से टकराया और तो गिरते गिरते बचा । गिर गया होता तो जरूर बैंच पर बेसुध पड़े बेवडे़ पर जा कर गिरता । उसके मुंह‍ से एक भद्‌दी सी गाली निकली और वो सम्‍भल कर सीधा हुआ ।

महाबोले बेवडे़ के सिर पर पहुंचा । उसने झुक कर उसके कोट का कालर थामा और उसे इ‍तनी जोर का झटका दिया कि वो बैंच से नीचे जा कर गिरा होता अगरचे कि महाबोले ने उसका कालर मजबूती से न थामा होता । उसने घबरा कर आंखे खोलीं तो प्रेत की तरह सामने आन खडे़ हुए दो वर्दीधारी पुलिसिये उसे दिखाई दिये ।
उसकी घबराइट गहन आतंक में बदल गयी ।
महाबोले ने उसे जबरन उठा कर उसके पैरों पर खड़ा किया ।
हवलदार खत्री ने सामने आकर उसके सिर से पांव तक उस पर निगाह दौड़ाई ।
नहीं, ये आदमी कातिल नहीं हों सकता - उसके दिल ने गवाही दी - ये तो मक्‍खी मारने के काबिल नहीं था । वो पिलपिलाया हुआ, पिद्‌दी सा अधेड़ आदमी था जो खुद ही अधमरा जान पड़ता था, क्‍या वो किसी को मारता ! रोमिला उससे कद में निकलती हुई, उससे कहीं मजबूत, हट्‌टी कट्‌टी लड़की थी, वो तो उस जैसे दो पर भारी पड़ सकती थी ।

महाबोले ने बेवडे़ को हवलदार की तरफ धक्‍का दिया ।
खत्री ने उसे मजबूती से बांह से थामा और उसे जबरन चलाता परे खड़ी जीप की तरफ ले चला ।
“अभी नहीं ! अभी नहीं, ईडियट ! - महाबोले चेतावनीभरे स्‍वर में बोला - “इसके पास कोई हथियार हो सकता है । पहले तलाशी ले इसकी । कैसा हवलदार है जो इतनी सी बात नहीं समझता !”
“सारी बोलता हूं, सर जी । खता माफ !”
उसने फिरकी की तरह बेवडे़ को अपनी तरफ घुमाया ।
 
“कोई हथियार है ?” - वो कड़क कर बोला - “कांटी ! चकरी ! चप्‍पल ! कैसेट !”

बेवड़ा होंठों में कुछ बुदबुदाया ।
“नहीं समझा ।” - महाबोले बोला - “वो जुबान बोल, जो इसके पल्‍ले पडे़ ।”
खत्री ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अबे, चाकू है ?” - उसने बेवडे़ को बांह पकड़ के झिंझोड़ा - “गन है ? पिस्‍टल है ? क्‍या है ?”
वो जोर जोर से इंकार में सिर हिलाने लगा ।
“हाथ ऊपर ! मेरे को तलाशी लेने का ।”
“पण मैं क्‍या किया, साहेब ?” - बेवडे़ ने फरियाद की - “क्‍यों मेरे साथ ऐसे पेश आते हो ?”
“ज्‍यास्‍ती बात नहीं । हाथ ऊपर करता है या मैं दोनों को तोड़ कर तेरी जेब में डाले ?”

उसने तत्‍काल दोनों हाथ सिर से ऊंचे किये ।
खत्री ने तलाशी लेना शुरू किया ।
ज्‍यों ज्‍यों तलाशी का नतीजा सामने आता गया, उसके नेत्र फैलते गये ।
टाप्‍स ! नैकलेस ! अंगूठी ! ब्रेसलेट ! चूड़िया !
“मै इन जेवरों को पहचानता हूं” - महाबोले जानबूझकर अपने स्‍वर में उत्‍तेजना घोलता बोला - “सब रोमिला के हैं ।”
क्‍यों न पहचानता ! हर तीसरे दिन उसके साथ सोने पहुंच जाता था ।
घड़ी !
“इसकी बैक में देख ! रोमिला का नाम गुदा होगा !”
उससे ज्‍यादा कौन इस तथ्‍य से वाकिफ होता ! फ्री राइड अपना हक समझने वाला इंस्‍पेक्‍टर एक बार नशे में इतना जज्‍बाती हो गया था कि रोमिला को घड़ी गिफ्ट कर बैठा था ।

“है, सर जी ।” - खत्री बोला ।
“उसी की है ।”
फिर कायन पर्स बरामद हुआ ।
“इसको तो” - महाबोले बोला - “मैं पक्‍का पहचानता हूं कि रोमिला का है । लेकिन इसे वो अपने हैण्‍डबैग में रखती थी । पूछ, हैण्‍डबैग का क्‍या किया ?”
“हैण्‍डबैग का क्‍या किया, साले ?”
“क-कौन सा.....कौन सा हैण्‍डबैग ?” - बद्हवास बेवड़ा कराहता सा बोला ।
“जिसमें ये पर्स था !”
“म-मेरे को किसी हैण्‍डबैग की खबर नहीं । किसी प-पर्स की खबर नहीं ।”
“पर्स अभी तेरी जेब से बरामद हुआ कि नहीं हुआ ?”
“मेरे को नहीं मालूम ये मेरी जेब में कैसे पहुंचा !”

“तूने पहुंचाया । जैसे जेवर पहुंचाये ! घड़ी पहुंचाई !”
“नहीं ! नहीं !”
“साले ! इतना कीमती सामान कोई दूसरा तेरी जेब में रख गया ? या जादू के जोर से आ गया ?”
“मेरे को नहीं मालूम, साहेब ।”
“तूने कत्‍ल किया । जेवरात की खातिर, कीमती घड़ी की खातिर कत्‍ल किया । हैण्‍डबैग से कोई कीमती सामान न निकला इसलिये उसे कहीं नक्‍की कर दिया । कायन पर्स में नोट थे, इसलिये पास रख लिया । फिर अपनी कामयाबी का जश्‍न मनाने के लिये बोतल खरीदी और साला खाली करके ही दम लिया ।”
“नहीं, नहीं । मैंने ऐसा कुछ नहीं किया । मैं तो एक मामूली....”

“थाने ले के चलो ।” - महाबोले ने आदेश दिया ।
खत्री ने उसे घसीट कर जीप में डाला ।
फिर लौट कर घास में लुढ़की खाली बोतल भी कब्‍जाई जो कि बेवडे़ के खिलाफ सबूत हो सकती थी । कैसे सबूत हो सकती थी, किस बात का सबूत हो सकती थी, इसका उसे कोई अंदाजा नहीं था ।
जीप थाने वापिस लौट चली ।
महाबोले को इस बात की खुशी थी कि जिस शख्‍स को रात के अंधेरे में उसने अपना शिकार बनाया था, वो दिन के उजाले में एक कमजोर, साधनहीन, पिलपिलाया हुआ आदमी निकला था जिससे कत्‍ल का कनफेशन हासिल कर लेना उसके बायें हाथ का खेल होता ।

“साहेब, मैंने किसी का कत्‍ल नहीं किया ।” - रास्‍ते में बेवड़ा गिड़गिड़ाता रहा, फरियाद करता रहा - “मैंने आज तक मक्खी नहीं मारी ।”
कोई जवाब न मिला ।
“साहेब, इतना तो बोलो मैंने किसका कत्‍ल किया ! कब किया ! कहां किया !”
“तेरे को कुछ याद नहीं ? - महाबोले उसे घूर कर देखता बोला ।
“मेरे को कुछ याद नहीं क्‍योंकि मैंने कुछ किया नहीं ।”
“तू रात को फुल नशे में था क्‍योंकि पूरी बोतल डकार गया, अभी तक भी तेरा नशा उतरा नहीं है, रात को तूने नशे में जो कारनामा किया, उसको अब भूल गया होना क्‍या बड़ी बात है !”

“साहेब, जब मैंने कुछ किया ही नहीं...”
“चुप बैठ ! वर्ना देता हूं एक लाफा !”
वो सहम कर चुप हो गया ।
***
ये नीलेश गोखले के लिये भारी इज्‍जत की बात थी कि मुम्‍बई पुलिस के टॉप ब्रास ने उसे चाय के लिये रूकने को कहा था ।
वो जायंट कमिश्‍नर बोमन मोरावाला और डीसीपी नितिन पाटिल के साथ चाय शेयर कर रहा था ज‍बकि डिप्‍टी कमाडेंट हेमंत अधिकारी वहां पहुंचा ।
सबने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा ।
“सारी टु डिस्‍टर्ब यू, जंटलमैन” - वो बोला - “लेकिन खास खबर है ।”
“क्‍या ?” - जायंट कमिश्‍नर बोला ।

“वे लड़की - रोमिला सावंत, जिसकी बाबत मुझे हिदायत हुई थी-बरामद हुई है ।”
“दैट्स गुड न्‍यूज !”
“नो, सर, दैट्स नाट गुड न्‍यूज । रूट फिफ्टीन पर मरी पड़ी पाई गई है । अभी अभी पुलिस ने लाश बरामद की है ।”
“गॉड ! दैट्स टू बैड !”
“कैसे मरी” - डीसीपी पाटिल ने पूछा - “मालूम पड़ा ?”
“अभी नहीं ।”
“ऐनी फाउल प्‍ले ?”
“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता ।”
“एक्‍सक्‍यूज मी, सर ।” - नीलेश से न रहा गया, वो व्‍यग्र भाव से बोला - “लाश की पक्‍की शिनाख्‍त हुई है ?”
“हुई है ।” - अधिकारी बोला - “शक की कोई गुंजायश नहीं । मरने वाली रोमिला सावंत ही है । उसके एम्‍पलायर गोपाल पुजारा ने तसदीक की है । उसकी फैलो बारगर्ल यासमीन मिर्जा ने तसदीक की है । खुद एसएचओ महाबोले भी उससे वाकिफ था, सूरत से पहचानता था ।”

“ओह ! सर” - वो डीसीपी की तरफ घूमा - “मे आई बी एक्‍सक्‍यूज्‍ड ।”
“क्‍या इरादा है ?” - डीसीपी पाटिल बोला ।
 
“सर, मालूम होना चाहिये कि वो स्‍वाभाविक मौत मरी, दुर्घटनावश मरी, खुदकुशी की या उसका कत्‍ल हुआ । उसकी जिंदगी में उससे बात करने वाला मैं आखिरी शख्‍स था । वो अपने सिर पर खतरा मंडराता महसूस करती थी जिसकी वजह से छुपती फिर रही थी । फोन पर साफ साफ घबराई हुई, बल्कि खौफजदा लग रही थी । साफ बोली थी कि आइलैंड से कूच कर जाना चाहती थी । और ऐसा माली इमदाद के बिना मु‍मकिन नहीं था जो उसे मैंने पहुंचाने का वादा किया था । वो रूट फिफ्टीन के करीब के ही एक बार में मेरा इंतजार कर रही थी और मैं फौरन उसके पास पहुंचने वाला था । किन्‍हीं वजुहात से वक्‍त रहते मैं वहां न पहुंच सका, तब तक बार बंद हो गया और मजबूरन उसे बार से बाहर निकलना पड़ा । अब आप ही सोचिए, ऐसे में कैसे वो स्‍वाभाविक मौत मर सकती थी और कैसे खुदकुशी कर सकती थी जबकि उसे मेरे पर भरोसा था, इतना मान था कि मिल जाता तो, मैं उसकी हर मुमकिन मदद करता ?”

“नो, नेचुरल डैथ इज आउट । सुइसाइड टू इज आउट ।”
“फिर बार क्‍लोज हुआ था, उसकी आस नहीं टूट गयी थी । मुझे निश्‍चित तौर पर मालूम है-खुद बार के मालिक ने इस बात को कनफर्म किया था-कि बार बंद हो जाने के बाद वो बार के बाहर अकेली खड़ी मेरा इंतजार करती रही थी । मैंने उसे मुश्किल से सात-आठ मिनट से मिस किया था । इतने मुख्‍तसर से वक्‍फे में कैसे वो बार से दूर कहीं दुर्घटना का शिकार हो गयी ? बार से दूर वो गयी ही क्‍यों ? जब वो निश्‍चय कर ही चुकी थी कि मेरे इंतजार में उसने वहां ठहरना था तो निश्‍चय से किनारा कर लेने का क्‍या मतलब ? एक्‍सीडेंटल डैथ का शिकार होने के लिये वहां से चल देने का क्‍या मतलब ?”

“फिर तो बाकी एक ही आप्‍श्‍ान बची । कत्‍ल !”
“जो कि यकीनन महाबोले ने करवाया । उसको रोमिला की बड़ी शिद्‌दत से तलाश थी-क्‍यों तलाश थी, ये मुझे नहीं मालूम और रोमिला भी मुझे यकीन है कि उसी बचती फिर रही थी-उसने रोमिला के लौटने के इंतजार में, उसके बोर्डिंग हाउस पर निगाह रखने के लिये, थाने का ही एक सिपाही बिठाया हुआ था...”
“कैसे मालूम ?”
“मैंने उसे अपनी आंखों से देखा । भाटे नाम है सिपाही का । दयाराम भाटे ।”
“ओह !”
“किसी तरह से महाबोले को रोमिला की हाइवे फिफ्टीन के उस बार में-सेलर्स बार नाम है-मौजूदगी की खबर लग गयी और वो मेरे से पहले वहां पहुंच गया ।”

“खुद ?”
“या किसी को भेजा ।”
“हूं ।”
“जिसने कि लड़की को थामा और बार से दूर ले जाकर यूं उसका काम तमाम किया कि लगता कि वो दुर्घटना का शिकार हुई थी ।”
“यू हैव ए प्‍वायंट देयर ।”
“मेरे इंतजार से आजिज आ कर अगर वो पैदल वहां से चल दी होती तो वापिस के रास्‍ते पर ही तो चली होती ! जिधर उसका घर था, उधर से उलटी तरफ तो न चल दी होती ! वो वापिसी के रास्‍ते पर चली होती तो मुझे जरूर दिखाई दी होती !”
“पहले ही जान से जा चुकी होती” - एकाएक डिप्‍टी कमांडेंट अधिकारी बोला - “तो कैसे दिखाई दी होती !”

“जी !”
“अधिकारी साहब शायद ये कहना चाहते हैं कि अंधेरे में उसका पांव फिसला और वो रेलिंग के नीचे से होती ढ़लान पर फिसली, तेजी से नीचे की तरफ लुढ़की, रास्‍ते में कहीं सिर टकराया और....खत्‍म !”
“एक्‍सीडेंट !” - जायंट कमिश्‍नर बोला - “हादसा !”
“सर, गुस्‍ताखी माफ” - अधिकारी बोला - “मैं ये नहीं कहना चाहता ।”
“तो ?” - जायंट कमिश्‍नर की भवें उठीं - “तो और क्‍या कहना चाहते हो ?”
“पुलिस ने इसे कत्‍ल का ही केस करार दिया है । और” - उसका स्‍वर ड्रमाई हो उठा - “कातिल गिरफ्तार हो भी चुका है ।”
 
Chapter 4

डीसीपी पाटिल और नीलेश मौकायवारदात पर पहुंचे ।
डीसीपी वर्दी में नहीं था इसलिये उसे उम्‍मीद थी कि उसे वहां कोई पहचानने वाला नहीं था । पूछे जाने पर वा खुद को पत्रकार बता सकता था जो कि इत्‍तफाक से पहले से आइलैंड पर मौजद था ।
नीलेश यूं डीसीपी के वहां आने के हक में नहीं था ।
उस वक्‍त मौकायवारदात पर कई पुलिसिये मौजूद थे और पुलिस जीप के करीब एक एम्‍बूलेंस भी खड़ी दिखाई दे रही थी । उसके पिछले दोनों पट खुले थे जिनकी वजह से फासले से भी भीतर झांका जा सकता था ।
एम्‍बूलेंस फिलहाल खाली थी ।

परे रेलिंग के पास दयाराम भाटे खड़ा था जो कि एक सब-इंस्‍पेक्‍टर के रूबरू था । दोनों में कोई वार्तालाप जारी था जिसमें सब-इंस्‍पेक्‍टर वक्‍ता था और भाटे श्रोता था जो कि रह रहकर संजीदगी से सहमति में सिर हिला रहा था ।
उधर से तवज्‍जो हटा कर नीलेश डीसीपी की तरफ घूमा ।
डीसीपी उसके पहलू में मौजूद नहीं था । उसने इधर उधर निगाह दौड़ाई तो पाया वो रेलिंग के पार की ढ़लान उतरा जा रहा था ।
नीलेश व्‍यग्र भाव से सोचने लगा ।
उसे वहीं ठहरना चाहिये था या डीसीपी के पीछे लपकना चाहिये था !

उसकी अक्‍ल ने यही फैसला किया कि उसे वहीं बने रहना चाहिये था । डीसीपी अपने साथ उसकी हाजिरी चाहता होता तो उसे साथ ले कर जाता ।
पांच मिनट में डीसीपी वापिस लौटा ।
“एक निगाह में एक्‍सीडेंट ही जान पड़ता है” - वो संजीदगी से बोला - “एक सैंडल रेलिंग के पास जरा ही दूर पड़ी मिली । शायद उसी की वजह से लड़खड़ाई और गिर पड़ी । गिरी तो लुढ़कती चली गयी । स्‍लोप बहुत स्‍टीप है इसलिये ढ़लान पर लुढ़कते पत्‍थर की तरह रफ्तार पकड़ती गयी जिसको तभी ब्रेक लगी जबकि सिर जाकर चट्‌टान से टकराया । खोपड़ी तरबूज की तरह खुली पड़ी थी ।”

“सर, किसी न आपको टोका नहीं ?”
“कौन टोकता ! कमीने ड्‌यूटी की तरह ड्‌यूटी करें तो टोकने लायक कुछ दिखाई दे न ! लाश से परे खडे़ दो जने यूं हंस हंस के गप्‍पे हांक रहे थे जैसे बारात में आये हों और एम्‍बूलेंस वालों के स्‍ट्रेचर के साथ नीचे पहुंचने का इंतजार कर रहे थे ।”
“सर, लेकिन जब पुलिस इसे कत्‍ल का केस तसलीम कर भी चुकी है तो....”
“राइट ! राइट ! मैंने वो नतीजा बयान किया जो फर्स्‍ट इंस्‍टेंस में सूझता था, जो रेलिंग के पास पड़ी सैंडल सुझाती थी ।”
“ओह ! सर, अधिकारी साहब ने ये भी तो कहा था कि कातिल गिरफ्तार हो भी चुका है !”

“हां, कहा तो था !”
“कौन होगा बद्‌नसीब ?”
“बद्‌नसीब !”
“सर, लड़की अगर किसी फाउलप्‍ले का शिकार होकर मरी हो तो बद्‌नसीब ही तो !”
“तुम्‍हारा मतलब है कत्‍ल किसी और ने किया और थोपा किसी और के सिर जा रहा है ?”
“गुस्‍ताखी माफ, सर, क्‍या बड़ी बात है ! इंस्‍पेक्‍टर महाबोले के निजाम में यहां जो न हो जाये, थोड़ा है ।”
“ठीक ! वो रेलिंग के पास खड़ा सब-इंस्‍पेक्‍टर केस का इनवैस्टिगेटिंग आफिसर जान पड़ता है । आओ, उससे बात करते है ।”
“सर, मैं भी !”
“क्‍यों नहीं ? ऐनी प्राब्‍लम ?”
“सर, उसके साथ जो सिपाही खड़ा है, वो प्राब्‍लम क्रियेट कर सकता है ।”

“तुम्‍हारे लिये ?”
“जी हां ।”
“देखेंगे ।”
नीलेश हिचकिचाया ।
“अरे, भई, मैं डिप्‍टी कमिश्‍नर आफ पुलिस हूं....”
“लेकिन अभी तो पत्रकार....”
“जरूरत पड़ने पर मै अपनी असलियत उजागर करूंगा तो क्‍या करेगा वो सिपाही या वो सब-इंस्‍पेक्‍टर ! मुझे बहुरूपिया करार देंगे ! मजाल होगी उनकी !”
नीलेश ने हिचकिचाते हुए इंकार में सिर हिलाया ।
“जायंट कमिश्‍नर साथ हैं-जो कि होम मिनिस्‍टर के खास हैं-सारा थाना लाइन हाजिर हो जायेगा । चलो ।”
नीलेश डीसीपी के साथ हो लिया।
वो करीब पहुंचे तो दोनों पुलिसियों ने उनकी तरफ देखा ।
भाटे की नीलेश पर निगाह पड़ी तो उसके नेत्र फैले ।

“साब जी” - एकाएक वो उत्‍तेजित भाव से बोला - “यही है वो आदमी ।”
“कौन आदमी ?” - सब-इंस्‍पेक्‍टर जोशी सकपकाया ।
“जो रात को मरने वाली की तलाश में सुनसान सड़कों पर मारा मारा फिरता था । मरने वाली के बोर्डिंग हाउस पर भी पहुंचा था जहां कि मेरी वाच की ड्‌यूटी थी । मेरे को उल्‍लू बनाकर उसके बोर्डिंग हाउस के कमरे में भी ले गया ताकि इसकी तसल्‍ली हो जाती कि वो भीतर सोई नहीं पड़ी थी ।”
“क्‍यों तलाश थी इसे रोमिला की ?” - सब-इंस्‍पेक्‍टर नेत्र सिकोडे़ नीलेश की तरफ देखता बोला ।
“बोलता था, उसके साथ डेट थी । डेट पर पहुंची नहीं थी इसलिये फिक्र करता था । मैं बोला भूल गयी होगी या डेट क्रॉस कर गयी होगी, ये फिर भी फिक्र करता था । साब जी, मेरे को रात को नहीं खटका था लेकिन अब खटक रहा है, इसकी तलाश में कोई भेद । हमे पूछताछ के लिये इसको थामना चाहिये ।”

“है कौन ये ?”
“आपको नहीं मालूम !”
“क्‍यों, भई ! मेरे पास सारे आइलैंड के बाशिंदो का रेडी रैकनर है !”
“ये कोंसिका क्‍लब का बाउंसर नीलेश गोखले है ।”
“अब नहीं हूं ।” - नीलेश सहज भाव से बोला ।
“क्‍या बोला ?” - सब-इंस्‍पेक्‍टर बोला ।
“कल नौकरी से जवाब मिल गया । खडे़ पैर डिसमिस कर दिया गया ।”
“क्‍यों ?”
“पुजारा बोलेगा न ! पूछना ।”
“मै तुमसे पूछ रहा हूं ।”
“मुझे वजह नहीं मालूम । न उसने मुझे बताई ।”
“पूछी होती !”
“पूछी थी । उसने कोई जवाब नहीं दिया था ।”

“हूं । यहां क्‍यों आये ?”
“रोमिला के साथ जो बीती, वही लाई ।”
“खबर कैसे लगी ?”
 
“मैंने नहीं उठाया, सर ।”
“बात यहां हुई वारदात की हो रही थी ।”
“वो बात तो अब खत्‍म है, सर ।”
“क्‍या !”
“दि केस इज सोल्व्ड ।”
“क्‍या !”
“कातिल गिरफ्तार है ।”
“कौन कातिल ?”
“रोमिला सावंत का कातिल । जिसने उसको लूटने की नीयत से उसका कत्‍ल किया । लूट का सारा माल-मकतूला के जेवरात वगैरह-उसके पास से बरामद हुआ है । और सौ बातों की एक बात, वो अपने जुर्म का इकबाल कर भी चुका है ।”
“दैट्स फास्‍ट वर्क ।”
“जिसके लिये महाबोले की तारीफ करने वाला कोई नहीं । क्‍योंकि वो तो खुद मुजरिम है । आज नहीं तो कल एक डिफेंसलैस औरत से दो सौ डालर की झपटमारी करने के इलजाम में गिरफ्तार होगा । कोई पेशी नहीं, कोई गवाह नहीं, कोई सबूत नहीं, कोई सुनवाई नहीं, सजा-सिर्फ सजा । न जज, न ज्‍यूरी, न दाद, न फरियाद, सिर्फ सजा !”

“तुम बात को जरा ज्‍यादा ही ड्रामेटाइज करने की कोशिश कर रहे हो !”
“सर, अगर आप थाने पधारने वाले हों तो मैं वहां जा के बैठूं ! या आपको साथ ले के चलूं !”
“अभी हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं, जब होगा तो तुम्‍हारे पास एडवांस में खबर पहुंच जायेगी ।”
“मैं उस शुभ घड़ी का इंतजार करूंगा । अब अगर आप इजाजत दें तो मैं केस समेटूं ?”
“यस, प्‍लीज । कम्‍पलीट युअर जॉब ।”
“थैंक्‍यू, सर ।” - उसने ठोक के सैल्‍यूट मारा, जाने के लिये मुड़ा, ठिठका, फिर उसने यूं नीलेश की ओर देखा जैसे पहली बार उसे उसकी वहां मौजूदगी का अहसास हुआ हो ।

“तुम यहां कैसे ?” - फिर माथे पर बल डालता बोला ।
“हमारे साथ है ।” - नीलेश के जवाब देने से पहले ही डीसीपी बोल पड़ा ।
“आपके साथ है ! आप जानते हैं इसे ?”
“हां ।”
“आपको मालूम था ये यहां आइलैंड पर था ?”
“हां । इसीलिये तलब किया ताकि यहां ये हमारा गाइड बन पाता ।”
“कमाल है !” - एक क्षण की खामोशी के बाद महाबोले नीलेश से सम्‍बोधित हुआ - “तुम रात को मकतूला को ढूंढ़ते फिर रहे थे ?”
“हां ।” - नीलेश सहज भाव से बोला ।
“उसके बोर्डिंग हाउस के कमरे में भी गये थे ?”

“हां ।”
“क्‍यों ?”
“क्‍या क्‍यों ?”
महाबोले फट पड़ने को हुआ, डीसीपी की मौजूदगी की वजह से बड़ी मुश्किल से वो खुद पर जब्‍त कर पाया ।
“क्‍यों ढूंढ़ते फिर रहे थे, भई ?”
“वजह वही है, जनाब, जो अब तक बहुत पापुलर हो चुकी है ।”
“मिलने आने वाली थी, आई नहीं, इसलिये उसकी तलाश में आइलैंड खंगालने निकल पडे़ ?”
“ऐसा ही था कुछ कुछ ।”
“बहुत बढ़ बढ़ के बोल रहे हो !”
“ऐसी कोई बात नहीं ।”
“क्‍योंकि डीसीपी साहब की शह है !”
“इंस्‍पेक्‍टर !” - डीसीपी डपट कर बोला ।
“सारी, सर । दैट काईंड आफ स्लिप्‍ड । आई एम सारी अगेन ।” - वो वापिस नीलेश की तरफ घूमा - “मैं मिलूंगा तुमसे ।”

फिर लम्‍बे डग भरता अपने मातहतों के साथ वो वहां से रूखसत हो गया ।
“धमकी सी लगी मुझे उसकी आवाज में ।” - पीछे डीसीपी बोला ।
“मुझे भी, सर ।” - नीलेश बोला ।
“तुम्‍हें हार्म कर सकता है ।”
“पहले से कोशिश में है ।”
“वजह ?”
“श्‍यामला मोकाशी से मेरी मेल मुलाकात से कुढ़ता है-मैंने पहले बोला था कि वो यहां की म्‍यूनीसिपैलिटी के प्रेसीडेंट बाबूराव मोकाशी की बेटी है-मेरा लड़की से मेल मुलाकात के पीछे मकसद क्‍या है, ये मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूं ।”
“ठीक ! लेकिन क्‍यों कुढ़ता है ? उसका क्‍या वास्‍ता है ?”

“है न वास्‍ता, सर !”
“क्‍या ?”
“श्‍यामला पर दिल रखता है । शादी बनाना चाहता है । उसको अपनी प्रापर्टी समझता है । कोई उसकी तरफ आंख भी उठाये तो आंख निकालने पर आमादा हो जाता है ।”
“आई सी । इसलिये तुम्‍हारे खिलाफ है !”
“ये भी एक वजह है ।”
“और भी है ?”
“मेरे खयाल में तो हां ।”
“मसलन, क्‍या ? तुम्‍हारी अंडरकवर असाइनमेंट की तो कोई भनक नहीं उसे ?”
“कह नहीं सकता ।”
“अपनी कुढ़न में, अदावत में, तुम्‍हारे खिलाफ कोई कदम न उठाया ?”
“उठाया । अपने आदमियों से मुझे ठुकवा दिया ।”

“उसके आदमी कौन ? कहीं थाने के ही तो नहीं ?”
“एक तो बराबर था थाने का हवलदार । मैंने कनफर्म किया था ।”
“कमाल है ! ऐसी दीदादिलेरी !”
“खुद को आइलैंड का मालिक समझता है, सर, थाना भी तो आइलैंड पर ही है । थानेदार की सरपरस्‍ती का ही तो जहूरा है कि मातहत मटका कलैक्‍टर है, सट्‌टा एजेंट है । वो भी शरेआम !”
“अब और नहीं चलेगा । समझो पाप का घड़ा भर चुका ।”
नीलेश खामोश रहा ।
“मोकाशी के जिक्र पर याद आया । मैं उससे मिलना चाहता हूं ।”
“कहां मिलेंगे, सर ? मुझे उसका घर मालूम है....”

“अरे, भई, हम क्‍यों जायेंगे उसके घर ! तलब करेंगे उसे ।”
“कहां ?”
“थाने ।”
“जी !”
“थानेदार यहां है और साफ लग रहा है कि बहुत देर तक फारिग नहीं होने वाला । हम जाकर थाने पर कब्‍जा करते हैं और मोकाशी को वहां तलब करते हैं ।”
नीलेश के चेहरे पर संशय के भाव आये ।
“अब ये बात खुल चुकी है कि एक डीसीपी यहां पहुंचा हुआ है । खुद महाबोले ने मुझे पहचाना-पता नहीं कैसे पहचानता था लेकिन पहचाना बराबर-देख लेना, खबर हम से पहले थाने में पहुंची होगी ।”
“फिर तो ठीक है, सर ।”
 
कोस्‍ट गार्ड्‌स की शोफर ड्रिवन जीप पर वो वहां पहुंचे थे और उसी पर वो वहां से रवाना हुए ।
डीसीपी नितिन पाटिल थाने में एसएचओ के कमरे में उसकी कुर्सी पर बैठा था और उसके सामने एक विजिटर्स चेयर पर बाबूराव मोकाशी मौजूद था ।
नीलेश टेबल से परे, एक दीवार से पीठ लगाये खड़ा था ।
मोकाशी की सूरत से लगता था कि बुलावे ने उसको सोते से उठाया था और वो जैसे तैसे आनन फानन तैयार होकर वहां पहुंचा था ।
डीसीपी ने उसे अपना परिचय दिया ।
मोकाशी के नेत्र फैले । वो अपनी हैरानी से उबरा तो सबसे पहले उसने नीलेश पर निगाह डाली ।

“ये यहां क्‍यों मौजूद है ?” - उसके मुंह से निकला ।
“है कोई वजह” - डीसीपी लापरवाही से बोला - “जो इस वक्‍त आपकी समझ में नहीं आने वाली ।”
“इतना तो नासमझ मैं नहीं हूं ! जबसे इस शख्‍स ने आइलैंड पर कदम रखा था, ये मुझे खटकता था । इसकी सूरत से लगता था कि इसने खूब अच्‍छे दिन देखे थे इसलिये मैं इसकी कल्‍पना बारमैन या बाउंसर के तौर पर नहीं कर पाता था ।”
“हम आपकी दूरअंदेशी की दाद देते हैं ।”
“दूसरे, ये आदमी मेरे घर में ही घात लगा रहा था....”
“क्‍या फरमाया ?”

“मेरी बेटी से ताल्‍लुकात बना रहा था । किसी बारमैन या बार बाउंसर की ऐसी मजाल नहीं हो सकती । आपके साथ ये यहां मौजूद है, ये बात इसके बारे में मुझे नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर रही है ।”
“क्‍या ?”
“कहीं मेरे सामने मास्‍टर और सबार्डीनेट की जोड़ी तो मौजूद नहीं !”
डीसीपी हंसा ।
“आपकी बेटी ने मेरी शिकायत की ?” - नीलेश बोला ।
“ये जरूरी नहीं” - मोकाशी बोला - “कि कोई बात किसी की शिकायत से ही मेरी जानकारी में आये ।”
“क्‍या मतलब हुआ इसका ?”
“तुम कल रात लेट नाइट तक श्‍यामला के साथ थे ।”

“उसकी-एक बालिग, खुदमुख्‍तार लड़की की-रजामंदगी से ।”
“लेकिन उस वजह से नहीं जो ऐसी मेल मुलाकात के पीछे होती है । किसी और ही वजह से ।”
“और कौन सी वजह ?”
“अभी बोला न मैंने ! तुम मेरी बेटी को जरिया बना कर मेरे पर घात लगा रहे हो ।”
“क्‍यों भला ?”
“वजह खुद बोलो । वजह इस बात पर मुनहसर है कि तुम डीसीपी साहब से किस हैसियत से जुड़े हुऐ हो ।”
“सब आपकी खामखयाली है । आप एक आम, मामूली आइटम में नाहक भेद निकाल रहे हैं । मैंने श्‍यामला को डेट के लिये प्रोपोज किया, उसने मेरी प्रोपोजल को कबूल किया, बस इतनी सी तो बात है ! आप एक सीधी सी बात में पेंच डालने की कोशिश करें तो मैं क्‍या कर सकता हूं !”

“तुम मेरे को नादान समझने की कोशिश से बाज आ सकते हो । तुम....”
तभी महाबोले ने भीतर कदम रखा ।
डीसीपी हड़बड़ाया ।
महाबोले उसकी उम्‍मीद से बहुत पहले लौट आया था ।
“मुझे” - डीसीपी शुष्‍क स्‍वर में बोला - “तुम्‍हारी कुर्सी से उठना पड़ेगा या तुम्‍हें थोड़ी देर के लिये विजिटर्स चेयर पर बैठना कुबूल होगा ?”
“क्‍यों शर्मिंदा कर रहे हैं, सर !” - महाबोले अदब से बोला - “सब आपका ही तो है !”
“थैंक्‍यू ! प्‍लीज टेक ए सीट ।”
महाबोले मोकाशी के बाजू में बैठ गया ।
उसने परे खड़े नीलेश पर निगाह दौड़ाई ।

डीसीपी ने उसकी निगाह का अनुसरण किया ।
“मिस्‍टर !” - वो बोला - “डोंट स्‍टैण्‍ड देयर लाइक ए टेलीग्राफ पोल । देयर इज ए चेयर बाई युअर साइड । टेक इट ।”
“यस, सर !” - नीलेश बौखलाया सा बोला - “थैंक्‍यू, सर !”
उसने परे पड़ी कुर्सी को अपने करीब खींचा और अदब से उस पर बैठ गया ।
डीसीपी ने सहमति में सिर हिलाया और फिर वापिस महाबोले की तरफ मुंह फेरा ।
“जल्‍दी फारिग हो गये !” - फिर बोला ।
“जी हां ।” - महाबोले ने संक्षिप्‍त उत्‍तर दिया ।
“मालूम होता तो इकट्‌ठे लौटते !”

“उम्‍मीद नहीं थी, सर, इत्तफाक से जल्‍दी फारिग हो गया ।”
“तभी ।” - डीसीपी ने मोकाशी की तरफ देखा - “आप कुछ कह रहे थे !”
“हां ।” - मोकाशी बोला - “मुझे यकीन है कि श्‍यामला से मेल मुलाकात में - जैसा कि ये जाहिर कर रहा है-पर्सनल, सोशल या बायालॉजिकल कुछ नहीं है । हकीकतन ये शख्‍स मेरी बाबत कोई जानकारी निकलवाने के लिये श्‍यामला को कल्‍टीवेट करना चाहता है ।”
“कैसी जानकारी ? आपका कोई खुफिया राज है जिसे आप फाश नहीं होने देना चाहते ? जो आप दिखाई देते हैं, उसके अलावा भी आप कुछ हैं जिसकी खबर आप किसी को लगने नहीं देना चाहते ?”

“ऐसी कोई बात नहीं है ।”
“तो फिर क्‍यों फिक्रमंद है ?”
“ये तो” - उसने खंजर की तरह एक उंगली नीलेश की तरफ भौंकी - “समझता है न कि ऐसी बात है !”
“जब कुछ बात ही नहीं है तो इसकी समझ-बल्कि नासमझी-आपका क्‍या बिगाड़ सकती है ?”
मोकाशी को जवाब न सूझा ।
“बेहतर ये न होगा कि इस पर भाव खाने की जगह आप अपनी बेटी को सम्‍भालें ! ताकि बखेडे़ की जड़ ही खत्‍म हो जाये ! ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी !”
मोकाशी कुछ क्षण खामोश रहा, फिर फट पड़ा - “ये है कौन ?”

“बताओ, भई ।”
“नीलेश गोखले ।” - नीलेश बोला - “कोंसिका क्‍लब का भूतपूर्व मुलाजिम । अब नई नौकरी की तलाश में ।”
“फट्‌टा है ।” - मोकाशी बोला ।
“अब मैं क्‍या कहूं ?” - नीलेश ने बड़े नुमायशी अंदाज से, असहाय भाव से कंधे उचकाये ।
“आप” - डीसीपी ने वार्तालाप का सूत्र अपने हाथ में लिया - “लोकल म्‍यूनीसिपैलिटी के प्रेसीडेंट हैं । ये एक आनरेरी पोस्‍ट है जिसका कोई छोटा मोटा आनरेरियम, मैं समझता हूं, आपका मिलता होगा नो ?”
“यस ।”
“वैसे आप क्‍या करते है ?”
“क्‍या मतलब ?”
“वाट्स योर लाइन आफ बिजनेस ? वाट्स योर सोर्स आफ इनकम ?”

“अच्‍छा, वो !”
“जी हां ।”
“कुछ इंवेस्‍टमेंट्स हैं जिनका डिवीडेंड आता है ।”
“काफी ?”
“हां । काफी ही । हम बाप बेटी दो ही तो हैं ! फिर यहां आइलैंड पर लाइफ इतनी एक्‍सपेंसिव भी नहीं ! इस लिहाज से काफी ही ।”
“कोई सॉलिड इनवेस्‍टमेंट नहीं ? जैसे गोल्‍ड में ! रीयल एस्‍टेट में !”
“न ।”
“किसी बिजनेस में ?”
“किस बिजनेस में ?”
“सवाल मैंने किया था । मेरे से पूछते हैं तो केटरिंग बिजनेस बहुत प्राफिटेबल है । आता सब कुछ क्रेडिट पर है, लेकिन जाता कैश पर है । आई मीन सेल नकद होती है, उसमें उधार का कोई मतलब नहीं ।”

“ऐसे बिजनेस में न मेरा कोई दखल है, न इस बाबत मुझे कभी कोई खयाल आया ।”
“मैंने सुना है कोंसिका क्‍लब के असली मालिक आप हैं !”
उसके चेहरे ने रंग बदला, तत्‍काल वो नार्मल हुआ ।
“गलत सुना है ।” - फिर इतमीनान से बोला ।
“मुमकिन है । टैक्‍स भरते हैं ? भरते हैं तो सालाना ऐवरेज क्‍या है ?
“पाटिल साहब, जब आपने अपना परिचय दिया था, उस वक्‍त शायद मेरे कान बज रहे थे । मुझे सुनाई दिया था कि आप पुलिस के महकमे से हैं । लगता है गलत सुनाई दिया था । आप शायद इनकम टैक्‍स से हैं ।”

पाटिल ठठा कर हंसा ।
“जो आपको सुनाई दिया था” - फिर बोला - “वही ठीक था, जनाब । लैकिन....खैर, जाने दीजिये ।”
“दिया ।”
“क्‍या ?”
“जाने ।”
पाटिल के नेत्र सिकुडे़, उसके चेहरे पर अप्रसन्‍नता के भाव आये ।
“आप मजाक कर रहे हैं ?” - वो शुष्‍क स्‍वर में बोला ।
“जनाब, अभी जब आप इतनी बेबाकी से हंसे तो मुझे लगा कि कोई छोटा मोटा मजाक आपको पंसद आयेगा । लगता है मुझे गलत लगा । माफी चाहता हूं ।”
 
“नैवर माइंड ।” - पाटिल महाबोले की तरफ घूमा - “एसएचओ साहब, आप जानते हैं कि पुलिस को ऐसी बयानबाजी की आदत होती है कि वो चौबीस घंटे में केस हल कर दिखायेंगे, अड़तालीस घंटे में केस हल कर दिखायेंगे, बहत्‍तर घंटे में केस हल कर दिखायेंगे । खुशफहमी का ये आलम होता है कि किसी भी केस में बहत्तर घंटे में केस हल कर दिखायेंगे । खुशफहमी का ये आलम होता है कि किस भी केस में बहत्तर घंटे से ज्‍यादा बड़ी टाइम लिमिट वो कमी मुकर्रर नहीं करते, भले ही केस बहत्तर दिन में हल न हो, कभी भी न हो । इस लिहाज से आपने यकीनन काबिलेतारीफ काम किया है कि कत्‍ल के केस को चौबीस घंटे से भी कम वक्‍त में हल कर दिखाया । न सिर्फ केस हल कर दिखाया, कातिल को भी सींखचों के पीछे खड़ा कर दिया । मर्डर इनवैस्टिगेशन में आपने जो सूझ बूझ और काबिलियत दिखाई, वो काबिलेरश्‍क है । बधाई ।”

“सब कुछ मेरे किये ही न हुआ, सर, जो हुआ उसमें काफी सारा इत्तफाक का भी हाथ था ।”
“फिर भी आपने बड़ा काम किया । और जो आपने इत्तफाक की बात कही, उस पर मैं यही कहूंगा कि एण्‍ड जस्‍टीफाइज दि मींस । नो ?”
“यस, सर ।”
“आपने कहा आपने मुजरिम से उसका इकबालिया बयान भी हासिल कर लिया है !”
“यस, सर । आई हैव इट ड्‌यूली एंडोर्स्‍ड एण्‍ड विटनेस्‍ड ।”
“और मकतूला का जो माल उसने लूटा था, वो भी पूरा पूरा बरामद कर लिया !”
“जी हां । सिवाय कुछ नकद रूपयों के जो कि वो खुद कुबूल करता है कि उसने बोतल खरीदने में खर्च कर दिये थे ।”

“कामयाबी का जश्‍न मनाने के लिये बोतल खरीदी !”
“और पूरी की पूरी पी गया । इसी से साबित होता है कि अपनी कामयाबी से वो कितना खुश था !”
“वो दोनों चीजें मैं देख सकता हूं ?”
“जी !”
“भई, इकबालिया बयान और लूट का माल ।”
“अच्‍छा, वो ! बयान तो यहीं मेज की दराज में है, लूट का माल मालखाने में है, मैं मंगवाता हूं ।”
उसने दोनों चीजें डीसीपी के सामने पेश कीं ।
डीसीपी ने पहले इकबालिया बयान पर तवज्‍जो दी जिसे कि उसने बहुत गौर से, दो बार पढ़ा ।
उस दौरान वहां खामोशी रही ।

“गुड !” - आखिर डीसीपी बोला - “रादर पर्फेक्‍ट !”
“ओपन एण्‍ड शट केस है, सर ।” - महाबोले संतुष्‍ट स्‍वर में बोला - “कहीं झोल की गुंजायश ही नहीं ।”
“ऐसा ही जान पड़ता है ।”
“बेवड़ा था । बोले तो अल्‍कोहलिक । नशे की खातिर कुछ भी करने को तैयार । रोमिला से सूरत से वाकिफ था । उसे अकेली पा कर अपनी तलब के लिये उसके पीछे लग लिया । रूट फिफ्टीन पर जहां वारदात हुई वो जगह रात के वक्‍त सुनसान होती है । इसी बात से जोश खा कर उसने लड़की का हैण्‍डबैग झपटने की कोशिश की, उसने विरोध किया तो उसको खल्‍लास कर दिया । पहले साला हैण्‍डबैग की ही फिराक में था जिसे कि झपट कर भाग खड़ा हुआ होता, मर गयी तो जेवर भी उतार लिये, घड़ी भी उतार ली ।”

“मौके का पूरा फायदा उठाया !”
“बिल्‍कुल !”
“नाम क्या है मुजरिम का ?”
“हेमराज पाण्‍डेय ।”
डीसीपी ने गौर से मालखाने से लायी गयी एक एक चीज का मुआयना किया ।
“हैण्‍डबैग !” - एकाएक वो बोला ।
“जी !” - महाबोले सतर्क हुआ ।
“हैण्‍डबैग नहीं है इस सामान में !”
“वो तो.....बरामद नहीं हुआ ।”
“अच्‍छा !”
“जरूर उसने कैश निकाल कर उसे कहीं फेंक दिया ।”
“मुमकिन है । लेकिन क्या ये अजीब बात नहीं कि कायन पर्स-जो कि हैण्‍डबैग में ही रखा जाता है, और जिसमें कुछ सिक्‍कों के सिवाय कुछ नहीं-वो अपने पास रखे रहा ?”

“अजीब तो है !”
“क्‍यों किया उसने ऐसा ! क्‍या करता जनाना कायन पर्स का ?”
महाबोले के चेहरे पर गहन सोच के भाव उभरे ।
“रोकड़ा ?” - फिर एकाएक चमक कर बोला ।
“क्या ?” - डीसीपी सकपकाया ।
“रोकड़ा ? - नकद रूपया - कायन पर्स में होगा !”
“मुझे तो लगता नहीं कि इसमें नोट रखने की जगह है ! आपको लगता है ?”
“किसी की जिद हो तो ठूंस कर...”
“क्‍यों जिद हो ? क्‍यों ठूंस कर ?”
महाबोले से जवाब देते न बना ।
“जब नाम ही इसका कायन पर्स है तो इसमें नोटों का क्‍या काम ?”

“सर, बेवड़ा था, भेजा हिला हुआ था, खुद नहीं जानता था कि क्‍या कर रहा था !”
“हो सकता है । इस घड़ी वो कहां है ?”
“यहीं है, सर । लॉकअप में ।”
“मैं उससे मिल सकता हूं ?”
“अभी ।”
महाबोले ने उठ कर कमिश्‍नर की कोहनी के करीब मेज की पैनल में लगा कालबैल का बटन दबाया ।
कमरे में हवलदार जगन खत्री दाखिल हुआ ।
नीलेश ने देखा आंख के नीचे उसका गाल अभी भी सूजा हुआ था और अब उस पर एक बैण्‍ड एड भी लगी दिखाई दे रही थी ।
“बेवड़े मुजरिम को ले के आ ।” - महाबोले ने आदेश दिया ।

खत्री सह‍मति में सिर हिलाता वहां से चला गया ।
उलटे पांव वो उसके साथ वहां लौटा ।
डीसीपी ने गौर से उसका मुआयना किया ।
वो एक पिद्‌दी सा, फटेहाल, खौफजदा, काबिलेरहम शख्‍स था जिसकी शक्‍ल पर फटकार बरस रही थी और वो अपने पैरों पर खड़ा आंधी में हिलते पेड़ का तरह यूं आगे पीछे झूल रहा था जैसे अभी गश खाकर गिर पड़ेगा । उसका मुंह सूजा हुआ था, नाक असाधारण रूप से लाल थी और होंठों की बायीं कोर पर खून की पपड़ी जमी जान पड़ती थी । उसकी आंखे यूं उसकी पुतलियों में फिर रही थीं जैसे बकरा जिबह होने वाला हो ।

डीसीपी ने प्रश्‍नसूचक नेत्रों से महाबोले की तरफ देखा ।
“जब पकड़ कर थाने लाया गया था” - महाबोले लापरवाही से बोला - “तो भाव खा रहा था । हूल दे रहा था सीनियर आफिसर्ज से गुहार लगायेगा, मीडिया को अप्रोच करेगा । मिजाज दुरूस्‍त करने के लिये थोड़ा सेकना पड़ा ।”
“आई सी । इसे कुर्सी दो ।”
“जी !”
“ऐनी प्राब्‍लम ?”
“नो ! नो, सर !”
“दैन डू ऐज डायरेक्टिड ।”
“यस, सर ।”
अपने तरीके से अंपनी धौंस पट्‌टी की हाजिरी महाबोले ने फिर भी लगाई । उसके इशारे पर खत्री ने टेबल के करीब एक स्टूल रखा, डीसीपी के इशारे पर जिस पर मुजरिम बैठ गया । फिर डीसीपी ने ही खत्री को वहां से डिममिस कर दिया ।
 
“इधर मेरी तरफ देखो ।” - डीसीपी ने आदेश दिया ।
बड़े यत्‍न से मुजरिम ने छाती पर लटका अपना सिर उठाया और डीसीपी की तरफ देखा ।
“नाम बोलो ।”
“पाण्‍डेय ।”
“पूरा नाम ।”
“हेमराज पाण्‍डेय ।”
“मैं नितिन पाटिल । डीसीपी होता हूं पुलिस के महकमे में । क्‍या समझे ?”
उसके चेहरे पर उलझन के भाव आये ।
“पुलिस के सीनियर आफिसर्ज से मिलना चाहते थे न ! समझ लो मिल रहे हो ।”
“वो तो, साहब” - वो कांपता सा बोला - “मैंने ऐसे ही बोल दिया था ।”
“कोई बात नहीं । बोल दिया तो बोल दिया । कहां से हो ?”

“वैसे तो यूपी से हूं लेकिन पिछले तीन साल से इधर ही हूं ।”
“क्‍या करते हो ?”
“इलैक्‍ट्रीशियन हूं ।”
“अपना ठीया है ?”
“जी नहीं । ज्‍योति फुले मार्केट में एक बिजली के सामान वाले की दुकान पर बैठता हूं ।”
“काम रैगुलर मिलता है ?”
“रैगुलर तो नहीं मिलता लेकिन...गुजारा चल जाता है ।”
“ये वाला भी ?” - डीसीपी ने अंगूठा मुंह को लगाया ।
“नहीं, साहब । कभी कभी ।”
“कभी कभी, जैसे कल रात !”
उसका सिर झुक गया ।
“बाटली लगाते नहीं हो, उसमें डूब जाते हो !”
उसका सिर और झुक गया ।

“मुंह को क्‍या हुआ ?”
उसने जवाब न दिया ।
“बेखौफ जवाब दो । तुम्‍हारे कैसे भी जवाब की वजह से तुम्‍हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा । मैं जामिन हूं इस बात का ।”
उसने व्‍याकुल भाव से महाबोले की तरफ देखा ।
“मेरी तरफ देख के जवाब दो । इधर उधर मत झांको ।”
“वही हुआ, साहेब, जो मेरे जैसे बेहैसियत शख्‍स के साथ थाने में होता है । थानेदार साहब कहते हैं मैंने इनके साथ जुबानदराजी की, इन पर झपटने की कोशिश की ।”
“जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा !”
उसने खामोशी से सहमति में सिर हिलाया ।
“तुमने की थी जुबानदराजी ? की थी झपटने की कोशिश ?”

उसने तुरंत जवाब न दिया, एक बार उसकी निगाह महाबोले की तरफ उठी तो महाबोले ने उसकी तरफ यूं देखा जैसे कसाई बकरे को देखता है ।
“कहते हैं मैं टुन्‍न था” - वो सिर झुकाये दबे स्‍वर में बोला - “फुल टुन्‍न था । इतना कि मुझे दीन दुनिया की खबर नहीं थी, ये भी खबर नहीं थी कि अपनी नशे की हालत में मैंने क्‍या किया, क्‍या न किया । ये लोग मेरा नशा उतारने लगे ।”
“क्‍या किया ? नशे का कोई एण्‍टीडोट दिया ?”
“वही दिया, साहेब, पर अपने तरीके का, अपनी पसंद का दिया ।”

“क्‍या मतलब ?”
“हड़काया, खड़काया, ठोका, वाटर ट्रीटमेंट दिया ।”
“वाटर ट्रीटमेंट ! वो क्‍या होता है ?”
“मुंडी पकड़ के जबरन पानी में डुबोई, दम घुटने लगा तो निकाली, डुबोई, निकाली, डुवोई...करिश्‍मा ही हुआ कि डूब न गया ।”
“बढ़ा चढ़ा के कह रहा है ।” - महाबोले गुस्‍से से बोला - “इसका नशा उतारने के लिये पानी में डुबकी दी थी खाली एक बार ।”
“मालिक हो, साहेब” - पाण्‍डेय गिड़गिड़ाया - “कुछ भी कह सकते हो ।”
“साले, बदले में तू भी कुछ भी कह सकता है ? बड़े अफसर की शह मिल गयी तो झूठ पर झूठ बोलेगा ?”

“मैं तो चुप हूं, साहेब । मैंने तो कोई शिकायत नहीं की, कोई फरियाद नहीं की ।”
“स्‍साला समझता है....”
“दैट्स एनफ !” - डीसीपी अधिकारपूर्ण स्‍वर में बोला ।
चेहरे पर अनिच्‍छा के भाव लिये महाबोले ने होंठ भींचे ।
“इधर देखो ।” - डीसीपी बोला - “ये तुम्‍हारा बयान है ? इस पर तुम्‍हारे साइन हैं ?”
“हां, साहेब ।” - पाण्डेय कातर भाव से बोला ।
“रोमिला सावंत से वाकिफ थे ?”
“हां, साहेब ।”
“कैसे वाकिफ थे ?”
“जब कभी चार पैसे अच्‍छे कमा लेता था तो औकात बना कर कोंसिका क्‍लब जाता था ।”
“उधर वाकफियत हुई ?”

“हां, साहेब । लेकिन मामूली । जैसी किसी हाई क्‍लास बारबाला की किसी मामूली कस्टमर से हो सकती है ।”
“बहरहाल उसे बाखूबी जानते पहचानते थे ?”
“हां, साहेब ।”
“कैसे पेश आती थी ?”
“डीसेंटली । वैसे ही जैस किसी डीसेंट गर्ल का स्‍वभाव होता है । मेरी मामूली औकात से वाकिफ थी, उसको ले कर छोटा मोटा मजाक भी करती थी । लेकिन लिमिट में । इस बात का खयाल रखते हुए कि मेरी इज्‍जत बनी रहे । जैसे मैं बार का बिल चुकता करता था तो पूछती थी, ‘पीछे कुछ छोड़ा या नहीं ! अभी मैं इधर से आफ करके साथ चलूं तो डिनर करा सकोगे कि नहीं’ ।”

“हूं । उम्र कितनी है ?”
“बयालीस ।”
“शादी बनाई ।”
“नहीं, साहेब ।”
“क्‍यों ?”
“बीवी अफोर्ड नहीं कर सकता ।”
“पहले कभी जेल गये ?”
“नहीं, साहेब ।”
“बिल्‍कुल नहीं ?”
वो हिचकिचाया ।
“बेखौफ जवाब दो ।”
“दो तीन बार पहले भी टुन्‍न पकड़ा गया था । रात को हवालात में बंद रहा था, गुलदस्‍ता दिया तो सुबह छोड़ दिया गया था ।”
“गुलदस्‍ता !”
“समझो, साहेब ।”
“तुम समझाओ ।”
“नजराना । शुकराना । बिना कोई चार्ज लगाये छोड़ दिये जाने की फीस ।”
“ठहर जा, साले !” - महाबोले भड़का और उस पर झपटने को हुआ ।
 
“इंस्‍पेक्‍टर !” - डीसीपी बोला तो उसके स्‍वर में कोड़े जैसी फटकार ली - “कंट्रोल युअरसैल्‍फ !”
दांत पीसते महाबोले ने अपना स्प्रिंग की तरह तना हुआ शरीर कुर्सी पर ढ़ीला छोड़ा ।
“पहले कभी” - डीसीपी फिर पाण्डेय से सम्‍बोधित हुआ - “किसी सैक्‍स ऑफेंस में पकड़े गये ?”
“क‍भी नहीं, साहेब ।”
“अब अपनी हालिया पोजीशन के बारे में क्‍या कहते हो ?”
“क्‍या कहूं, साहेब ?”
“सोचो !”
“थानेदार साहब कहते हैं कि मैं बेतहाशा नशे में था इसलिये मुझे याद ही नहीं कि मेरे हाथों रोमिला सावंत का खून हुआ था । मैं झूठ नहीं बोलूंगा, साहेब, कल रात ऐसे नशे में तो मैं बराबर था । और नशे के दौर की किसी बात याद न रह पाना भी कोई बड़ी बात नहीं । अगर मेरे हाथों खून हुआ है तो मुझे इसका सख्‍त अफसोस है । मैंने आज तक कभी मक्‍खी नहीं मारी लेकिन लानत है मेरी नशे की लत पर कि...खून कर बैठा ।”

“लेकिन तुमने क्‍या किया, कैसे किया, कहां किया, ये सब तुम्‍हें याद नहीं ?”
“हां, साहेब ।”
“नशे में तुम रूट फिफ्टीन पर भटक गये, सेलर्स बार के करीब तक पहुंच गये, ये सब तुम्‍हें याद नहीं ?”
“हां, साहेब ।”
“ये भी नहीं कि तुमने मकतूला पर हमला किया और फिर उसे रेलिंग के पार नीचे फेंक दिया ?”
“मुझे याद नहीं लेकिन थानेदार साहब कहते हैं मैंने ऐसा किया तो ठीक ही कहते होंगे !”
“थानेदार साहब नहीं कहते” - महाबोले बोले बिना न रह सका - “तुमने खुद कुबूल किया । कुबूल किया कि तुमने रोकड़े की खातिर, अपनी नशे की लत को फाइनांस करने की खातिर, लड़की का कत्‍ल किया । और ये बात तुम्‍हें भूली भी नहीं थी, बावजूद अपनी बेतहाशा नशे की हालत में नहीं भूली थी ।”

“मैंने ऐसा कहा था, साहेब, लेकिन मजबूरन कहा था ।”
“क्‍यों ?”
“क्‍योंकि आप भूत भगा रहे थे ।”
“क्‍या !”
“आपने कहा था मार के आगे भूत भी भागते हैं ।”
“साले, जो बात मैंने मुहावरे के तौर पर कही, उसे अब मेरे मुंह पर मार रहा है !”
“मुझे एक सवाल पूछने की इजाजत मिल सकती है, साहेब ?”
“क्‍या कहना चाहता है ?”
“आप कहते हैं मैं बेतहाशा टुन्‍न था, अपनी उसी हालत में मैंने खून किया, इसलिये मुझे अपनी करतूत याद न रही !”
“हां ।”
“जब मैं बेतहाशा टुन्‍न था-इतना कि अपनी याददाश्‍त से, अपने विवेक से, अपने बैटर जजमेंट से मेरा नाता टूट चुका था - तो ऐसे हाल में वारदात कर चुकने के बाद मेरे फिर बोतल चढ़ाने का क्‍या मतलब था ? जिस मुकाम पर पहुंचने के लिये नशा किया जाता है, बकौल आपके उस पर तो मैं पहले ही पहुंचा हुआ था, तब मेरी नयी खरीद, नयी बाटली - जो कि आप कहते है मैंने लूट की रकम से खरीदी - मेरे किस काम आने वाली थी ! और अभी आपका ये भी दावा है कि नयी बोतल भी मैं पूरी चढ़ा गया !”

महाबोले मुंह बाये उसे देखने लगा ।
“बहुत श्‍याना हो गया है !” - फिर बोला - “साले, नशा उतरते ही दिमाग की सारी बत्तियां जल उठीं !”
“सवाल दिलचस्‍पी से खाली नहीं” - डीसीपी बोला - “जवाब है तुम्‍हारे पास, इंस्‍पेक्‍टर साहब ?”
“सर, मेरा जवाब इसके इकबालेजुर्म की सूरत में आपके सामने पड़ा है ।”
“आर यू ए ड्रिंकिंग मैन ?”
महाबोले हड़बड़ाया, उसने महसूस किया कि उस घड़ी इस बाबत झूठ बोलना मुनासिब नहीं था ।
“आई एम ए माडरेट ड्रिंकर, सर ।” - वो बोला - “वन ऑर टू पैग्‍स ओकेजनली । हैवी ड्रिंकिंग का मुझे कोई तजुर्बा नहीं ।”

“आई सी ।”
“इसलिये मैं नहीं जानता ड्रींकर किस हद तक जा सकता है ! वो बोतल पी सकता है या नहीं; एक बोतल पी चुकने के बाद दूसरी बोतल पी सकता है या नहीं, इस बाबत मेरी कोई जानकारी नहीं ।”
“हूं । पाण्‍डेय !”
“जी, साहेब ।”
“मकतूला के जेवरात, उसकी कलाई घड़ी, उसका कायन पर्स, ये सब सामान तुम्‍हारी जेबों से बरामद हुआ । इस बाबत तुम क्‍या कहते हो ?”
“बरामद तो बराबर हुआ, साहेब । लेकिन मुझे नहीं मालूम वो सामान मेरी जेबों में कैसे पहुंचा !”
“उड़ कर पहुंचा और कैसे पहुंचा !” - महाबोले व्‍यंगपूर्ण स्‍वर में बोला - “या जादू के जोर से पहुंचा । तुमने तो नहीं रखा न !”

“मैंने ऐसा कब कहा ?”
“तो और क्‍या कहा ?”
“मैंने कहा उस सामान का मेरी जेबों में होने का कोई मतलब नहीं था ।”
“तुमने न रखा ?” - डीसीपी ने पूछा।
“मुझे याद नहीं कि मैंने ऐसा कुछ किया था ।”
“कहीं पड़ा मिला हो ?”
“नहीं, साहेब ।”
“रोमिला तुम्‍हें कहीं मिली, उसने अपनी राजी से अपना सामान तुम्‍हें सौंप दिया ?”
“ऐसा भला क्‍यों करेगी वो ?”
“नहीं करेगी ?”
पाण्‍डेय ने जोर से इंकार में सिर हिलाया ।
“फिर तो एक ही सम्‍भावना बचती है । सामान तुमने छीना ! झपटा ! लूटा !”
“मैं ऐसा नहीं कर सकता ।”

“लेकिन किया ।”
“किया तो मुझे कुछ याद नहीं ।”
“ये भी नहीं कि तुमने उस पर हमला किया ? या रेलिंग से पार ढ़लान से नीचे धक्‍का दिया?”
“साहेब, ये भी नहीं । मै ताजिंदगी कभी किसी से ऐसे पेश नहीं आया । मेरे में एक ही खामी है कि मै घूंट का रसिया हूं....”
“साले !” - महाबोले बोला - “ये एक ही खामी दस खामियों पर भारी है । नशे में टुन्‍न आदमी जो न कर गुजरे, थोड़ा है । अल्‍कोहल की तलब उससे कुछ भी करा सकती है । तू रोमिला से वाकिफ था, तेरी तलब ने तुझे मजबूर किया कि तू उससे अपना मतलब हल होने की कोई जुगत करता....”

“आपकी बात ठीक है, साहेब, लेकिन...”
“…जो कि तूने की । जान ले ली बेचारी की । उसको अकेली पाया तो उस पर झपट पड़ा, उसका हैण्‍डबैग झटक लेने की कोशिश की । उसने विरोध किया तो...अब आगे खुद बक क्‍या किया ! जो पहले मेरे सामने बक चुका है, उसे अब डीसीपी साहब के सामने भी बक ।”
“साहेब, थानेदार साहेब अगर कहते हैं कि ये सब मैंने किया तो मैं भी कहता हूं कि मैंने किया । लेकिन साथ में पुरजोर ये भी कहता हूं कि उस बाबत मुझे कुछ याद नहीं । जो कहा जा रहा है मैंने किया, वो किया होने का मेरे कोई इमकान नहीं ।”

“पाण्‍डेय” - डीसीपी बोला - “ये मेरे सामने तुम्‍हारा इकबालिया बयान है और तुम तसलीम करते हो कि इस पर तुम्‍हारे दस्‍तखत हैं । तुम्‍हारा ये बयान कहता है कि मकतूला रोमिला सावंत तुम्‍हें रूट फिफ्टीन पर राह चलती मिली, अपने नशे की तलब में तुमने उससे कोई रकम खड़ी करने की कोशिश की जिसको देने से उसने इंकार कर दिया । तब तुमने उसका हैण्‍डबैग झपटने की कोशिश की तो उसने तुम्‍हारा पुरजोर मुकाबला किया और तुम्‍हारी कोशिश को नाकाम किया । उसी छीनाझपटी में तुमने उसको धक्‍का दिया और वो वेग से रेलिंग पर से उलट गयी और ढ़लान पर कलाबाजियां खाती गिरती चली गयीं । अब सोच समझ कर जवाब दो, मोटे तौर पर ये सब सच है या नहीं ?”

“मुझे नहीं मालूम । यकीनी तौर पर मुझे कुछ नहीं मालूम । हो सकता है सब ऐसे ही हुआ हो ।”
“हो सकता है नहीं । दो टूक बोलो । एक जवाब दो । ऐसा हुआ या नहीं हुआ ?”
“शायद हुआ ।”
“फिर ?”
“मुझे कुछ याद नहीं । मैं थका हुआ हूं । मेरी सोच, मेरी समझ, मेरा मगज मेरा साथ नहीं दे रहा । मुझे रैस्‍ट की जरूरत है । करने दीजिये । अहसान होगा ।”
“ठीक है । इंस्‍पेक्‍टर !”
“सर !” - महाबोले तत्‍पर स्‍वर में बोला ।
“सी दैट ही गैट्स सम रैस्‍ट ।”

“यस, सर ।”
महाबोले ने हवलदार खत्री को बुलाया और आवश्‍यक निर्देश के साथ मुजरिम को उसके हवाले किया ।
“अब मैं तुम्‍हें कुछ कहना चाहता हूं ।” - डीसीपी बोला - “गौर से सुनो ।”
“यस, सर ।” - महाबोले बोला ।
“मैं नहीं जानता ये आदमी-हेमराज पाण्‍डेय-गुनहगार है या बेगुनाह....”
“मै जानता हूं । गुनहगार है । सजा पायेगा । उसका इकबालिया बयान...”
“इंस्‍पेक्‍टर !”
“सर !”
“डोंट इंटररप्‍ट । पे अटेंशन टु वाट आई एम सेईंग । स्‍पीक ओनली वैन आई एम फिनिश्‍ड ऑर वैन आई आस्‍क यू टु स्‍पीक । अंडरस्‍टैण्‍ड !”
“यस, सर ।” - मन ही मन अंगारों पर लोटता महाबोले बड़े जब्‍त से बोला ।
 
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